झारखण्ड की व्यथा
संजय मिश्रा
झारखण्ड में चुनाव हो रहे हैं । इसमे चुनाव के वे सारे रंग दिख रहे हैं जो हमारी खासियत बन गई है। राज्य के बाहर के लोगों को हैरानी हो सकती है कि चुनाव प्रचार के दौरान भ्रष्टाचार मुद्दा नही बन पाया। न तो इसमे राजनितिक दलों की दिलचस्पी है और न ही मीडिया की । मधु कोड़ा बेशक घोटालों के आइकोन बन गए हों लेकिन उनको राजनितिक प्रहसन का पात्र बनने वाले दल चुप्पी साधे बैठे हैं। जिस यूपीए ने राज्य का पहला निर्दलिये मुख्यमंत्री उन्हें बनाया उसके मकसद का पर्दाफास हो चुका है। आदिवासी बेरहमी से लूटे जा चुके हैं। राज्य निर्माण के नौ साल बीत गए पर जिस ललक ने झारखण्ड की नींव रखी सत्ता की आपाधापी के बीच वो कहीं गुम हो गई है।
याद करें साल १९९८ का पन्द्रह अगस्त ... लालू प्रसाद ने अकड़ते हुए कहा था की झारखण्ड उनकी लाश पर बनेगा। दो साल और दो महीने बाद ही झारखण्ड भारतीय संघ का एक हिस्सा बन गया। ऐसा लगा आदिवासी अस्मिता के दिन बहुरने वाले हैं। पर वही लालू मधु कोड़ा की ताजपोशी में जी जान से जुटे थे । चुनाव प्रचार के दौरान आज भी उनके चेहरे पर वही छकाने वाली मुस्कान देखी जा सकती है। कांग्रेस राज्य में जमीन तलाश रही है। उसका निशाना झारखण्ड नामधारी दलों के आधार को संकुचित करने पर है। शिबू सोरेन की रही सही ज़मीं हथियाने की पुरी तैयारी है।
समझदार लोगों के अनुसार झारखण्ड ... आदिवासियों की प्रतिरोध संस्कृति का आइना है। यह संस्कृति ...कमीशन , छल प्रपंच और तिकड़म के जाल से निकल जाने के आवेग में जन्मी थी। लेकिन आज ये राज्य इन्ही के मकडजाल में उलझ गई है।
आदिवासियों का अपना दिसुम हो इसके पीछे सांस्कृतिक ... सामजिक अवधारणा काम कर रही थी। ये अवधारणा प्रकृति के मेल मिलाप के साथ देसी विचारों के सपनो के सामंजस्य पर बनी थी। इसमे स्वशासन का स्वर भी शामिल था। सामुदाइक जीवन और प्राकृतिक सम्पदा पर सामूहिक अधिकार के कारण ये समझ बनी। लेकिन बाहरी ... जिन्हें वे दिकु कहते ... लोगों की चहलकदमी ने उनकी सरलता को झकझोड़ दिया। बिरसा मुंडा से लेकर ताना भगतों ने स्वीकार किया कि निश्छल जीवन की अस्मिता की रक्षा के लिए प्रतिरोध जरूरी है।
जयपाल सिंह ने जब झारखण्ड पार्टी बनाई तब तक आदिवासी समाज ने इस जरूरत को मान लिया था की उनकी जीवन शैली का आधुनिक सोच के साथ सरोकार हो। आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक सम्पदा पर आधारित आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ी तो उन्होंने संघर्ष को निर्माण प्रक्रिया की दिशा में मोड़ने को अपना लक्ष्य बनाया। इस दिशा में बढ़ने के बावजूद अपने मौलिक चिंतन को छोड़ना उन्हें जरूरी नही लगा। यही वजह हुई कि उनकी संस्कृति के संगीतमय प्रवाह को इतिहास नही बनने दिया गया।
आदिवासियों के अवचेतन मन को कुरेदे तो ये प्रवाह आज भी दबी हुई पायेंगे। यही कारण है की राज्य में जितने भी निवेश के प्रस्ताव आए वे खुले दिल से उसका स्वागत नही कर पाये। उन्हें डर है कि वे विस्थापन की जिंदगी जीने को मजबूर हो जायेंगे....अपनी प्रकृति से कट जायेंगे। आदिवासी आकांछा की राह में ये एक बड़ा पेंच है।
उनकी दुविधा ये भी है की राज्य में उनकी जनसँख्या तीस फीसदी के आसपास ही है शेष गैर आदिवासी यानि जिन्हें वो दिकु कहते है। देश की संघीय व्यवस्था के साथ उनके जीवन दर्शन के बीच मेल मिलाप में कमी तो चुनौती है ही। देश में राजनीतिक पतन का असर भी उन पर पडा है। मधु कोड़ा इसके प्रतीक हैं।
१५ नवम्बर २००० को जब झारखण्ड अस्तित्व में आया तो ये उम्मीद बंधी कि बिहार की राजनीतिक विरासत की धुंध छ्तेगी और नया सवेरा आएगा। सपने देखे गए कि शासन का मानवीय चेहरा आदिवासी लोकाचार की रक्षा करने में सफल होगा। लेकिन झारखण्ड आन्दोलन में अहम् भूमिका निभाने वाले नेताओं के बदले व्यवहार के कारण आदिवासी अंतर्विरोध और निराशा के दोहरे भंवर में लोग फँस गए हैं। ऐसे राजनीतिक जानकार भी हैं जो ये मानते हैं कि चुनाव बाद मौजूदा हलचल हटेगा। लेकिन वे आदिवासी अकुलाहट को समझ पाने वाली सरकार ही होगी ये कहने का साहस इन जानकारों में भी नही है। दुनिया भर में आदिवासी जीवन दर्शन की झांकी पेश करनेवाले कुमार सुरेश सिंह और आदिवासी कोमल भावों की पैरोकार महाश्वेता देवी की आस्था क्या धरी की धरी रह जाएगी।