संजय मिश्र
धारिणी , जननी ... ये शब्द न जाने कब से हमारे कल्पनालोक में समाए होंगे ...... जीवन यात्रा के लिए उत्पादन की जरूरत शायद जब से महसूस हुई होगी। ये जान आप कौतुहल से भर उठेंगे की लातविया में भी --उत्पादन -- से जुडा त्योहार -- मिडसमर-- वहाँ के चिंतन प्रवाह को झक झोरता रहा है।
रात भर जगना....मदिरा में डूब जाना .... फूल तोडती तरूणी .... और पेड़ों की झुरमुट के पीछे विचरते पुरूष .... सूरज उगने का इंतज़ार करते .... पर सुबह की आहट भर से जलन महसूस करते। यही पहचान है ...२३ जून ... को मनाए जाने वाले सालाना जलसे की। लेकिन ये त्योहार -- टेलर डेज इन सिलमासी -- के बिना अधूरा माना जाता है।
- टेलर डेज इन सिलमासी - नाटक साल १९०२ में लिखा गया। सौ सालों में इसने लोकप्रिएता के सोपान गढ़े हैं। लातविया के रीगा शहर का नॅशनल थियेटर - सिलमासी - का पर्याय बन चुका है। कहते हैं बच्चे ही नहीं बड़ों के जेहन में भी -- परी कथा -- जैसी ललक रहती है। सिलमासी इसी ललक को पूरा करता है।
२३ जून की शाम -- लाईगो -- कहलाती है। बेकरारी के इस समय में ये नाटक लोगों को मसखरी, उदारता, पीड़ा और चाहत की दुनिया में ले जाता है। इसमें तीन जोड़ों के जटिल प्रेम संबंध की कहानी है। ख़ास बात ये कि नाटक की मुख्य पात्र खेतिहर महिला है।
लातविया जब सोवियत संघ का हिस्सा बना तो इस नाटक पर पाबंदी लग गई। लेकिन स्टालिन की मृत्यु के बाद इसका मंचन फिर शुरू हुआ.... इसकी कहानी लोगों की जुबान पर है... जिसमे है लातविया के जीवन दर्शन की झांकी ....मंचन का सिलसिला जारी है...
कृषि प्रधान भारत में वैसे तो खेती से जुड़े त्योहारों की भरमार है लेकिन कृषि चेतना का संचार करने वाले नाटक इनका हिस्सा नहीं बन पाए ..... किसानी त्रस्त है। सरकार की सोच ने इसे पस्त कर दिया। नक्सली आन्दोलन ने भी किसान की जगह आदिवासियों को दे दी है। - सहमत - वालों आपको नहीं लगता की भारत को भी कोई -- सिलमासी -- चाहिए।