अहंकार का पराभव (त्वरित टिपण्णी)
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संजय मिश्र
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गैरकांग्रेसवाद (नरेन्द्र मोदी के शब्दों में कांग्रेस मुक्त भारत) एक बार फिर दस्तक दे चुका है... विभिन्न राज्यों के चुनावी नतीजे यही संकेत कर रहे हैं... कांग्रेस के हौसले पस्त हैं.... हाल के सालों में बीजेपी की जो डाउनस्लाइड देखी गई वो थमी है और इसके उपर जाने के आसार बन रहे हैं... .. कांग्रेस की घटत और बीजेपी की बढ़त उन जगहों पर हुई है जहां कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट ये आरोप नहीं लगा सकते कि ये दंगों से उपजे पोलराइजेशन का कमाल है।
एक बड़ा सबक जेडीयू को मिला है... नीतीश और उनका पूरा मंत्रीमंडल कई दिनों तक दिल्ली में कैंप किए रहा... आम आदमी पार्टी से ज्यादा खर्च और केंपेन के बावजूद जनता ने उन्हें खारिज किया है... संदेश यही कि कांग्रेस के साथ नीतीश जाएंगे तो नकारे जाएंगे... दिलचस्प है कि दिल्ली में बिहार के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं और वहां वोटर हैं...बिहारियों का ये मानस चौंकाता है... बिहार के अधिकांश लोग लालू एरा के शुरूआती चरण में ही दिल्ली चले गए थे और इनमें कांग्रेस के लिए वो तल्खी नहीं रही जो बिहार में रह रहे उनके परिजनों की रहती है... बावजूद इसके नीतीश की महत्वाकांक्षा को पर लगने का मौका नहीं दिया दिल्ली के लोगों ने... नीतीश की पराजय इस मायने में भी है कि वो मायावती की बीएसपी वाली परफारमेंस (दिल्ली के पिछले चुनाव में) तक नहीं पहुंच सके।
महंगाई का डंक और उपर से कांग्रेसी नेताओं के जले पर नमक छिड़कने वाले बयानों का हिसाब चुकता करने वाली जनता ने केजरीवाल को सर आंखों पर बिठाया है...कांग्रेस के अहंकार को शिकस्त मिली है... अप्रत्याशित और पॉलिटिकल क्लास को डराने वाले आंदोलनों का गवाह रही दिल्ली की जनता ने उन आंदोलनों को निर्ममता से कुचलने की कांग्रेसी निरंकुशता का जवाब भी दिया है... न जाने राजबाला की आत्मा कैसा महसूस कर रही हो.... जो पॉलिटिकल अनालिस्ट उन आंदोलनों को मीडिया का क्रिएशन बता कर खारिज कर रहे थे उन्हें भी सीमित संदर्भ में वोटरों ने जवाब दिया है।
निश्चय ही केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को नया नजरिया और नई ग्रामर दी है... ये आंदोलन के समय से लेकर चुनावी समर के नतीजों तक में उन्होंने दिखाया है... सभी जानते हैं कि अन्ना को केजरीवाल की मेहनत से वो शोहरत मिली जिसने उनमें गांधी का अक्स ताकने के लिए आज की युवा पीढ़ी को ललचाया...राष्ट्रीय फलक पर अन्ना सबके चहेते बने...नतीजों के बीच केजरीवाल को जो पॉलिटिकल पंडित सेहरा देने को मजबूर हुए हैं वो कल तक आम आदमी पार्टी को नकारते रहे... आज भी ये वर्ग यही साबित करने पर तुला है कि आप ने सेक्यूलर स्पेस को मजबूती दी है... बावजूद इसके कि आप राष्ट्रवादी स्पेस की शक्ति है... यही लोग आरएसएस से आप के लिंक को खोजते रहते थे... इस बात को छुपाते हुए कि आंदोलन के समय अन्ना के लोगों को माओवादियों ने भी ऑन रिकार्ड समर्थन दिए थे।
दिल्ली सिटी एस्टेट जैसा है... संभव है लोकसभा चुनावों के समय केजरीवाल ग्रामीण भारत में वैसा चमत्कार नहीं दुहरा पाएं... पर राजनीति को बदलने लायक मिजाज लोगों में विकसित जरूर कर दिया है...उनके आलोचक कहते कि मुद्दों के आधार पर लंबी पारी नहीं खेली जा सकती.... यानि विचारधारा या फिर वैचारिक आधार होना जरूरी है...आप के नेताओं पर यकीन करें तो उनका वैचारिक आधार ग्राम स्वराज की कल्पना को नए संदर्भ में परिभाषित करना है... ग्राम स्वराज शब्द पर फोकस पड़ेगा और ये कांग्रेस को डराएगा जबकि बीजेपी को सचेत रखेगा... सोनिया नतीजों के बाद ये कहने को मजबूर थीं कि सही समय पर पीएम उम्मीदवार का एलान होगा तो राहुल ने आप से सबक सीखने की शालीनता दिखाई....आप के कारण राजनीति का तात्विक अंतर बीजेपी को दिल्ली की तरह (हर्षवर्द्धन को सीएम उम्मीदवार बनाने जैसे कदम) मजबूर करेगा कि ये - पार्टी विद अ डिफरेंस - की अपेक्षाकृत ज्यादा स्वीकार्य छवि की ओर लौटे... गडकरी ने आठ दिसंबर की शाम जब कहा कि बीजेपी विपक्ष में बैठना पसंद करेगी... तो एक अर्थ में ये आप की राजनीति के असर को स्वीकारना भी है...बरना कांग्रेस की नापसंदगी का फायदा तीसरे मोर्चे का समूह भी उठा ले जाएगा।
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