life is celebration

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30.12.13

मोदी, केजरीवाल और मीडिया

मोदी, केजरीवाल और मीडिया
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संजय मिश्र
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दिल्ली में राजनीतिक शतरंज की गोटियां बिठाने की चाल हद से ज्यादा चली जा रही है...राजनीतिक खिलाड़ी पर्दे के पीछे हैं और वहां का मीडिया खुद मोहरा बन इसकी अगुवाई कर रहा है... इंडिया में जो वर्ग केजरीवाल के उभार से व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीदें पाले बैठा है वे सुखद अनुभूति से भर उठे होंगे कि अब नरेन्द्र मोदी के बरक्स केजरीवाल को राजनीतिक क्षितिज पर पेश किया जा रहा है... नगर निगम से थोड़ी ही ज्यादा पावर वाले दिल्ली के विधानसभा के सत्ताधीशों से देश में राजनीतिक क्रांति का ज्वार पैदा करने वाले मीडिया में केजरीवाल वर्सेस राहुल गांधी जैसे जुमले का नहीं होना संदेह जगाने के लिए काफी है। आप फेनोमेना के मुरीदों को इस पर चौंकना चाहिए।

ध्यान उस खबर की तरफ भी जानी चाहिए कि दिल्ली सचिवालय से पत्रकार बाहर कर दिए गए... उससे भी बड़ी खबर है कि वे आप की सरकारी टीम पर चीख कर अपनी हैसियत बघार रहे थे... वही पत्रकार जो चिदंबरम की एक अदद एडवाइजरी पर सांसें थाम लेते थे... वही लोग जो कपिल सिब्बल के इशारे पर रामलीला मैदान में रामदेव के समर्थकों पर देर रात हुए बर्बर लाठी चार्ज की विजुवल अपनी बुलेटिनों से गायब कर देते रहे... उनकी वो कारस्तानी याद होगी आपको जब कोर्ट के संज्ञान लेते ही उस लाठी चार्ज के विजुवल बुलेटिनों में छा गए थे... और अगले दिन से ही विजुवल के गायब होने का सिलसिला फिर से शुरू...फिर सचिवालय के बाहर का ये आक्रोश और स्टूडियो में केजरीवाल वंदना दोनों साथ-साथ चलने के क्या मायने हैं? 

मीडिया का क्या है?... उसने अपनी गत पेंडूलम की बना रखी है... उसकी डिक्सनरी में निर्लज्जता जैसे शब्द नहीं हैं... लिहाजा दिल्ली के सत्ता केन्द्रों की मादक आंच के आदी वहां के पत्रकार सयाना बन रहे हैं। पर लालू प्रसाद के बयान ने उनकी पोल-पट्टी को उघार कर रख दिया है। लालू प्रसाद की मानें तो राहुल का कोई मुकाबला नहीं है... मोदी और केजरीवाल की राहुल के सामने कोई राजनीतिक हैसियत नहीं... ये तो बस मीडिया की उपज हैं... यानि राहुल सर्वमान्य हैं और बाकि लोगों की बाकि लोगों से तुलना हो... मीडिया इसी पैटर्न पर आगे बढ़ रहा है...

अब वरिष्ठ कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी के बयान की तरफ मुड़ें... इसमें कहा गया कि केजरीवाल के पास विचारधारा नहीं है... साथ ही ये भी कहा गया कि बिन विचारधारा आम आदमी पार्टी लंबी राजनीतिक पारी नहीं खेल सकती। यानि आप पर चालाकी से हमले भी हो रहे साथ ही सहृदयता दिखा कर केजरीवाल की मोदी से तुलना भी की जा रही है। यानि मोदी की हैसियत को कमतर बताकर बीजेपी को श्रीहीन साबित करने की कवायद भी हो रही। यहां गौर करने वाली बात है कि केजरीवाल की तुलना न तो नीतीश, ममता, पटनायक से हो रही है और न ही लालू, मुलायम से..द्रविड पार्टियां तो उनके कैनवास पर ही नहीं... .

इतना ही नही... फर्ज करिए आप लोकसभा चुनावों में ३०० सीटों पर चुनाव लड़कर इतनी सीटें हासिल करे कि वो तीसरी शक्ति बन जाए तो मौजूदा थर्ड फ्रंट वाले कहां होंगे?... यानि वे चौथी शक्ति बनने को मजबूर होंगे... क्या आपने थर्ड फ्रंट को केजरीवाल रूपी चुनौती की कोई मीमांसा देखी है... .. मीडिया इन संभावनाओं पर चुप्प क्यों है? जाहिर है मीडिया उसी राह पर चलने की होशियारी कर रहा है जिस राह पर वो अन्ना आंदोलन के समय चला...याद करें अन्ना के आंदोलन की अत्यधिक कवरेज कर ये जताया जा रहा था कि विपक्ष है ही कहां? ये भी समझाया जा रहा था कि विपक्ष का रोल तो मीडिया अदा कर रहा है और अन्ना वो खाली राजनीतिक स्पेस भरने आए हैं...


मीडिया की उस समय की चतुराई जिसे खुश करने के लिए थी उसका प्रतिफल दिल्ली चुनाव के नतीजों के रूप में सामने आए हैं... जिसे खुश होना चाहिए उसका लगभग सफाया.... अब फिर से वही चालाकी...उधर बीजेपी के नेता मीडिया के झांसे में आने की लगातार नादानी कर रहे हैं...लिहाजा इस देश के आम लोग जो व्यवस्था परिवर्तन के विमर्श के फोकस में आने की उम्मीद पाले बैठे हैं उन्हें आने वाले समय में घोर निराशा होगी...आप कितने भी वायदे निभाए... अब चर्चा राजनीतिक शुचिता के प्रतीकों को बनाए रखने पर नहीं होगी.... और न ही ग्राम स्वराज के आदर्शों की बारीकियों पर कहीं नजर जमाई जाएगी... जिस कारण आप के होने का महत्व है वो दृष्य से ओझल रहेगा।   

24.12.13

अथ हवा कथा---पाकिस्तान से होकर आती है पछिया हवा

अथ हवा कथा---पाकिस्तान से होकर आती है पछिया हवा 
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संजय मिश्र
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नीतीश कुमार हवा से परेशान हैं... एलर्जी की हद तक... रह रह कर उलाहना...उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए भी अपने इस दुख का इजहार कर गए वे....  प्रकृति भी सोच में पड़ गई हो कि बेचारे हवा से ऐसा कौन सा अपराध हो गया है... जब तक मामला मशीनी हवा (ब्लोअर वाली) में उलझा था तब तक वो इसे इनसानी लीला समझती होगी... पर अबकी निशाना पछवा (पछिया) हवा पर है... प्रकृति का संशय में आना स्वाभाविक... चलिए कुछ पल के लिए उन्हें छोड़ते हैं....

बात समाचार ये है कि नीतीश कुमार ने पहले इतिहास के प्रोफेसर की भूमिका ओढ़ ली थी... और अब वे भूगोल या फिर पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने निकले हैं देश को. ...सच में गर्मी में ये पछिया हवा लू बनकर डराती है... और जब जाड़े का समय हो तो कोल्ड स्ट्रोक का खतरा मंडराता है... इतना तक तो ठीक है पर चिकित्सा विज्ञानी ये भी कहते कि पछिया हवा निरोगी है... इस बात को नीतीश छुपा ले जाते हैं ...नीतीश इस बात को भी छुपा लेते हैं कि पछिया हवा पाकिस्तान से होकर आती है.... 

अब आप सोच रहे होंगे कि पुरबा हवा की बारी कब आएगी? इत्मिनान रखिए चुनाव तक ऐसा होने वाला नहीं है... लिहाजा आपसे ये नहीं कहा जाएगा कि पुरबा हवा रोग लेकर आती है... अब आप क्लाइमेक्स सुनें.... जब पुरबा और पछवा हवा मिलती है तो बारिश होती है... खूब अनाज उपजता है... भुखमरी से निजात का मंसूबा बांधा जाता है... देश ...समाज उत्फुल्ल हो उठता है... खर्च करने का मन भी करने लगता है... ये सब देख उद्योग जगत मुस्कराता है.... 

आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी पहेली है... खुद निर्णय ले लीजिए आप.... बस पछिया की तरफ से मोदी समझिए और पुरबा का प्रतीक नीतीश को मान लें... चुनाव २०१४ तक नीतीश ज्ञान की मीमांसा करते रहें... खुदा-न-खास्ता त्रिशंकु की नौबत आई तो पछिया हवा से पुरबा हवा का मिलन तो न हो पर लिव इन रिलेशन की आकुलता के दर्शन होंगे... आखिर समझदार लोग कहते फिरते हैं कि राजनीति संभावना का खेल है ... हिम पर्वत पर विराजमान इंडिया के लोगों के धर्म वाले अराध्य पुरूष और प्रकृति राजनीति रूपी पछिया और पुरबा हवा की मचलती इस केलि क्रीड़ा को तब निहार रहे होंगे... बस शेष इस पोस्ट को पढ़नेवाले अनुमान लगा लें... जोड़ लें और घटा भी लें...

8.12.13

अहंकार का पराभव...

अहंकार का पराभव (त्वरित टिपण्णी) 
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संजय मिश्र 
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गैरकांग्रेसवाद (नरेन्द्र मोदी के शब्दों में कांग्रेस मुक्त भारत) एक बार फिर दस्तक दे चुका है... विभिन्न राज्यों के चुनावी नतीजे यही संकेत कर रहे हैं... कांग्रेस के हौसले पस्त हैं.... हाल के सालों में बीजेपी की जो डाउनस्लाइड देखी गई वो थमी है और इसके उपर जाने के आसार बन रहे हैं... .. कांग्रेस की घटत और बीजेपी की बढ़त उन जगहों पर हुई है जहां कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट ये आरोप नहीं लगा सकते कि ये दंगों से उपजे पोलराइजेशन का कमाल है। 

एक बड़ा सबक जेडीयू को मिला है... नीतीश और उनका पूरा मंत्रीमंडल कई दिनों तक दिल्ली में कैंप किए रहा... आम आदमी पार्टी से ज्यादा खर्च और केंपेन के बावजूद जनता ने उन्हें खारिज किया है... संदेश यही कि कांग्रेस के साथ नीतीश जाएंगे तो नकारे जाएंगे... दिलचस्प है कि दिल्ली में बिहार के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं और वहां वोटर हैं...बिहारियों का ये मानस चौंकाता है... बिहार के अधिकांश लोग लालू एरा के शुरूआती चरण में ही दिल्ली चले गए थे और इनमें कांग्रेस के लिए वो तल्खी नहीं रही जो बिहार में रह रहे उनके परिजनों की रहती है... बावजूद इसके नीतीश की महत्वाकांक्षा को पर लगने का मौका नहीं दिया दिल्ली के लोगों ने... नीतीश की पराजय इस मायने में भी है कि वो मायावती की बीएसपी वाली परफारमेंस (दिल्ली के पिछले चुनाव में) तक नहीं पहुंच सके। 

महंगाई का डंक और उपर से कांग्रेसी नेताओं के जले पर नमक छिड़कने वाले बयानों का हिसाब चुकता करने वाली जनता ने केजरीवाल को सर आंखों पर बिठाया है...कांग्रेस के अहंकार को शिकस्त मिली है...  अप्रत्याशित और पॉलिटिकल क्लास को डराने वाले आंदोलनों का गवाह रही दिल्ली की जनता ने उन आंदोलनों को निर्ममता से कुचलने की कांग्रेसी निरंकुशता का जवाब भी दिया है... न जाने राजबाला की आत्मा कैसा महसूस कर रही हो.... जो पॉलिटिकल अनालिस्ट उन आंदोलनों को मीडिया का क्रिएशन बता कर खारिज कर रहे थे उन्हें भी सीमित संदर्भ में वोटरों ने जवाब दिया है। 

निश्चय ही केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को नया नजरिया और नई ग्रामर दी है... ये आंदोलन के समय से लेकर चुनावी समर के नतीजों तक में उन्होंने दिखाया है... सभी जानते हैं कि अन्ना को केजरीवाल की मेहनत से वो शोहरत मिली जिसने उनमें गांधी का अक्स ताकने के लिए आज की युवा पीढ़ी को ललचाया...राष्ट्रीय फलक पर अन्ना सबके चहेते बने...नतीजों के बीच केजरीवाल को जो पॉलिटिकल पंडित सेहरा देने को मजबूर हुए हैं वो कल तक आम आदमी पार्टी को नकारते रहे... आज भी ये वर्ग यही साबित करने पर तुला है कि आप ने सेक्यूलर स्पेस को मजबूती दी है... बावजूद इसके कि आप राष्ट्रवादी स्पेस की शक्ति है... यही लोग आरएसएस से आप के लिंक को खोजते रहते थे... इस बात को छुपाते हुए कि आंदोलन के समय अन्ना के लोगों को माओवादियों ने भी ऑन रिकार्ड समर्थन दिए थे।

दिल्ली सिटी एस्टेट जैसा है... संभव है लोकसभा चुनावों के समय केजरीवाल ग्रामीण भारत में वैसा चमत्कार नहीं दुहरा पाएं... पर राजनीति को बदलने लायक मिजाज लोगों में विकसित जरूर कर दिया है...उनके आलोचक कहते कि मुद्दों के आधार पर लंबी पारी नहीं खेली जा सकती.... यानि विचारधारा या फिर वैचारिक आधार होना जरूरी है...आप के नेताओं पर यकीन करें तो उनका वैचारिक आधार ग्राम स्वराज की कल्पना को नए संदर्भ में परिभाषित करना है... ग्राम स्वराज शब्द पर फोकस पड़ेगा और ये कांग्रेस को डराएगा जबकि बीजेपी को सचेत रखेगा...  सोनिया नतीजों के बाद ये कहने को मजबूर थीं कि सही समय पर पीएम उम्मीदवार का एलान होगा तो राहुल ने आप से सबक सीखने की शालीनता दिखाई....आप के कारण राजनीति का तात्विक अंतर बीजेपी को दिल्ली की तरह (हर्षवर्द्धन को सीएम उम्मीदवार बनाने जैसे कदम) मजबूर करेगा कि ये - पार्टी विद अ डिफरेंस - की अपेक्षाकृत ज्यादा स्वीकार्य छवि की ओर लौटे... गडकरी ने आठ दिसंबर की शाम जब कहा कि बीजेपी विपक्ष में बैठना पसंद करेगी... तो एक अर्थ में ये आप की राजनीति के असर को स्वीकारना भी है...बरना कांग्रेस की नापसंदगी का फायदा तीसरे मोर्चे का समूह भी उठा ले जाएगा।





19.11.13

शह और मात के बीच चुनावी समर

शह और मात के बीच चुनावी समर
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संजय मिश्र
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बड़े ही रोचक दौर में आ गया है चुनावी समर.... एक तरफ बयान और आरोप नीचता की पराकाष्ठा की तरफ सरक रहे हैं तो दूसरी ओर राजनीतिक शुचिता और नैतिकता पर भी विमर्श हो रहा है... पहली श्रेणी की तल्ख सच्चाई है कि ये इस देश के लोगों को उस हद तक शर्मशार करेगी कि उन्हें कान बंद करने पड़ेंगे.... माधुरी प्रकरण पर जिस तेजी से कांग्रेस आगे बढ़ रही है... वो खतरनाक ही नहीं है बल्कि किसी दिन यूपी से लेकर स्पेन तक के पट खुलने की क्षमता रखते... ... दोनों प्रमुख दलों के अलावे क्षेत्रीय दलों ने मुंह खोला तो फिर पेंडोरा बॉक्स खुल जाएगा... बिहार के लोग नीतीश के संबंध में राबड़ी के बयानों को याद करवाएंगे तो कर्पूरी ठाकुर के संजय गांधी बोटेनिकल गार्डेन तक की यात्रा आपको करनी पड़ सकती है... ऐसा अन्य राज्यों में भी हो सकता है... आप पर नेताओं को रहम न आया तो बात बढ़ते-बढ़ते नेहरू से गांधी तक पहुंच जा सकता है... ये अत्यधिक खतरनाक खेल होगा... न जाने कांग्रेस को ऐसी सलाह कौन दे रहा है?... 

दूसरी तरफ का नजारा थोड़ी उम्मीद जगाता है... अन्ना की चिट्ठी प्रकरण से लोगों को गांधी और नेहरू के बीच के रिश्ते जैसी महक आ रही होगी... ... गांधी ने कहा था कि कांग्रेस राजनीति छोड़े और गांवों में जाकर काम करे... अन्ना और केजरीवाल के बीच का मतभेद उसी तरह का है....बेशक जिस तरह कांग्रेस और समाजवादी दलों के नेताओं को गांधी और जेपी के आंदोलन को याद करने का अधिकार है उसी तरह आप पार्टी के नेताओं को अन्ना के आंदोलन की विरासत को याद करने का अधिकार है..... लेकिन इसकी आशंका भी हो सकती है कि कांग्रेस और समाजवादी दलों ने जिस तरह उन आंदोलनों की आत्मा से खिलवाड़ किया उसी तरह आप पार्टी भी अन्ना आंदोलन की विरासत से बाद में भटक जाए...

इन दोनों परिदृष्य के बीच चिंताजनक पहलू ये है कि २०१४ के चुनाव में अभी लंबा वक्त है और उम्मीद के पहलू कहीं कीटड़ उछाल राजनीति में दब न जाएं... वोटर के लिए बड़ी चुनौती है सामने ...

27.10.13

धमाकों के साए में हुंकार रैली

धमाकों के साए में हुंकार रैली .... 
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संजय मिश्र
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पटना का गांधी मैदान २७ अक्टूबर को राजनीति के एक और ऐतिहासिक पल का गवाह बना...नरेन्द्र मोदी की रैली में जुटे हुजूम के बीच एक के बाद एक बम धमाके होते रहे... ये पल इतिहास में इसलिए दर्ज होंगे कि बीजेपी समर्थकों ने धमाका स्थलों को छोड़ बाकि किसी जगह से हिलना गवारा नहीं समझा... मौत के साए में अपने प्रिय नेता का भाषण सुनने की ऐसी मिसाल शायद ही दिखे... और राज्य के आला अधिकारियों की ओर से रैली स्थल न जाने की सलाह के बावजूद नरेन्द्र मोदी का गांधी मैदान जाकर तकरीर करना...ये रैली इसलिए भी ऐतिहासिक कही जाएगी कि इसे रोकने की कोशिशों का सिलसिला देश में संभवतह इतना लंबा कभी नहीं खिंचा होगा....
संख्या के लिहाज से हुंकार रैली जेपी और लालू की रैली की श्रेणी में आती है... विषम माहौल में मोदी का भाषण कई कारणों से स्पष्टता लिए हुए था... ये तय हो गया कि बिहार और देश के लिए बीजेपी की सोशल इंजिनीयरिंग का कैसा रूप होगा... जहां बिहार और यूपी में मोदी की नजर पिछड़ों के वोट में सेंध लगाने पर है वहीं मुसलमानों के संबंध में बीजेपी के पीएम उम्मीदवार ने अपना नजरिया बेहतर तरीके से खोला... उन्होंने साफ कर दिया कि सबका साथ और सबका विकास की उनकी तमन्ना में हिन्दू-मुसलिम सहभागिता की गुंजाइश है... गरीबी के खिलाफ लड़ाई में इस एकता की वकालत... राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद से मोदी की तरफ से पांच मौकों पर गुजरात दंगों के लिए अफसोस जताने की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए..
दिलचस्प है कि बीजेपी नेता ने सरदार पटेल की मूर्त्ति प्रकरण पर जोर नहीं दिया... उम्मीद थी कि इसके बहाने वो कोइरी-कुर्मी वोट बैंक में एंग्जाइटी पैदा करेंगे... रैली के दौरान हुए सीरियल बम ब्लास्ट के संबंध में बड़े ही रोचक पहलू सामने आ रहे हैं... नीतीश कहते हैं कि इस तरह का वाकया बिहार में नहीं हुआ था लिहाजा कोई चूक नहीं मानी जानी चाहिए... बेशक दुनिया की हर घटना अपने आप में अनूठी ही होती पर उन्हें याद रखना चाहिए कि बिहार के ही समस्तीपुर जंक्शन पर लोगों को संबोधित करने के दौरान राज्य के पहले विकास पुरूष एल एन मिश्र को बम ब्लास्ट में उड़ा दिया गया था... सात धमाके रिकार्ड हुए और चूक न हुई ये हजम करने वाली थ्योरी नहीं हो सकती..
ये कहना मुनासिब न भी हो कि राजनीतिक विरोधी की ये चाल है ... पर जिस तरीके से पिछले कई महीनों से रैली को नहीं होने देने की नीचता दिखाई जा रही थी उसका नाजायज फायदा अवांछित तत्वों ने उठाया होगा इससे नीतीश कैसे इनकार कर सकते....? वैसे भी इस राज्य में राजनीतिक पटखनी देने के लिए असामाजिक तत्वों का सहयोग लेने की परंपरा रही है... नीतीश कुमार को मलाल हो रहा होगा कि इतने लोगों को जुटा लेने की हैसियत उनकी नहीं बन पाई है...वे रिजनल क्षत्रप ही बने रह गए.. ये भी चिंता सता रही होगी कि पीएम की रेस में वो कोसों पीछे हो गए हैं... पर उनकी असल चिंता इस बात में निहित होनी चाहिए कि चापलूसों के कारण जिस राजनीतिक नीचता की संस्कृति को ढो रहे हैं उसके कारण उनकी जेंटलमैन पॉलिटिशियन की यूएसपी पूरी तरह छिजती जा रही है...


7.10.13

मोदी से बेचैन क्यों है कांग्रेस?

मोदी से बेचैन क्यों है कांग्रेस?
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संजय मिश्र
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आंध्र-प्रदेश जल रहा है और इसकी आंच दिल्ली तक आ गई है। इससे बेफिक्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी राग अलाप रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी के पीएम उम्मीदवार बनने से सेक्यूलर वोट के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा न कि इसके विरोध में। मुजफ्फरनगर के हृदयविदारक दंगों के बाद का कांग्रेसी मंशे का ये गंभीर इजहार है। ये सत्तारूढ़ दल के जेहन को उघारता है। ये उस समय के बयानों की कंटिनियुटी है जब नरेन्द्र मोदी को बीजेपी की तरफ से सेंटरस्टेज पर लाने की खबरें छन कर निकली थी। तब दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल सरीखे कांग्रेसी नेता जश्न की मुद्रा में कहते फिर रहे थे कि कांग्रेस की २०१४ की आधी चुनावी फतह इसी से हो जाएगी। देशवासी हैरान हुए थे।

सतह पर आई उस खबर से बीजेपी में जो तल्खी बेपर्द हुई वो अब जाकर थमी है। पार्टी को - समय आने पर सब साफ होगा - जैसे जुमलों का सहारा लेना पड़ा था तब। मोदी आज बीजेपी के विधिवत पीएम उम्मीदवार के तौर पर सभाएं कर रहे हैं। कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार की घोषणा टाल दी है। जश्न की उसकी मुद्रा खो सी गई है। मोदी के एक बयान पर औसतन आधे दर्जन कांग्रेसी नेता मैदान में कूद पड़ते हैं। वे भाषाई मर्यादा भूलने लगे हैं। कभी उज्जड शैली में मोदी पर भड़ास निकाल लेते तो कभी आडवाणी से दरियादिली दिखा बैठते। मुसलमान वोटों की आस पूरी होने की कल्पना के बावजूद बेचैनी किस बात की है? गाहे-वगाहे बीजेपी को शिष्ट राजनीति की नसीहत क्यों दी जा रही है? 

लंदन की वेस्ट-मिंस्टर शैली की राजनीति के चाहने वाले इंडिया में धकियाए हुए हैं... यहां रोबस्ट और राजा-महराजा के दरबार की मानिंद साम, दाम, दंड, भेद वाली रीति-नीति का ही जोर है... ये खुरदरा है... और नफासत वाली संसदीय परिपाटी के पैरोकारों को चिढ़ाने के लिए काफी है... सुविधा के हिसाब से कांग्रेस इस सुसंस्कृत डिबेटिंग परिपाटी की बीजेपी को अक्सर याद दिलाती रहती है। जब चिदंबरम बीजेपी के जसवंत सिंह को पत्रकारों के सामने जेंटलमैन पॉलिटिसियन कह कर पुकारते हैं तो वहां एक मकसद होता है। भले जसवंत इस कांग्रेसी उद्गार से फूले नहीं समाते हों।

लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सांसद जब सदन में उसी वेस्टमिंस्टर शैली में कांग्रेस की बखिया उघेरते हैं तो सोनिया के एक इशारे पर कांग्रेसी विशुद्ध भारतीय शैली में उधम मचाने को आमादा हो जाते। तो फिर बीजेपी में आडवाणी को हाशिए पर धकेले जाने और इस बुजुर्ग नेता के बीजेपी अध्यक्ष को लिखे पत्रों पर आंसू बहाने वाले कांग्रेसी नेताओं का इरादा सवाल खड़े करता है। ये महज मजा लेने के लिए नहीं होता। और न ही ऐसे मौकों पर मीडिया की दिलचस्पी सिर्फ चिकोटी काटने तक सीमित रहती है।

दरअसल कांग्रेस राजनीतिक दाव-पेंच में इतनी माहिर है कि बीजेपी के इन शालीन कहे जाने वाले सितारों का मनमर्जी सहयोग ले लेती है। और फिर कुछ ही समय में ऐसे पछाड़ती है कि बीजेपी को कड़वा घूंट पीने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता है। ये सदन का जाना पहचाना नजारा होता है। बीजेपी भी मानती है कि उससे भद्रलोक राजनीति की कांग्रेसी अपेक्षा एक चाल होती है। और इसी चाल से संदेश पाकर देश के सार्वजनिक जीवन में फैले कांग्रेस के मोहरे मोर्चा संभाल लेते हैं। बीजेपी के लिए ये जाल में फसने जैसा होता है। अब जबकि बीजेपी ने आक्रामक तेवर वाले नरेन्द्र मोदी को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस की सांस फूली हुई है।

कांग्रेस उन नेताओं से खार खाती है जो अक्खर और रूखड़े छवि वाले होते हैं। नरेन्द्र मोदी ऐसे ही राजनेता हैं। बड़बोले लालू प्रसाद भी इसी तरह के नेता रहे हैं। याद करिए लालू युग को जब बिहार में कांग्रेस की हैसियत आरजेडी की पिछलग्गू की तरह थी। लालू तय करते थे कि कांग्रेस की तरफ से चुनाव में किसको टिकट मिलेगा। लालू के रूतबे का असर तो सीपीआई पर भी था। आरजेडी सुप्रीमो के कहने पर ही लोकसभा चुनाव में भोगेन्द्र झा की टिकट कटी और चतुरानंद मिश्र उम्मीदवार बनाए गए... साथ ही लालू के सहयोग से जिताए भी गए।

नरेन्द्र मोदी की खासियत है कि वो कांग्रेस को चौंकाते हैं... छकाते भी हैं... और बार-बार ऐसा करते हैं। ये अदा आडवाणी-सुषमा ब्रांड राजनीति से अलग होती है। कांग्रेस की रणनीति धरी की धरी रह जाती है। वे अनुमान नहीं लगा पाते कि मोदी की अगली चाल क्या होगी? पारंपरिक राजनीति के हिसाब से रणनीति बनाने वाली कांग्रेस को सपने में भी अहसास नहीं था कि मोदी की सभा में उनके समर्थक टिकट खरीदकर आएंगे। कांग्रेस का बुद्धिजीवी और मेनस्ट्रीम मीडिया वाला मोर्चा फासीवाद की परिभाषा के हिसाब से मोदी के भाषण के शब्दों की पोस्टमार्टम करता रह जाता है।


पर कांग्रेस को अपनी उस लोच पर यकीन है जिससे वो पिछलग्गू भी बन जाती और मौका आने पर विरोधी को पैरों में भी झुकाती है। लालू, मुलायम और मायावती इसके क्लासिक उदाहरण हैं। इससे कांग्रेस को सहयोगी मिल जाएंगे। कांग्रेस इस ताक में भी है कि बीजेपी के उमंग में खूब इजाफा हो ताकि वो गलतियां करे। उसकी उम्मीद मोदी के पिछड़ा कार्ड पर भी टिकी है जो रिजनल क्षत्रपों को कमजोर बना सकता है। कांग्रेस को अहसास है कि मोदी फैक्टर स्थापित समीकरणों को बेपहचान बना रहा है। फिलहाल नरेन्द्र मोदी के चलते चुनावी फिजा अभी से रोमांचक हो गई है।              

3.10.13

सजा नहीं... नीतीश का प्रदर्शन लिखेगा लालू एरा के खात्मे की पटकथा

सजा नहीं... नीतीश का प्रदर्शन लिखेगा लालू एरा के खात्मे की पटकथा
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संजय मिश्र
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लालू एरा अब ढलान पर सरकने लगा है.... ११ साल तक चुनाव नहीं लड़ पाने की सजा मास्टर स्ट्रोक है... पर इस युग की कहानी का अंत सबसे ज्यादा नीतीश पर निर्भर है...नीतीश जिस तेजी से लोगों का आह्लाद खो रहे वो लालू के आभामंडल के सरकने की गति को थाम भी सकती है...बिहार के सीएम ने बड़ी राजनीतिक-प्रशासनिक गल्तियां की तो संभव है २०१४ के चुनाव तक आरजेडी के प्रभाव में कोई कमी न आए... इसलिए कि लालू की मुश्किलों के वक्त यादव जाति के लोग चट्टानी एकता दिखाते हैं... ये देखना दिलचस्प होगा कि मुसलमान क्या करते हैं..?   मुसलमान बड़े ही रणनीतिक अंदाज में वोटिंग पैटर्न दिखाते हैं... इन्हें अहसास होगा कि अब लालू का साथ छोड़ दूसरों का दामन थामने में भलाई है तो वे लालू का साथ छोड़ देंगे.... यहां याद दिलाना उचित होगा कि जगन्नाथ मिश्र कभी मुसलमानों के सबसे चहेते हुआ करते थे.... देश भर में...इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री को मुहम्मद जगन्नाथ तक कहा जाने लगा था.... लेकिन बाद में मुसलमानों ने उनका साथ छोड़ दिया ... वो दौर भी दिखा जब जगन्नाथ मिश्र अपने बेटे की चुनावी जीत के लिए मुसलमानों की चिरौरी करते पाए गए.... ये देखना दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यक समाज लालू का साथ किस गति से छोड़ना चाहता है... भरोसा तोड़ने की उनकी रफ्तार धीमी हुई तो फिर लालू के पुत्रों को अनुभव हासिल करने और एक तिरस्कृत नहीं किए जा सकने वाले राजनीतिक शक्ति बना लेने का मौका मिल जाएगा... ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आरजेडी के बड़े नाता बगावत कर पार्टी को न तोड़ें...जो लोग लालू की लोकप्रियता के कायल रहे हैं वे भूल जाते हैं कि लालू को कभी थंपिंग मेजोरिटी हासिल नहीं हुई... कभी जेएमएम तो कभी कांग्रेस का साथ लेना पड़ा सरकार बनाने में... ऐसा क्यों हुआ..? उन्होंने अपने समर्थकों को बेकाबू हद तक जगाया... जातीए वैमनस्य पैदा कर... पर उनकी ताजपोशी किसी आंदोलन का प्रतिफल नहीं थी... रघुनाथ झा के मैदान में कूद पड़ने के कारण वो सीएम बन गए थे... और रामसुंदर दास हार गए... कर्पूरी ठाकुर की तरह जमीनी स्तर पर काम करते-करते उंचाई पर नहीं पहुंचे थे वे... क्राति की उपज(जेपी आंदोलन की विरासक का श्रेय लालू या नीतीश को नहीं दिया जाना चाहिए)  नहीं थे सो पराभव संभव है... कोई पारदर्शी विजन नहीं था... और न ही उसके अनुरूप कार्यनीति...प्रशासन को हड़काया... पर उसके डेलिवरी सिस्टम को असरदार बनाने के लिए नहीं... उल्टे उनके राज में यही प्रशासन लूटखसोट में नेताओं का खूंखार साझीदार बन बैठा.....  करिश्मा और देसी अंदाज के बल पर चमके ... लिहाजा सीएम बनने के बाद जिन पिछड़ों को जगाया वो अपना हिस्सा लेने किसी भी सोशल इंजीनियारिंग का हिस्सा बन सकते थे और ऐसा हुआ भी... लालू कहते कि राजनीति में कोई मरता नहीं... पर उन्हें पता है कि हाशिए पर जरूर धकेल दिया जाता है... खुद उन जैसों ने वीपी सिंह को धकेला था... ये तो सत्ता का निष्ठुर चरित्र है... लालू जितना जल्द इसे समझ अपनी वागडोर सौंपें उतना ही अच्छा रहेगा उनकी राजनीतिक विरासत के लिए...बिहार की राजनीति में तीसरा कोन बने रहने के लिए...पर एक क्रेडिट लालू प्रसाद को जरूर मिलना चाहिए... अन्ना के आंदोलन के बाद से जो माहौल बना... लालू के जेल जाने के कारण हुक्मरानों को सबक जरूर मिलेगा...  

28.9.13

ये कशमकश है जो राहुल के बयान में छलका...

ये कशमकश है जो राहुल के बयान में छलका...
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संजय मिश्र
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दागी मंत्रियों पर लाए गए आर्डनेंस के खिलाफ राहुल के गुब्बार को हल्के में नहीं लेना चाहिए...इसलिए भी कि कांग्रेस इस देश की डेस्टिनी को प्रभावित करता है... लगातार सत्ता में रहने के कारण गवर्नेंस, शिक्षा, अर्थनीति, सामाजिक व्यवहार... पर ये दल अच्छा और बुरा दोनों तरह का असर डालता रहा है... ये महज किसी दल के अंदर का मामला नहीं है...लोगों के मानस में कांग्रेस रहती है इसलिए उस दल में क्या हो रहा है उससे इस देश को चिंतित होना चाहिए....  बिल को फार कर फेंक देने जैसे बयान दरअसल कांग्रेस की उस कशमकश का नतीजा है जो पार्टी में चल रहा है...  कांग्रेस में दो धारा है इस समय... एक राहुल की अगुवाई में जो कुछ बेहतर करने की दिशा में बढ़ना चाहता... दूसरा धरा उन नेताओं का है जो सब चलता है वाली पारंपरिक राजनीति (जिसमें साम, दाम, दंड, भेद से मोहब्बत है) के हिसाब से चलता है... ये धरा चलना तो चाहता है अपने तरीके से लेकिन नाम भुनाना चाहता है राहुल का... इन्हीं दो धरों की टकराहट का गुस्सा राहुल के उद्गार में झलका था उस दिन...राहुल जानते हैं कि ये पुराने खिलाड़ी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहते हैं और उन्हें नाटक के स्टेज पर रोल प्ले करने के लिए अक्सर पेश करते हैं...असल में -पक्ष भी हम और विपक्ष भी हम-  की नीति इतनी मारक है कि राहुल इससे बच नहीं पाते... इस नीति से राहुल के एंग्री यंग मैन की छवि में निखार आता है लिहाजा वे घाघ पार्टी नेताओं के कहे पर चल पड़ते हैं... पर उनका अंतर्मन इसके लिए तैयार नहीं होता रहता... बकौल राहुल उन्होंने अपने निज सपने को कुचला है पार्टी की खातिर... जानकार कहते हैं कि विदेशी महिला मित्र के साथ जीवन गुजारने की दशा में वे पीएम नहीं बन सकते... अपने इस सपने को किनारे कर वो राजनीति के रेस में आ गए हैं ऐसा लगता है... निज जीवन की इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद इस देश की राजनीति में वो अपने लिए कुछ सकारात्मक लाइन लेना चाहते तो उसमें बाधा पार्टी के अंदर से ही आ रही है... जरा याद करें उस चर्चित प्रेस कंफरेंस को... राहुल ने अन्य राजनीतिक दलों का भी नाम लिया था और अपील भरे अंदाज में उन दलों को याद किया था... उन्हें संभव है राजीव के शुरूआती दिनों की याद न हो पर देश के समझदार लोगों को याद होगा... राजीव को - ए जेंटलमैन इन पॉलिटिक्स- कहा गया ... लेकिन कुछ ही समय बाद घाघ पार्टी नेताओं ने उन्हें रास्ते से भटकाया... कुछ सालों बाद राजीव को समझ आया तब तक देर हो चुकी थी... राहुल देर न करें... कांग्रेस के मिजाज को बदलना चाहते तो लग जाएं... देश के युवाओं के गुस्से को देखते हुए - एंग्री यंग मैन- की छवि ओढ़ना बुरा नहीं....बदनाम कांग्रेस के शुद्धिकरण से यहां की राजनीति को फायदा होगा... तैयार नेता नरेंद्र मोदी को चुनोती देने के लिए राहुल को भी तैयार होना चाहिए... तभी ये देश अच्छी चुनावी प्रतिस्पर्धा देख सकेगा... 

21.9.13

आत्महत्या करने वाले किसानों के लिए देश छोड़ें अनंतमूर्ति ...

आत्महत्या करने वाले किसानों के लिए देश छोड़ें अनंतमूर्ति ...
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संजय मिश्र
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यू आर अनंतमूर्ति इस बात से आहत हैं कि नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं... इसलिए उन्होंने ऐलान कर दिया है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वे इस देश में नहीं रहना चाहेंगे... उनका कहना है कि तब देश में भय का माहौल पसर जाएगा... अब... वो ज्योतिषी तो हैं नहीं कि बता दें कि मोदी राज के इंडिया में क्या सब होगा लिहाजा मान कर चला जाए कि अपने अनुभव के आधार पर और मोदी की कार्यशैली को देखकर लोगों को चेता रहे हैं।

बेशक बतौर साहित्यकार उन्हें ये अख्तियार है और बेलौस अंदाज में उन्होंने अपना रूख स्पष्ट किया है। वे किस देश में रहना पसंद करेंगे इसमें लोगों की रूचि नहीं होनी चाहिए... मकबूल फिदा हुसैन की तरह दुबई जाएं या फिर अमर्त्य सेन की तरह एक पैर इंडिया में और दूसरा पैर विदेशों में रखें। उनके ऐसे किसी फैसले की उन्हें आजादी है। उनके बयान पर अधिकांश लोग चकित हैं। बीजेपी वाले इसलिए कि दस साल से मोदी जिस हेट केंपेन से घिरे हैं उससे भी मारक है अनंतमूर्ति के उद्गार। कांग्रेस खुश है कि मोदी को अपमानित करने और बौखलाहट पैदा करने वाला इस तरह का अचूक निशाना उसके बदले किसी और ने ही साध दिया। लगे हाथ अपनी सफाई में अनंतमूर्ति ने राहुल की प्रशंसा भी कर दी।

बहुत से लोगों को इस बात का रोष है कि अनंतमूर्ति ने देश का अपमान किया है। ऐसा सोचनेवालों में गैर-मोदी दायरे के लोग अधिक हैं। ये तबका प्रगतिशील है साथ ही वाम और कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलर राजनीति का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष पैरोकार भी। ऐसे लोग कह रहे हैं कि अनंतमूर्ति को मोदी के खिलाफ मुहिम छेड़नी चाहिए न कि देश के खिलाफ। यकीनन कन्नड साहित्यकार पर मुहिम चलाने का दबाव देना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। उनकी मर्जी है अपने अंदाज में जीएं। पर सवाल उठने लाजिमी हैं।

मुश्किल ये है कि अपने बयान से उन्होंने ये मान लिया है कि मोदी और इंडिया एक हो जाएंगे। उसी तर्ज पर जैसे देवकांत बरूआ ने कहा था कि इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा। यानि लोग पूछ सकते हैं कि क्या इंदिरा के उस उत्कर्ष काल में वे इस देश को छोड़ किसी दूसरे मुल्क में चले गए? ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि इमरजेंसी को जब इसी देश के लोग झेल और उखाड़ फेक सकते तो मोदी के किसी तानाशाही शासन को क्यों नहीं? पर अनंतमूर्ति का कथन ये मान कर चलता है कि इस देश के लोगों में वो कूवत नहीं रह जाएगी। माने ये कि लोगों की क्षमता पर वो संदेह कर रहे हैं।

देश छोड़ने की धमकी देकर वो शर्त रखना चाहते कि उन्हें रखना है तो मोदी को वोट न दें। क्या ये बैद्धिक तानाशाही फरमान की श्रेणी में नहीं आता? उत्तर भारत के लोग उन्हें नहीं के बराबर जानते थे.... अब वे सुर्खियों में आ गए हैं। लिहाजा विभिन्न मसलों पर उनका नजरिया इस देश के लोग जानना चाहेंगे। मसलन मुजफ्फरनगर दंगों पर उनका नजरिया क्या है? जब इस देश में कोई आफत आती है तो राहुल और सोनिया से पहले किसी भी राजनीतिक व्यक्ति को प्रभावित स्थल पर नहीं जाने दिया जाता है। यानि इन दोनों के लिए अलग नियम और अन्य लोगों के लिए अलग। ये पहले उत्तराखंड और अब मुजफ्फरनगर त्रासदी में देखी गई। क्या इस संविधानिक देश में अपनाए जा रहे दो तरह के नियम पर अनंतमूर्ति कुछ बोलेंगे।

वे कहते कि इंदिरा का विरोध किया फिर भी उन्हें नहीं धमकाया गया..... क्या उन्हें इल्म है कि इमरजेंसी के दौरान कितने साहित्यकारों और लेखकों को जेल की हवा खिलाई गई... तो क्या वे देश छोड़ कर चले गए? क्या उन्हें याद है कि जेपी पर डंडे चले थे उस दौर में? अनंतमूर्ति को दुख है कि इस विस्फोटक वचन के बाद मोदी समर्थक सोशल साइट्स पर उनकी भयावह खातिर कर रहे हैं। पर क्या उन्हें उस वक्त ऐतराज होता है जब हिन्दू धर्म के भगवानों पर उन्हीं साइट्स पर न सुनने लायक गालियां पढ़ी जाती हैं? बेशक दक्षिणपंथी भी उसी अंदाज में जनवादियों, प्रगतिशीलों और उन्मादी सेक्यूलर राजनीति के चैंपियनों को गरियाते हैं। इन मंचों पर फ्री फार आल है जो चिंताजनक है।

बंगलोर में एक साहित्यिक समारोह में प्रकट किए अपने विचारों से अनंतमूर्ति ने पलटी मारी है। अब वे कहते हैं कि वो उस जहां में नहीं रहेंगे जहां मोदी होंगे। बावजूद इसके उनके विचार इनटालरेंट किस्म के हैं... यानि साधारण भाषा में कहा जाए तो ये फासीवादी सोच है। यहां संवाद की गुंजाइश नहीं है उल्टे व्यक्ति विशेष के लिए नफरत का पैगाम है। ये तब और अर्थपूर्ण हो जाता है जब वे कहते हैं कि आरएसएस का दर्शन हिन्दू दर्शन नहीं है। वे ऐसा मानते हैं तो फिर उन्होंने हिन्दू दर्शन और बीजेपी के हिन्दुत्व में भेद बताने के लिए लोगों से संवाद क्यों नहीं किया है? हजारो मुद्दे हैं जिनपर मोदी और बीजेपी की खिलाफत की जा सकती है।

अनंतमूर्ति ब्राम्हण परिवार से आते हैं... संभव है उन्होंने संस्कृत भी घोंट कर पिया हो... जहां उन्हें बताया गया हो कि इस देश में भारत माता की जगह पृथ्वी माता की अहमियत है। लिहाजा इस समझ के बूते वे पृथ्वी के किसी कोने को अपना बना लें। पर पृथ्वी माता का संदेश बीजेपी को जरूर बता के जाएं। अपने वचन में वे विद्वानों वाली ठसक और धाक का अहसास कराना चाहते हैं पर आजाद इंडिया में उद्दात विद्वानों के सूखे पर चिंता नहीं जताते। उन्हें तब शर्म नहीं आती जब इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवी नोअम चोम्सकी के भारत आने पर उन्हें सुनने के लिए भेड़ियाधसान करने लगते। क्या अनंतमूर्ति के मौजूदा देश में ऐसा कोई मार्गदर्शन देने वाला विद्वान है जिसे सुनने चोम्सकी भारत पधारें?

भ्रष्टाचार को जायज ठहराने वाले स्वनामधन्य विद्वानों पर उन्हें कुछ कहना है? क्या कोई ऐसा विद्वान है देश में जो अपनी आभा की बदौलत मुजफ्फरनगर जाकर शांति स्थापित करने की हैसियत रखता हो...  उसी मुजफ्फरनगर में जहां सेक्यूलर राजनीति के उन्माद का प्रदर्शन और कम्यूनल राजनीति के फसल काटने का खुला खेल चल रहा हो? क्या उन्हें मोदी राज में लोकतंत्र के बिलट जाने का डर सता रहा है? ऐसे विश्लेषक भरे परे हैं इस देश में जो हर चुनाव के बाद लोकतंत्र की रक्षा हो जाने की बात करते। मानो उन्हें लोकतंत्र की गहरी पैठ पर शक हो। ऐसे शक जाहिर होने पर अनंतमूर्ति को गुस्सा क्यों नहीं आता? 

ऐसे माहौल में जब संविधानिक इंडिया की उपलब्धियों पर ६५ साल का कुरूप और श्रीहीन सच उघार होकर हावी है ... लेखकों को क्या करना चाहिए? लेखकों का छोटा सा तबका है जो आमजनों को इमानदारी से सचेत करने में लगा है। उससे बड़ा तबका है जो आपाधापी में है... जो समझता है कि मोदी की खिलाफत से इतिहास में नाम दर्ज होने का चांस मिलेगा। और इन सबसे बड़ा तबका है जो सबक सिखाने में माहिर कांग्रेस की अगुवाई में मोदी के खिलाफ जंग के मैदान में फौजी दस्ते की तरह कूद चुका है। अनंतमूर्ति क्या करें? विदर्भ में किसानों की आत्महत्या करने के दर्द को महसूस कर सकते हैं। वो चाहें तो इस टीस से आहत होकर इंडिया छोड़ने का फैसला करें। देश छोड़ने के लिए मोदी के आने का इंतजार क्यों?  


29.8.13

दभोलकर की हत्या के मायने

दभोलकर की हत्या के मायने
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संजय मिश्र
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विज्ञान हार गया ! आप सोच रहे होंगे कैसी पहेली समझाई जा रही है?….जी हां,ये चीत्कार है उन तमाम लोगों की जिनकी संवेदनाएं नरेन्द्र दभोलकर की हत्या किए जाने से हिल गई हैं। जो आहत हुए वे प्रगतिशील,आधुनिक और संविधानिक इंडिया के हितों के समझदार कहे जाते हैं। इन्हें रंज है कि हत्यारे पकड़े नहीं गए हैं लिहाजा जादू-टोने और अंधविश्वास के उभार की आशंका में ये दुबले हुए जा रहे हैं। बौद्धिक जगत,मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया में इस मुतल्लिक बहस जारी है। इनके सुर में सुर मिला रहे हैं राजनीतिक जमात के वे लोग जो इस वारदात के बहाने दक्षिणपंथियों को घेरने की जुगत में हिन्दू धर्म पर हमले किए जा रहे हैं।
क्या वाकई विज्ञान हार गया है? या फिर नेहरू की चाहत वाली साइंटिफिक टेंपर की कोशिशें हारी हैं। विलाप करने वाले ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन हारा है? जिसे आप पढ़ाई का विषय समझते आए हैं उस विज्ञान के हारने का मतलब है कि इसे राजनीतिक-सामाजिक लक्ष्य को पूरा करने का हथियार बनाया गया था और ये हथियार चूक गया। या फिर हिन्दू जीवन शैली की हर नई परिस्थितियों में परिमार्जन करने की खूबी, इसके निमित जरूरी समाजिक बदलाव और वैज्ञानिक मिजाज के सम्मिलित चित के परिष्कार की जो आभा संविधान में प्रकट हुई थी ........ वो प्रयास निष्फल हुए? क्या प्रगतिशील तबका ऐसे किसी परिष्कार में यकीन रखता है?
पश्चिम के देशों से लेकर अमेरिका तक में क्रिस्टियन इवेंजेलिज्म सर उठा रहा है... उधर मुसलमानों में इंडिया सहित अधिकांश मुसलमान बहुल देशों में धर्म के लिए गतिविधियों बढ़ी हैं ... वहीं हाल के दशकों में हिन्दुओं में धर्म के साथ बाबाओं के लिए आकर्षण बढ़ा है। ऐसी सूरत में मर्सिया गाया जाना जायज है। लेकिन सवाल ये कि आखिरकार प्रगतिशीलों की कामना क्या थी? इंडिया में तो नेहरू की अगुवाई में नए सवेरे की तरफ बढ़े थे यहां के लोग... फैक्ट्रियां आधुनिक मंदिर कहलाई...आधुनिक जीवन शैली में रंगने लगे लोग...उपर से इस देश में सक्रिय वाम, समाजवादी, मध्यमार्गी और अन्य जमातों के लोग उन्नतिकामी विचारों को बढ़ावा देने में लगे रहे हैं। फिर क्या हुआ कि दभोलकरों की हत्या हो जाती है? संभव है तेज आधुनिक जीवन शैली ने इस देश के तमाम धार्मिक समुदायों को डराया, सहमाया होगा... उन्हें लगा हो कि उनके पारंपरिक जीवन के तत्व खतरे में पड़ रहे हैं।  
प्रगतिशीलों की छटपटाहट की वजहों को खोजा जाना जरूरी है। अक्सर जो तर्क परोसे जाते हैं उसके मुताबिक इंडिया ६५ साल का नौजवान देश है और भारत रूपी सनातन विरासत की ये कंटिनियूटी नहीं है। माने ये कि उस पुरातन संस्कृति का लोप हुआ और नेहरू के सपनों के अनुरूप एक नए देश ने आकार लिया। प्रगतिशील तबके के अधिकांश लोग ६५ साला कंसेप्ट में यकीन रखते हैं। तो फिर वे किस आबादी की किस समझ में वैज्ञानिक चेतना का संचार करना चाहते थे? देश चलाने वाले भले नेहरू के संकल्प के साथ चले होंगे पर यहां की बहुसंख्य आबादी सनातन परंपरा का निर्वाह पिछली शताब्दी के छठे दशक के आखिर तक करती रही। उसके बाद इंदिरा युग में वाम असर वाले प्रगतिशीलों के संरक्षण में जो शिक्षा दी गई उसने संस्कृति के लिहाज से रूटलेस पीढ़ी को जन्म दिया। मदरसा और संस्कृत संस्थानों में पढ़नेवालों को छोड़ दें तो इस पीढ़ी से धर्म की जानकारी दूर ही रखी गई। इधर-उधर से मिली जानकारी के कारण उनकी धार्मिक समझ अधकचरी बनी रही। 
उस पीढ़ी में अपने धर्म के लिए हीनता बोध का संचार हुआ। यही कारण है कि आठवें दशक में जब दूरदर्शन ने रामायण सिरियल का प्रसारण किया तो इन्होंने काफी उत्सुकता दिखाई। पर वामपंथियों को ये नहीं सुहाया और उन्होंने प्रसारण का तीखा विरोध किया। नब्बे के दशक में बाजार का असर बढ़ा तो संचार के क्षेत्र ने नया आयाम देखा। निजी टीवी चैनल खुले साथ में धार्मिक सिरियलों की बाढ़ आई। ऐसा क्यों हुआ कि लोग प्यासे की तरह धार्मिक कार्यक्रम देखने लगे? टीआरपी के बहाने जादू-टोने, तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास से भरे कार्यक्रमों की बाढ़ आई।  
बाजार के असर ने लोगों को मतलबी बनाया साथ ही इसने बाबाओं(ढ़ोंगी सहित) की मार्केटिंग के द्वार भी खोले। इनकी चमक-दमक से वशीभूत होने वालों की तादाद कई गुणा बढ़ गई। यहां तक कि विभिन्न धर्म के अलग अलग चैनलों के पट भी खुल गए। एक निजी चैनल है जो बच्चों को कुरान की आयतों का अर्थ समझाता है। जाहिर है निशाना वे बच्चे हैं जो मदरसों में नहीं जाते बल्कि सरकारी या फिर महंगे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं।
बेशक बाबा टाइप के लोग चमत्कार की भाषा बोलते। ऐसा लगता मानो असंभव को संभव कर लेने की छुपी हुई इनसानी अतृप्त आकांक्षा का द्वार ये बाबा अपने भक्तों के लिए खोल देंगे। कई लोग बेमन से इन बाबाओं के पास जाते। तमाम तरह की असुरक्षा के डर से सहमे लोग इनकी शरण में जाते। अंगूठी, ताबीज... जैसी चीजें उन्हें संबल देती। उपर से प्राकृतिक आपदा झेलने की मजबूरी तो कमोबेश रहती ही है। जापान के सुनामी और उत्तराखंड के तांडव के सर्वाइवरों की मनहस्थिति को याद करें। क्या इंडिया के हुक्मरान सुरक्षा जगाने में कामयाब हुए हैं? जवाब नकारात्मक ही दिखता है। तो फिर दुखी मन कहां जाए? सरकार से आस नहीं... एक जरिया समाज थी जिसमें इन्हीं राजनीतिज्ञों ने दरार पैदा कर दिए। ले-देकर धर्म बचता है।
जब धर्म के ज्यादा करीब आएंगे तो कुरीतियों का असर भी पड़ेगा। कुरीतियों से बचने की आकांक्षा वालों का साथ निभाने के लिए प्रगतिशील तबके ने क्या किया? अवैज्ञानिकता दूर करने की उत्कट अभिलाषा थी तो धार्मिक आबादी के साथ ठोस संवाद कायम करने की जहमत उठानी चाहिए थी। हर काल के संदर्भ के अनुरूप अपने ही ग्रंथों पर नए सिरे से टीका लिखने और मीमांसा करने की परंपरा वालों से इस तरह का संवाद अवसर पैदा कर सकता था। यहां भी नतीजा सिफर ही दिखता है। उल्टे हिन्दू धर्म के भगवानों को विभिन्न माध्यमों से जब अश्लील गालियां दी जाती है तो वे चुप रहते। ये चलन सोशल मीडिया में चरम पर है। नेताओं पर अमर्यादित टिप्पणी हो तो मामला दर्ज होता पर हिन्दू धर्म के ईश की निंदा होती तो कुछ नहीं होता।
दिलचस्प है कि कांसीराम ने वाम नेताओं के लिए -हरे घास में छुपे हरे सांप- की संज्ञा दी थी। बावजूद इसके जातीए राजनीति से दूरी रखने वाले वाम राजनेता अपने फायदे के लिए दलित राजनीति से मिलकर खुलेआम एनीहिलेशन ऑफ कास्ट सिस्टम की बात करते नजर आते। रोचक है कि समाजवादियों के अलावा कई दक्षिणपंथी राजनेता भी इससे सहमति जताते हैं। पर इस देश ने कभी भी इन राजनीतिज्ञों को मुसलमानों में पनपे कास्ट सिस्टम के एनीहिलेशन की चर्चा करते नहीं देखा है।  
यानि प्रगतिशीलों का दुराग्रह है कि जिस धर्म के खास अवयव का अंत वे चाहते उसी समाज से वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिए सरोकार भी जताने को कहते। ये अजीबोगरीब स्थिति है इस देश की। प्रगतिशील तबका ये आरोप तो लगाता है कि धर्म से जुड़े लोगों ने समय के बहाव के साथ चिंतन करना छोड़ दिया है। पर धर्म की परिधि में जो बदलाव हो रहे उसे देखना नहीं चाहता। हिन्दू और बौद्ध धर्म में कई धाराएं हैं जिनमें तंत्र के असर वाली धारा भी है। कर्मकांड में जटिल प्रक्रियाओं के अलावा पशु बलि चढ़ाने की पिपाशा है। कुछ लोग मानते कि तंत्र वेद विरोधी धारा है जबकि कई मानते कि ये ट्रांस वैदिक परंपरा है। तमिल सिद्ध परंपरा से लेकर असम तक में तंत्र का असर है।
वैदिक धारा और बुद्ध के शांति की धारा वालों से संवाद बनाकर अंध विश्वास को हताश किया जा सकता था। बिहार के कोसी इलाके के यादवों की तरह देश के कई हिस्सों में ब्राम्हण पुरोहितों के वर्चस्व को हतोत्साहित करने के लिए विभिन्न जातियों ने अपनी ही जाति के पुरोहितों से सरल कर्मकांड की राह चुनी है। इसी तरह बीजेपी के कई नेता गैर-द्विजों के उपनयन संस्कार की मुहिम चलाते रहे हैं। इस तरह की मुहिम को समर्थन दिया जा सकता था। प्रगतिशील तबका ये क्यों मानता कि धार्मिक लोग विचारवान नहीं हो सकते? दभोलकर की हत्या के बहाने जो सुखद आत्मनिरीक्षण चल रहा है उसे इन सवालों से भी जूझना चाहिए।                                                                                                                                                                

  

6.8.13

नेहरू... तानाशाही.....और मोदी

नेहरू... तानाशाही.....और मोदी
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संजय मिश्र
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------- तब क्या होगा जब लोगों का नजरिया बदल जाए? महान और अच्छे काम की तमाम क्षमताओं के बावजूद जवाहरलाल जैसे लोग लोकतंत्र के लिए भरोसे के नहीं होते.... दिमाग दिल का गुलाम होता है और तर्क व्यक्ति की इच्छाओं और अदमनीय आकांक्षाओं के हिसाब से तोड़े-मरोड़े जा सकते... घटनाएं जरा सा मोड़ ले लें तो जवाहरलाल धीमी रफ्तार से चलते लोकतंत्र के तामझाम को एक तरफ समेट कर तानाशाह बन सकता है... हो सकता है कि वो भी लोकतंत्र और समाजवाद की भाषा और नारों का इस्तेमाल करे... पर हम सब जानते हैं कि किस तरह फासीवाद इसी तरह पला –पनपा और फिर उसने लोकतंत्र को फालतू चीज की तरह दूर फेंक दिया...

आप सोच रहे होंगे कि नेहरू पर तानाशाह बन जाने की तोहमत कौन लगा रहा है? देश के पहले पीएम... और इस तरह की आशंका। ज्यादा संभावना यही है कि इस तरह की बातें इंडिया के आज के नागरिकों ने सुनी न हो और उसे ये हजम भी न होगा। और जब आपसे कहा जाए कि ये डरावनी तस्वीर खुद जवाहरलाल नेहरू ने अपने बारे में पेश की थी... आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे। जी हां ये सच है ... नेहरू छद्म नाम -चाणक्य- से ऐसे आलेख लिखा करते थे। मकसद होता कि विभिन्न मुद्दों पर देश की नब्ज टटोली जाए।

मौजूदा समय में जबकि नरेन्द्र मोदी को लेकर – तानाशाह के हाथ में देश की बागडोर सरक जाने – की आशंका जोर-शोर से उछाली जा रही है... नेहरू की ये बातें प्रासंगिक तो लगेंगी ही साथ ही कई सवालों को सतह पर ला देंगी। सीमित दायरे में देखें तो आपका ध्यान लालू राज, मायावती राज, जयललिता राज और नीतीश राज पर अक्सर लगने वाले तानाशाही रवैये के आरोप की ओर चला जाए। रोचक है कि लालू और नीतीश वो चेहरे हैं जो देश के पहले तानाशाह शासन यानि इमरजेंसी की खिलाफत करने वाले आंदोलन का हिस्सा रहे। आज नीतीश राज में हाकिमों के हाथों जनप्रतिनिधि अपमान और दुर्गति झेलने को अभिषप्त हो रहे हैं।  

तो क्या नेहरू का डर पहले पहल इमरजेंसी के समय आकर सच साबित हुआ? उनके आलेख का एक और अंश देखें--  
--- जवाहरलाल फासिस्ट नहीं हो सकता... फिर भी उसमें तानाशाह होने के तमाम लक्षण मौजूद हैं...प्रचंड लोकप्रियता, स्पष्ट और निश्चित उद्देश्य के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, उर्जा, स्वाभिमान, संगठन क्षमता, योग्यता, कठोरता और भीड़ से लगाव के बावजूद दूसरों के प्रति असहनशीलता का भाव.......
जाहिर है मोदी के व्यक्तित्व में इस तरह के कई लक्षण मौजूद हैं। और आपको लगेगा कि कई और नेता और दल इन लक्षणों से अछूते नहीं हैं। यानि बकौल नेहरू, तानाशाही के उभार का भय करिश्मा और धीमी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मेल में छुपा है। यानि ये माना जाए कि इमरजेंसी के समय तक लोकतात्रिक प्रक्रिया धीमी ही रही? और आज जब फिर से तानाशाही के सर उठाने के खौफ का इजहार किया जा रहा है तो क्या ये माना जाए कि छह दशक के बाद भी इंडिया जनतांत्रिक मूल्यों की ठोस बुनियाद नहीं रख पाया? ऐसे में सवाल उठता है कि व्यक्ति के तानाशाह होने पर जो तबका हाय-तोबा मचा रहा है वो धीमी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कारणों पर फोकस क्यों नहीं करना चाहता? वो ये कहने में क्यों हिचकता है कि फासीवाद का जन्म समाजवाद के कोख से हुआ था? 

फासीवाद में अन्य बातों के अलावा प्रचंड राष्ट्रवाद, वर्ग संघर्ष की जगह समुदायों के बीच टकराव, मिक्स्ड इकोनोमी, अर्थ प्रबंधन में संरक्षणवाद, साम्राज्यवादी सोच आदि तत्व दिखते हैं। जानकारों का कहना है कि आर्थिक सोच में कांग्रेस और बीजेपी एक जैसी प्राथमिकता रखती। देश के लिए मोदी के सपने हैं। पर प्रचंड राष्ट्रवाद का उनका मेनू क्या उन्हें खतरनाक बनाता? फिर जब कहते कि इंदिरा तानाशाही की ओर मुड़ी तो क्या उस समय प्रबल राष्ट्रवाद के तत्व मौजूद थे? इंदिरा की तरह मोदी पड़ोसी मुल्कों के संबंध में साम्राज्यवादी विचार रखते हैं क्या? क्या उनका उदय आज की कांग्रेस के देश हित और सुरक्षा मामले में हद से ज्यादा लापरवाह रवैये से पनपी है?

मान्य सोच है कि गहरी लोकतांत्रिक मनोवृति तानाशाही विचार को कुंद करने का असरकारी हथियार है। इस हथियार को पुष्ट करने में चूक कहां हुई? ऐसा कहने वाले कम नहीं कि लोकतांत्रिक मिजाज भारत के पांच हजार साल के सफर में रचा-बसा है। वो बताएंगे कि मगध साम्राज्य से पहले इस देश में दर्जनों गणतंत्र चले। तो क्या उस परंपरा के भाव की अनदेखी कर संविधानिक इंडिया में पश्चिमी प्रजातांत्रिक अवधारणा को अहमियत मिलने के कारण ये संकट उपजा? ये भी दिलचस्प है कि १९१७ के बाद रूस ने जार के प्रशासन तंत्र से तौबा कर लिया। माओ ने चियांग के प्रशासन तंत्र को किनारा किया। पर नेहरू ने आईसीएस तंत्र को बनाए रखा। इंडिया में प्रजातांत्रिक निष्ठा के जड़ जमाने में असफलता में नेहरू के इस कदम की किसी भूमिका पर आज के बौद्धिक विमर्श करेंगे? फिलहाल देश के बौद्धिक जमात में एक व्यक्ति को राकने की आतुरता है... वे किसी सवाल में उलझना नहीं चाहते...तानाशाही प्रवृति पर विमर्श में तो बिल्कुल नहीं।




9.7.13

देश को दो खांचे में बांटने की परवान चढ़ती साजिशें

देश को दो खांचे में बांटने की परवान चढ़ती साजिशें
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संजय मिश्र
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चुनावी डुगडुगी बजनी अभी शेष है लेकिन देश को दो खांचे में बींधने की कोशिशें परवान चढ़ती जा रही हैं। राजनीतिक दलों में हलचल भले उतनी तेज न हुई हो पर बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया अपनी अपनी पोजिशन ले चुके हैं। पॉलिटिकल क्लास कुछ समय बाद करतब दिखाने आएंगे। ये पोजिशनिंग सेक्यूलर फ्रंट और कम्यूनल फ्रंट को आकार देने की दिशा में अग्रसर हो रही है जहां इन दोनों से इत्तेफाक नहीं रहने वाले कुछ कर पाने में असहाय महसूस करेंगे और देश के वोटरों के विवेक पर आस टिकाने को मजबूर होंगे।
संभव है आपको लालू प्रसाद की ताल ठोक कर व्यक्त की गई इस अभिलाषा की याद हो आई होगी। यानि ये योजना सफल हुई तो फिर महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, किसानों की अपनी ईहलीला समाप्त कर लेने की दर्दनाक सच्चाई, अंधाधुन माइनिंग जैसे मुद्दे हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। इसके इतर बजाप्ता देशवासियों के दिलो-दिमाग पर गुजरात दंगे, इशरत जेहां, साध्वी प्रज्ञा, रोहिंग्य मुसलमानों की विह्वलता, आइबी के कारनामें और बीच-बीच में राम मंदिर जैसे शब्दों के बंबार्डमेंट शुरू हो चुके हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया में ये रफ्तार नहीं पकड़ पाया है पर सोशल मीडिया के रणबांकुरे, उम्रदराज और रिटायर्ड पत्रकार, सोशल एक्टीविस्ट और बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग सिद्दत से इस काम में लग गया है।
इस मुहिम में सार्वजनिक जीवन के लिहाज और पत्रकारिए निष्ठा की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। अपने आकाओं को खुश करने के फेर में होश पीछे छूटता जा रहा है और होड़ इस बात की मची है कि कौन कितना नंगा होकर इस राजनीतिक पोजिशनिंग को सींचे। ऐसा लग रहा है मानो इतिहास का कोई खास पन्ना लिखा जाना हो और उसमें हाजिरी लगाकर अपने नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा लिए जाएं। नीतीश के के कहे -- गोल्डन वर्ड्स आर नॉट रिपीटेड -- की स्पिरिट के मुतल्लिक इस या उस मोर्चे के साथ जुड़ जाने की आपाधापी साफ दिखाई दे रही।
आप सोच रहे होंगे कि निराशा के माहौल का बखान क्यों हो रहा यहां? पर हाल की कुछ घटनाओं को देखें तो अशंका जेहन में आना स्वाभाविक है। उत्तराखंड की त्रासदी, इशरत जेहां, बोधगया विस्फोट और आइबी पर सुनियोजित प्रहार जैसे मामलों पर जो घमासान मचा वो इस योजना की दिशा में देश को मोड़ने की बानगी ही पेश करता है। राहुल के लिए अलग नियम का निर्ल्लज बचाव, फारबिसगंज गोलीकांड में मारी गई यास्मिन खातून की जगह इशरत को बिहार की बेटी का तमगा मिलना, बोधगया मामले में नीतीश का लापरवाह बयान और आइबी को एनकाउंटर करवाने वाली संस्था बताना यही संकेत करते हैं।  
सत्ता में जमे लोग अक्सर संस्थानों की पवित्रता से खिलवाड़ करते। अन्ना आंदोलन के समय जब सांसदों पर चौक-चौराहों वाली शैली में प्रहार हुए तो राजनेताओं को अचानक ही संविधानिक संस्थानों की मर्यादा का खयाल आया। खुशामदी पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की फौज अन्ना के लोगों पर फुफकारने लगी। आज यही फौज आइबी, गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस पर चौतरफा हमले कर रहे हैं। दिलचस्प है कि ये हमले होते हैं और चन्द घंटे बाद दिग्विजय सिंह जैसों की तरफ से इनका हौसला बढ़ाने वाले बयान आते हैं। क्या गृह मंत्रालय संविधानिक व्यवस्था का अंग नहीं है?

बिड़ला के अंग्रेजी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार दिग्विजय डॉक्ट्राइन के तहत निकलने वाले तमाम जहरीले बयानों को -हाइपरबोल- मान गर्व करते हैं। वहीं सबसे पहले कॉरपोरेटीकरण की छाया में आए एक अंग्रेजी अखबार के एक पूर्व संपादक के सोशल मीडिया में लिखे कुछ अंश देखें---    
Why would terrorists strike at Bodh Gaya and the Mahabodhi temple, that too at a time when it is virtually deserted save the few monks inside ? It does benefit the patriots in the IB and the BJP..... Listen to them on TV !! I suspect with the election round the corner, these guys will launch several such explosions--....
The Delhi Police Commissioner holds a press conference within hours to claim that Intelligence alerts were available and sent to Bihar ! Nothing new because after every blast, they say they knew but did not know when or where !
गंभीर कहे जाने वाले एक टीवी चैनल में काम कर चुके एक पत्रकार की टिप्पणी पढ़ें—
इस देश में तमाम तरह के धमाकों और दंगों की लगाम बीजेपी के पास है और सत्ता पक्ष के खिलाफ इसका इस्तेमाल करती रहती है। अभी बोध-गया में जो धमाका हुआ है, यकीनन वह इसी विषैली पार्टी का कारनामा है .....
यानि जांच एजेंसी अभी भी हाथ-पैर मार रहे हैं पर इन पत्रकारों को घटना के कुछ ही घंटों के अन्दर पता चल गया कि विस्फोट किसने किया? दरअसल साल २०१४ की दो खांचे वाली योजना के दुष्प्रचार अभियान के तहत ये नामी पत्रकार पत्रकारिए समझ के साथ दुष्कर्म कर रहे हैं। ये महज कुछेक उदाहरण हैं। सोशल मीडिया में मोदी और राहुल के समर्थकों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का स्तर इतना गिरा हुआ है कि उसे असभ्यता की श्रेणी में ही रखा जा सकता।
इन सबके बीच कई सवाल मुंह बाए खड़ी हैं? कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलर फ्रंट की चाहत है कि एनडीए के मौजूदा आकार को बड़ा नहीं होने दिया जाए। लालू यादव की आकांक्षा की उड़ान के मुताबिक मोदी का मुकाबला करने के लिए एनडीए से अलग देश के बाकि सभी दल इस फ्रंट में आ जाएं। क्या फेडरल फ्रंट बनेगा और ये बाद में सेक्यूलर फ्रंट से साझेदारी निभाएगा? क्या मुलायम और मायावती एक मंच पर आएंगे? वोट वैंक की व्यग्रता में इशरत चालीसा का जाप करने वाले जेडीयू के सर्वेसर्वा नीतीश और लालू मंच साझा करेंगे?

सेक्यूलर फ्रंट के पैरोकार बुद्धिजीवी और पत्रकार इन सवालों में छिपी कटुता को कम करने की कोशिशें कर रहे हैं। हस्तक्षेप की पहल में लगे वामपंथी तबके के लोग फिलहाल इस राजनीतिक कवायद का हिस्सा नहीं बनना चाहते। जाहिर है इनके बीच कशमकश तीखी होती जाएगी। यही हाल गैर-राजनीतिक आंदोलनों से आस बांध लेने वाले लोगों का है जो मानते कि ये देश कल्लरखाना नहीं जिसके नागरिकों को दो खांचों वाली चाल में उलझा कर रखा जाए और आखिर में भोजन गारंटी का टुकड़ा फेक कर बहला लिया जाए।  

21.5.13

गौ-मांस भक्षण और कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म


गौ-मांस भक्षण और कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म
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संजय मिश्र
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बड़े प्यार से कहा कि कर्नाटक चुनाव का नतीजा कांग्रेस की विचारधारा की जीत है। वे सेक्यूलरिज्म का ही जिक्र कर रहे थे। मुख्यमंत्री बनते ही सिद्धारमैया ने गौ-हत्या पर राज्य में लगे प्रतिबंध को उठा लिया। बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय था। यानि कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की कोर कंसर्न में गौ-मांस भक्षण को बढ़ावा देना शामिल है। कर्नाटक से बहुत दूर नहीं है गोवा। वहां भी कांग्रेसजन अपने सहयात्री एनसीपी नेताओं के सहारे लोगों को सस्ता भोजन उपलब्ध कराने के लिए गौ-हत्या पर प्रतिबंध उठाने के लिए उतावले हो राजनीतिक और कोर्ट-कचहरी के मोर्चों पर सक्रिय हैं।
क्या कांग्रेस ने मान लिया है कि फुड सेक्यूरिटी बिल के सहारे देश को दो जून की रोटी देना संभव नहीं है? तो क्या इसी खातिर कांग्रेस सरकार गौ-मांस परोसने की चिंता में दुबली होती जा रही है? आप कहेंगे कि इस देश के एफसीआई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं जिन्हें कोर्ट की फटकार के बावजूद जरूरत मंदों के बीच यूपीए सरकार नहीं बांट पाई है। आप सोच रहे होंगे कि बाबरी विध्वंस के बाद से नाराज चल रहे मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए गौ-मांस के प्रबंध की सारी कवायद हो रही है। पर मुसलमानों की खुशामद तो एक पक्ष है... इस एक तीर से अनेक निशाना साधा जाता है और ये खेल पुराना है।
कांग्रेस के अलावा वामपंथियों, समाजवादियों, दलितवादियों और पिछड़ावादियों के सामुहिक राजनीतिक हित इस बात पर कंवर्ज करते कि हिंदू आस्था कमजोर पड़ी रहे। इनका आकलन है कि गौ-हत्या जारी रखने और ब्राम्हणों पर गौ-भक्षी होने का इल्जाम लगाते रहने से इस देश के हिन्दू हतोत्साहित रहेंगे। पर इस मुद्दे से पिछड़ावादी दूरी बना लेते और इसका समर्थन नहीं करते। पिछड़ावादी मोटे तौर पर कृष्ण के गौ-प्रेम को भुला नहीं पाते। लेकिन इस देश के दलितवादी हिंदू धर्म को अपने पतन का कारण बता इसे नेस्त-नाबूत करने की अभिलाषा रखते। दलितवादी अंबेदकर के कारण बुद्ध धर्म में आस्था रखते हैं लिहाजा कई विश्वविद्यालयों में गौ-भक्षण उत्सव मनाने की जिद पर विवाद उठता रहता है। अंबेदकर खुद ब्राम्हणों की अहिंसा पर जोर देने की नीति को साजिश बताते रहे।
कांग्रेसी मानते हैं कि इंडिया तो बस ६५ साल का देश है...लिहाजा इस देश के पुरातन इतिहास के गौरव से लगाव किय बात का। वामपंथी इस बात से उत्साहित हुए कि हिन्दू धर्म रिवील्ड नहीं है... लिहाजा उनमें आस जगी कि हिन्दुओं में अपने जीवन शैली के प्रति अनुराग खत्म कर उन्हें वाम मार्ग में दीक्षित किया जाए। कुछ हद तक वो सफल भी हुए। यही कारण है कि इन राजनीतिक वर्गों के साझा हित की झलक वामपंथियों के लिखे इतिहास की सरकारी किताबों में आपको मिल जाएंगे। असल में इंदिरा गांधी ने जब सत्ता संभाली तो कांग्रेस में अपना वर्चस्व जमाने के लिए कई कल्याणकारी फैसले किए। वामपंथियों को ये कदम सुखद लगे और उसी समय इन्होंने न सिर्फ इंदिरा का समर्थन किया बल्कि शैक्षिक संस्थानों में जो पैठ बनाई वो अभी तक बनी हुई है। साहित्य और मीडिया में भी मौजूदा समय तक इन्हीं विचारों से लैस लोगों की पकड़ है।

इनकी हठधर्मिता इस हद तक है कि अगर आपने गौ-मांस नहीं खाया तो आप प्रगतिशील कहलाने के काबिल नहीं। पाणिनी का नाम लेकर बड़े ही चाव से ये बखान करते कि – गोघ्न— शब्द का जुड़ाव उस पाहुन से है जिसे गाय का मांस खिलाया जाता था। जबकि पाणिनी ने जो सूत्र —गोघ्नं संप्रदाने.... दिया है वो मेहमानों को उपहार में गौ मिलने के संदर्भ को बताता है। वेद में ही गाय अघ्न्य यानि नहीं मारी जाने वाली कही गई।
डी एन झा ने गौ-भक्षण पर किताब लिखी। इसे हथियार के तौर पर वामपंथियों ने इस्तेमाल किया। डी एन झा लोगों को बताते रहे कि आर्य समाज आंदोलन के बाद गौ पूजनीय हुई। यानि ब्राम्हण ( हिन्दू) तब तक ( १९ वीं सदी तक ) गौ भक्षण करते रहे। वे इस तथ्य को छुपा गए कि खुद मैक्स-म्यूलर को वेद में डेढ़ दर्जन स्थलों पर गाय को नहीं मारने के संकेत मिले। सच तो ये है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी। अब एनसीईआरटी के क्लास ग्यारह के प्राचीन भारत (१९७७ संस्करण) में पेज ४७ का ये अंश पढ़ें--- लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सुअर का मांस अधिक नहीं खाते थे---- । इस अंश से कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है।
दरअसल हिन्दू धर्म को प्रगतिबाधक मानने वाले वामपंथियों को विवेकानंद इसलिए महान नजर नहीं आए कि उन्होंने दुनिया के सामने वेदांत की धाक जमाई बल्कि इसलिए कि विवेकानंद ने गाय का मांस खाया था। यंग बंगाल आंदोलन के कर्ता-धर्ता और थोड़ी बहुत कविताएं लिखने वाले हेनरी डेरोजिए इसलिए महान हो गए क्योंकि वे ब्राम्हणों को देखते ही –गाय खाबो, गाय खाबो – कह कर चिढ़ाते थे। चितरंजन दास ने गाय का मांस नहीं खाया इसलिए महानता में चूक गए... इसी तरह राजेन्द्र बाबू पिछड़ गए... पर वामपंथियों की नजर में गाय का मांस खाने वाले मोती लाल नेहरू महान हो गए।
अब थोड़ी बात वामपंथ के असर में तर-बतर अंग्रेजी पत्रकारों और बौद्धिकों की करें। बीफ शब्द से इन्हें इतना लगाव है कि जब किसी शहर में कानून व्यवस्था की समस्या आ जाती है तो ये लिखते हैं--- सेक्यूरिटी बीफ्ड अप--- न कि-- सेक्यूरिटी स्टेप्ड अप। जबकि इंगलैंड में बीफ अप शब्द को गंवारों का शब्द माना जाता है। सच तो ये है कि वहां इस शब्द का चलन अब नहीं है। पर इंडिया में सेक्यूलरवादी इस शब्द को पवित्र वस्तु की तरह देखते हैं। इसी तरह ये लोग – काऊ बेल्ट--  शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इन शब्दों के सचेत चयन का मकसद आसानी से समझा जा सकता है।
   

17.4.13


राजनीतिक दलों के लिए बोझ बनती जा रही है सेक्यूलरिज्म
संजय मिश्र
अनजाने ही नीतीश ने वो तान छेड़ दिया जिसके लिए बीजेपी अरसे से लालायित रही...और कांग्रेस जिसके लिए कतई तैयार न थी ... यानि सेक्यूलरिज्म पर बहस। बीजेपी की आस तब अधूरी रह गई थी जब मोदी ने सेक्यूलरिज्म माने इंडिया फर्स्ट का राग अलापा था। इस स्लोगन पर थोड़ी हलचल हुई पर मेनस्ट्रीम मीडिया ने बड़ी चालाकी से उस विमर्श से अपने को अलग कर लिया। लेकिन जैसे ही नीतीश ने टोपी और तिलक वाले राजनीतिक बिम्ब को आगे बढ़ाया, व्याकुलता बढ़ गई।
मोदी पर अप्रत्याशित हमले के कारण देश की नजर टिकी सो मीडिया ने नीतीश के अलाप को हाथो-हाथ लिया। पहली बार ऐसा लगा कि इंडिया के सफर में सेक्यूलरिज्म पर थोड़ी-बहुत चर्चा हुई। तरह तरह के विचार सामने आने लगे और अब भी गाहे-बगाहे आ ही रहे हैं। खास बात ये है कि उन तबकों से भी विचार आ रहे हैं जो दक्षिणपंथ के आग्रही नहीं हैं। पानी में मारे गए ढेले से उठी तरंग के समान ये अकुलाहट सतह पर आई। लोग तज-बीज करने पर मजबूर हुए कि ये --- मेरा सेक्यूलरिज्म... तेरा सेक्यूलरिज्म का --- का कैसा खेल चल रहा है ? मीडिया चेतती तब तक देर हो चली थी। सोशल मीडिया में ये अब भी जगह बनाए हुए है।
कांग्रेस नीतीश की बातों के मायने भांप गई। लिहाजा पार्टी ने मोदी पर हमले के अंश पर चुटकी लेकर किनारा कर लिया। वो भूली नहीं है कमल हासन के उस उद्गार को जिसमें मुस्लिम कट्टरपंथियों से खार खाए फिल्मी सितारे ने किसी सेक्यूलर देश जाकर बसने की चेतावनी दे दी थी। यानि ये कहकर उसने इंडिया के सेक्यूलर होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। नीतीश भी मोदी को समझाना चाह रहे थे कि राजनीति के सामने टोपी और तिलक धारण करने जैसी मजबूरी का निरंतर निर्वाह करना होता है।
                                                                   
वोट की उम्मीद में ही नीतीश क्यों न कह रहे हों... ये सवाल तो उठता ही है कि क्या इंडिया में सेक्यूलर(शुद्ध आचरण वाला) नहीं रहा जा सकता है ? क्या इसी मजबूरी के तहत सरकारी योजनाओं के शिलान्यास के वक्त नारियल फोड़ी जाती ? क्या इसी खातिर इफ्तार पार्टियों में शरीक होकर मुस्लिम टोपी पहनकर फोटो सेशन करवाया जाता है ? क्या इंडो-पाक क्रिकेट मैच देखने के लिए नेताओं और पत्रकारों के बड़े वर्ग का ड्यूटी से समय निकालना और गौरवांन्वित होने की आतुरता का इजहार करना इसी श्रेणी में आता है ? पंजाब के एक सिख मुख्यमंत्री का गुरूद्वारे में जूते साफ करने पर मचे बवाल की याद है इन्हें ?
बीजेपी के लिए राहत की बात है कि टोपी और तिलक के जरिए नीतीश सर्व धर्म समभाव की वकालत भी कर बैठे। इरादा तो था मुसलमानों को खुश करना और मोदी के टोपी नहीं पहनने वाले प्रकरण की खबर लेना। पर ऐसा करते हुए वो संविधान की मूल भावना के विपरीत भी चले गए। संविधान का मर्म है कि राज सत्ता से जुड़े लोग निजी जिन्दगी में कुछ भी हों... लेकिन सार्वजनिक और सरकारी कामों के समय सेक्यूलर यानि गैर-धार्मिक आचरण का प्रदर्शन करेंगे। टोपी पहनने और तिलक लगाने जैसे धार्मिक व्यवहार से दूर रहेंगे।
असल में राजकाज के निर्वहन का स्वभाव ही सेक्यूलर होता है। मसलन सड़कें बनेंगी तो उस पर सब चलेंगे.... अस्पताल बनेगा तो सभी धर्मों के लोग वहां इलाज कराएंगे। इतना ही नहीं सड़क बननी है और सामने धार्मिक ढांचा है तो उसे व्यापक हित में हटा दिया जाता है। इसी तरह स्कूलों और अस्पतालों के पास लाउड-स्पीकर के इस्तेमाल की मनाही होती है भले ही वो मंदिर और मस्जिद की ही क्यों न हो ? गौर करने की बात है कि सेक्यूलरिज्म शब्द का जुड़ाव मौजूदा स्थिति से है... सांसारिकता से है, दुनियादारी से है। इसका आध्यात्मिकता से लेना-देना नहीं है। पिछला जन्म हुआ था या नहीं, अगला जन्म होगा या नहीं.... स्वर्ग है या नहीं... सेक्यूलरिज्म में इस तरह के विमर्श की गुंजाइश नहीं। यही कारण है कि इंडिया के संविधान के अनुसार जनता तो धार्मिक रहे पर शासन से जुड़े लोग सेक्यूलर आचरण वाले रहें।
पर इंडिया के राजनेता इस लाइन पर चलना नहीं चाहते। यही कारण है कि इस देश में सबसे अधिक दुष्कर्म सेक्यूलरिज्म शब्द के साथ हुआ है। मोदी के सेक्यूलरिज्म यानि इंडिया फर्स्ट में राष्ट्रवाद की धमक है। उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है कि इस राष्ट्रवाद(राष्ट्रहित) के लिए सेक्यूलर मिजाज ही रास्ता है। कांग्रेस समेत सभी गैर-बीजेपी दलों का दुराग्रह है कि जो दल मुसलमानपरस्त नहीं वो कम्यूनल( गैर-सेक्यूलर शब्द का इस्तेमाल नहीं करते वे) हैं। यानि जो सेक्यूलर नहीं वो कम्यूनल ही हो सकता है। यानि सेक्यूलर शब्द का एंटोनिम गैर सेक्यूलर न होकर कम्यूनल कर दिया इन्होंने। भाषाविद ध्यान दें इस पर। यदि सेक्यूलर माने गैर-धार्मिक तो फिर गैर-सेक्यूलर मतलब धार्मिक आचरण वाला हुआ। पर कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के अनुसार धार्मिक आचरण वाले कम्यूनल ही होंगे।
जरा दंगा वाली थ्योरी पर भी ध्यान दें। सेक्यूलर जमात कहता कि गुजरात में दंगे हुए तो वहां के सीएम मोदी कम्यूनल हुए। इस थ्योरी के नजरिए से देखें तो सिख दंगे के कारण पूर्व पीएम राजीव गांधी भी कम्यूनल हुए। देश का कौन सा राज्य ऐसा छूटा हो जहां दंगे न हुए हों ? यानि इन राज्यों की सरकारें कम्यूनल हुई। यहां आकर कांग्रेस और उनके चारण पत्रकार फस जाते हैं। नीतीश के प्रवचन ने सेक्युलरिज्म के मौजूदा स्वरूप की सीमाएं उघार दी हैं।  

13.4.13

मिथिला चित्रकला पार्ट- 6

मिथिला चित्रकला पार्ट- 6
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संजय मिश्र
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मोर माने प्रणयलीला, उर्वरता दिखाते बांस और कमल माने योनि... यानि सृजन के समवेत गान को आकार देने का अनुराग दर्शाते प्रतीक ... . मानो ईश्वर की उस अभिलाषा के निर्वाह का आभास कराते ...जो सृष्टि, पालन और संहार की लीला में निहित है ...ऐसा आस्थावान लोग कहेंगे। ब्रम्हयोनि से जुड़े प्रतीक पीपल के पत्ते पर सृजन का सोपान गढ़ने वाले गंगा झा भी कुछ ऐसा ही कह रहे होते हैं जब उनकी कूची जीवन के उहापोहों को मिथिला चित्र शैली में उकेरती रहती। मिथिला स्कूल ऑफ पेंटिंग के इस आयाम से अधिकांश लोग अनजान हैं।
दरभंगा के एक निजी स्कूल में शिक्षक गंगा झा के लिए ये महज संयोग हुआ कि वे पीपल के पत्ते पर पेंटिंग करने लगे। वे बताते हैं कि पीपल के पत्ते पर बनी पूर्व रूसी राष्ट्रपति गोर्वाचोव की पोर्ट्रेट किसी मैगजीन में देखने के बाद उन्हें ये खयाल आया। लेकिन मुश्किल सामने खड़ी थी। आखिर पत्ते को रेशे सहित कहां से लाया जाए। हरे पत्ते को पानी में कई दिनों तक रखने के बाद और फिर पानी में सोडा डाल कर उसमें भिगोए रखने के बाद उन्हें सफलता मिली।
साफ और रेशेदार पत्ते पर उन्होंने पेंटिंग की तो दूसरी समस्या आ गई। रेशों के बीच के छिद्र से रंग का दूसरी तरफ निकल जाना। गंगा झा का कहना है कि तीन तीन बार कलर करते रहने पर मनमाफिक नतीजा सामने आता है। लिहाजा करीब सौ घंटे एक चित्र बनाने में लग जाते हैं। अन्य कलाकारों की तरह वे भी बाजारू रंग का ही इस्तेमाल करते हैं। इस कलाकार ने शुरूआत नेताओं के चित्र बना कर की। बाद में इसका दायरा बढ़ाया। खजुराहो और एमएफ हुसैन के चित्र भी उन्होंने उकेरे।
मनोबल बढ़ा तो फिर मुड़ गए पत्ते पर मिथिला चित्रकला को नया आयाम देने की तरफ। काले कागज पर चिपकाए गए पीपल के पत्ते पर जब चित्र बन जाता तब करीने से उसे सफेद कागज पर माउंट करते हैं। पत्ते पर कचनी की गुजाईश नहीं रहती तो पत्ते के बाहर काले कागज पर ही उसे पेंट किया जाता है। इसके अलावा वे कागज पर भी मिथिला चित्र बनाते हैं।
दरभंगा जिले के पड़री गांव के रहने वाले गंगा प्रसाद झा ने कला की आरंभिक शिक्षा पटना आर्ट कॉलेज के पूर्व प्राचार्य राधा मोहन प्रसाद से ली। बाद में दरभंगा के ब्रम्हानंद कला महाविद्यालय और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय से कला की शिक्षा पाई। देश के विभिन्न शहरों में इनके सोलो एक्जीबीसन लग चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम इनकी पीपल कला के मुरीद हैं और इन्हें प्रशस्ति पत्र दे चुके हैं। वे उम्मीद जताते हैं कि पीपल कला प्रसार जरूर पाएगी।

गंगा प्रसाद झा – चित्रकार
पीपल के पत्ते पर बनाए चित्र से मुझे ख्याति मिली... लेकिन कागज पर बनी मेरी मिथिला पेंटिंग की खासियत है कि इनमें एनाटोमी का खयाल रखा गया है। यानि बैकग्राउंड को देखते हुए पात्र और प्रतीकों की लंबाई और चौड़ाई सही अनुपात में रखी गई हैं। दरअसल मिथिला चित्र शेली में एनाटॉमिक सेंस का अभाव रहा है।
 


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