देश को दो खांचे में
बांटने की परवान चढ़ती साजिशें
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संजय मिश्र
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चुनावी डुगडुगी बजनी
अभी शेष है लेकिन देश को दो खांचे में बींधने की कोशिशें परवान चढ़ती जा रही हैं।
राजनीतिक दलों में हलचल भले उतनी तेज न हुई हो पर बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया अपनी
अपनी पोजिशन ले चुके हैं। पॉलिटिकल क्लास कुछ समय बाद करतब दिखाने आएंगे। ये पोजिशनिंग
सेक्यूलर फ्रंट और कम्यूनल फ्रंट को आकार देने की दिशा में अग्रसर हो रही है जहां
इन दोनों से इत्तेफाक नहीं रहने वाले कुछ कर पाने में असहाय महसूस करेंगे और देश
के वोटरों के विवेक पर आस टिकाने को मजबूर होंगे।
संभव है आपको लालू
प्रसाद की ताल ठोक कर व्यक्त की गई इस अभिलाषा की याद हो आई होगी। यानि ये योजना
सफल हुई तो फिर महंगाई, काला धन, भ्रष्टाचार, किसानों की अपनी ईहलीला समाप्त कर
लेने की दर्दनाक सच्चाई, अंधाधुन माइनिंग जैसे मुद्दे हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। इसके
इतर बजाप्ता देशवासियों के दिलो-दिमाग पर गुजरात दंगे, इशरत जेहां, साध्वी
प्रज्ञा, रोहिंग्य मुसलमानों की विह्वलता, आइबी के कारनामें और बीच-बीच में राम
मंदिर जैसे शब्दों के बंबार्डमेंट शुरू हो चुके हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया में ये
रफ्तार नहीं पकड़ पाया है पर सोशल मीडिया के रणबांकुरे, उम्रदराज और रिटायर्ड पत्रकार,
सोशल एक्टीविस्ट और बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग सिद्दत से इस काम में लग गया है।
इस मुहिम में
सार्वजनिक जीवन के लिहाज और पत्रकारिए निष्ठा की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। अपने
आकाओं को खुश करने के फेर में होश पीछे छूटता जा रहा है और होड़ इस बात की मची है
कि कौन कितना नंगा होकर इस राजनीतिक पोजिशनिंग को सींचे। ऐसा लग रहा है मानो
इतिहास का कोई खास पन्ना लिखा जाना हो और उसमें हाजिरी लगाकर अपने नाम
स्वर्णाक्षरों में लिखा लिए जाएं। नीतीश के के कहे -- गोल्डन वर्ड्स आर नॉट
रिपीटेड -- की स्पिरिट के मुतल्लिक इस या उस मोर्चे के साथ जुड़ जाने की आपाधापी
साफ दिखाई दे रही।
आप सोच रहे होंगे कि
निराशा के माहौल का बखान क्यों हो रहा यहां? पर हाल की कुछ घटनाओं को देखें तो
अशंका जेहन में आना स्वाभाविक है। उत्तराखंड की त्रासदी, इशरत जेहां, बोधगया
विस्फोट और आइबी पर सुनियोजित प्रहार जैसे मामलों पर जो घमासान मचा वो इस योजना की
दिशा में देश को मोड़ने की बानगी ही पेश करता है। राहुल के लिए अलग नियम का
निर्ल्लज बचाव, फारबिसगंज गोलीकांड में मारी गई यास्मिन खातून की जगह इशरत को
बिहार की बेटी का तमगा मिलना, बोधगया मामले में नीतीश का लापरवाह बयान और आइबी को
एनकाउंटर करवाने वाली संस्था बताना यही संकेत करते हैं।
सत्ता में जमे लोग
अक्सर संस्थानों की पवित्रता से खिलवाड़ करते। अन्ना आंदोलन के समय जब सांसदों पर चौक-चौराहों
वाली शैली में प्रहार हुए तो राजनेताओं को अचानक ही संविधानिक संस्थानों की
मर्यादा का खयाल आया। खुशामदी पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की फौज अन्ना के लोगों
पर फुफकारने लगी। आज यही फौज आइबी, गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस पर चौतरफा हमले
कर रहे हैं। दिलचस्प है कि ये हमले होते हैं और चन्द घंटे बाद दिग्विजय सिंह जैसों
की तरफ से इनका हौसला बढ़ाने वाले बयान आते हैं। क्या गृह मंत्रालय संविधानिक
व्यवस्था का अंग नहीं है?
बिड़ला के अंग्रेजी
अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार दिग्विजय डॉक्ट्राइन के तहत निकलने वाले तमाम जहरीले
बयानों को -हाइपरबोल- मान गर्व करते हैं। वहीं सबसे पहले कॉरपोरेटीकरण की छाया में
आए एक अंग्रेजी अखबार के एक पूर्व संपादक के सोशल मीडिया में लिखे कुछ अंश देखें---
Why would terrorists
strike at Bodh Gaya and the Mahabodhi temple, that too at a time when it is
virtually deserted save the few monks inside ? It does benefit the patriots in
the IB and the BJP..... Listen to them on TV !! I suspect with the
election round the corner, these guys will launch several such explosions--....
The Delhi Police
Commissioner holds a press conference within hours to claim that Intelligence
alerts were available and sent to Bihar ! Nothing new because after every
blast, they say they knew but did not know when or where !
गंभीर कहे जाने वाले
एक टीवी चैनल में काम कर चुके एक पत्रकार की टिप्पणी पढ़ें—
इस देश में तमाम तरह
के धमाकों और दंगों की लगाम बीजेपी के पास है और सत्ता पक्ष के खिलाफ इसका
इस्तेमाल करती रहती है। अभी बोध-गया में जो धमाका हुआ है, यकीनन वह इसी विषैली
पार्टी का कारनामा है .....
यानि जांच एजेंसी
अभी भी हाथ-पैर मार रहे हैं पर इन पत्रकारों को घटना के कुछ ही घंटों के अन्दर पता
चल गया कि विस्फोट किसने किया? दरअसल साल २०१४ की दो खांचे वाली योजना के
दुष्प्रचार अभियान के तहत ये नामी पत्रकार पत्रकारिए समझ के साथ दुष्कर्म कर रहे
हैं। ये महज कुछेक उदाहरण हैं। सोशल मीडिया में मोदी और राहुल के समर्थकों के बीच
आरोप-प्रत्यारोप का स्तर इतना गिरा हुआ है कि उसे असभ्यता की श्रेणी में ही रखा जा
सकता।
इन सबके बीच कई सवाल
मुंह बाए खड़ी हैं? कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलर फ्रंट की चाहत है कि एनडीए के मौजूदा
आकार को बड़ा नहीं होने दिया जाए। लालू यादव की आकांक्षा की उड़ान के मुताबिक मोदी
का मुकाबला करने के लिए एनडीए से अलग देश के बाकि सभी दल इस फ्रंट में आ जाएं।
क्या फेडरल फ्रंट बनेगा और ये बाद में सेक्यूलर फ्रंट से साझेदारी निभाएगा? क्या
मुलायम और मायावती एक मंच पर आएंगे? वोट वैंक की व्यग्रता में इशरत चालीसा का जाप
करने वाले जेडीयू के सर्वेसर्वा नीतीश और लालू मंच साझा करेंगे?
सेक्यूलर फ्रंट के पैरोकार
बुद्धिजीवी और पत्रकार इन सवालों में छिपी कटुता को कम करने की कोशिशें कर रहे
हैं। हस्तक्षेप की पहल में लगे वामपंथी तबके के लोग फिलहाल इस राजनीतिक कवायद का
हिस्सा नहीं बनना चाहते। जाहिर है इनके बीच कशमकश तीखी होती जाएगी। यही हाल
गैर-राजनीतिक आंदोलनों से आस बांध लेने वाले लोगों का है जो मानते कि ये देश
कल्लरखाना नहीं जिसके नागरिकों को दो खांचों वाली चाल में उलझा कर रखा जाए और आखिर
में भोजन गारंटी का टुकड़ा फेक कर बहला लिया जाए।
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