life is celebration

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5.12.09

झारखण्ड की व्यथा

झारखण्ड की व्यथा

संजय मिश्रा

झारखण्ड में चुनाव हो रहे हैं । इसमे चुनाव के वे सारे रंग दिख रहे हैं जो हमारी खासियत बन गई है। राज्य के बाहर के लोगों को हैरानी हो सकती है कि चुनाव प्रचार के दौरान भ्रष्टाचार मुद्दा नही बन पाया। न तो इसमे राजनितिक दलों की दिलचस्पी है और न ही मीडिया की । मधु कोड़ा बेशक घोटालों के आइकोन बन गए हों लेकिन उनको राजनितिक प्रहसन का पात्र बनने वाले दल चुप्पी साधे बैठे हैं। जिस यूपीए ने राज्य का पहला निर्दलिये मुख्यमंत्री उन्हें बनाया उसके मकसद का पर्दाफास हो चुका है। आदिवासी बेरहमी से लूटे जा चुके हैं। राज्य निर्माण के नौ साल बीत गए पर जिस ललक ने झारखण्ड की नींव रखी सत्ता की आपाधापी के बीच वो कहीं गुम हो गई है।


याद करें साल १९९८ का पन्द्रह अगस्त ... लालू प्रसाद ने अकड़ते हुए कहा था की झारखण्ड उनकी लाश पर बनेगा। दो साल और दो महीने बाद ही झारखण्ड भारतीय संघ का एक हिस्सा बन गया। ऐसा लगा आदिवासी अस्मिता के दिन बहुरने वाले हैं। पर वही लालू मधु कोड़ा की ताजपोशी में जी जान से जुटे थे । चुनाव प्रचार के दौरान आज भी उनके चेहरे पर वही छकाने वाली मुस्कान देखी जा सकती है। कांग्रेस राज्य में जमीन तलाश रही है। उसका निशाना झारखण्ड नामधारी दलों के आधार को संकुचित करने पर है। शिबू सोरेन की रही सही ज़मीं हथियाने की पुरी तैयारी है।

समझदार लोगों के अनुसार झारखण्ड ... आदिवासियों की प्रतिरोध संस्कृति का आइना है। यह संस्कृति ...कमीशन , छल प्रपंच और तिकड़म के जाल से निकल जाने के आवेग में जन्मी थी। लेकिन आज ये राज्य इन्ही के मकडजाल में उलझ गई है।

आदिवासियों का अपना दिसुम हो इसके पीछे सांस्कृतिक ... सामजिक अवधारणा काम कर रही थी। ये अवधारणा प्रकृति के मेल मिलाप के साथ देसी विचारों के सपनो के सामंजस्य पर बनी थी। इसमे स्वशासन का स्वर भी शामिल था। सामुदाइक जीवन और प्राकृतिक सम्पदा पर सामूहिक अधिकार के कारण ये समझ बनी। लेकिन बाहरी ... जिन्हें वे दिकु कहते ... लोगों की चहलकदमी ने उनकी सरलता को झकझोड़ दिया। बिरसा मुंडा से लेकर ताना भगतों ने स्वीकार किया कि निश्छल जीवन की अस्मिता की रक्षा के लिए प्रतिरोध जरूरी है।

जयपाल सिंह ने जब झारखण्ड पार्टी बनाई तब तक आदिवासी समाज ने इस जरूरत को मान लिया था की उनकी जीवन शैली का आधुनिक सोच के साथ सरोकार हो। आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक सम्पदा पर आधारित आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ी तो उन्होंने संघर्ष को निर्माण प्रक्रिया की दिशा में मोड़ने को अपना लक्ष्य बनाया। इस दिशा में बढ़ने के बावजूद अपने मौलिक चिंतन को छोड़ना उन्हें जरूरी नही लगा। यही वजह हुई कि उनकी संस्कृति के संगीतमय प्रवाह को इतिहास नही बनने दिया गया।

आदिवासियों के अवचेतन मन को कुरेदे तो ये प्रवाह आज भी दबी हुई पायेंगे। यही कारण है की राज्य में जितने भी निवेश के प्रस्ताव आए वे खुले दिल से उसका स्वागत नही कर पाये। उन्हें डर है कि वे विस्थापन की जिंदगी जीने को मजबूर हो जायेंगे....अपनी प्रकृति से कट जायेंगे। आदिवासी आकांछा की राह में ये एक बड़ा पेंच है।

उनकी दुविधा ये भी है की राज्य में उनकी जनसँख्या तीस फीसदी के आसपास ही है शेष गैर आदिवासी यानि जिन्हें वो दिकु कहते है। देश की संघीय व्यवस्था के साथ उनके जीवन दर्शन के बीच मेल मिलाप में कमी तो चुनौती है ही। देश में राजनीतिक पतन का असर भी उन पर पडा है। मधु कोड़ा इसके प्रतीक हैं।

१५ नवम्बर २००० को जब झारखण्ड अस्तित्व में आया तो ये उम्मीद बंधी कि बिहार की राजनीतिक विरासत की धुंध छ्तेगी और नया सवेरा आएगा। सपने देखे गए कि शासन का मानवीय चेहरा आदिवासी लोकाचार की रक्षा करने में सफल होगा। लेकिन झारखण्ड आन्दोलन में अहम् भूमिका निभाने वाले नेताओं के बदले व्यवहार के कारण आदिवासी अंतर्विरोध और निराशा के दोहरे भंवर में लोग फँस गए हैं। ऐसे राजनीतिक जानकार भी हैं जो ये मानते हैं कि चुनाव बाद मौजूदा हलचल हटेगा। लेकिन वे आदिवासी अकुलाहट को समझ पाने वाली सरकार ही होगी ये कहने का साहस इन जानकारों में भी नही है। दुनिया भर में आदिवासी जीवन दर्शन की झांकी पेश करनेवाले कुमार सुरेश सिंह और आदिवासी कोमल भावों की पैरोकार महाश्वेता देवी की आस्था क्या धरी की धरी रह जाएगी।

11.11.09

भारत क्या करे

संजय मिश्रा


भारत संकट में है, झारखण्ड से भ्रष्टाचार की अनूठी दास्तान लोगों ने सुनी और देखी। देश के कई तबकों में rajniti की ऐसी दशा और दिशा पर चिंता जताई जा रही है। कहा जा रहा है की ye घोटाला saare rekard toregi . छापेमारी की जद में कई पत्रकार भी आए हैं। मीडिया ke एक वर्ग में पत्रकारिता के दलदल में phaste जाने पर घोर निराशा छा गई है।


इधर मंदी ke कमरतोड़ असर के साथ साथ महंगाई लोगों के चैन uraa रहे हैं। लेकिन हैरानी की बात ये है की कांग्रेस पार्टी चुनाव डर चुनाव फतह हाशिल करती जा रही है। ऐसा कैसे सम्भव हो रहा है। लोगों को नही सूझ रहा की वे क्या करें। दिली के हुक्मरानों ने साफ़ कह दिया है की महंगाई रोकने में वे असमर्थ हैं।


आतंकी हिंसा से तो देश लहुलुहान है हे नाक्साली हिंशा की बर्बरता रोज नै मिशल कायम कर रही है। सरकारें इनके सामने असहाय महसूस कर रही हैं। अब ये नक्सालियों पर बमों की वर्षा करेंगे। यानि माँ लिया गया है की और कोई रास्ता नहीं। क्या सरकारी तंत्र ने अन्य विकल्पों का सहारा ले लिया। मनमोहन ने लोगों से उपाय सुझाने को कहा है। क्या जनता इस दुरभिसंधि को समझ पा रही है।


किसी भी देस में संत्रास के ऐसे क्षण आते हैं तो उसे विद्वानों का अब्लाम्ब मिलता है। भारत क्या करे। क्या उसके पास ऐसे विद्वान हैं जो उसे राह दिखाए। सर पटक लें तो एक भी ऐसा नाम नहीं सूझेगा।


जो देस पहले दुनिया को जीने का पथ पड़ता था वहां की ये हालत। हालत ऐसे हैं की नेपाल जैसा देश भी उसे धमकी देता है। पाकिस्तान तो पहले से ही संकट बना हुआ है। और चाइना तो लगातार अरुणाचल प्रदेश पर अधिकार जता रहा है। भारतीये नेताओं का रंग फीका पड़ गया है। वे मिमिया रहे हैं। ॥ कहाँ है वो दर्प। एक दब्बू कॉम की छवि वाले इस देश को कौन रह दिखायेगा। क्या कोई अरस्तू भारतीये क्षितिज पर दिखा रहा ।


जरा इतिहास में झांकें । यूनानी हमले के बाद के समय को याद करें। कैसे चाणक्य ने देश को एक सूत्र में बंधा था। इतना पीछे जाने की भी क्या जरूरत। जिस अमेरिकन जीवन शैली की नक़ल करते हम नही अघाते वहाँ भी कोई चोमस्की है। विद्वान समाज के संबल होते हैं। विकत परिस्थितियों में वे राह दिखाते हैं । पर भारत में ....


राजाओं के युग में भी यहाँ विद्वानों को प्रश्रय मिला करता था। लोकतांत्रिक आधुनिक भारत में तो ये प्रक्रिया और भी मजबूत होनी छाहिये थी।


अब जरा आज़ादी के बाद के परिदृश्य को समझाने की कोशिश करें। नेहरू छद्म नाम से अख़बारों में लिखते और अपनी सरकार के निरंकूस होते जाने के खतरे से आगाह करते थे। ये जानकारी कुछेक संपादकों तक सीमित थी। ऐसा कर नेहरू अपनी बद्दापन की धौंस तो जमा ही रहे थे साथ ही मीडिया के रोल पर सवालिया निशान भी लगा रहे थे।


आख़िर नेहरू को ऐसा करने की क्या जरूरत थी। क्या वो ख़ुद को ही विद्वान के रोल में फिट करनाकी भूल कर रहे थे। कम से कम राधाकृष्णन जैसे फिलोसोफेर तो आस पास थे ही...राजेंद्र जैसे पढ़े लोखे लोग भी थे। पर ये हाशिये पर बिठा दिए गए थे। नेहरू के परम मित्र कृष्ण मेनन अपने को विद्वान समझ बैठे थे। उन्हें इसका गुमान भी हो गया था। लेकिन लन्दन विश्वविद्यालय के भारतीये छात्रों ने ही उनका घमंड तोडा था। तिलमिला गए थे वो।

देशवासियों ने विद्वता के दायरे को इतना संकुचित समझ लिया है की मामूली साहित्यकारों को भी वे विद्वान मान बैठते हैं। किसी वामपंथी कार्यकर्ता से बात कर देख लीजिये । वो फक्र से कहेगा वामपंथी नेता विद्वान होते हैं। यही हाल बीजेपी वालों का है। इनके कार्यकर्ता बीजेपी को विद्वानों से भरी पार्टी बताते नही थकते। देश के कथित बोध्हिजीवी तो पहले से ही अपने को विद्वान समझने में गर्व करते हैं। बड़ी ही निर्लज्जता से रोमिला थापर , राम चंद्र गुहा जैसों को विद्वान बताने के लिए गिरोह सक्रिय रहते हैं। उधर बीजेपी वालों के लिए अरुण शौरी , के आर मलकानी और मुरली मनोहर जोशी से बड़ा विद्वान इस जहाँ में नही है।

अब थोडी बात बिहार की भी कर लें । यहाँ सामान्य समझ वाले सज्जन हैं जिनका नाम है शैबाल गुप्ता। लालू राज के दौरान इन्हे विद्वान् बनने पर जो कुछ लोग तुले तो बना कर ही छोड़ा । वे भी गौरब्मय महसूस करते हैं। जी हाँ ये दयनिए हालत उस राज्य का है जहाँ जनक जैसे राजर्षि हुए ,याज्ञवल्क्य , आर्यभट , कुमारिल, मंडन, पक्षधर , गार्गी, भारती जैसे लोग हुए । चोमस्की जब भी भारत आते हैं, मनेका, अरुंधती जैसे लोग उन्हें सुनने जाते हैं। क्या इन्हे ये सवाल नही सताता की भारत में कोई क्यों नही जिसे सुनने जायें। पुजिवादियों के खिलाफ माओवादियों के समर्थन में खड़े तथाकथित बुधीजीवी उसी पूजीवादी देस अमेरिका के विद्वान चोमस्की से सहयोग की गुहार लगते।

ये नौबत क्यों आई । क्योंकि देश में राजनितिक साजिश के तहत विद्वत परम्परा को सुख जाने के लिए कदम उठाये गए। सिक्षा के मंदिरों को विचारधारा का अखारा बनाया गया। विद्वान होंगे तो निरंकुशता पर भी आगाह किया जाएगा। कुर्सी का सुख मिलता रहे इसके लिए पब्लिक ओपिनियन को प्रभावित करना जरूरी । और इसके लिए मीडिया के साथ सिक्ष्सा केन्द्रों पर अपने पसंद की विचारधारा के लोगों को भरने की परम्परा बुलंदी पर पहुंचाई गई।

लोहिया प्रखर थे और उन्हें विद्वान सहयोगिओं का साहचर्य मिला। बिहार में उनके कई ऐसे ही सहयोगियों को जेपी और कांग्रेस ने हाशिये पर डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। इंदिरा के शासन के दौरान वामपंथी लोग शिक्षण संस्थानों पर काबिज हुए और वे आज तक जामे हुए हैं। एनडीए की सत्ता आई तो जे एस राजपूत ने खूब मजे किए।

समस्याएं विकराल होती जा रही हैं । भारत ६० सालों से विकासशील ही बना हुआ है। पर किसी को फिकर नही। माओवाद, सेकुलरवाद, और राष्ट्रवाद के नाम पड़ सत्ता छीनने और बनाये रखने में सभी लगे हुए हैं। स्वार्थ की ऐसे घिनोनी सूरत में आशा की किरण कहाँ से आएगी।

विद्वान अपने आप पैदा नही होते। इसके लिए सही माहौल की जरूरत होती है। अब प्राचीन भारत की तरह गुरुकुल नहीं बनाये जायेंगे। मौजूद विस्वविद्यालयों को ही सत्ता के दखल से मुक्त करने की जरूरत है। पढ़ाई का अस्तर ऊँचा करना होगा। शिक्षा मद में बजट को खूब बढ़ाना होगा। क्या भारतीये राजनीती इसके महत्वा को समझेगी। फिलहाल तो उसे जनता की नासमझी पड़ ही भरोसा है।

26.10.09

मीडिया की त्रासदी

संजय मिश्र
मीडिया दोराहे पर खड़ा है । एक तरफ़ पेशे से विलग गतिविधियों के कारण ये आलोचना के केन्द्र में है तो दूसरी ओर विकासशील भारत की परवान चढ़ती उम्मीदों पर खरा रहने की महती जिम्मेदारी का बोझ । मीडिया पर उठ रही उंगली अ़ब नजरंदाज नही की जा सकती । ये विश्वसनीयता का सवाल है...सर्विवल का सवाल है । आवाज बाहर से ज्यादा आ रही है पर इसकी अनुगूंज पत्रकारों में भी कोलाहल पैदा कर रही है । लेकिन अन्दर की आवाज दबी ...सहमी सी ...बोलना चाहती पर जुबान हलक से उपर नही उठ पाती। ऐसे में शुक्रगुजार वेब पत्रकारिता का जिसने एक ऐसा प्लेटफार्म दिया है जहाँ इस पेशे की सिसकी धीरे धीरे शब्द का आकार ले रही है ।
बहुत ज्यादा बरस नही बीते होंगे जब पत्रकारिता पर समाज की आस टिकी होती थी । आज़ादी के दिनों को ही याद करें तो मीडिया ने स्वतंत्रता की ललक पैदा करने में सराहनीय योगदान दिया था। कहा गया की ये मिशन पत्रकारिता थी । बाद के बरसों में भी मिशन का तत्त्व मौजूद रहा । कहीं इसने विचारधारा को फैलाने में योगदान किया तो कहीं समाज सुधार के लिए बड़ा हथियार बनी । लेकिन इस दौरान मिशन के नाम पर न्यूज़ वेलू की बलि नहीं ली गई । ये नहीं भुलाया गया की कुत्ता काटे तो न्यूज़ नहीं और कुत्ते को काट लें तो न्यूज़ ...
कहते हैं विचारधारा की महिमा अब मलिन हो गई है और विचार हावी हो गया है । ग्लोबल विलएज के सपनो के बीच विचार को सर पर रखा गया । इस बीच टीवी पत्रकारिता फलने फूलने लगी । अख़बारों के कलेवर बदले ...रेडियो का सुर बदला । संपादकों की जगह न्यूज़ मैनेजरों ने ले ली । ये सब तेज गति से हुआ । मीडिया में और भी चीजें तेज गति से घटित हुई हैं । समाज में पत्रकारों की साख गिरी है । यहाँ तक की संपादकों के धाक अब बीते दिनों की बात लगती । कहाँ है वो ओज ।
आए दिन पत्रकारों के भ्रस्त आचरण सुर्खियाँ बन रही हैं । फर्जी कामों में लिप्तता ..महिला सहकर्मियों के शारीरिक शोषण ..मालिकों के लिए राजनितिक गलियारों में दलाली ..जुनिअरों की क्षमता तराशने की जगह गिरोहबाजी में दीक्षित करने से लेकर रिपोर्टरों के न्यूज़ लगवाने के एवज में वसूली अब आम है । नतीजा सामने है । कई पत्रकार जहाँ करोरों के मालिक बन बैठे हैं। वहीँ अधिकाँश के सामने रोजीरोटी का संकट पैदा हो गया है।
दरअसल girohbaajon ने मालिकों की नब्ज टटोली और मालिकों ने इनकी अहमियत समझी । कम खर्चे में संस्थान चला देने और दलाली में ये फिट होते । फक्कर और अख्खर पत्रकार हाशिये पर दाल दिए गए । गिरोह के बाहर की दुनिया मुश्किलों से भरी । अखबार हो या टीवी की चौबीस घंटे की जिम्मेदारी । काम का बोझ और छोटी सी गलती पर नौकरी खोने की दहशत। हताशा इतनी की सीखने ki ललक नहीं। सीखेंगे भी किस्से ..असरदार पदों पर काबिज उन पत्रकारों की कमी नहीं जिन्हें न्यूज़ की मामूली समझ भी नहीं ।
टीवी की दुनिया चमकदार लगती। है भी ...कंगाली दूर करने लायक salary , खूबसूरत चेहरे, कमरे के कमाल, देस दुनिया को चेहरा दिखने का मौका ... और इस सबसे बढ़कर ख़बर तत्काल फ्लैश करने का रोमांच । पहले ख़बर परोसी जाती ... अब बेचीं जाने लगी । तरह तरह के प्रयोग होने लगे । इसके साथ ही trp का खेल सामने आया। ख़बरों के नाम पर ऐसी चीजें दिखाई जाने लगी जिसमे आप न्यूज़ एलेमेन्ट खोजते रह जायेंगे। भूत प्रेत से लेकर स्टिंग ऑपरेशन के दुरूपयोग को झेलने की मजबूरी से लोग कराह उठे। इनके लिए एक ही सछ है --एनी थिंग उनुसुअल इस न्यूज़ --...न्यूज़ सेंस की इन्हें परवाह कहाँ।

शहर डर शहर टीवी चैनल ऐसे खुल रहे हैं जैसे पान और गुटके की दूकान खोली जाती । वे जानते हैं की चैनल खर्चीला मध्यम है फिर भी इनके कुकर्मों पर परदा डालने और काली कमाई को सफेदपोश बनने के लिए चैनल खोले ही जा रहे हैं । इन्हें अहसास है की गिरोहबाज उन्हें संभाल लेंगे। कम पैसों में सपने देखने वाले पत्रकाr भी मिल जायेंगे। और वसूली के लिए चुनाव जैसा मौसम तो आता ही रहेगा।
अब वेब जर्नालिस्म दस्तक दे रही है । कल्पना करें इसके आम होने पर पत्रकारिता का स्वरुप कैसा होगा । अभी तो टीवी पत्रकारिता में ही बहाव नही आ पाया है । न तो इसकी भासा स्थिर हो paai है और न ही इसकी अपील में दृढ़ता । विसुअल का सहारा है सो ये भारतीय समाज का अब्लाम्ब बन सकता है लेकिन ...
चौथे खम्भे पर आंसू बहने का अ़ब समय नही ...पत्रकारों को अन्दर झांकना होगा । उन्हें अपनी बिरादरी की कराह सुन्नी ही होगी । मुद्दे बहूत हैं ...आखिरकार कितनी फजीहत झेलेगी पत्रकारिता ।

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