देश ऐसे नहीं
चलाई जाती ... केजरीवालजी
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संजय मिश्र
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२१ जनवरी २०१४ की
सुबह... इंडिया के लोगों ने जब अस्त-व्यस्त हालत में केजरीवाल को देखा तो वे फक्र से
तर-बतर हो गए ... सर्द मौसम में.... सड़क पर.... देश का एक सीएम अपने कैबिनेट के
साथ बीती रात गुजार कर उठा था ... केजरीवाल से लाख असहमतियों के बावजूद ये दृष्य
निश्चय ही ऐतिहासिक रहे। एक तरफ राजा-महराजा और भोग-विलास वाली मानसिकता...तो दूसरी
ओर इस मानसिकता से संघर्षरत नई किस्म की राजनीति... एक तरफ राज करने की ठसक तो
दूसरी ओर सीधे प्रजातंत्र के तत्वों को स्थापित करने की अभिलाषा। अन्ना ने मौजूदा
प्रजातांत्रिक रूख को जो आक्सीजन दी ... उसी का ये विराट रूप आस
लगाने वालों को संतोष दे रहा था।
उस दिन जनमानस इस
बात को इग्नोर करने के लिए भी तैयार दिखा कि रेल भवन के सामने दिए जा रहे धरना का
लक्ष्य कितना मामूली था। एक मंत्री के विवादों से ध्यान बटाने की कोशिश। उम्मीद
बंधी कि ये कदम दिल्ली राज्य के अधिकार बढ़ाने की ओर रूपायित हो जाएगा। संतोष इस
बात का कि ऐसे कदमों से आखिरकार नई राजनीति के सपनों को पंख लगेंगे। धरने का अंत निराशाजनक
साबित हुआ। निराशा संताप में उस दिन बदल गई जब शासन के ४९ वें दिन केजरीवाल ने
इस्तीफा दे दिया।
आम आदमी पार्टी
की सरकार के ४९ दिनी कार्यकाल पर सरसरी नजर दौड़ाएं तो उस तरह के लक्षण दिखते जो
आशावानों में क्षोभ पैदा कर सकते। बतौर सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल की खतरनाक
मंसूबों वाली तस्वीर हुलकी मारने लगती। सत्ता को एडवेंचर की मानिंद चलाने की उत्कट
कोशिश। परसेप्सन बना कि न तो इस रोमांच को वे न्यायसंगत बना पाए और न ही इंडियन
पालिटिक्स को शासन के जरिए कोई नया अवदान देने में कामयाब हो सके। उल्टे इंडिया
सहम सा गया है। कई कई बार केजरीवाल शासन की जतन से पड़ताल कर लेने की अकुलाहट सभी
तरफ पसर गई है।
नई राजनीति का
सपना इस दौर में आकार ले पाने से पहले ही कुम्हलाने लगा। ऐसा पहली दफा हुआ कि कोई
राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव लड़ने की लालच में राज्य सरकार की जिम्मेदारी छोड़ भाग
खड़ी हुई। बेशक ऐसा कहने वाले मिल जाएंगे जो इस तरह की छवि को केजरीवाल के खिलाफ नकारात्मकता
अभियान करार दे दे। पर याद रखना चाहिए कि केजरीवाल ने गुमान से कहा था कि वो एनार्किस्ट
हैं। हालांकि उनके उस बयान से सहमति नहीं जताई जा सकती पर आआप नेताओं के
कार्यकलापों में अधीरता, महत्वाकांक्षा, बात से पलटना, हकीकत से उलट दावे करना परेशान
करने वाले संकेत तो हैं ही। ये संकेत तो पारंपरिक राजनीति को पहले से ही लहुलुहान
किए हुए हैं।
ये नहीं भूलना
चाहिए कि केजरीवाल सरकार के अधिकांश कदम अनूठे नहीं हैं और इस देश में पहले भी
उठाए गए हैं। सीएम का धरने पर बैठना और फौरी राहत मिलते ही धरने से उठ जाना, जनता
दरबार लगाना और फिर उससे तौबा करना, एलीट संस्कृति से दूरी बनाना और बाद में उसका
लाभ ले लेना, सत्ता में जाने के लिए रेफरेंडम करना लेकिन सत्ता छोड़ने के लिए ऐसा
नहीं करना... ये विरोधाभास मुंह बाए खड़े हैं। नई राजनीति के बिंदु ये तब बनते जब
इन्हें अधिक रूचिकर बनाया जाता साथ ही इसके लिए दीर्घकालिक ललक दिखाई जाती। जिस
दिल्ली जनलोकपाल बिल और स्वराज बिल को आआप के दिल के करीब बताया गया उन्हीं बिलों
की बलि लेकर सत्ता से छुटकारा पाया गया।
सत्ता छोड़ने की
इस कवायद को क्लासिकल राजनीतिक पलायन के रूप में दर्ज करेगा इतिहास। उपराज्यपाल के
संदेश पर मतविभाजन में पिटी थी सरकार लेकिन झूठी दलील दी गई कि जनलोकपाल पेश नहीं
होने के कारण छोड़ी सत्ता। असली मंशा तब खुल कर सामने आई जब दावा किया गया कि
बहुमत की सरकार ने विधानमंडल भंग करने की सिफारिश की है लिहाजा चुनाव कराए जाएं।
नजर इस बात पर कि लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव भी करवा लिए जाएं।
केजरीवाल ने
अरमान जगाया था कि वे सर्जक की भूमिका निभाएंगे। लेकिन दिल्ली जनलोकपाल बिल
उपराज्यपाल को नहीं भेजने की जिद हैरत में डाल गया। संदेश दिया गया कि ये ड्यूटी
आफ डिसओबेडिएंस है। किस खातिर? जवाब आया कि दिल्ली विधानसभा के अधिकार वापस दिलाने
की खातिर। पर इसके लिए केजरीवाल ने कोई पहल नहीं की। अधिकार दिलाने के उभर-खाबर
राह के बावजूद वे सर्वदलीय शिष्टमंडल लेकर राष्ट्रपति और पीएम से मिल सकते थे। कुछ
हासिल नहीं होता तो एक बार फिर बतौर सीएम धरने पर ही बैठ जाते। विपक्षी दलों के
नेताओं को अपने साथ धरने पर बैठने के लिए नैतिक दबाव बनाते। ऐसा कुछ न हुआ।
न तो दिल्ली
राज्य को अधिकार मिले और न ही जनलोकपाल। हां, केजरीवाल को सुर्खियां जरूर मिलती
रही। कभी नई घोषणाएं कर तो अगले दिन किसी नामी व्यक्ति के खिलाफ आरोप लगाकर। उसी
आरोप को अधर में छोड़ अगले ही दिन किसी दूसरे व्यक्ति पर आरोप। सिलसिला चलता रहा
लेकिन आरोपों पर कोई फालोअप नहीं। हिट एंड रन का ऐसा नंगा नाच इस देश ने पहली बार
देखा। घोषणाओं के अमल की फिकर नदारद। डेलिवरी सिस्टम दुरूस्त करने की पलखत नहीं।
तो फिर मौजूदा सिस्टम से अविश्वास जताने का क्या मतलब?
न तो केजरीवाल
मासूम हैं और न ही मीडिया भोला। मीडिया का अपना एजेंडा है २०१४ तक के लिए।
केजरीवाल इस उर्वर मौके की फसल काटने में मशगूल हैं। केजरीवाल लगातार कहते हैं कि
वो नेताओं को राजनीति सिखा रहे। उन्हें भले परवाह न हो पर राजनीति सिखाने के इस
अंदाज में जो अहंकार टपकता है वो नई राजनीति का मुंह जरूर चिढ़ा रहा। तो क्या नई
राजनीति के पहरूए झूठ बोलना सिखा रहे... बात से मुकड़ने की नसीहत दे रहे.. आरोप
लगाने की ट्रेनिंग दे रहे हैं?
इन प्रवृतियों का
महिमामंडन हुआ तो पारंपरिक राजनीति इसे हाथों-हाथ लेगी। तब इंडिया को बिचलित होने
से रोका नहीं जा सकेगा। नई राजनीति के पैरोकारों के लिए ये गंभीर चुनौती है। ये
महज संयोग नहीं कि हर राजनीतिक आंदोलन की सफलता के तत्काल बाद इंडिया सिसकने लगता
है। गांधी उतने निराश नहीं हुए होंगे जितने की जेपी ... और जेपी उतने निराश नहीं
हुए होंगे जितने की अन्ना हो सकते हैं। क्या इंडिया इस तरह की निराशा का जोखिम ले
सकेगा? २०१४ चुनावों तक सब्र करें... अरसा बिताने की जरूरत कहां।