life is celebration

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31.12.10

गुदरिया

संजय मिश्र
... दिमाग पर थोडा जोर दें तो आपको बचपन के वे दिन याद आ जायेंगे जब गुणा बाबा या गुदरिया बाबा को देखते ही आप मचल उठते थे । उससे भी पहले छुटपन में जब आप सोने में आना-कानी करते थे .... तो आपकी मां गुदरिया बाबा का नाम लेकर आपको डराया करती थी। सारंगी की तान छेड़ते ये घुम्मकड़ बाबा..... नाथ संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं। भले ही आज का बचपन इन्हें बिसरा रहा है.... हर दरवाजे पर दस्तक देते नाथ-पंथियों की यात्रा बदस्तूर जारी है।
कुछ सौ साल पहले देश में जब भक्ति मार्ग का चलन बढ़ा तो शैव आस्था से प्रभावित एक वर्ग ने नई राह पकड़ी । गोरखनाथ इनके अराध्य - पुरुष हुए। ये ब्राह्मण-धर्म की जटिलताओं को नहीं मानते... और न ही भेद-भाव पर यकीन करते। भक्ति के सहारे परम शक्ति से एकाकार हो जाना ही इनका मकसद है।
एक अनुमान के मुताबिक देश भर में इस संप्रदाय के साठ हजार सदस्य हैं। गोरखपुर इनके लिए तीर्थ-स्थल जैसा ही है। पंद्रह सालों तक भिक्षाटन के बाद जब ये दीक्षित होते हैं तब जाकर इन्हें गोरखपुर में गद्दी नसीब होती है। इस दौरान उन्हें भिक्षा के जरिये चौरासी मन सामग्री जमा करनी होती है.....जिसमें अकेले बारह मन कपडे होने चाहिए। नाथपंथी इन कपड़ों को गुदरी कहते हैं ..... यही कारण है की गृहस्थ इन्हें गुदरिया बाबा कह-कर पुकारते हैं। साल में बस एक दिन यानि १४ जनवरी ...मकर-संक्रांति का दिन इनके लिए ख़ास होता है जब इन्हें गोरखपुर आश्रम के दर्शन होते हैं । फिर लौट आते हैं वे उसी सांसारिक दुनिया में जिससे अलग होना उनका लक्ष्य है।
कहते हैं दैनिक जीवन की कठिनाइयों से जूझते हुए इंसान में जब निराशा का भाव घर कर लेता है तब वह संन्यास की ओर बढ़ता है। इस विरक्त भाव को नजर अंदाज भी कर दें तो भी जीवन की भंगिमाओं से मुक्त होने की लालसा कई लोगों को इस ओर खींचती है। पर मोह-भंग के बावजूद अपनों से दूर हो जाना क्या इतना आसान है ?
गुदरिया बाबा को जब सारंगी की तान पर निर्गुण , सदगुण , गोपीचंद ... गाते गौर से सुनेंगे तो आपको विरह की यही वेदना महसूस होगी।
समाज की बात छोड़ भी दें... लेकिन मां से दूर होना इनके लिए कठिन परीक्षा होती है। मान्यता है कि इन्हें मां का भीख नसीब नहीं होता.... मां भला अपने संतान को योगी कैसे बनने दे। मां से मुक्ति संभव नहीं ...तभी तो परम सत्य से मिलन की आस रखने वाला गुदरिया बाबा छल-पूर्वक मां से भीख लेता है....
यही कारण है कि हर घर की देहरी पर ये माताओं के हाथों ही साड़ी लेने की जिद करते हैं। मिल गई तो ठीक ....और न मिले तो भी ठीक। आशा-निराशा के इसी चक्र से तो उन्हें पार पाना है। फिर चल पड़ते हैं अगली देहरी पर......जीवन भी कैसी यात्रा है.......

27.9.10

हे राम !.....बिहार को कौन बचाएगा

ज्योति बहुत खुश है। बहेड़ा के राजकीय कन्या प्राथमिक विद्यालय में चौथी क्लास में पढने वाली ये बच्ची चहकते हुए कहती है -- जब वो नौवीं क्लास में जाएगी तो उसे भी साईकिल मिलेगा। ज्योति खुश इसलिए भी है कि अपने सहपाठियों के संग वो भी दरभंगा हो आई ....पहली बार ... ये बच्चे प्रदर्शन करने गए थे। हाथों में तख्तियां लिए ये बच्चे डी एम से गुहार लगा रहे थे कि ---" स्कूल में ताड़ी खाना नहीं चलेगा "। ज्योति प्रदर्शन के मायने नहीं समझती और न ही उसे अहसास है कि उसके स्कूल को ढहा दिया जाएगा।
आप समझ रहे होंगे कि मैं कोई पहेली बूझा रहा हूँ....पर ये सच है। दरभंगा का शिक्षा विभाग जिले के बहेड़ा के इस स्कूल को तोड़ने की मुहिम में लगा है। इसलिए नहीं कि नया भवन बनना है ....इसलिए भी नहीं कि स्कूल को नए परिसर में शिफ्ट करना है। १९ अगस्त २०१० को जिला शिक्षा अधीक्षक ने बेनीपुर के ब्लोक शिक्षा प्रसार अधिकारी को लिखित आदेश दिया कि स शस्त्र बल के साथ स्कूल भवन को तोड़ने की कार्रवाई को अंजाम दिया जाए। अगले ही दिन इसकी तामील के लिए जिले के डी एम संतोष कुमार मल्ल ने .....फ़ोर्स को बहेड़ा भेज दिया। लेकिन ग्रामीणों के भारी विरोध के कारण उन्हें बैरंग लौटना पड़ा।
इस कहानी में कई पात्र हैं। एक पक्ष है बहेड़ा के उन महा दलित परिवारों का जिन्होंने स्कूल बनबाने के लिए जमीन दी थी। ये स्कूल १९५५ में बना जबकि इसका सरकारीकरण १९६१ में हुआ। महा दलित बस्ती के बीच स्थित इस स्कूल के जमीन दाताओं में कुशे राम , राजेंद्र मोची , कमल राम, फेकू राम, उपेन्द्र राम शामिल हैं। वे बताते हैं कि बस्ती के बच्चों का पड़ोस के सवर्ण बहुल गाँव के स्कूल में जाकर पढाई करना उस दौर में कितना मुश्किल था। सरकारीकरण केसाथ ही स्कूल की जमीन बिहार के राज्यपाल के नाम कर दी गई। यही कारण है कि १९६१ से २०१० तक राज्यपाल के पदनाम से ही जमीन की रसीद कटी है। महा दलितों के बीच शिक्षा के प्रसार के लिए बस्ती के लोग इस स्कूल को कन्या उच्च विद्यालय में उत्क्रमित करने के लिए प्रयासरत हैं।

इस कहानी की दूसरी पात्र हैं भगवनिया देवी .... महा दलित वर्ग से ही आती हैं। ठसक के साथ कहती हैं कि बहेड़ा के विधायक और आर जे डी के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी का उन्हें आशीर्वाद मिला हुआ है। इसी राजनीतिक नजदीकी की बदौलत भगवनिया देवी साल १९८९ में स्कूल भवन के हिस्से में कब्ज़ा ज़माने में कामयाब हो गई। जमीन दाताओं के लगातार विरोध के बाद साल १९९० में प्रशासन ने स्कूल से कब्ज़ा हटा दिया। कुछ साल चुप बैठने के बाद , साल १९९६ में भगवनिया देवी एक बार फिर स्कूल भवन में कब्ज़ा ज़माने में सफल हुई। इस बार उसने स्कूल भवन में ताड़ी खाना ही खोल लिया। भगवनिया देवी ने दावा किया कि उसके पास जमीन के कागजात मौजूद हैं। ग्रामीणों के लगातार विरोध के बाद प्रशासन ने जांच के आदेश दिए। जांच में कागजात फर्जी पाए गए। आखिरकार प्रशासन ने साल २००९ के जनवरी में ताड़ी खाने को हटा दिया।

इस प्रकरण में तीसरा कोना आर जे डी नेता सिद्दीकी का है। वो जे पी आन्दोलन की उपज हैं और देश का मीडिया उन्हें साफ़ छवि वाला नेता मानता है। उन्हें चुनाव जीतने के लिए महा दलित कार्ड की जरूरत हो ...ऐसी विवशता नहीं है। दर असल उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया है। भगवनिया देवी को फायदा दिलाने की उनकी बेचैनी पर बहेड़ा के पूर्व मुखिया बैद्यनाथ मल्लिक रौशनी डालते हैं। उनका कहना है कि भगवनिया देवी की नतनी सिद्दीकी के पटना आवास में नौकरी करती हैं। अपने इसी स्टाफ को उपकृत करने के लिए आर जे डी नेता ने विधान सभा में कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा। इसमें भगवनिया देवी के साथ न्याय करने कि गुहार लगाई गई। अपने मकसद में कामयाबी नहीं मिलने के बाद सिद्दीकी ने इसी साल अगस्त महीने में एक बार फिर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा। उन्होंने सरकार के मंसूबे पर एतराज जताते हुए स्पीकर से मामले में हस्तक्षेप का आग्रह किया। स्पीकर उदय नारायण चौधरी महा दलित वर्ग से आते हैं। आपको याद हो आएगा वो प्रकरण जब स्पीकर चौधरी ने मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के समर्थन में नारा लगा दिया था। खैर , अब भगवनिया देवी के मामले में दरभंगा के अधिकारियों को स्पीकर कार्यालय से ही लिखित और मौखिक आदेश मिल रहे हैं।

मामले का चौथा बिंदू जिले के अधिकारियों से जुड़ा है। उनकी मनोदशा जानने के लिए फिर रूख करते हैं दरभंगा समाहरणालय के उस वाकये का जब बहेड़ा स्कूल के छात्रों ने २१ अगस्त को वहां प्रदर्शन किया था। प्रदर्शन के संबंध में जब पत्रकारों ने डी एम मल्ल की प्रतिक्रिया चाही , तो वे मीडिया कर्मियों से ही उलझ गए। इस दौरान कई टी वी चैनलों के कैमरे टूट गए। बाद में डी एम ने पत्रकारों के साथ बैठक में खेद जताया और अपनी बेबसी बताई। उन्होंने खुलासा किया कि स्कूल भवन गिराने के लिए उन पर पटना से जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है। इस दबाव को जिला शिक्षा विभाग की लाचारी में भी टटोला जा सकता है....अपने ही स्कूल को ढहाने का फरमान और वो भी बिना कोई वजह बताए। सूत्रों की माने तो शिक्षा विभाग स्कूल भवन तोड़ लेगा और तब भगवनिया देवी को कब्ज़ा दिलानेका मार्ग प्रशस्त होगा।
स्कूल बचाने की मुहिम में लगे लोगों ने अब हाई कोर्ट की शरण ली है। इस बीच बेनीपुर अनुमंडल कोर्ट में पहले से पेंडिंग इस मामले के जल्द निष्पादन का आदेश दरभंगा जिला कोर्ट ने दिया है। इसके लिए ४ अक्टूबर तक का समय दिया गया है।
विधान सभा चुनाव की प्रक्रिया चालू है। सत्ताधारी दल की ओर से मुख्य मंत्री नीतीश कुमार स्टार प्रचारक हैं। उनकी पिछली जन सभाओं को याद करें तो चुनाव प्रचार के दौरान वे महा दलितों के उत्थान की बात करेंगे। सबसे ज्यादा जोर बालिका शिक्षा योजना पर होगा उनका.... छात्राओं को साईकिल देने की स्कीम पर वे इतराने से नहीं चूकेंगे । जाहिर है बहेड़ा स्कूल की ज्योति भी ऐसे भाषण सुन आह्लादित होगी...अपने अरमानों को पंख लगने के सपने देखेगी....इस बात से बे-खबर कि उसके स्कूल को जमींदोज करने की कोशिशें जारी हैं....

12.9.10

बाढ़ ----- भाग 3

हर खेत को पानी, हर हाथ को काम......
जी हाँ ! ये नारा है बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग का। विभाग के इरादों पर शक करना मुनासिब नहीं लेकिन परबत्ता और गई जोरी जैसे इलाकों के हालात सरकार के पैगाम की कलई खोलते हैं। इन गांवों के खेत जल -जमाव से सालो भर डूबे रहते हैं। जबकि यहाँ के अधिकतर कमाऊ हाथ दूसरे प्रदेशों में जीवन बचा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो उत्पादक हाथ बाहर नहीं जा सके उनमें से कईयों ने माओ वादियों का दामन थाम लिया। यहाँ का आवागमन नाव पर टिका है। ये दशा महज परबत्ता और गैजोरी की नहीं है .... राज्य के सैकड़ो गावों की यही नियति है।
बाढ़ग्रस्त इलाकों में जल-जमाव विकराल समस्या बन गया है। इसे आंकड़ों से समझें तो सहूलियत होगी। मोटे अनुमान के मुताबिक़ दस लाख हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है जबकि इससे प्रभावित जनसंख्या पोने एक करोड़ के आस-पास है। अकेले कोसी परियोजना के पूर्वी नहर प्रणाली के दायरे में जल जमाव वाले एक लाख २६ हजार हेक्टेयर से जल निस्सरण की योजना सरकार को बनानी पडी। इसी तरह गंडक से निकली तिरहुत नहर प्रणाली के तहत जल- जमाव वाली दो लाख हेक्टेयर को खरीफ की फसल लायक बनाने की योजना बनाई गई। आंकड़ों पर असहमति हो सकती है क्योंकि जल-जमाव को समझने और मान ने के अपने अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि १९५४ में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र २५ लाख हेक्टेयर था जो कि आज तीन गुना हो गया है। जाहिर है जल-जमाव क्षेत्र भी साल-दर-साल बढ़ता ही गया।
दर असल , जल-जमाव प्राकृतिक और मानवीय प्रयासों के प्रतिफल के रूप में सामने आता है। मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही अधिसंख्य जल-जमाव वाले इलाके बन गए जिनके साथ लोगों ने ताल-मेल बिठा लिया। लेकिन जबसे बाढ़ से सुरक्षा के उपाय करने में तेजी आई नए जल-जमाव वाले क्षेत्र आकार लेने लगे। इसने कई क्षेत्रों का भूगोल ही बदल दिया।
पहले प्राकृतिक प्रक्रिया को समझें। नदियों में बाढ़ आने के बाद इसका पानी नदी के तट से दूर तक फैलता है। नदी में पानी का दबाव कम होने पर बाहरी पानी वापस नदी में आना चाहता है। ये पानी बड़े इलाके में फैला हो तो ये आगे जाकर नदी में मिलने की कोशिश करता है। दोनों ही स्थितियों में आबादी वाले क्षेतों के अवरोध और जगह जगह जमीन की नीची सतह के कारण सारा पानी नदी में नहीं लौट पाता है। नतीजतन कई जगहों पर पानी का स्थाई जमाव हो जाता है। स्थानीय भाषा में इसे " चौर" कहते हैं।
नदियों में सिल्ट अधिक रहने पर बाढ़ के समय कई उप धाराएं फूट पड़ती हैं। ये वैज्ञानिक भाषा में " उमड़ धाराएं " कहलाती हैं। उमड़ धाराएं नदी के समानांतर बहती हुई आगे जा कर फिर से नदी में मिल जाती है। नदी के निचले हिस्सों में जमीन का ढाल कम रहने के कारण जल प्रवाह की रफ़्तार धीमी हो जाती है। जिस वजह से सिल्ट को जमने का मौक़ा मिल जाता है। अधिक मात्रा में पसरा ये सिल्ट कभी- कभी संगम से पहले ही उमड़ धारा का मुहाना बंद कर देता है। उमड़ धाराओं का अवरुद्ध पानी आखिरकार बड़े चौरों का निर्माण करता है। चंपारण में झीलों और चौरों की श्रुंखला इस प्रक्रिया की याद दिलाते हैं।
अधिक सिल्ट वाली नदियों का ये स्वाभाव होता है कि कुछ सालों के अंतराल पर ये उमड़ धारा को ही मुख्या धारा बना लेती हैं। छोडी गई मुख्या धारा को स्थानीय भाषा में " छाडन धारा" कहते हैं। बाढ़ के समय में तो छाडन धारा में खूब पानी रहता है लेकिन अन्य समय में इनमे कई जगह जमीन की सतह जग जाती है। इस तरह कई झीलों की श्रुंखला का रूप ये अख तियार करती हैं। कोसी इलाके में इसके अनेको उदाहरण आपको मिल जाएंगे।

तटबंधों के निर्माण ने नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बेतरह प्रभावित किया है। असल में इसके कारण उमड़ धाराओं का उद्गम और संगम दोनों बाधित हो जाता है। नतीजा ये हुआ कि कई उमड़ धाराएं तट बंधों के कारण जल-लमाव वाले क्षेत्रों में तब्दील हो गए हैं। इसके अलावा कई सहायक नदियों का संगम बाधित हो गया। कोसी पश्चिमी तट बांध के बनने की वजह से भूतही बालन नदी का इस नदी में मिलन बाधित हो गया। अब ये दूर का साफर तय कर कोसी में मिलती है। जिस कारण भेजा से कुशेश्वर स्थान के बीच का अवादी वाला हिस्सा जल-जमाव से ग्रस्त रहता है।
तट बंधों के कच्चे अस्तर और रख-रखाव में कोताही के कारण तट बांध के बाहर स्थाई तौर पर पानी का जमाव हो जाता है। ये रिसाव के कारण भी होता है साथ ही जमीन के अन्दर पानी के तल को मिलने वाले दबाव के कारण भी । तट बांध के भीतर पानी का दबाव बढ़ने से तट बांध के बाहर जमीन के अन्दर के पानी का तल ऊपर उठ जाता है। कई बार ये जमीन के ऊपर भी आ जता है। ये जमा हुआ पानी तट बांध के बाहरी ढलान को कमजोर बनता है जिस कारण तट बांध टूट भी जाते हैं। कोसी पूर्वी तटबंध के बाहर भाप्तियाही से कोपडिया के बीच ३७००० एकड़ में जल-जमाव इसका अनूठा उदहारण है।
जल-जमाव वाले क्षेत्रों के दुःख का अनुमान लगाना हो तो कुशेश्वर स्थान, घनश्यामपुर, किरतपुर, बिरौल, हायाघाट, सिघिया, महिषी, नौहट्टा, सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ , महनार, बैर्गेनिया, पिपराही, कतरा, खगरिया, चौथम, परबत्ता, गोगरी, काढ़ा-कोला , प्राण-पुर, आजम नगर, नौगछिया, बीहपुर, गोपालपुर जैसी जगहों पर हो आयें। कुशेश्वर स्थान और खगडिया इलाके में कई नदियाँ कोसी से संगम करती हैं। इन्ही इलाकों में कई तटबंधों समाप्त हो जाते हैं। जिससे इन नदियों का पानी संगम से पहले ही पसर जाता है। विस्तृत जल-राशि की ये तस्वीर आपको विचलित कर सकती है। लोगों की पीड़ा को धैर्य से महसूसना हो तो कोसी तटबंधों के बीच के दो लाख ६० हजार एकड़ जल-जमाव वाले इलाके में जाने का साहस करें। इन इलाकों में नहीं आ सके तो टाल क्षेत्र में ही जाकर इस दुःख का ट्रेलर देख लें।

ये सोचने वाली बात है की एक तरफ सिंचाई प्रणाली का विस्तार किया जा रहा है तो दूसरी और जल-जमाव वाले इलाके से पानी निकालने की कवायद की जा रही है। ये दोनों ही उल्टी प्रक्रिया हैं। और एक ही नदी बेसिन में चालू हैं। नदियों के पानी का ड्रेनेज कितना कारगर रह पाया है ये सोचना भी अबूह लगता है।

4.9.10

बाढ़ क्यों आती है ? bhaag - २

बिहार में इस साल इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हैं। मौसम विभाग का अनुमान भी गलत साबित हो रहा है। राज्य के सभी जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं जबकि बड़ी आबादी बाढ़ से जूझ रही है। लोग समझ नहीं पा रहे की औसत से कम बारिश के बावजूद बाढ़ तांडव क्यों मचा रही है? आम लोगों को बताया जा रहा है कि नेपाल ने पानी छोड़ दिया .... इसलिए ऐसी नौबत आई है। इसी समझ के सहारे चंपारण के लोग बाल्मिकीनगर बराज को " विलेन " मान कोस रहे होंगे। फर्ज करिए ये सही हो ...फिर बागमती बेसिन में मची तबाही के लिए किसे दोष देंगे .....बागमती पर तो बराज नहीं है। इतना ही क्यों... कुशेश्वर स्थान और खगडिया की दुर्दशा के लिए किसे कसूरवार ठहराएंगे?
दर असल , बिहार का भूगोल ही ऐसा है कि हर क्षेत्र के लोग बाढ़ की प्रक्रिया को अच्छे तरीके से समझ नहीं पाते। पहाडी इलाके के लोगों की इस संबंध में जो सोच है उससे अलग समझ गंगा के दक्षिण के मैदानी इलाके के लोगों की है। गंगा के उत्तर के लोग कमोवेश पूर्णता के साथ बाढ़ के चक्रव्यूह में फंसते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो प्रकृति से जो पानी हमें मिलता हैकुछ हिस्सा रिसकर जमीन के अन्दर चला जाता है जबकि अधिकाँश हिस्सा बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इन्हें हम नदियाँ कहते हैं। यानि ये पानी के ' ड्रेनेज" का जरिया हैं। जमीन का ढाल नदियों के प्रवाह का " डा इनेमिक्स " तय करता है। ज्यादातर नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं जिनके पानी का स्रोत वर्षा, वर्फ और बड़े झील होते हैं। मैदानी इलाकों में कई नदियाँ बड़े चौरों से निकलती हैं। इसका बड़ा उदाहरण है बूढ़ी गंडक, जो कि पश्चिम चंपारण के चौतरवा चौर से निकलती है।
पहाड़ों और मैदानी भागों में जब मूसलाधार बारिश होती है तो पानी नदी के किनारों को पार कर जाता है। ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से भी नदियाँ इस दशा में आती हैं। ये पानी बढ़ते हुए ख़ास दूरी तक जाता है जिसे नदी का " कैचमेंट एरिया " यानि डूब क्षेत्र कहते हैं। ये भौगोलिक प्रक्रिया है...जिसे वैज्ञानिक भाषा में " बाढ़" कहते हैं। लेकिन जब डूब क्षेत्र की सीमा को भी नदी का पानी पार कर लेता है तो ये तबाही का कारण बनता है। जब हम कहते हैं कि बाढ़ से राज्य तबाह है तो हम इसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे होते हैं.... यानि पानी का डूब क्षेत्र को भी पार कर जाने वाली स्थिति। अमूमन डूब क्षेत्र के बाहर आबादी अधिक रहती है। हर साल ये आबादी इस नौबत से गुजरती है।
गंगा के दक्षिण की नदियाँ हिम पोषित नहीं हैं। भारी बारिश से ही इनमे सैलाब आता है। जबकि गंगा के उत्तर की अधिकाँश नदियाँ हिम पोषित हैं। हिम पोषित रहने के कारण ये " पेरेनियल रिवर " कहलाती हैं यानि ऐसी नदी जिसमे सालो भर पानी आता हो। यही कारण है कि मानसून की दस्तक से पहले भी इनमे बाढ़ आती है। कभी-कभार ये पानी डूब क्षेत्र को भी पार कर जाता है। ऐसा अक्सर मई के दुसरे और जून के पहले पखवाड़े में देखने में आता है। कमला- बलान नदी के किनारे रहने वाले हर साल इस स्थिति से दो-चार होते रहते हैं।
नदियों के अत्यधिक फैलाव के अन्य कारण भी हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की अंधा-धुन कटाई के कारण नदियों के पानी का बहाव तेज हो जाता है। तेज गति " सिल्ट" की अधिक मात्रा मैदानों तक पहुंचता है। नदी का ताल उठाता जाता है .... जिससे बाढ़ का पानी बड़े इलाके में फ़ैल जाता है।
बाढ़ के विस्तार की बड़ी वजह सिंचाई परियोजनाएं भी हैं। इन परियोजनाओं के तहत बराज या डैम और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तट बंध बनाए जाते हैं। तट बंधों के बीच की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती। नदी का पानी इन्हीं तट बंधों के बीच सिमटने को बाध्य रहता है। पानी के साथ जो सिल्ट आता है वो साल-दर-साल जमा होता रहता है। नतीजतन , तट बंधों के अन्दर जमीन का तल उठता रहता है। उधर तट बंध के बाहर की जमीन पहले की तरह रहती है यानि तट बंध के अन्दर की जमीन की अपेक्षा नीची । यही कारण है कि तट बांध के अन्दर पानी का दबाव बढ़ने पर तट बंध टूट जाता है.... और पानी नीची जमीन की तरफ भागता है। इस पानी का बेग इतना अधिक होता है कि लोगों को सुरक्षित स्थानों तक जाने का मौक़ा तक नहीं मिलता . इस साल भी सिकरहना, लखन्देइ, जमींदारी, त्रिवेणी नहर और दोन नहरों के तट बंध जब टूटे तो लोगों को भारी दुःख झेलना पड़ा।

सिंचाई परियोजनाएं जब पूरी हो जाती हैं तब लाभ के साथ साथ जो कष्ट भोगना पर सकता है उसकी बानगी की ओर इशारा किया हमने। अब हम बताते हैं आधी-अधूरी परियोजनाओं के खतरनाक परिदृश्य के संबंध में। अब बागमती परियोजना को ही लीजीये। ये बहु-उद्देशीये परियोजना अभी शुरू भी नहीं हुई है लेकिन इस नदी पर कई जगह तट बंध बना दिए गए हैं। ढ़ंग से रूनी सैदपुर तक नदी का पानी तट बंधों के बीच कैद रहता है जिसे रूनी सैदपुर से आगे खुला छोड़ दिया गया है। लिहाजा कट रा इलाका पूरी तरह जलमग्न हो जाता है। इससे भी विकत स्थिति कुशेश्वर स्थान और खगडिया की है। ये बताना दिलचस्प होगा कि २३ अगस्त को जिस समय कुशेश्वर स्थान में सूखे की स्थिति पर सरकारी अधिकारियों की बैठक चल रही थी उसी समय इस प्रखंड का सड़क संपर्क अनुमंडल मुख्यालय बिरौल से भंग हो गया। बाढ़ के पानी में सड़क डूब चुकी थी।
ना तो नेपाल में वर्षा ऋतू अलोपित हो जाएगी और ना ही हिमालय पर बर्फ पिघलना बंद होगा... ये भी अपेक्षा नहीं राखी जा सकती कि नेपाल भगवान् शिव की तरह ये सारा पानी जटाओं में कैद कर ले। समस्या के निपटारे के लिए नेपाल की सहभागिता को बल देना ही पडेगा।

31.8.10

बाढ़ का तांडव -- भाग 1

२३ - अगस्त .... सावन की अंतिम सोमवारी के दिन जब हजारो आस्थावानों ने कुशेश्वर स्थान मंदिर में जलाभिषेक किया तो उन्हें सहसा यकीन नहीं हो रहा था। जहां कई लोग भक्तिभाव में डूबे थे वहीं अन्य श्रधालु इस बात की तज-बीज कर रहे थे कि बीते सालों में सोमवारी के दिन इस मंदिर परिसर में कितना पानी हुआ करता था। बाढ़ की बिभीषिका झेलने वाले दरभंगा जिले के लोगों को उस समय भी हैरानी हुई जब अलीनगर के गरौल गाँव के पास सूखे खेतों में पानी पहुचाने के लिए ग्रामीणों ने कमला नदी के मूंह को ही बाँध डाला । ये अगस्त के दूसरे सप्ताह का वाकया है। हर तरफ जन-सहयोग के इस मिसाल की चर्चा हुई। अधिकारियों ने भी लोगों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
हालांकि जन भागीदारी से बना ये बाँध बाढ़ आते ही ध्वस्त हो गया। उधर बाढ़ के कारण कुशेश्वर स्थान का सड़क संपर्क २५ अगस्त को भंग हो गया। यहाँ के उन किसानो को मायूसी हुई जिन्होंने हजारो एकड़ में धान, सब्जी, और दलहन की खेती की थी। कम बारिश के कारण सिमरटोका, गईजोरी, इटहर , और भरेन गाँव के जल-जमाव वाले खेत भी सूख गए थे जिसको किसानो ने इन फसलों से आबाद किया था। आम तौर पर १५ अगस्त के बाद इस नक्सल प्रभावित इलाके में बाढ़ नहीं आती है। लेकिन किसानो के भरोसे पर फिलहाल पानी फिर गया है।

हाल के दिनों में बिहार में सूखे का मुद्दा इतना गरमाया कि पुर्णिया जिले में बाढ़ की दस्तक लोगों के जेहन को झकझोड़ नहीं पाया। दर असल बाढ़ के संबंध में बिहार में दो तरह के दृश्य उभरते हैं। एक दृश्य उस वर्ग का है जो बाढ़ का कहर झेलता है। दूसरा वर्ग है नेताओं, पत्रकारों और एन जी ओ का जो इसे उत्सव के रूप में लेता है। इस वर्ग को अपनी छवि चमकाने के लिए पहले वर्ग की असीम पीड़ा चाहिए। ऐसा इस बार नहीं हुआ है। इनकी नजर में बाढ़ से मरने वालों की संख्या इतनी नहीं बढी है कि आंसू बहाए जाएं। हालांकि पुर्णिया ने टीवी चैनलों को अच्छे विजुअल जरूर दे दिए .....नदी के कटाव से एक स्कूल भवन का लटकता हुआ आधा हिस्सा जिसके नीचे बहती तेज धारा.....
कुछ ही दिन बीते कि चंपारण में बाढ़ ने उग्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। गंडक, बूढ़ी गंडक, और अन्य सहायक नदियों के उफान से लोग सहमे हुए हैं। कई जाने जा चुकी हैं। बाल्मिकी नगर का टाइगर प्रोजेक्ट इलाका भी बाढ़ से अछूता नहीं रहा। पर्यटकों को आकर्षित करने वाले सैकड़ो वन्य जीव अचानक आई उफनती धारा में बह गए। नरकटिया गंज रेल-खंड पर ट्रेन परिचालन कई बार ठप करना पड़ा है। बगहा का सड़क संपर्क टूटा.....दोन नहर तो कई स्थानों पर तास के पत्ते की तरह भहर गई। बंगरा और तिलावे नदी का तट बंध ध्वस्त हो गया। सिकरहना तट बंध टूटने से सुगौली इलाके में जल- प्रलय का दृश्य बन गया। त्रि वेणी तट बंध भी धराशाई हो चुका है।

इधर बागमती नदी के उपद्रव से लोग सांसत में हैं। कटरा और औराई प्रखंड में स्थिति सोचनीये बनी हुई है। कटरा इलाके में तट बंधों के बीच के सैकड़ो घरों के ऊपर से पानी बह निकला। औराई के कई गाँव में लोगों ने पेड़ पर चढ़ कर जान बचाई। २५ अगस्त को सरकार ने आखिरकार गंडक, बागमती, और कोसी बेसिन में रेड अलर्ट जारी कर दिया। कोसी के पश्चिमी तट बंध पर जबरदस्त दबाव से अधिकारी सहमे हुए हैं। पानी का ये दबाव निर्मली के दक्षिण से जमालपुर तक बना हुआ है। दबाव को भांफ्ते हुए ही इस तट बंध की उंचाई तीन मीटर बढाने का फरमान जारी किया गया था। लेकिन महज एक मीटर उंचाई बढ़ा कर खाना पूरी कर ली गई। किरतपुर ढलान के निकट इस तट बंध के टूटने की आशंका से ग्रामीण डरे हुए हैं। तट बंध के अन्दर फंसे पचीसो गाँव टापू में तब्दील हो चुके हैं। अधिकाँश बाढ़-पीड़ित तट बंध और सरकार कि ओर से बने " रेज्ड प्लेटफार्म " पर शरण लिए हुए हैं।
बिहार में इस बार औसत से काफी कम बारिश हुई है। बावजूद इसके बाढ़ का कहर चिंता का कारण है। गंगा के उत्तर में बहने वाली अधिकाश नदियों का उदगम हिमालय है। बरसाती नदियाँ इन्हीं हिम-पोषित नदियों में मिलती हैं। ये हिम-पोषित नदियाँ बाद में गंगा में " डिसजोर्ज " होती हैं। गंडक सोनपुर के पास गंगा में मिल जाती है। इस इलाके की सबसे लम्बी नदी है- बूढ़ी गंडक । ये हिम-पोषित नहीं है और खगडिया के पास गंगा में जा मिलती है। जबकि कोसी , कुरसेला के निकट गंगा से संगम करती है। संगम से पहले कोसी बड़ा डेल्टा बनाती है। उधर, महानंदा , कटिहार जिले के गोदागरी के पास गंगा में समाहित होती है।
दर असल, गंडक से महानंदा तक नदियों का जाल बिछा है जो इस पूरे भू-भाग को एक-सूत्र में बांधता है। अधिकाश नदियों का ढाल उत्तर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में है। शरीर की शिराओं की तरह बहती ये नदियाँ सुख और दुःख का " पैटर्न " बनाती है ... ये नदियाँ एक सामान जीवन शैली का निर्माण भी करती। हर साल चंपारण से कटिहार तक बाढ़ तांडव मचाती है। दुःख लोगों को जोड़ता है। इनकी समृधि की राह में इन नदियों पर चल रह़ी आधी-अधूरी सिंचाई परियोजनाएं बाधक बन खडी हो जाती। कई इलाकों को सालो भर इसका खामियाजा भोगना पड़ता है। कुशेश्वर स्थान इसका " क्लासिक " उदाहरण है।
कुशेश्वर स्थान में बारिश हो या ना हो ....यहाँ बाढ़ जरूर आती है। इसी इलाके में बागमती , कमला-बलान, और कोसी के तट बंध जाकर ख़त्म होते। इसके आगे इन नदियों का सारा पानी पूरे क्षेत्र में पसर जाता है। बागमती बाद में बदला-घाट के पास कोसी में समाहित हो जाती है। इस साल भी बागमती कुशेश्वर स्थान में काफी पानी उड़ेल आई है। अधवारा समूह की नदियों का पानी भी हायाघाट में बागमती से जा मिलती है...जहां से आगे ये संयुक्त धारा करेह नाम धारण करती है।
अधवारा समूह और कमला बलान उफान पर हैं। ख़ास कर तट बंधों के बीच के गाँव और टोलों में रहने वाले सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं। यहाँ इनके सामने हर तरह की दिक्कतें हैं। रहने के लिए ठौर , भोजन, जलावन, पेय जल की व्यवस्था तो मुश्किल है ही साथ ही सर्प दंश की समस्या से भी इन्हें जूझना पर रहा है। महिलाओं को तो खासी परेशानी है। ये मुश्किलें हर बाढ़-पीड़ित इलाके में एक सामान है। राहत का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। अधिकारी फिलहाल बाढ़ में फंसे लोगों को निकालने की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। नाव की कमी आड़े आ रह़ी है। कमला-बलान तट बंध पर अधिकारियों की असल चिंता पेट्रालिंग की है। पिछले सालों में इस तट बंध को ग्रामीण कई बार काट चुके हैं।
.............................जारी है ..............................

31.7.10

आल गर्ल गेटअवे....

....संजय मिश्र...
पहाड़ों की वादियाँ.... कल कल करते झड़ने .... और पास ही छोटा सा घर। लोगों से दूर.... उस आबोहवा से दूर जहां बीते सालों की करवट मद्धम पद जाए....और इस घर में हो साजन का साथ....... ऐसे ही सपने देख तरुणाई बड़ी जिम्मेदारी ओढ़ लेती है... साथ साथ होने का ये अहसास आखिर दम तक फीका नहीं पड़ता...
लेकिन अमेरिका औए कनाडा की " लिबरेटेड " नारी इससे आगे देखने की आदी हो रही हैं। शादी से इनकार नहीं है ....प्रकृति - पुरूष मिलन से भी तौबा नहीं... पर महिला संगिनी का साथ इन्हें रास आने लगा है। जिन्दगी की भाग-दौर से फुर्सत मिली नहीं कि निकल पड़ती हैं देश- दुनिया की सैर पर...महिला मित्रों के साथ। --- आल गर्ल गेट अवे ---- का ये चलन पर्यटन उद्योग को नया आयाम दे रहा है।
सफल महिलाओं में बढ़ रही इस प्रवृति पर कई सर्वे हुए हैं। इनके मुताबिक़ घुमक्कड़ी के दौरान परिवार की महिलाऐं और संगिनी का साथ होने से सकून मिलता है और स्ट्रेस से निजात मिलती है। ये चलन हर तरह की आउटिंग में देखने को मिल रहा है। इस अनुभूति से वे इतनी रोमांचित हैं कि पर्यटन गाइड के तौर पर महिलाओं की ही मांग करने लगी हैं। ख़ास बात ये है कि हर उम्र की महिलाओं का रुझान इस तरफ बढ़ा है।
विशेषज्ञों की माने तो इससे -- सोसिअलाइजेसन -- की भावना मजबूत हो रही है। बड़ी बात ये है कि इन मौकों पर वो अपने बारे में सोच पाती हैं ....पति और बच्चों से दूर रह कर।। ये अहसास कि वो एक व्यक्ति हैं .... उन्हें बन्धनों से मुक्त होकर सोचने का अवसर मिलता है।
पर्यटन व्यवसाए के सर्वे के अनुसार करीब तीस फीसदी महिलाओं ने पिछले पांच सालों में इसका लुत्फ़ उठाया है। ये आंकडा चालीस फीसदी तक जाने का अनुमान है। आनंददायक पहलू ये है कि पुरूष इस ट्रेंड को उत्सुकता से देख रहे हैं।
भारत में " लिबरेटेड " और सफल महिलाओं की संख्या अच्छी- खासी है। जानकारों के अनुसार इनमे भी इस चलन का साझीदार होने का उताबलापन है। पर्यटन उद्योग को इस तरफ देखना चाहिए।

5.7.10

पलायन -----------भाग ७

करिके गवनमा भवनमा में छोरि के
अपने पड़इले पूरबवा बलमुआ
अंखिया से दिन भर गीरे लोर ठर ठर
बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआ......
पलायन के आगोश में दुखों का अंबार रहता है। ये किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है........ फिर कवि ह्रदय क्यों न चीत्कार करे। बिहार के साहित्य में पलायन का दर्द रह रह कर झांकता रहा है। इसमें मुरझाए चेहरों के पोर पोर से उभरते दर्द हैं....विरह की वेदना है....साथ ही जिम्मेदारिओं के बोझ से जूझते अफ़साने हैं। जब कोई व्यक्ति घर-बार छोर कमाने निकलता है तो भावनात्मक उफान और गृहस्थी चलाने की विवशता का असर सबसे ज्यादा उसकी पत्नी पर पड़ता है। आज की कवितायेँ हों या पुराने कवियों के पद....परदेस जाने की कसक फूट पड़े हैं। भिखारी ठाकुर और विद्यापति के पदों में पलायन की पीड़ा के सूक्ष्म आयाम आज भी विचलित करने की क्षमता रखते हैं।
सुखल सर सरसिज भेल झाल
तरुण तरनि तरु न रहल हाल
देखि दरनि दरसाव पताल.........
विद्यापति के इस पद में अकाल का वर्णन है। रौदी की वजह से तालाब सूख रहे हैं.... पल्लव सूख गए हैं.....खेतों में दरार आ गया है। ऐसे में गृहस्थी कैसे चले....परदेस तो जाना ही पडेगा। पत्नी घबराती है कि सुख तो जाएगा ही साथ ही परदेस जाकर पति कहीं उसे भूल न जाए। विद्यापति के एक पद में ये दुविधा है....
माधव तोंहे जनु जाह विदेसे
हमरो रंग- रभस लय जैबह लैबह कोण सनेसे .........
एक और पद देखें----
हीरा मनि मानिक एको नहि मांगब
फेरि मांगब पहु तोरा .......
बावजूद इसके जब पति पत्नी से विदेस जाने की अनुमति माँगता है तो पत्नी मूर्छित हो जाती है। ये पद देखें...
कानु मुख हेरइते भावनि रमनि
फूकरइ रोअत झर झर नयनी
अनुमति मंगिते वर विधु वदनी
हर हर शबदे मुरछि पडु धरनी ........
भाव-विह्वल पति जब रात में सोई हुई पत्नी को जगा कर विदेस जाने की सूचना देता है तो पत्नी घबरा कर उठती है..... लेकिन अपना गम पीकर पति की यात्रा मंगलमय बनाने के लिए विधान में लग जाती है । देखें ये पद --
उठु उठु सुन्दरि हम जाईछी विदेस
सपनहु रूप नहि मिळत उदेश
से सुनि सुन्दरि उठल चेहाई
पहुक बचन सुनि बैसलि झमाई
उठैत उठलि बैसलि मन मारि......
लेकिन पत्नी इतनी विकल है कि पति के लिए मंगल तिलक लाने की जगह एक हाथ में उबटन और दूसरे हाथ में तेल ( जो कि यात्रा के समय अशुभ माना जाता है ) ले आती है। देखें ये पद -----
एक हाथ उबटन एक हाथ तेल
पिय के नमनाओ सुन्दरि चलि भेलि ........
पति जा चुका है....पत्नी व्यथित है... भिखारी ठाकुर के पद में इस मनोभाव को महसूसें----
पिया मोर गईले परदेस ए बटोही भैया
रात नहि नींद दिन तुनीना चैन बा
चाहतानी बहुत कलेश ए बटोही भैया .......
पत्नी चाहती है कि वो सारे सुख त्याग दे लेकिन उसका पति लौट आये । कवि रवींद्र का ए गीतल देखें---
हम गुदरी पहीरि रहि जेबै
हमरा चाही ने रेशम के नुआ
हमर सासु जी के बेटा दुलरूआ
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे
आम मजरल मजरि गेलै महुआ
हे यौ सपने मे बीति गेलै फगुआ
हमर बाबूजी के कीनल जमैया
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे ......
रोना धोना छोड़ पत्नी घर की जिम्मेदारिओं मे रत हो जाती है। समस्याएँ फुफकारती हैं। भिखारी ठाकुर का ए पद बड़ा ही मार्मिक है -----
गंगा जी के भरली अररिया
नगरिया दहात बाटे हो
गंगा मैया , पनिया में जुनिया रोअत बानी
कंट विदेस मोर हो .....
घरेलू समस्याएँ सुलझाते सुलझाते वो न जाने कब पति की जिम्मेदारी ओढ़ लेती है .... इस काम मे वो इतनी मग्न है कि अपने आप को पति समझने लगती । अचानक से उसे भान होता कि वो तो नारी स्वभाव ही भूल गई। विद्यापति का इस अहसास का वर्णन दुनिया भर में अन्यतम माना जाता है-----
अनुखन माधव माधव सुमिरैत सुन्दरि भेल मधाई
ओ निज भाव स्वभावहि बिसरल अप्पन गुण लुब्धाई
अनुखन राधा राधा रटतहि आधा आधा वानि
राधा सौं जब पुन तहि माधव माधव सों जब राधा
दारुण प्रेम तबहु नहि टूटत बाढ़त विरहक बाधा .......
विपत्ति कम होने का नाम नहीं लेती ...उसके ह्रदय का हाहाकार विद्यापति के इस पद मे देखें---
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
ए भर बादर माह भादर
शून्य मंदिर ओर .....
अब वो मरना चाहती है ...... सखि से कहती है कि उसमे व्याप्त पति के गुण निधि किसे सौप कर जाए ----
मरिब मरिब सखि निश्चय मरिब
कानु हेन गुण निधि कारे दिए जाब .....
...........समाप्त......
नोट-- संबंधित मगही पद नहीं जुटा पाया .... इस ब्लॉग को सर्फ़ करने वाले ऐसे पद भेज कर मुझे अनुगृहित करें....
संजय मिश्र ।

4.7.10

पलायन का दर्द - भाग 6

बिहार के मजदूरों को पंजाब के किसान सेल फोन सहित अन्य सुविधाएँ देंगे ...... इस खबर की चहुँ ओर चर्चा हो रही है। इस शोर में केरल की सरकार की ओर से बाहरी मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाने की खबर दब सी गई। केरल ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्य सरकारें समय समय पर इन मजदूरों के हित के लिए चिंता जताती रहती हैं। इनके कल्याण के कई कदम उठाए भी गए हैं।
दरअसल , पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एन जी ओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए " दाग " नहीं हैं बल्कि इनका " असिस्टिंग रोल " उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे....ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में " ल्यूटिन दिल्ली " के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एन सी आर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को " स्लामिश लुक " से लगभग मुक्त कर दिया गया।

मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी " प्राडक्ट " बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब "स्किल्ड " हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं....उलटे मजदूरों के " पेशेवर " बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ..... सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि " पलायन थम गया " की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।
दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम २०० रूपए मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है। विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली " मायावी " भी है और उसकी " क्रूरता " का इतिहास भी पुराना है। यहाँ इनकी आबादी चालीस लाख के करीब है फिर भी " बिहारी" कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो " हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को " हिन्दू" कह कर चिढाया जाता .... गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।

पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है...जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिध्ह दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोद्नगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।
बे ढव जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं...उनकी आस अपनी अगली पीढी की सफलता पर टिकी है।

........ जारी है ....

2.7.10

पलायन --भाग 5

पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उनके राज्य में कृषि कार्य के लिए मजदूरों की कमी हो गयी है। इतना कहना था कि बिहार के सत्ताधारी नेताओं की बाछें खिल उठी। बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री ने दावा किया कि राज्य से खेतिहर मजदूरों का पलायन कम हो रहा है। बादल के बयान के एक दिन बाद यानि ५ मई को बिहार के प्रमुख हिन्दी अखबार में लीड खबर आई --- " बिहार से थमा पलायन "। बिहार के मुखिया ने तो इतना तक कह दिया कि राज्य के पुनर्निर्माण में इन मजदूरों का सहयोग मिल रहा है। बादल के बयान पर जिस अंदाज में नेताओं ने प्रतिक्रिया दी उसमे आपाधापी तो थी लेकिन उसका स्वर सहमा हुआ था।
बीते अगहन की ही बात है जब दरभंगा के हायाघाट इलाके से मजदूरों का एक जत्था पंजाब गया। लगभग दो महीने तक ये मजदूर फसल काटने की आस में वहाँ जमे रहे....लेकिन उन्हें काम नहीं मिला। साथ में जो जमा-पूंजी थी ..... खोरिस में चली गई। हताश....बेहाल ये मजदूर अपने गाँव लौट आये। आपको ये जान कर ताज्जुब होगा कि इन मजदूरों की आप-बीती उसी अखबार में प्रमुखता से छपी थी .......जिसने पलायन थम जाने की खबर दी। इन दोनों ख़बरों के बीच तीन महीने का फासला। तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि पलायन की समस्या हल होने के दावे होने लगे ? दरअसल , पलायन की चर्चा होते ही दावे किये जाते हैं लेकिन उसके पीछे की दृढ़ता का साहस कोई नहीं दिखा रहा। इस तरह का दावा तभी किया जाता है जब कहीं से कोई " फेवरेबल " बयान आ जाए। क्या बिहार सरकार के पास पलायन करने वाले मजदूरों का सही-सही आंकड़ा है ?
बादल को बिहार से होने वाले पलायन की कितनी समझ है ये कहना मुश्किल । हर सीजन में ... ये संभव है कि पंजाब के किसी इलाके में बिहारी मजदूर अधिक संख्या में पहुच जाते हैं तो दूसरे इलाके में इनकी संख्या कम पड़ जाती है। इनके पंजाब जाने का सिलसिला सालों से जारी है। इस दौरान नियमित पंजाब जाने वालों को दिल्ली में अवसर दिखा और इनकी अच्छी-खासी तादाद पंजाब की बजे दिल्ली में अटकने लगी। खेतिहर मजदूर...मजदूर बनते गए। पंजाब के किसानो की चिंता बढी। नतीजतन कृषि मजदूरों को लाने के लिए पगडीधारी सिख सीधे बिहार के गाँव पहुँचने लगे। ये सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब दिल्ली में बिहारियों की इतनी भीड़ नहीं हुई थी। बाद के समय में बिहार के अधिकाश गाँव में मजदूरों को पंजाब और अन्य जगह ले जाने वाले एक नए वर्ग का उदय हुआ जिन्हें " ठेकेदार" या " दलाल " कहा जाता है।
जब दिल्ली में भी अवसर " सेचुरेट " होने लगे तो इन मजदूरों ने गुजरात में ठौर ली। पंजाब और बम्बई की हिंसक वारदातों ने इस प्रक्रिया को गति दी है। अब पंजाब और दिल्ली का अधिकाँश " लोड " गुजरात उठाने लगी। इस राज्य में शहर-दर-शहर बिहारी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती है। नए अवसर की तलाश ने इन मजदूरों की प्राथमिकता यहीं तक सीमित नहीं रहने दी।
शुरू-शुरू में दक्षिन भारत में इनका जाना नहीं हो पाया। भाषा की समझ नहीं होना आड़े आया। लेकिन देश के इस हिस्से में भी इन मजदूरों ने पैठ बना ली है। हैदराबाद - विजयवाड़ा हाइवे पर पहाड़ की गोद में बसे रामोजी फिल्म सिटी में बिहारी मजदूर मिल जाएं तो आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए। आंध्र-प्रदेश के निर्माण उद्योग में इनकी अच्छी-खासी संख्या लगी है। कर्णाटक और केरल के प्लान्टेशन उद्योग में भी इनकी पहुँच बनी है। मजदूरों के ठेकेदार भाषा की समस्या से इन्हें निजात दिलाते। धीरे-धीरे बिहारी मजदूर तमिलनाडू में भी दस्तक दे रहे हैं।
.............जारी है..............

3.6.10

सिलमासी.....

संजय मिश्र
धारिणी , जननी ... ये शब्द न जाने कब से हमारे कल्पनालोक में समाए होंगे ...... जीवन यात्रा के लिए उत्पादन की जरूरत शायद जब से महसूस हुई होगी। ये जान आप कौतुहल से भर उठेंगे की लातविया में भी --उत्पादन -- से जुडा त्योहार -- मिडसमर-- वहाँ के चिंतन प्रवाह को झक झोरता रहा है।
रात भर जगना....मदिरा में डूब जाना .... फूल तोडती तरूणी .... और पेड़ों की झुरमुट के पीछे विचरते पुरूष .... सूरज उगने का इंतज़ार करते .... पर सुबह की आहट भर से जलन महसूस करते। यही पहचान है ...२३ जून ... को मनाए जाने वाले सालाना जलसे की। लेकिन ये त्योहार -- टेलर डेज इन सिलमासी -- के बिना अधूरा माना जाता है।
- टेलर डेज इन सिलमासी - नाटक साल १९०२ में लिखा गया। सौ सालों में इसने लोकप्रिएता के सोपान गढ़े हैं। लातविया के रीगा शहर का नॅशनल थियेटर - सिलमासी - का पर्याय बन चुका है। कहते हैं बच्चे ही नहीं बड़ों के जेहन में भी -- परी कथा -- जैसी ललक रहती है। सिलमासी इसी ललक को पूरा करता है।
२३ जून की शाम -- लाईगो -- कहलाती है। बेकरारी के इस समय में ये नाटक लोगों को मसखरी, उदारता, पीड़ा और चाहत की दुनिया में ले जाता है। इसमें तीन जोड़ों के जटिल प्रेम संबंध की कहानी है। ख़ास बात ये कि नाटक की मुख्य पात्र खेतिहर महिला है।
लातविया जब सोवियत संघ का हिस्सा बना तो इस नाटक पर पाबंदी लग गई। लेकिन स्टालिन की मृत्यु के बाद इसका मंचन फिर शुरू हुआ.... इसकी कहानी लोगों की जुबान पर है... जिसमे है लातविया के जीवन दर्शन की झांकी ....मंचन का सिलसिला जारी है...
कृषि प्रधान भारत में वैसे तो खेती से जुड़े त्योहारों की भरमार है लेकिन कृषि चेतना का संचार करने वाले नाटक इनका हिस्सा नहीं बन पाए ..... किसानी त्रस्त है। सरकार की सोच ने इसे पस्त कर दिया। नक्सली आन्दोलन ने भी किसान की जगह आदिवासियों को दे दी है। - सहमत - वालों आपको नहीं लगता की भारत को भी कोई -- सिलमासी -- चाहिए।

15.4.10

पलायन का सच --- भाग ४

-------------संजय मिश्र -------------
ये उस समय की बात है जब " कालाहांडी " की मानवीय विपदा ने दुनिया भर में चिंतनशील मानस को झकझोर दिया। इस त्रासदी को "कवर " करने गए पत्रकार याद कर सकते हैं उन लम्हों को जब संवेदनशील लोगों का वहाँ जाना मक्का जाने के समान था। कुर्सी पर बैठे लोग भी तब हरकत में आये थे। वहाँ एक स्त्री इसलिए बेच दी गई थी ताकि उन पैसों से अपनों का पेट भरा जाता। उड़ीसा में भूख मिटा नहीं पाने की बेबसी आज भी है। हार कर लोगों ने पलायन का रूख किया है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई आदिवासी महिलाएं ब्याह के नाम पर हरियाणा में बेच दी जाती हैं। उड़ीसा की ही सीमा से लगे छतीसगढ़ की एक आदिवासी महिला को पिछले साल इसी तरीके से बेचा गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि छतीसगढ़ सरकार को हस्तक्षेप करना पडा।
बिहार के कई पत्रकार भी उस दौर में कालाहांडी हो आए थे। वे हैरान हैं कि बिहार से होने वाले पलायन पर राज्य के हुक्म रानो का दिल क्यों नहीं पसीजता ? कुछ महीने पहले लुधियाना में हुई पुलिस फायरिंग में कई बिहारी मजदूर मारे गए। कहीं कोई हलचल नहीं ....... सब कुछ रूटीन सा। मरनेवालों के परिजन यहाँ बिलखते रहे...नेताओं के बयान आते रहे। इन मजदूरों को पता है कि उनकी पीड़ा से राज-काज वाले बिदकते हैं। यही कारण है कि इनकी प्राथमिकता अपनी काया को ज़िंदा रखने की है ... चाहे कहीं भी जाकर कमाना पड़े। पेट की आग के सामने सामाजिक दुराग्रह- पूर्वाग्रह टूटते गए हैं।
पलायन पहिले भी होता था। मोरंग, धरान, और ढाका जैसी जगहों पर इनके जाने का वर्णन आपको मिल जाएगा। शुरूआती खेप में उन लोगों ने बाहर का रास्ता पकड़ा जो स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे और मझोले किसानों के मजदूर थे। इन्हें हम इतिहास में बंधुआ मजदूर कहते हैं। ये खेती-बाडी में किसान के सहयोग में दत्त-चित रहते। इनकी स्त्रियाँ किसान के घरों की महिलाओं की सहायता करती। बदले में किसान अपनी जमीन पर ही इन्हें घर बना देते और इनके गुजर-बसर की चिंता करते। इन मजदूरों को दूसरे किसान के खेत में काम करने की इजाजत नहीं होती। मुक्ति की कामना , सांस लेने लायक आर्थिक साधन जुटाने, अकाल, रौदी, और बाढ़ जैसी मुसीबतों के चलते वे गाँव त्यागने को मजबूर होते। बिहार के साहित्यिक स्रोतों में " कल्लर खाना " और " खैरात " जैसे शब्द इन कारणों पर बहुत कुछ बता जाते हैं।
बाद के समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी इनके साथ हो लिए। इनके साथ समस्या हुई कि किसानी से होने वाली आमदनी साल भर का सरंजाम जुटाने में नाकाफी होती। कष्ट के समय में बंधुआ मजदूरों को अपने किसान से जो आस रहती वो भूमिहीन मजदूरों को नसीब नहीं । आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास की हवा बही। इसमें गाँव को आर्थिक इकाई के रूप में देखने पर कोई विचार नहीं हुआ। नतीजतन स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। जातिगत पेशों से जुड़े लोगों पर इसका मारक असर हुआ। हर परिवार के कुछ सदस्य परदेस जाने लगे। प्राकृतिक मार से भी जिन्दगी तबाह हुई.... गृहस्थी चलानी मुश्किल। इस दौर में ब्राह्मण भी बाहर जाने लगे। पुरनियां ( पुर्णियां ) , कलकत्ता, और असम के चाय बागानों में इनकी उपस्थिति दर्ज हुई। फूल बेचने , पंडिताई करने, भनसिया ( खाना बनाने का काम ) बनने से ले कर हर तरह के अनस्किल्ड काम वे करने लगे ।
कलकत्ता, ढाका और असम जैसी जगहों पर इन्होने आधुनिक आर्थिक गतिविधियों के गुर सीखे। इसके अलावा एक वर्ग बाल मजदूरों का उभरा जो भदोही के कालीन उद्योग में भेजे जाने लगे। समय के साथ इस फेहरिस्त में कई जाति के बच्चे शामिल हो गए। वे अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने में संबल बने।
बिहार की सत्ता में लालू का आधिपत्य यहाँ के जन-जीवन में अनेक तरह के बदलाव लेकर आया। इसी दौर ने पलायन की पराकाष्ठा देखी। आम-जन से संवाद की देसज शैली के कारण लालू राजनीति में नए तेवर कायम करने में सफल हुए। लीक से हट कर सोसल इंजीनियरिंग को आजमाया। पिछड़ों के उभार में जबरदस्त कामयाबी मिली....और उनका डंका बजने लगा। लेकिन स्पष्ट ध्रुवीकरण ने गाँवों में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बटाईदारों को बटाई वाली जमीन दे देने की सरकारी प्रतिबद्धता से किसान भयभीत हुए। नतीजतन अधिकतर किसानो ने बटाई वापस ले ली। खेत " परती " जमीन में तब्दील होते गए। किसानी चौपट हो गई। आखिरकार बटाई से विमुख हुए खेतिहर मजदूर पलायन को बाध्य हुए। खेती के अभाव में किसानो की माली हालत खराब होती गई। कुछ साल संकोच में बीता । बाद में वे भी पलायन करने लगे।

लालू युग " किसान के मजदूर " बन जाने की गाथा ही नहीं कहता ....इसी समय ने " विकास नहीं करेंगे " की ठसक भी देखी। सरकारी उदासीनता के कारण एक-एक कर चीनी, जूट, और कागज़ की मिलें बंद होती गई। कामगार विकल हुए। ये उद्योग नकदी फसलों पर टिके थे । लिहाजा किसानो ने इन फसलों से मुंह फेर लिया। समय के साथ उद्योगों से जुड़े कामगारों और किसानों की अच्छी खासी तादात दिल्ली .... बम्बई जाने वालों की टोली में शामिल हो गई। निम्न मध्य वर्ग के अप्रत्याशित पलायन ने गाँव की उमंग छीन ली है। वहां बच्चे, बूढ़े, और महिलाएं तो हैं लेकिन खेत काबिल हाथों के लिए तरस रहा है।
पहले तीन फसल आसानी से हो जाता था । अब दुनिया दारी एक फसल पर आश्रित है। पलायन करने वालों ने भी सुना है कि बिहार का विकास हुआ है...और ये कि अगले पांच सालों में ये विकसित राज्य बन जाएगा। वे बस ...बिहुंस उठते हैं। वे जानते हैं कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव के समय उनसे गाँव लौट आने की आरजू की जाएगी। अभी तक ये आरजू अनसूनी की गई हैं । पलायन करने वालों को नेताओं का अनुदार चेहरा याद है। उजड़ने का दुःख ....संभलने की चुनौती ...और ठौर जमाने की जद्दोजहद को वे कहाँ भूलना चाहते ।
------------------जारी है................

3.4.10

पलायन पर दुविधा ----- भाग ३

........... संजय मिश्र ..........


उत्तर - प्रदेश की पूर्वी सीमा से लगा एक रेलवे स्टेशन है - सुरेमनपुर । एक तरफ बिहार का प्रमुख शहर छपरा तो दूसरी ओर यू पी का बलिया । संपूर्ण क्रान्ति के अगुवा जेपी और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के इलाकों के बीच बसा है सुरेमनपुर । दिल्ली से बनारस होते हुए किसी सुपर-फास्ट ट्रेन से जब आप बिहार जाएं तो ग्रामीण आवरण समेटे इस स्टेशन पर ट्रेन का ठहराव आपको हैरान करेगा । बिना विस्मय में डाले आपको बता दें कि इस छोटे से स्टेशन पर दिल्ली के लिए टिकट की बिक्री छपरा से ज्यादा होती है। इसी आधार पर सुपर फास्ट ट्रेनों का ठहराव यहाँ दिया गया।


स्थानीय यात्री बिना लाग- लपेट आपको बताएंगे कि इस क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन होता है। इनकी बातें ख़त्म होंगी भी नहीं कि सरयू नदी आपको यूपी की सीमा से विदा कर रही होगी। कुछ ही देर में आप छपरा में होंगे..... जी हाँ पलायन करने वालों का एक प्रमुख जिला । आपको याद हो आएगा ..... वो पुराना छपरा जिला जिसके सपूत बिहार के नीति- नियंता बनते रहे हैं। इन्होने राज्य की "डेस्टिनी " तो जरूर निर्धारित की लेकिन बिहार की निज समस्याओं से कन्नी काटते रहने का दुराग्रह भी दर्शाया। छपरा से निकलें तो पांच- सात घंटे के बाद ट्रेन आपको दरभंगा स्टेशन पर उतार चुकी होगी ..... एक बड़ा सा स्टेशन....अपेक्षाकृत बेहतर फेसलिफ्ट लिए एक नंबर प्लेटफार्म ..... काफी स्पेसियस । जिस रूट से आपकी ट्रेन आई है .... यकीनन आप बीच रात में पहुंचे होंगे। आपका सामना होगा एक नंबर प्लेटफार्म के फर्श पर लेटे हुए हजारों " लोगों " से। इन्हें इन्तजार है सुबह का ...जब वे अपने " गाम " की बस धरेंगे। व्यग्रता के बीच कमा कर लौटने का संतोष। पलायन....संघर्ष....रूदन...सब पर भारी पड़ती बेसब्री की धमक।


लेकिन " रूदन " से बेपरवाह यहाँ के रेल अधिकारी खुश हैं कि समस्तीपुर रेल मंडल में सबसे अधिक टिकट की बिक्री दरभंगा स्टेशन में ही होती है। इसी को आधार बना कर स्टेशन के विकास के लिए " फंड " की मांग भी की जाती है। टिकट काउंटरों पर यात्रियों की भीड़ को नियंत्रित करने क लिए नियमित पुलिस बंदोबस्त देखना हो तो यहाँ चले आइये ।
कमोबेश ऐसे दृश्य मुजफ्फरपुर, सहरसा, पटना और राजेंद्रनगर स्टेशनों पर आम हैं। ये दृश्य बिहार के हुक्मरानों , पत्रकारों, और अन्य सरोकारी लोगों को विचलित नहीं करते।
पलायन को समस्या मानने वालों के बीच अनेक धाराएं मौजूद हैं। मोटे तौर पर बिहार में तीन तरह का विमर्श दिखेगा। इसके अलावा दिल्ली में बैठे सुधीजन की समझ अलग ही सोच बनाती है। पहली धारा पलायन से जुडी निर्मम परिस्थितियों का आकलन करती है जो असीम दुखों का कारण बनती। ये असहाय लोगों के अथाह गम को रेखांकित करता है...साथ ही पलायन के कारण घर-परिवार और समाज की समस्त अभिव्यक्ति पर पड़ने वाले असर पर भी नजर डालता। इस मौलिक विमर्श ने जो चिंता जताई वो पलायन के दूरगामी नतीजों पर हाहाकार है। इस धारा का मानना है कि बिहार के कर्मठ हाथ दुसरे प्रदेशों की समृधि बढ़ा रहे। इनके अभाव में...फिर अपने प्रदेश का क्या होगा? इनका आग्रह है की पलायन को किसी भी तरह रोका जाना चाहिए। इस धारा के अध्येताओं में अरविन्द मोहन प्रमुख नाम हैं।
दूसरी धारा के प्रणेताओं में अग्रणी हैं हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत । इनके विश्लेषण में संदर्भित बदलाव देखा जा सकता है पर मूल स्वर अभी भी वही है। इस धारा का मर्म लालू युग के दौरान परवान चढ़ा। पलायन को समस्या तो माना गया लेकिन इस शब्द से इस धारा के लोगों का " असहज " होना जगजाहिर है। इनकी नजर में पिछड़ावाद का अलख जगाने वाले लालू को पलायन के " विकराल " रूप का आइना नहीं दिखाया जाना चाहिए। वे मानते रहे हैं कि लालू का वंचितों को जगाना पुनीत काम था लिहाजा पलायन के कारण किसानी चौपट होने और लालू राज में " अविकास " के सरकारी क़दमों को " माइनर एबेरेशन " माना जाना चाहिए। इस धारा के घनघोर समर्थक आपको याद दिलाएंगे कि पलायन तो पहले से होता आया है। श्रीकांत जोर देते हैं कि पलायन करने वालों में कुशलता बढी है।
बेशक उनकी कुशलता में निखार आया है। जो अनस्किल्ड थे वो स्किल्ड हुए। पर इसका फायदा किसे मिल रहा? योजना आयोग ने कुछ समय पहले बिहार टास्क फ़ोर्स का गठन किया। इसके सदस्यों ने जो रिपोर्ट सौंपी उसके मुताबिक़ बिहार में रह रहे " कमासूत " लोगों की कुशलता बढाए बिना राज्य का अपेक्षित विकास संभव नहीं। पलायन करने वाले इस मोर्चे पर वरदान साबित हो सकते हैं। पर उन्हें रोकेगा कौन ? निश्चय ही नीतीश और उनके सिपहसालारों को " पलायन " शब्द अरूचिकर लगता है। नीतीश ने सत्ता संभालते ही घोषणा की थी कि तीन महीने के भीतर पलायन रोक दिया जाएगा। ऐसा हुआ नहीं....घोषणा के पांचवें साल तक भी नहीं। नीतीश के कुनबे को डर सताता रहता है कि कोई इस घोषणा की याद न दिला दे।
ये तीसरी धारा के पैरोकार हैं जो मानते हैं कि पलायन पर अंकुश लगा है। इनका आवेस है की राज्य के सकारात्मक छवि निर्माण की राह में पलायन की सच्चाई " बाधक " न बने। राज्य के ग्रोथ रेट पर वे बाबले हुए जा रहे हैं। ग्रोथ की ये बयार आखिरकार पलायन पर समग्र लगाम कसने वाला साबित होगा... ऐसा भरोसा वे दिलाएंगे। वे बताएंगे कि सामाजिक न्याय के साथ विकास ज्यादा अहम् है इसलिए पलायन जैसी समस्याओं पर चिंता करने की जरूरत नहीं। नीतीश के रूतबे में आंच न आ जाए .... इसलिए ये खेमा मीडिया को छवि निर्माण के लिए राज्य का " पी आर " बन्ने की नसीहत भी दे रहा। पटना की हिन्दी मीडिया का बड़ा वर्ग इस " रोल " से आह्लादित भी है।
..............जारी है .......

27.3.10

पलायन का अर्थशास्त्र -----भाग-2

--------संजय मिश्र ---------
बिहार की फिजा इन दिनों बदली-बदली सी है। ड्राइंग रूम से लेकर चौक - चौराहों तक ' ग्रोथ रेट ' की चर्चा हो रही है। मन पर छाए ग्रोथ रूपी ' ओवर टोन ' के मुत्तलिक सबके अपने अपने दावे हैं.... तर्क और वितर्क में उलझे हुए। और इन सबके बीच ' मनी ऑर्डर इकोनोमी ' की मौजूदगी कहीं गुम हो गई है .....जी हाँ वही ' मनी आर्डर इकोनोमी ' जो ' जंगल राज ' के आरोपों के दौर में बिहार का संबल बनी। ' वाइल्ड इस्ट फेनोमेना ' का प्रतिफल थी ये। इस तरह की इकोनोमी का संबंध असहज परिस्थितियों में पलायन करने वालों के हार - तोड़ मेहनत से उपजी गाढी कमाई से है जो राज्य की अर्थव्यवस्था को संभालती रही।
क्या ' मनी आर्डर इकोनोमी ' आज भी बिहार की गतिशीलता का आधार है ? बिहार के पोस्ट-मास्टर जनरल आफिस के अधिकारियों से इस संबंध में बात हुई तो उन्होंने राज्य में आने वाले मनी आर्डर की संख्या में पिछले दस साल में दस फीसदी से अधिक कमी की और इशारा किया। उधर दरभंगा में पोस्टल डिपार्टमेंट के अधिकारियों ने जो आंकड़े दिए उसके मुताबिक़ जिले में आने वाले मनी आर्डर की संख्या में इस दौरान ११ से १२ फीसदी के बीच गिराबट दर्ज हुई। ये आंकड़े साल २००१ से २००९ तक के हैं। साल २००२ के आंकड़े को छोड़ दें तो साल दर साल की गिरावट एक ' पैटर्न ' बनाती है। ख़ास बात ये है की इस अवधि के दौरान राज्य में राबडी देवी और नीतीश कुमार की सरकारें रही हैं।
क्या इस गिरावट का संबंध पलायन में लगे किसी प्रकार के ब्रेक से है ? पोस्टल अधिकारियों ने हालांकि मनी आर्डर की संख्या में कमी के अलग ही कारण बताए। इनकी माने तो राज्य में बैंकिंग सेवा के बढ़ने के कारण ये ' ट्रेंड ' दिख रहा है। आनलाइन बैंकिंग ने मनी आर्डर सेवा पर असर डाला है ....ऐसा उनका मानना है। इसके अलावा मनी आर्डर के जरिये अधिकतम ५००० रूपये भेजने की सीमा को भी वे इसकी वजह बताते हैं।
अब सवाल उठता है की क्या बिहार में बैंकिंग सेवा का अपेक्षित और एकसमान विस्तार हुआ है ? जिन इलाकों से बड़ी संख्या में पलायन हो रहे हैं उस पर निगाह डालें। दरभंगा जिले के बिरौल , घनश्यामपुर , किरतपुर, कुशेश्वरस्थान , मधुबनी जिले के झंझारपुर और बेनीपट्टी , सीतामढी और शिवहर जिलों के बाढ़ग्रस्त इलाके , मुजफ्फरपुर के पूर्वी- दक्षिणी क्षेत्र , समस्तीपुर का हसनपुर इलाका , खगड़िया जिले के सालो भर जलजमाव झेलने वाले अधिकाँश इलाके , सहरसा और सुपौल जिले के पश्चिमी क्षेत्र , कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के बीच का विस्तृत भाग .... बैंकिंग सेवा के मामले में हतोत्साहित करने वाला परिदृश्य पेश करता है।
इस बीच फरवरी महीने में ही रिजर्व बैंक की केंद्रीय बोर्ड की पटना में बैठक हुई। बैठक में हिस्सा लेते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बा राव ने बिहार के सभी ब्लाकों में बैंक की शाखा नहीं होने पर घोर चिंता जताई। इसी बैठक में भाग लेने आए तेंदुलकर कमिटी के अध्यक्ष - एस तेंदुलकर ने खुलासा किया कि राज्य में गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है।
एक तरफ बैंकिंग सुविधा की कमी, दूसरी ओर गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी । तो फिर मनी आर्डर की संख्या में गिरावट का रूझान क्या दिखाता है ? दरअसल इसका जवाब जगदीश और बिलट के बीच पनपे लेन- देन में तलाशना होगा ।
.................................जारी है................................

25.3.10

पलायन का अर्थशास्त्र ----भाग-1

संजय मिश्र
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जहाँ से निकले वहाँ दिक्कत ..... जिनके चमन में पहुंचे उन्हें तकलीफ। आखिरकार मन में आशंकाओं के उफान को थामे ही कोई घर-बार छोड़ता है। चित बेजान करने वाला शब्द - पलायन --यानी किसी जन-समूह की वो तस्वीर जिसके हर पिक्सेल में भयावह दर्द तो है लेकिन आज के दौर के राजनीतिक स्पेस में मुद्दा बनने की तपिश से महरूम ....यानी निरीह। लिहाजा ये झांकता है पर देखने वाले को बेदम नहीं करता। पिछले लोक सभा चुनाव के समय से अब तक पलायन की चर्चा गाहे-बगाहे हो रही है। नरेगा को महिमा-मंडित करने , उसे क्रांतिकारी कदम साबित करने के मंसूबों की वजह से भी ऐसा हो रहा है। लुधियाना, बम्बई, और दिल्ली में पलायनकर्ताओं के मौन चीत्कार समय-समय पर इस त्रासदी की याद दिलाते। निश्चित तौर पर कुछ महीनो बाद बिहार में होने वाले विधान-सभा चुनाव तक अखबार के पन्नो में इस शब्द को जगह मिलती रहेगी।
कहा जा रहा है कि नरेगा वो जादुई छडी है जिसने पलायन को ना सिर्फ रोका है बल्कि उसका खात्मा करने वाला है। पलायन पर सालो काम कर चुके तमाम पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, और पोलिटिकल एक्टिविस्ट भौचक हो अपने अनुभवजन्य राय को फिर से टटोलने में मशगूल हैं। हाल ही दिल्ली से बिहार जाना हुआ तो ये सारे सवाल जेहन में घुमड़ रहे थे। नई दिल्ली स्टेशन पर अलग ही तरह की अफरा-तफरी का माहौल था....रिजर्वेशन टिकेट के बावजूद यात्रियों में निरहट बिहारी हडबडाहट के दर्शन हो रहे थे। खैर जैसे-तैसे अपनी बर्थ पर पहुंचा ही था कि कोई जोर से चिल्लाया....अबे हट यहाँ से...
कुछ सोच पाटा तब तक सामान से भरा प्लास्टिक का बोरा मेरे पैर से टकराया। जब तक चोट को सहलाता ....बोरा मेरी बर्थ के नीचे ' एडजस्ट' कर दिया गया था। कुछ ही देर में सामान चढाने वाले ओझल हो चुके थे और रह गए एक सज्जन ..पलथी मार मेरे सामने वाले बर्थ पर आसन जमा चुके थे। चेहरे पर पतली सी मुस्कान...बीच-बीच में मोबाइल पर दबती उनकी अंगुली।
उनके हाव-भाव से इतना तो समझ आ ही गया था कि गाँव-घर छोड़कर पहली बार दिल्ली आने वालों की फेहरिस्त में शामिल नहीं हैं वे। बेतहासा पलायन के शुरूआती दौर में ही दिल्ली आ गए होंगे। अब तजुर्बा हो गया है...सो सफ़र के दौरान सावधान और ' कांफिडेंट' दिखने की हरचंद कोशिश। खैर ...कुछ ही घंटों में बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया। पता चला ...नाम जगदीश साहू है और दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान के नजदीक किसी गाँव के रहने वाले हैं। दिल्ली के आजादपुर इलाके में कई सालों से खीरा बेच रहे हैं। ' रेडी' पर नहीं... आजादपुर मंडी में बजाप्ता एक पटरी मिल गई है। जगदीश बड़े गर्व से कहते हैं---गद्दी है...खीरा का हौल सेल करते हैं।
पांच किलों से कम माल वे जोखते ही नहीं हैं। आमदनी का सवाल सुनते ही हिसाब लगाने लगते हैं...वही नौ-दस हजार हो जाता है। उनके गाँव के तीन और यात्री ट्रेन में सफ़र कर रहे थे। थोड़ी ही देर में ये आभास हो चला कि जगदीश साहू ' मेठ' की भूमिका में थे। अनायास ही उसने कहा- चार-पांच सौ रूपया ही साथ लेकर चलते हैं। ट्रेन में टीटीई की छीना-झपटी , और दरभंगा स्टेशन पर पाकिटमार गिरोहों के खतरे से वाकिफ ..जगदीश ने काफी रूपये पहले ही घर भेज दिए थे।
मैं गुण-धुन में पडा रहा। कुशेश्वर स्थान तो कालाजार, मलेरिया, और बाढ़ के लिए जाना जाता है। उस इलाके में एटीम काम करता होगा सहसा विश्वास करना मुश्किल। मनी आर्डर का भरोसा नहीं क्योंकि पोस्ट मास्टर की जेब से कितने महीनो बाद ये जरूरतमंदों को मिलता होगा कहना कठिन । मेरी उत्सुकता का निराकरण जगदीश ने ही किया। दरअसल उसके गाँव में एक ही ब्राह्मण परिवार है जिसके मुखिया हैं...बिलट झा। बिलट भी अब दिल्ली में ही रहते हैं। पहले कुछ काम-धंधा किया पर फ़ायदा नहीं हुआ। जैसे तैसे पैसे जोड़कर मोटर साईकिल खरीदी। गाँव में बिलट का छोटा भाई रहता है। जिसके पास कुछ ' रनिंग मनी ' का इंतेजाम बिलट ने कर दिया हुआ है। बिलट का काम है दिल्ली में रह रहे उसके गाँव -जबार के लोगों से संपर्क करना। जिसे भी रूपये गाँव भेजने होते हैं वो बिलट को रकम दे देता है। तत्काल बिलट के भाई को इसकी सूचना दी जाती है। औसतन दो घंटे के भीतर संबंधित व्यक्ति को रूपया ' पे ' कर दिया जाता है। जगदीश के मुताबिक़ रूपये-पैसे भेजने का इस तरह का इंतजाम दिल्ली के हर उस इलाके में जड़ जमा चुका है जहां प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में रह रहे हैं।
यानि बिहार के हर बड़े गाँव के जो लोग ' दिल्ली कमाते हैं '..उनके बीच का कोई एक सदस्य बिलट की भूमिका में है। बिलट होने के लिए कोई बंधन नहीं...महज गाँव में उसके परिजन के पास ' रनिंग मनी ' हो...साथ ही गाँव वालों का उस पर भरोसा हो। जात-पात-धर्म ...का कोई बंधन नहीं। फिलहाल इस व्यवस्था को कोई नाम नहीं दिया गया है। कमीशनखोरी कह लें...निजी बैंकिंग सेवा कह लें...या फिर हवाला कारोवार का देसी संस्करण। अब थोड़ी बात लेन-देन के इस सरोकार के पीछे के फायदे की। जगदीश साहू जैसों को ६ रूपये प्रति सैकड़ा अदा करना पड़ता है। यानि एक हजार के लिए ६० रूपये....ऐसे ही दस हजार रूपये घर भेजने के लिए ६०० रूपये लगेंगे। कमीशन की रकम ...संभव है...बहुतों को अधिक जान पड़े। लेकिन जगदीश साहू समय पर और सुरक्षित सेवा को ज्यादा अहमियत देते हैं। ये भी संभव है की दिल्ली के अन्य इलाकों में ये ' रेट ' कम-ज्यादा हो। वैसे भी दिल्ली में २५ फीसदी मजदूर ही परिवार के संग रह रहे हैं। शेष ७५ फीसदी के लिए तो कमाई का अधिकाँश हिस्सा गाँव भेजना प्राथमिक मकसद है। पंजाब, गुजरात, बम्बई कमाने वालों के बीच भी लेन देन का ये चलन जोर पकड़ रहा है। पलायन के मुद्दे पर काम करने वालों को इस आर्थिक पहलू पर गहन पड़ताल करनी चाहिए।
.......जारी है............

30.1.10

वेलेंटाइन डे और प्रेम


सैसव जीवन दर्शन भेल .....दुहु दल- बलहि दंद परि गेल
कबहु बांधाय कच कबहु बिथार ....कबहु झाँपे अंग कबहु उधार
थीर नयान अथिर किछु भेल .... उरज उदय - थल लालिमा देल
चपल चरन , चित चंचल भान .... जागल मनसिज मुदित नयान
विद्यापति कह करू अवधान .... बाला अंग लागल पञ्च बान
......ये एक तरुणी की व्यथा है .... वो हैरान है अपने शारीरिक परिवर्तन से .... समझ नहीं आता क्या करे .... पहले पैर चंचल थे ... अब मन में भी हलचल है ... नए अहसास ने दे दी है दस्तक ... मालूम नहीं कैसी प्यास सी जग गई है ...शोख बचपन पर अल्हड़ता कितनी हाबी हो गई है ...
ऐसे ही अनजान लेकिन खीझ भरे उहापोहों के बीच कब कौन प्यार की दहलीज पर कदम रख दे ..... पता भी नहीं चलता। ये भान अचानक से होता है।
कौन जाने प्रेम किसे कहते.. परिभाषित करने से चूकने लगते हैं लोग ... कुछ बाते कह पाते हैं बस .... नर -नारी के बीच प्रेम इस खिंचाव के बाद पलने लगता है। अपनेपन की अनुभूति आकार लेने लगती है ... मोह जगने लगता है। प्रकृति भी ऐसे में मुस्कुराने लगती ... पक्षी कलरव कर आपका स्वागत करते। मन चाहता ये मोह परिणति की ओर बढे ।
ऐसे समय में परिणति का पूरा आभास भी कहाँ हो पाता.....तड़प सुख का अहसास कराने लगता ... मिलन पर नजरें टिक जाती... दृढ़ता को संबल मिलता .... पग-पग कदम बढ़ते .... एकाकार होने की चाहत उभर आती । राह हमेशा आसान कहाँ रह जाता... बाधाएं सर उठा लेती हैं। फिर दौर शुरू होता है विरह की ताप का। दुनिया में कितने साहित्य रच डाले गए ....
परिणति जो आकार ले .... साथ देने की उत्कंठा कभी मंद नहीं पड़ती । इसका शिखर समर्पण के रूप में प्रकट होने लगता है। इसके बाद की निष्ठा - लौकिक प्रेम के परलौकिक बन जाने की ओर प्रवृत होता है। आध्यात्म इसे सत चित- आनंद की अवस्था मानने लगता... यहाँ आकर प्रेम देव लोक की अनुभूति में बदल जाता है।

विज्ञान के नजरिए से देखें तो प्रेम नशा लेने के समान है । प्रेम करने वाले दुनिया से विरत भाव रखने लगते । आँखें जब मिलती है तो कहते हैं ब्रेन से - डोपामाइन - नामक रसायन निकलता है । नतीजतन धड़कन सामान्य से तीन गुना ज्यादा हो जाता है । खून का प्रवाह इस समय गाल और ख़ास इन्द्रियों में अधिक होता है ...अचानक पेट में खालीपन का अहसास होने लगता है। इस दौरान हाथ और पांव में खून का प्रवाह कम रहता है यही कारण है की प्रेमी के हाथ ठंढे और स्थूल से हो जाते और शरीर कांपने लगता है... नर्वसनेस चरम पर पहुँच जाता है।

चिकित्सक मानते हैं कि प्रेम का समागम रूप अछा व्यायाम है...भारतीय सौंदर्य शास्त्र में भी समागम को योग आसन के रूप में देखा गया है। प्रेम- रत रहने वाले अनेक रोगों पर अंकुश रखने में समर्थ हो पाते हैं...आकुलता यानी एन्ग्जाईटी भी दब जाती है। शोध बताते हैं कि इससे इम्यून सिस्टम मजबूत बना रहता है॥ यानी प्रेम करिए ....साथ ही इन्फेक्सन की चिंता से दूर रहिये...
सवाल उठता है कि प्रेम महज रासायनिक प्रक्रिया है तो ये सबसे क्यों नहीं हो जाता। शोध बताते हैं कि प्रेम के दौरान ख़ास तरह कि रसायन निकलती है जिसे नाक तो नहीं लेकिन ब्रेन पहचान लेता है। यही कारण है की लोग संबंधियों से आसक्त नहीं होते।
इतनी पवित्र बातें और ब्रेन कि चर्चा ... पर आप हैरान रह जाएंगे ये जान कर कि गहरे प्रेम में रत रहने के समय भी ब्रेन का बहुत ही छोटा हिस्सा सक्रिय रहता है । जबकि दोस्ती की भावना और दोस्तों से मिलने के समय ब्रेन का बड़ा हिस्सा सक्रिय रहता है। तभी तो शायद दो दिलों के बीच के सभी भावों में निजता रहती है। जैसे नशा लेने पर सभी - फील गुड - की दशा में होते... प्रेमी की मनोदशा भी ऐसी ही होती है... ख्यालों में तो वे अक्सर पाए जाते।

प्यार करने वाले कहेंगे कि प्रेम - जीन, रसायन, और हारमोन से ऊपर की चीज है... दुनिया जले या बिहुँसी उठे ....पर प्रेम रत इंसान मुदित, तृप्त, और खुश रहता है। विलक्षण प्रतिभा वाले इंसान ... कहते हैं कि प्रेम में भी अछे रहे होते हैं। पर हे किशोरों ...आप समझ रखने लायक उम्र में प्रवेश तो कर जाएं। वेलेंटाइन डे की आपको शुभकामनाएं .... बसंत सदा मोहक साबित हो....

2.1.10

अलग राज्य की मांग क्यों ? सन्दर्भ मिथिला

अलग राज्य की मांग क्यों ? सन्दर्भ मिथिला



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संजय मिश्र



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तेलंगाना ने कांग्रेस को जोर का झटका दिया है। कड़वा घूँट पीने को मजबूर ये पुरातन पार्टी अब इस चक्रव्यूह से निकालने की कोशिश कर रही है। देश भर में इस मुद्दे पर चर्चाएँ गरम हैं। कोई छोटे राज्य बनाम बड़े राज्य के विमर्श में लगा है तो किसी को राष्ट्रीय अखण्डता पर खतरा नजर आ रहा है। राष्ट्र के जीवन में ऐसे मौके आते हैं जब सरकारों के साथ- साथ राजनीतिक दल , आम जन और सोच-विचार वाले लोग असहजता महसूस करते। अभी चहुँ ओर यही दिख रहा है। के चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना के मुद्दे पर हो रहे लुका- छिपी के खेल की सीमा को उघार कर रख दिया है।



आखिर ऐसी मांग उठती ही कयों है ? कहा जा रहा है की विकास में पिछड़ने वाले क्षेत्रों से इतनी बड़ी मांग नहीं उठाई जानी चाहिए । संभव है ऐसे सवाल करने वाले विकास को समग्रता में देखने की जगह संकुचित अर्थों में देखते हों ....दो चार फैक्ट्रियां स्थापित कर देने और सड़कें बना देने को ही वो विकास समझते हों। यानी वे मान रहे हैं की अलग राज्य की मांग करने वाले देश के साथ इन्जस्तिस कर रहे हैं।



दरअसल मामला इतना सरल नहीं है। माहीनी से देखें तो परत-दर-परत सवाल उठते जायेंगे ..... सत्ता में बैठे लोगों के नीयत की निरंकुशता , भेद-भाव पूर्ण नीतियाँ और आकांक्षाओं के दमन की कहानियां निकलती ही चली जाएंगी । इन परतों के बीच से अनदेखी की जो टीस निकलती हैं उसे ' चाहें " तो साफ़ सुन सकते हैं। लेकिन इस कराह की वेदना को समझने के लिए " मलिन ' मन तैयार कहाँ। ये मलिन मन कार्यपालिका , विधायिका , और चौथे स्तम्भ में कब्जा जमाए बैठे हैं । वे तेलंगाना जैसे हालात में भी अपनी कारस्तानी से ध्यान भटकाने में लगे हैं।



ऐसे ही तत्वों को के सी आर के अनशन पर एतराज । सन्दर्भ से पड़े होकर मणिपुर की इरोम शर्मिला के अनशन की याद दिलाई जा रही है। बेशक इरोम श्रधेय हैं... उनकी कुर्बानी नमन योग्य हैं....गांधीजी के संघर्ष की नैतिक गाथा का साक्षात दिग्दर्शन है उनका अनशन । के सी आर ने इसी हथियार को आजमाया। इसका उद्देश्य जो भी हो... पर शायद भारत के नीति-नियंताओं को कोई भी मांग मानने के लिए खून-खाबा देखने की आदत हो गई है। वे भूल जाते हैं की ऐसी आदत देश की संवैधानिक मर्यादाओं के लिए शुभ नहीं।





सन्दर्भ की बात चली तो थोड़ी बात बिहार की कर लें .......मिथिला के मानस के उद्वेग की। आपके जेहन में उमड़ रहे कई सवालों के जवाब शायद आप तलाश पायें। मिथिला इसी राज्य बिहार का एक अंग है। पौराणिक-एतिहासिक मिथिला का दो-तिहाई हिस्सा बिहार में और शेष नेपाल में पड़ता है। कभी मौक़ा मिले और समय हो तो बिहार के हुक्मरानों के भाषण सुने। इन्हें ही क्यों ....बिहार की मीडिया पर भी नजर गड़ाएं । बिहार की महिमा का जब ये बखान करते तो भगवान् बुध ही इन्हें नजर आते। भगवान् महावीर कभी-कभार याद आते....पर जनक नहीं...माता सीता नहीं। मिथिला का स्मरण करा दें तो इनकी भावें तन जाती। इस इलाकेकीमिटटी, पानी, हवा...ये सब बिहार की संपदा हुई पर ' मिथिला' शब्द और यहाँ के लोगों से परहेज। यहाँ की विरासत पर गर्व करने की बजाए इन्हें शर्म का अनुभव क्यों ?


सूना होगा आपने की मैथिली भाषा संविधान की आठवीं सूची में दर्ज है...वो साहित्य अकादमीमेभी है। यानिइन जगहों पर बिहार का मान बढ़ा रही । पर क्या राज्य के शाषकों को इस पर नाज है ? हर सेन्सस रिपोर्ट में मैथिली भाषियों की संख्या कम बताने की इनकी साजिस क्या किसी से छुपी रह गई है ? थोड़ा पीछे जाएं...शिव पूजन सहाए जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों ने मैथिली की परिचिति खत्म करने का बीड़ा क्यों उठाया था ? पाठ्यक्रमों से मैथिली को बार-बार हटाने के कुचक्र क्या राजकीय गर्व का अहसास हैं?


मैथिली जब आठवीं अनुसूची में शामिल की गई तो राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने भी इसे प्रमुखता से दिखाया। संविधान संशोधन करना पडा था...लिहाजा ये न्यूज़ थी। लेकिन बिहार के सर्वाधिक लोकप्रिय चैनल ने इस खबर को दिखाने की जहमत नहीं उठाई। इस चैनल को बिहार की स्वर कोकिला शारदा सिन्हा की आवाज नहीं सुहाती...क्योंकि वो मिथिला क्षेत्र से आती हैं...जबकि मनोज तिवारी ' अप्पन ' बने हुए हैं।


देश के किसी कोने में चले जाएं...गैर बिहारियों से बात करें। बिहार का नाम लेते ही वो भोजपुरी का जिक्र करेंगे। यही हाल इन जगहों के समझदार समझे जाने वाले पत्रकारों का है। अधिकाँश को पता नहीं की मैथिली बिहार की ही भाषा है। बिहार सरकार की गर्व की अनुभूति और काबिलियत ( ? ) का ये जीता जागता नतीजा है। पटना से छपने वाले हिन्दी के अखबारों को पलट कर देखें। हेडिंग्स और कार्टून के टेक्स्ट आपको भोजपुरी में मिलेंगे। इन अखबारों की ये किर्दानी सालों से है....अछा है...पर मैथिली में क्यों नहीं। इन्हें मिथिला का पाठक/ खरीदार चाहिए पर मैथिली नहीं चाहिए...बिलकुल वैसे ही जैसे राज्यके नेताओं को मिथिला के ' लोग ' चाहिए जिन पर सत्ता की धौंस जमाएं पर इन " लोग ' के हित की परवाह नहीं।


तेलंगाना विवाद के बाद से मिथिला में भी अलग राज्य की मांग को लेकर उबाल है। विभिन्न सांस्कृतिक संगठन शांतिपूर्ण तरीके से ये मांग रख रहे हैं। इनका आवेस है की मिथिला का अस्तित्व अलग राज्य बनाने से ही बचेगा। इस जन-उभार को देख पार्टी लाइन से अलग होकर बड़े राजनीतिक नेता भी इसके समर्थन में वक्तव्य दे रहे हैं। मीडिया में भी इसके मुतलिक खबरें आ रही हैं। लेकिन गौर करें तो हर जगह ' मिथिलांचल ' शब्द पाएंगे। ये जो शब्द है ' मिथिला' वो परिदृश्य से ओझल है। यानि मिथिला बन गई मिथिलांचल। ये कैसे हो गया...क्यों हो गया ? पटना के सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया ने दशकों से ' मिथिलांचल ' शब्द का इतना इस्तेमाल किया है की मिथिला के लोग भी इसी शब्द का प्रयोग करने लगे हैं। इन्हें रत्ती भर अहसास नहीं की इसके पीछे का रहस्य क्या है...इसके क्या मायने हैं ? जिन पत्रकार बंधुओं को रिसर्च की प्रवृति में यकीन हो वे इस साजिश पर से पर्दा उठा सकते हैं।



यही कोई पांचवें दशक के शुरुआत की कथा है ये...आज़ादी मिली ही थी। बिहार को मिथिला से आने वाले राजस्व पर बड़ा अब्लंब था। राज्य के राजस्व में इस इलाके का योगदान ४९ फीसदी था.... यानि लगभग आधा। साल २००० में जब राज्य का बंटवारा हुआ उस समय राज्य के राजस्व में मिथिला का योगदान १२ फीसदी ही रह गया था। सरल भाषा में कहें तो मिथिला के राजस्व देने की क्षमता चार गुना घट चुकी थी। यानि यहाँ के लोग चार गुना गरीब हो चुके थे। ऐसा कैसे हो गया ? क्या मिथिला से मिलने वाले राजस्व को इसी इलाके के विकास में खर्च किया गया ?


बाढ़ से मची तबाही ने इस इलाके को झकझोर कर रख दिया है। बाढ़ पहले भी आती थी। तभी तो लोर्ड वेवेल ने इसके निदान के लिए महत्वाकान्ची परियोजना बनाई थी। बराह क्षेत्र में कोसी पर हाई डैम बनाना था। अनुमान लगाया गया की परियोजना के पूरा होने पर ये इलाका दुनिया के समृध्तम क्षेत्रों में शुमार हो जाएगा। लेकिन आज़ादी क बाद बनी बिहार की पहली सरकार ने बहाने बनाते हुए इस परियोजना से हाथ खींच लिया। उन्हें डर था की मिथिला समृध हो जाएगी तो वहाँ की जनता ' दुहाई सरकार ' .. और ..' जिंदाबाद ' के नारे नहीं लगाएगी। बिहार सरकार की अनिच्छा देख केंद्र सरकार ' भाखड़ा - नांगल ' परियोजना की और उन्मुख हुई । पंजाब का काया-कल्प हो गया। आज उसी पंजाब के खेतों में मिथिला के मजदूर और किसान से मजदूर बन गए लोग फसलें काटने जाते हैं। इधर कोसी डैम में लगने वाले पैसों से दामोदर वैली परियोजना अस्तित्व में आई। साजिश करने वाले झादखंड में हुए निवेश से मालामाल हुए।

दिल्ली की सडकों पर ' बिहारी ' होने के दंश झेलने वाले, पंजाब के खेतों में अफीम मिली चाय पीकर काम करने को मजबूर , अपमान सहकर गुजरात में विकास का सोपान गढ़ने वाले और मुंबई में नफ़रत के बीच पेट की आग बुझाने वाले ७० फीसदी हाथ दर असल उसी मिथिला के हैं। जी हाँ , उसी मिथिला के जिसने ज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में कभी देश का मार्ग-दर्शन किया था। आज वही समाज दो जून रोटी के लिए तड़प रहा है....जिन्हें कुछ मांगने पर मिलती है अवहेला। यहाँ के लोगों की सूनी आँखों में यही सवाल तैर रहे हैं -- क्या उसकी पहिचान और जीवन-शैली मिटा देने से ही बिहार और देश का भला होगा ?

यही घुटन कमोवेश ' malla प्रदेश ', ' ब्रज ' , ' बुंदेलखंड ', और ' बघेलखंड ' में भी है। क्या इनकी पहचान मिटा देने से ही बिहार, यूपी , और एमपी का कल्याण होगा ? ये तीन बड़े कृत्रिम राज्य दिल्ली की कुर्सी के लिए जरूरी हैं लेकिन इस संकुचित लाभ के पीछे ये नहीं भूलना चाहिए की देश के पुनर्गठन का काम रह गया है। उसे पूराकर के ही देश की विविधता के आतंरिक बंधन को मजबूती दी जा सकती है। नहीं तो इन इलाकों में अलग राज्य की अकुलाहट बनी रहेगी। दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग बने तो इस अकुलाहट को महसूस करे। ऐसे आयोग को राजनीतिक फायदे के लिए उठाए जा रहे अलग राज्यों की मांग से सतर्क रहने की जरूरत है। क्योंकि दूरदर्शिता के अभाव में और तात्कालिक लोभ में कई ऐसे राज्य बन गए जो की नहीं बनने चाहिए थे।


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