life is celebration

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22.4.15

गजेन्द्र हंसा भी था ....

गजेन्द्र हंसा भी था .... 
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संजय मिश्र 
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मां जनती है... संतान के लिए उसकी ममता विवेक नहीं देखती... एक रिपोर्टर (पत्रकार) जब अपनी खबर फाइल कर देता है तो उसे प्रसव पीड़ा के बाद के संतोष जैसा ही महसूस होता है... किसान खेत में जब लहलहाती फसल देखता है तो वो उस मां की तरह खिल जाता है.. जो अपने उठे हुए पेट देख छुइ-मुइ सी रहती है... फसल पर कोई आफत आ जाए तो वह किसान मिसकैरेज वाली पीड़ा के आगोश में चला जाता है... 


इंडिया में ओले और पानी के कारण फसल बर्बाद होने पर लोगों का ध्यान कई दिनों से टंगा हुआ है... पर दर्द जतन से झांक नहीं पाया ... राजस्थान के गजेन्द्र ने जो लीला दिखाई... अपनी ईहलीला समाप्त कर... उसने किसान की पीड़ा के वीभत्स रूप से सामना करवा दिया... जो भी सार्वजनिक चेहरे इस मुद्दे पर स्टेकहोल्डर बनने को आतुर थे... सबका चेहरा उतर गया...
पीएम बस ट्वीट कर पाए... राहुल का मुंह लटक गया... केजरीवाल जीवन भर आंखों के सामने मौत को गले लगाने वाले उन दृष्यों को भुला नहीं पाएंगे... अपने वलंटियर की मौत रूपी अपने अभाग्य को कोसते रहेंगे...घुट-घुट कर... नीतीश भाग-भाग कर बिहार के विभिन्न इलाकों में ओले, आंधी, तूफान से हुई बर्बादी को देख रहे... सारे बयानवीर निस्तेज बने बैठे हैं... 


देश मदहोश था... जमीन बिल और फसल बर्बादी जैसे निहायत ही दो अलग अलग किस्म के मुद्दों के फेट-फांट पर... गजेन्द्र ने चेता दिया कि सुधीजन फसल बर्बादी पर धाती पीटने का अभिनय कर लें या फिर जमीन बिल पर... पेड़ पर चढे गजेन्द्र के विजुअल्स को याद करें... फिर-फिर से देखें... वो एक दो बार हंसा भी था... वो हंसी किसान के नाम पर रोने वालों के अभिनय देख निकल आए थे या फिर वो जीवन के मजाक बनने पर फूट निकला था... ? 


मोदी महीने भर से अपने नेताओं को कह रहे कि जनता को हकीकत बताई जाय... कब बताएंगे किसी को नहीं मालूम... जमीन बिल पर बताएंगे या फसल तबाही पर ये भी स्पष्ट नहीं ? ... पेड़ पर लटके किसान ने कह दिया है कि फसल की हालत देखकर किसान अधीर हो चला है... 


राहुल अवतरित हुए.... किसानों के दर्द पर संसद में बिना लिखा भाषण दिया... उंचे स्वर में बोले... नहीं मालूम कि इंडिया के किसानों ने उनके संबोधन में अपनी पीड़ा को छलकते देखा या नहीं... पर संसद से निकलने के बाद मीडिया के सवाल ने देश को चौंकाया होगा--- राहुलजी आपका भाषण कैसा था--- राहुल ने भी बिना समय गंवाए कहा--- भाषण अच्छा रहा-- तो क्या राहुल परीक्षा देने गए थे? ... और खुद अपनी परीक्षा का नतीजा भी बता दिया... 


भाषण से पहले राहुल के घर के सामने किसानों का जमावड़ा... किसान के पहनावे में खड़े कई लोगों के हाथों में तख्ती थी जिसमें राहुल के फोटो लगे थे... फसल चौपट होने से गमजदा किसान तख्ती लेकर घूमेगा क्या?.. संसद के भाषण के बाद सोनिया के आवास पर फोटो सेशन... मिसकैरेज से गुजरने वाले किसान के लिए फोटो सेशन?... संजीदगी का कौन सा ग्रामर लिख रहे थे कांग्रेसी? 


तबाही हुई तो मुआवजा मिलेगा...पहले भी ऐसा ही होता रहा... इस दफा भी... जाहिर है मुआवजा राज्य सरकारें बांटेंगी... पर किसानों के नाम पर पूरे राष्ट्रीय विमर्श में राज्य सरकारों पर कोई प्रहार नहीं... संसद में किसानों की आत्महत्या से जुड़े राज्यवार आंकड़े जब देश के कृषि मंत्री ने रखना शुरू किया तो राहुल अपने नेताओं को लेकर संसद से निकल गए... असल में अधिकांश राज्यों ने जो रिपोर्ट भेजी है उसमें आत्महत्या से इनकार किया गया है... यूपी की रिपोर्ट भी यही कह रही थी... पर मुलायम पत्रकारों से किसान की समस्या पर निर्लज्ज होकर प्रवचन झाड़ रहे थे... 


मुआवजा ब्लाक स्तर पर बंटेगा .... बंट रहा होगा... उस पर निगाहें घूमने में दिक्कत साफ देखी जा रही है... बिहार में नंगे होकर प्रदर्शन हुए... खेत में लगी गेंहूं की फसल को किसानों ने अपने हाथ से आग लगाई... स्त्रियों के भूगोल में रूचि रखने वाले शरद यादव मुखर नहीं हुए... नीतीश और लालू भी नहीं... न जाने पूर्व पीएम और किसी जमाने में किसान नेता रहे देवगौड़ा क्या कर रहे होंगे ... 


दिलचस्पी मुआवजे पर है या पीएम मोदी की लानत-मलानत पर? ... गजेन्द्र अपनी सिसकी को दबाकर शायद इसी राजनीतिक सोप-ओपेरा पर हंस रहा होगा... येचुरी भी उसे देखने अस्पताल हो आए... उसके ओठों में इसी सोप-ओपेरा पर निकले अट्टहास को लाज से पढने गए हों...

5.3.15

हे पार्थ.. मुझे मत संभालो

हे पार्थ.. मुझे मत संभालो  
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संजय मिश्र
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योगेन्द्र और प्रशांत को धकियाए जाने पर जितनी हलचल आआप में है उससे कहीं ज्यादा बेचैनी मीडिया और बौद्धिकों के एक हिस्से के बीच पसरी है... रूथलेस होकर देखें तो कह सकते कि इस प्रकरण को लेकर इस जमात में ही दरार सतह पर आ गई है...ये खलबली महानता थोपने की जिद पर अड़े पत्रकारों, पेशेवरों और प्रोफेसरों के कारण पनपी है... साथ ही उस लालसा के कारण भी जन्मी है कि केजरीवाल को मोदी विरोध की देशव्यापी धूरी बनाया जाए ... धूरी बनाने के लिए मफलर मैन पर आदर्शवादी राजनीति करने वाले का मुलम्मा चढ़ाया जाए।

जिस दिन योगेन्द्र और प्रशांत पीएसी से अपमानित करके निकाले गए उस दिन वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का चेहरा उड़ा हुआ था... ... इस पत्रकार के कहे एक-एक शब्द में केजरीवाल के लिए निराशा झांक रही थी... मीडिया के भीतर ..देशव्यापी विस्तार और मोदी विरोधी धूरी की मुहिम के एक चाणक्य पुण्य भी रहे हैं...पर मकसद के फिसलने के गम में डूबने वालों में वे अकेले नहीं हैं ... शपथ ग्रहण समारोह के दिन ही बिजली गिरी थी इनपर... जब केजरीवाल ने ऐलान कर दिया था कि फिलहाल वे दिल्ली से हिलेंगे नहीं... मतलब ये कि न तो वे वैकल्पिक और आदर्श वाली राजनीति का भार सह सकते और न ही इंडिया भर में विस्तार की तत्काल इच्छा रखते।

केजरीवाल ने साफ संकेत किया है कि प्रतीकों की राजनीति को जमीन पर उतारना संभव नही ... ऐसा करना व्यावहारिक नहीं... बावजूद इसके योगेन्द्र गुट के जरिए जाति और धर्म की राजनीति का इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करने वाले केजरीवाल पर दबाव बनाया गया... उस योगेन्द्र को अगुआ बनाया गया... वैकल्पिक राजनीति का पहरूआ बनाया गया... जी हां... उसी योगेन्द्र को जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी जीत सुनिश्चित करने के उमंग में जातिवादी कार्ड खेला था...उन्होंने खास जाति के वोटरों के बीच यादव होने का हवाला दिया था... अभी के प्रकरण में योगेन्द्र को लाभ हुआ है....इस संघर्ष ने उनका कद और बड़ा किया है।

गौर करने वाली बात है कि केजरीवाल की पार्टी के नेता निहायत ही मद्धम स्वर में नई राजनीति की बात करते...पार्टी के बाहर वाले उनके पैरोकार ही नई राजनीति को उच्च स्वर देते आए हैं... केजरीवाल के लोग पहले से ही वो सारे हथकंडे अपनाते रहे हैं जो पारंपरिक राजनीति के दायरे में आती है ... इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले भी अंदर वाले लोग इस हकीकत पर बेपर्द होने से बचने के लिए बाहर वालों का सहयोग लेते रहे...इसे ढकते हुए मीडिया ने केजरीवाल के विरोधियों की चाल को नकारात्मक राजनीति करार देकर पंक्चर कर दिया।

मौजूदा प्रकरण में वही शब्द सामने तैर रहे हैं जिन्हें नकारात्मक कहा गया था...आशुतोष धूंध साफ नहीं करते कि अल्ट्रा लेफ्ट की उनकी परिधि में प्रशांत ही हैं या केजरीवाल का – अराजक हूं- वाला उद्घोष भी... केजरीवाल के विरोधियों को नकारात्मक कहने वाले पत्रकार सन्न हैं...कांग्रेस का विकल्प बनाने के सपने, मोदी विरोध की धूरी ठोकने की चाहत और इस लक्ष्य की खातिर जिस केजरीवाल पर महानता थोपने की जद्दोजहद है वही नायक फिलहाल तैयार नहीं हो रहा...वैसे ही जैसे हल जोतने वाला बैल अचानक जुआ गिराकर बैठ जाए... केजरीवाल जानते हैं कि दिल्ली जीत के समय लालू और नीतीश सरीखे नेताओं की प्रशंसा लंबे समय के लिए नहीं है... उन्हें इत्मिनान नहीं है कि रिजनल क्षत्रप उनका नायकत्व स्वीकार कर ही लेंगे।  


आआप में दखल रखने वाले मीडिया के लोगों और बैद्धिकों में सपने बिखरने से मायूसी है... ... उनकी चाहत और केजरीवाल की रणनीति के बीच टकराव से वे आहत हैं... विचारों का घर्षण कह कर वे इस संकट से उबरने के संकेत भी दे रहे हैं... वे अभी योगेन्द्र गुट पर दांव लगाए रखेंगे ताकि केजरीवाल पर दबाव बनाए रखा जाए... सुलह हो जाए... इसमें नाकाम रहे तो वे आखिरकार केजरीवाल पर ही आस्था जताते पाए जाएंगे... मफलर मैन की शर्तों पर ही...पार्टी के कनविनर पद पर बने रहने वाले महत्वाकांक्षी केजरीवाल मुफीद वक्त का इंतजार करेंगे...पैर पसारने के लिए... और तब ये बाहरी लोग सुप्रीमो केजरीवाल को ही सेवियर करार देने से नहीं हिचकेंगे... इंडिया के इस तरह के कथित समझदार लोगों का ये शगल रहा है।   

22.2.15

बड़ी लकीर का विप्लव

             बड़ी लकीर का विप्लव
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             संजय मिश्र
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बीजेपी के इशारे पर मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को मझधार में फसा दिया--- कुछ इसी तरह की हेडलाइन टीवी चैनलों पर चले तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे... बिहार में जो राजनीतिक विप्लव आया और आगे जो कुछ होगा उसकी ऐसी ही नादान व्याख्या कर टरकाया नहीं जा सकता.... गहरे में उतरें तो समझ आ जाएगा कि मामला मंडल राजनीति पर वर्चस्व के लिए दो दावेदारों की महत्वाकांक्षा के टकराव का है।  

धूंध इसलिए छाई है कि दिल्ली की सियासत की अपनी जरूरत है जबकि पटना की चाल थोड़ी अलग है। दिल्ली की उम्मीद यानि कथित सेक्यूलर राजनीति की खातिर चहेते नीतीश की जरूरत ..मीडिया के खांचे में भी बिहार के लिए यही चेहरा चाहिए... सो इस राज्य के राजनीतिक बखेरे के पीछे एकमात्र कारण बीजेपी की साजिश को बताया गया... लेकिन पटने की हलचल बिन मंडल राजनीति के संभव कहां... यहां का राग तो मंडल और विकास के बीच कशमकश के आसरे है।

बिहार में मंडल राजनीति के कई पिता हुए ... लालू हैं... और अब नीतीश भी हैं...बीच-बीच में दलित आकांक्षा हुलकी मारा करती... लालू के युग में दलित उफान के लिए अपेक्षित खाद-पानी नहीं मिला...  जब पिछड़ावाद इस उभार पर हमलावर हुई तो सीपीआई (एमएल) का अबलंब जरूर मिला... पर दलित चेतना को ये नाकाफी ही लगा... नीतीश आए तो उनकी मुराद कुलाचें मारने लगी...वे उम्मीद से तर हो गए।

दलित-महादलित राजनीति से शंका के कुछ बादल उमड़ पड़े... न्याय के साथ विकास और सुशासन की सख्ती में मंडल के दौर वाली बेसब्री की गुजाइश कम थी... बीजेपी से अलग होने के निर्णय के बाद जेडीयू के अन्दर जो असंतोष पनपा उसे थामने के लिए नीतीश ने दिल्ली की सेक्यूलर राजनीति के शोर का सहारा लिया.. न्याय के साथ विकास पीठ पीछे रहा और साल २०१४ की फरवरी में आरजेडी के १३ विधायकों को तोड़ने की कवायद हुई ... उसी साल लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने जो घोषणापत्र जारी किया वो मंडलवाद की ओर लौटने का शंखनाद था।

उन्होंने मान लिया कि उनकी नैया पार लगने के लिए मंडल की पतवाड़ जरूरी है..... चीजें उसी दिशा में जा रही थी... जीतन राम मांझी भी उसी शतरंज के मोहरे बनाए गए... महत्वाकांक्षी मांझी शुरू में तो सावधान रहे...पर धीरे-धीरे वे पैर पसारने लगे... बतौर सीएम उनके सरकारी निर्णय तो संकेत दे ही रहे थे उनके सोचे समझे बयान ने नीतीश के कान खड़े कर दिए। बेशक मौजूदा संकट में बीजेपी और आरजेडी की रणनीति – फिशिंग इन द ट्रबल्ड वाटर – वाली रही... और ये – ट्रबल – मांझी के बयानों ने पैदा किए थे... नीतीश के मंसूबे चकनाचूर हो रहे थे और उनकी यूएसपी तार-तार हो रही थी...मांझी एक तरफ मंडल मसीहा का दावेदार बनने की ओर अग्रसर हो गए तो दूसरी ओर वे नीतीश की छवि ध्वस्त करने लगे।

नीतीश की कोशिश मंडल अवतार के साथ ही गैर भ्रष्ट और सुशासन वाली छवि को एक साथ पिरोने की रही... उनके मंडलवाद में कोलाहल नहीं... हाहाकार नहीं... बदला लेने वाली उग्रता नहीं...बस.. शांति से...धीरे-धीरे मकसद पूरा कर लेने की आतुरता.... वहीं जीतन राम मांझी ने लालू शैली को अपनाया ही नहीं उसे विस्तार भी दिया...दलितों को पढ़ने-लिखने, शराब छोड़ने, परिवार के लिए सजग रहने का जितना आग्रह मांझी ने दिखाया उतना किसी मंडल नेता ने आज तक नहीं किया...मांझी के बयानों की पड़ताल करें तो नीतीश खेमे में मची खलबली समझ में आ जाएगी।

राजनीति हाथ लगे अवसर का लाभ उठाने का नाम है...इसे मांझी ने बखूबी इस्तेमाल किया... शुरूआत १८ अगस्त से करें...उस दिन मधुबनी के ठाढ़ी में वे परमेश्वरी देवी मंदिर के दर्शन को गए... लेकिन महीने भर बाद २८ सितंबर को पटने में आरोप लगा दिया कि उनके लौटने के बाद उस मंदिर को धोया गया... मौका था भोला पासवान शास्त्री की १०० वीं जयंती के कार्यक्रम का... उनकी ही पार्टी के कई नेताओं ने इसे मनगढंत प्रकरण करार दिया।

लेकिन लालू शैली में संदेश जा चुका था... लालू कहा करते थे कि नाथ पकड़कर वे भैंस पर चढ़ते थे... तो मांझी ने चूहे खाने की बात उठाई... १७ अक्टूबर को डाक्टरों का हाथ काट लेने की बात कही तो अगले ही दिन गरीबों का काम नहीं होने पर अधिकारियों का हाथ काट लेने की धमकी दे दी...११ नवंबर को कह दिया कि सवर्ण विदेशी हैं... मूल निवासी हम... राजा के हक हमरा तो राज दूसरे कैसे करेंगे..  लगे हाथ कहा कि जिसके पेट में दर्द हो रहा वे अंतरी निकलवा लें।

मांझी के ये बयान लालू के भूराबाल साफ करो के नारे से भी वीभत्स संदेश दे रहे थे... गठबंधन तोड़ने के बाद जेडीयू के रैंक एंड फाइल में बढ़ते असंतोष को दबाने के लिए नीतीश का मांझी के रूप में जो मास्टर स्ट्रोक था वो अब भारी पड़ रहा था... इतना ही नहीं नीतीश की शो-केस करने वाली योजनाओं को मांझी ने जो विस्तार दिया वो दलितों के बीच उनका कद बढ़ा रहा था... मांझी का बार-बार ये कहना कि नीतीश से बड़ी लकीर खींच दी है... जाहिर है - बड़ी लकीर – नामक शब्द नीतीश को शूल की तरह चुभता होगा।

मांझी इतने पर नहीं रूके... सीएम हूं पर डिसिजन लेने में डर लगता है (२६ अक्टूबर)... मुझे तो लाचारी में सीएम बनाया गया है (२४ अक्टूबर) जैसे बयान रिमोट से सरकार चलने के आरोप को हवा दे रहे थे... उधर स्वास्थ्य मंत्री रामधनी सिंह का --- मैं लेटर बाक्स हूं- वाला बयान इसे पुष्ट कर रहा था... आखिरकार २५ नवंबर को नीतीश को जहानाबाद में झेंपते हुए कहना पड़ा कि आज की राजनीति में रिमोट से सरकार चलाने जैसी बात नहीं होती।

नीतीश इतराते थे कि उनके राज में भ्रष्टाचार नहीं हुआ। मांझी इसकी पोल खोलने को बेताव रहे... बिजली बिल में खुद घूस देने की बात कह दी.... ठीकेदार ठनठना देता है तभी बनता है एस्टीमेट (२७ दिसंबर) ... टीकाकरण के फर्जी आंकड़े बनाए जाते हैं (२० दिसंबर)...इन बयानों से मन नहीं भरा तो कह दिया कि मुझे भी कमीशन का हिस्सा आता है... इस बात से सजग कि इन बयानों से नीतीश की इमानदार वाली यूएसपी ध्वस्त हो रही।

महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ चली कि जीतन राम मांझी दलित पीएम बनने के सपने देखने लगे...अगला सीएम दलित होगा...लोग कह हथी अगलो सीएम जीतन होतई....ठोकर खाते-खाते सीएम बन गए.. एही ठोकर में कहीं हम पीएम न बन जाएं (१९ नवंबर) ....और फिर ०३ दिसंबर को दुहरा दिया कि ठुकराते ठुकराते सीएम बन गया तो एक दिन पीएम भी बन जाउंगा।

महत्वाकांक्षा का दवाब इतना पड़ा कि मांझी सीधे-सीधे नीतीश को चुनौती देने लगे... नसीहत देते रहिए, हम नहीं झुकेंगे (२३ नवंबर) ....बूढ़ा तोता पोस नहीं मानता (१३ दिसंबर) जैसे बयान सियासी तौर पर नीतीश के लिए झेलना मुश्किल हो रहा था... चुनौती देने की मनोदशा में मांझी कैसे पहुंच गए? असल में उन्होंने बिहार में अपना कद बड़ा कर लिया और कथित २२ फीसदी वोट-बैंक का मसीहा होने के नाम पर विधानसभा चुनाव में जेडीयू का सीएम उम्मीदवार बनना चाहते थे।

लेकिन जनता परिवार के विलय की स्थिति में उनकी दावेदारी संभव नहीं होती...यहां नीतीश की दावेदारी बड़ी थी... यही कारण है कि मांझी विलय के विरोध में थे और विलय के विरोधी विधायकों की धूरी बन गए... राजनीतिक तौर पर नीतीश को हासिए पर नहीं धकेल पाए मांझी... लेकिन हैसियत ऐसी बना ली है कि चुनावों तक प्रासंगिक बने रहेंगे।    


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