life is celebration

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21.4.14

मराठियों को भी समझने की जरूरत है

मराठियों को भी समझने की जरूरत है
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संजय मिश्र
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कई टीवी चैनलों में एक के बाद एक राज ठाकरे के साक्षात्कार विस्मयकारी थे ... इसके पीछे की राजनीति और मंसूबों पर किसी तरह की टिप्पणी इस पोस्ट का लक्ष्य नहीं... इससे पहले तक मीडिया में राज की एकरंग छवि छाई रही है... उम्मीद है राज के जो विचार सामने आए उससे एकरंग छवि बदले... 
क्या ये सच नहीं है कि अन्य राज्यों में बिहार से पलायन कर जाने वाले लोगों के साथ हुई नाइंसाफी पर मीडिया और बिहार के राजनेता कमोवेश चुप्पी साध लेते... महाराष्ट्र या बम्बई का नाम आते ही बिहार-यूपी के तमाम नेता और दिल्ली के हिन्दी पत्रकार मोर्चा संभाल लेते?
क्या ये सच नहीं है कि बिहार या यूपी के हुक्मरानों की नाकामी के कारण पलायन की भीषण रफ्तार बनी हुई है?
क्या ये सच नहीं है कि पलायनकर्ता इंडिया के संविधान की रक्षा करने महाराष्ट्र नहीं जाते बल्कि मजबूर होकर रोजी-रोटी की तलाश में वहां या कहीं पर भी जाते? 
इंडिया के लोग बिहार की भावनाओं को जितना समझें उतना ही महाराष्ट्र को जानना भी उनका फर्ज है... मराठियों को राज के बगैर भी समझा जा सकता....
आपने गौर किया होगा कि बिहार सहित देश के तमाम राज्यों के लोग दूसरे राज्यों में काम की तलाश कर पेट की आग बुझा लेते.... लेकिन आपने ये भी गौर किया होगा कि महाराष्ट्र और मराठी संस्कृति के असर वाले सीमावर्ती राज्यों जैसे एमपी आदि के किसान विपत्ति आते ही आत्महत्या कर लेते... विदर्भ(महाराष्ट्र) में तो लाखो किसानों ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली है.... वे दूसरे राज्यों में जाकर अपना पेट पाल सकते थे.. पर मराठियों की मानसिकता थोड़ी अलग है... बड़ी नौकरियों में मराठी आपको देश के किसी कोने में मिल जाएं लेकिन आम तौर पर वहां के लोग कष्ट काटकर भी अपने सांस्कृतिक क्षेत्र में ही जीवन जीना पसंद करते... यही कारण है कि उनके लिए अपने ही राज्य में रोजगार मिलने की आकांक्षा पालना बड़ा मुद्दा है..... इस सोच को ही राज ठाकरे जैसे लोग आवाज देते हैं ... बिहार जैसे राज्य के लोग कह सकते कि हे मराठी लोगों जान गंवाने से अच्छा है अपने ही देश के अन्य हिस्सों में रोजगार खोजने में संकोच न करें... पर क्या आपने कभी प्रभावकारी राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने ही देश के मराठियों को महाराष्ट्र में ही रहने के मोह को विशेष परिस्थिति में त्यागने के लिए मलहम लगाते सुना है? लालू, नीतीश, मुलायम, शरद .. या फिर कांग्रेस, बीजेपी के लाट साहबों के मुंह से?..

19.4.14

मीडिया पर हो रहे चौतरफा हमले

मीडिया पर हो रहे चौतरफा हमले
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संजय मिश्र
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मीडिया में साख की कमी है ये तो जानी हुई बात है.. लेकिन पिछले कई दिनों से मीडिया(खासकर टीवी चैनल्स) पर जिस तरह आरोपों के हमले हो रहे हैं वो असहजता पैदा करने वाले हैं... ... शनिवार को भी राज ठाकरे और उसके बाद आजम खान ने जिस अंदाज में भड़ास निकाले वो ध्यान खींचने के लिए काफी है..... राज के बयान में उदंडता का भाव है वहीं आजम ने लगातार नरेन्द्र मोदी से पैसे खाने का आरोप मीडिया पर लगाया है... एबीपी न्यूज के एक कार्यक्रम में आजम ने बदमिजाज लहजे में एंकर अभिसार को मोदी से पैसे मिलने का जिक्र किया... इस चैनल ने कोई प्रतिकार नहीं किया... बेशक पत्रकारिता की परिपाटी है कि सवाल पूछने के बाद पत्रकार को जवाब सुनना होता है चाहे जवाब कितना भी उत्तेजना पैदा करने वाला क्यों न हो... लेकिन केजरीवाल की तरफ से पत्रकारों को जेल भेजने वाली धमकी के बाद से ये सिलसिला सा बन गया है... ऐसा लगता है एक एजेंडे के तहत मीडिया पर मोदी से पैसे पाने के आरोप लगाए जा रहे हैं ... राजनीतिक मकसद ये कि पत्रकार सेक्यूलर-कम्यूनल चुनावी अभियान में सेक्यूलरिस्टों का गुलाम की तरह साथ दें... मकसद जो भी हो कई सवाल उभरते हैं...मीडिया आरोपों को नकारता क्यों नहीं है? मीडिया ये क्यों नहीं पूछता कि आरोप लगाने वाले पुष्ट तथ्य पेश करें ? मीडिया आरोप लगाने वालों को मानहानि के मुकदमें की चेतावनी क्यों नहीं देता? पीसीआई और एनबीए चुप क्यों है? मान लें कि सभी हिन्दी टीवी चैनल बिकाउ हैं तो सभी ने इकट्ठे मोदी से ही पैसे क्यों खाए? चैनलों ने कांग्रेस से पैसे क्यों नहीं लिए? बिन पैसे के तो समाजवादी पार्टी भी एक दिन नहीं चल सकती... तो आजम की पार्टी ने पत्रकारों को क्यों नहीं खरीद लिया? क्या पिछले ६५ सालों में राजनीतिक दलों ने पत्रकारों या चैनलों को कभी भी प्रभावित नहीं किया है... सत्ता या पैसों के जरिए? मान लें कि पैसों का खेल पहले भी हुआ तो उन चुनावों के समय मीडिया पर आरोप क्यों नहीं लगे? क्या बीजेपी को छोड़ बाकि सभी राजनीतिक दल राजा हरिश्चंद्र की तरह जीने का दावा कर सकने की हिम्मत रखते हैं? असल में साल २००९ से पत्रकारों ने जिस तरीके का व्यवहार किया है उसने कांग्रेस और अन्य कथित सेक्यूलर राजनीति वाले दलों को उन्हें गुलाम की तरह इस्तेमाल करने योग्य हथियार मानने के लिए लुभाया है। पहले भी इंडिया का मीडिया विचारधाराओं की प्रतिबद्धता में उलझने की भूल करता रहा है... और इस चक्कर में बेईमानी भी करता रहा है। आजादी के आंदोलन में लगे लोगों को मीडिया का सहयोग कुछ हद तक मिलता रहा। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए इसे जायज भी माना जा सकता था। लेकिन आजादी के बाद मीडिया को अपने रूख में जो तब्दीली करनी चाहिए थी वो चाहत नहीं दिखी। सुनियोजित तरीके से वाम कार्ड होल्डरों और लोहियावादियों का मीडिया में प्रवेश और इन विचारधाराओं के हिसाब से जनमत को प्रभावित करने का खेल चलता रहा। फिर भी कुछ मर्यादाएं रख छोड़ी गई... न्यूज सेंस से खिलवाड़ नहीं किया गया। लेकिन हाल के समय में न्यूज सेंस से भी छेड़छाड़ की गई है... ... एंटी इस्टैबलिस्मेंट मोड में होने की मनोवृति को भुलाकर सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष को लताड़ने की परिपाटी को पुष्ट किया गया.... मुजफ्फरनगर दंगों की रिपोर्टिंग दिलचस्प तथ्य पेश करने योग्य हैं..... भड़काउ भाषण देने वाले नेताओं की फेहरिस्त से कांग्रेसी नेता का नाम एबीपी न्यूज के पैकेज से गायब होना नतमस्तक होने की पराकाष्ठा थी... बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुए लाठीचार्ज के विजुअल केन्द्र की सत्ता की धमकी पर उपयोग नहीं करने जैसे पत्रकारिए अपराध किए गए... जाहिर है सत्ताधीशों का मन चढ़ेगा ही...  आरोपों की बौछार के बीच मीडिया को अपने अंदर झांकने का वक्त आ गया है... साख पर बट्टा न लगे इसके लिए वे फौरी तौर पर आरोप लगाने वालों को जवाब दें साथ ही पत्रकारों को पानी में डूब कर नहीं भींगने की कला की ओर रूख करने के बारे में सोचना चाहिए .. 

5.4.14

विकास पुरूष लौटे मंडल राजनीति की गोद में

विकास पुरूष लौटे मंडल राजनीति की गोद में 
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संजय मिश्र
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५ अप्रैल को नीतीश कुमार को सुनना उन लोगों के लिए कसैला स्वाद वाला मेनू साबित हुआ होगा जो उन्हें खांटी विकास पुरूष के रूप में देखना पसंद करते... मौका था जेडीयू घोषणा पत्र के जारी होने का... पार्टी सुप्रीमो नीतीश ने ठसक से ऐलान किया कि निजी क्षेत्र में देश भर में आरक्षण की व्यवस्था की वे पैरोकारी करेंगे... ये आफिसियल है...घोषणापत्र का वादा है... यानि ये नहीं कह सकते कि चुनावी फिजा के बीच कोई बात यूं ही कह दी गई... नीतीश अब अपने मूल राजनीतिक प्रस्थान बिंदू की तरफ लौट रहे हैं...यानि मंडल राजनीति की आगोश में फिर से समा जाना चाहते.. उनके विरोधी अरसे से कहते आ रहे हैं कि जेडीयू का आरजेडीकरण हो रहा है... लेकिन अब ये पक्की बात है... राजनीतिक परिदृष्य पर गौर करें... निजी क्षेत्र में आरक्षण के सबसे बड़े पैरोकार एलजेपी सुप्रीमो राम विलास पासवान एनडीए में जा चुके हैं और माना जा सकता कि इस स्पेस को नीतीश भरना चाहते... उधर नरेन्द्र मोदी लगातार कह रहे कि अगला दशक पिछड़ों और दलितों के उत्कर्ष का समय होगा... तो क्या इस राजनीतिक चुनौती को देख नीतीश सर्वाइवल के लिए मंडल राजनीति की ओर मुड़ने को बाध्य हुए हैं? ... राजनीतिक समीक्षक कह सकते कि हाल के चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों से नीतीश हिल चुके हैं लिहाजा ऐसे कदम उठाना हैरान नहीं करना चाहिए... पर याद करने की जरूरत है कि इन्हीं सर्वेक्षणों में नीतीश बिहार में सबसे पसंद किए जाने वाले व्यक्ति हैं... पसंद करने वालों की फेहरिस्त में बीजेपी समर्थक बड़ी तादाद में हैं... तो क्या ये माना जाए कि गठबंधन तोड़ने के निर्णय के समय पसंद करने वाले इस तबके की इच्छा की अनदेखी करनेवाले नीतीश अब फिर से इनकी अनदेखी कर रहे और लालू शैली की ओर मुड़ रहे? ...दरअसल नीतीश विरोधाभासी व्यक्तित्व के दर्शन करा रहे हैं जो कि राजनीति में अनयुजुवल नहीं है... ... एक तरफ वे कहते कि उन्होंने सिद्धांत की कीमत चुकाई है... दूसरी तरफ जनाधार खिसकने की आशंका की व्याकुलता भी दिखा रहे... सत्ता के खेल का चरित्र निर्मोही होता है... इसे समझने में बिहार के मौजूदा राजनीति के इस चाणक्य से भूल हुई होगी ...ऐसा बिहार के बाहर के राजनीतिक पंडित मान रहे होंगे... वे ये भी सोच रहे होंगे कि नीतीश के लिए रास्ता बदलना आसान नहीं होगा... पर नीतीश ने पहले से ही गुंजाइश रख छोड़ी है... उनके कई पसंदीदा शब्द हैं जिनमें - इनक्लूसिव ग्रोथ- सबसे अहम है... नीतीश के इंक्लूसिव ग्रोथ में आरक्षण का तड़का ज्यादा घनीभूत है जो कि कांग्रेस के इंक्लूसिव ग्रोथ से अलग है .... नीतीश ने महादलित कार्ड को अपने इनक्लूसिव ग्रोथ के दायरे में अक्सर भुनाया है... लिहाजा जातीए राजनीति की ओर सरकना उनके लिए उतना भी मुश्किल नहीं होगा...

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