life is celebration

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10.4.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ--पार्ट 3

संजय मिश्र ------------ पटना के जो छात्र स्कूलिंग के बाद महानगरों में पढने जाते हैं.....वे वहां अपना परिचय अक्सर ' पटना-एट ' कह कर देते हैं....' बिहारी ' कह कर नहीं। ये मानसिकता ग्लोबलैजेसन के दौर में नहीं पनपी है। इसके दर्शन लालू युग में भी होते थे ...और उससे भी पहले कांग्रेसी शासनों में यही वास्तविकता थी। -----------------------------------------------------बिहार दिवस के मौके पर ऐसे युवा बिहारीपन की कसमें खा रहे थे। ये विलाप, टीवी स्क्रीन पर दिखने की चाहत का कमाल ज्यादा था....वनिस्पत ह्रदय परिवर्तन के। ये मानना खंडित सच होगा कि महज लालू प्रसाद के अ-गंभीर अंदाज की वजह से बिहारीपन को चोट पहुँची थी और अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। दर-असल, राज्य के प्रति अनुराग में खालीपन की बुनियाद बिहार बनने के समय ही पर गई। ---------------------------------आज की पीढी को ये जान शायद हैरानी हो कि बिहार का निर्माण इस बात को ध्यान में रख कर किया गया ताकि उस समय के पढ़े-लिखे ख़ास तबकों को नौकरी के अवसर मिलें। असल में उस समय सरकारी नौकरियों में बांग्ला-भाषियों का दब-दबा था। बिहार के हर शहर में बंगाली टोला की मौजूदगी इसे बखूबी बयान करते हैं। आधुनिक शिक्षा पाए कायस्थ वर्ग के लोग बांग्ला-भाषियों के कारण हाशिये पर होते। जबकि बिहार की कचहरियों में खडी बोली के प्रयोग की इजाजत से वे उत्साहित थे। उस समय अन्य जातियों में नौकरी के लिए लगाव नहीं के बराबर था। ------------------------------------------------------------------------------------ उधर, कायस्थ और मुसलमानों में उच्च शिक्षा पाने वाला वर्ग अपनी महत्वाकांक्षा छुपा नहीं पा रहा था। कलकत्ता में इस तबके को भाव नहीं मिल रहा था। सच्चिदानंद सिन्हा, अली इमाम, और हसन इमाम जब बिहार के लिए मुहीम चला रहे थे तो नौकरी के अवसरों और समाज में धाक पर इनकी नजर गरी थी। किसी विराट सपने के वगैर चली ये मुहिम , अंग्रेजों की बांग्ला-भाषियों को कमजोर करने की नीति के कारण आसानी से सफल हुई। ------------------------------------------------------------------------------------------------बिहार बनने के बाद मुहिम चलाने वालों को फायदे हुए। सच्चिदाबाबू, बिहार गवर्नर के ' एक्जेक्युटिव काउनसेलोर ' बनाए गए। ये पद पाने के लिए सच्चिदानंद सिन्हा ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। गणेश दत्त सिन्हा ' मिनिस्टर इन चार्ज ' बने। ज्वाला प्रसाद को पटना हाई-कोर्ट का जज बनाया गया। अली इमाम दिल्ली में ' एक्जेक्युटिव काउंसे-लर ' बने। वहीं हसन इमाम पटना हाई-कोर्ट में जज बनाए गए। ये फेहरिस्त लम्बी है। -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जाहिर है स्वार्थ और महत्वाकाक्षा की कोख जे जन्मे बिहार की ' लोंगेविटी ' का सवाल सामने था। बिहार आन्दोलन के समानांतर बंगाल से मिथिला को अलग कर देने की सुगबुगाहट भी आकार ले चुकी थी। फिर भी मिथिला के मुरलीधर झा सरीखे लोग बिहार को ' मगध -मिथिला ' नाम से स्वीकार करना चाह रहे थे। आखिरकार ' बिहार ' नाम ही चला। सच्चिदानंद ने दरभंगा महाराज से अपने इस्टेट के काम-काज में हिन्दी के प्रयोग का अनुरोध किया । दरभंगा महाराज हिन्दी को प्रश्रय देने के लिए राजी हो गए।-----------------------------------------------------------बिहार को बनाए रखने के लिए दो तरह की सोच काम कर रही थी। पहली धारा ये मान कर चल रही थी कि मगध, मिथिला, भोजपुर, झारखण्ड, और उड़ीसा जैसे सांस्कृतिक क्षेत्रों की आकांक्षा का शासन में ' रिफ्लेक्सन ' हो तो लोगों में राज्य के लिए लगाव जगेगा। इस धारा के लोग मानते रहे कि एक साझा संस्कृति बनाई जा सकती । भोजपुरी, मगही और मैथिली के बीच रक्त संबंध में इन्हें सहमति के बिन्दु नजर आ रहे थे। -------------------------------------------------------------------------------------------------------------जबकि दूसरी धारा के लोग समझा रहे थे कि बिहार एक माडर्न स्टेट है लिहाजा इसकी अलग पहचान होनी चाहिए। इनका दुराग्रह रहा कि इसके लिए बिहार के परम्परागत सांस्कृतिक क्षेत्रों की पहचान ' मिटनी' होगी। इस दिशा में बकाएदा कोशिशें हुई। रणनीति बनी कि सबल सांस्कृतिक क्षेत्रों को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर किया जाए और इनके सांस्कृतिक अवदान को अहमियत ना दी जाए। इसी कारण इन क्षेत्रों के प्रति ' इंटल - रेन्स ' शासन का स्थायी भाव बन गया। ---------------------------------------------------------------------------दूसरी धारा का प्रभुत्व ज्यादा था लेकिन लक्ष्य मुश्किल। सौरसेनी हिन्दी थोपी गई। एक ' बिहारी ' हिन्दी की कल्पना भी की गई जो कमोवेश बिहार के सरकारी ऑफिसों में में क्लर्कों के बीच प्रचलन में है। हिन्दुस्तानी की भी वकालत हुई। आज भी प्रकाश झा अपने टीवी चैनल के जरिये बिहार की अलग हिन्दी गढ़ने में लगे हैं। ये ' बेतिया ब्रांड ' हिन्दी कहाँ तक चलेगी ..... कहना मुश्किल। ----------------------------------------------------दूसरी धारा के वर्चस्व का नतीजा भयावह तस्वीर पेश करता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि सोमदेव के अनुसार भोजपुरी में लिखे जा रहे साहित्य में स्तरीय रचना की संख्या सौ के पार बमुश्किल जाती है। दरअसल, बिहार बनने के बाद भोजपुरी भाषी हिन्दी सेवा में लगे। भोजपुरी में साहित्य रचने की जरूरत का लगभग तिरस्कार किया गया। वे अब सचेत हुए हैं लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने की छटपटाहट में वे ' शार्टकट ' की तलाश में हैं.....ये जानते हुए कि साहित्य सृजन उन्हें शार्ट -कट की इजाजत नहीं देता। मगही का हाल बुरा है.....वो अपनी पहचान का मोहताज है। ये एक स्वतन्त्र भाषा है बावजूद इसके मगही साहित्यकार इसे हिन्दी की बोली कहने में शर्म नहीं करते। उधर, मैथिली की जीवन यात्रा का लगभग नब्बे साल संघष में ही बीत गया। -----------------------------------------------------------------------------------------------ये नौबत बिहार की सांस्कृतिक संपदा की अनदेखी के कारण ही नहीं आया। दरअसल, सार्वजनिक जीवन में जातिवादी सोच को मिला प्रश्रय मारक साबित हुआ। इसे एक उदाहरण से समझें। छपरा का एक यादव, मधेपुरा के स्वजातिये से जितनी आत्मीयता दिखाता है....उतना वो छपरा के ही अन्य जाती के पडोशी से नहीं दिखाता। यही भाव अन्य जातियों में भी लागू होता है। शुरुआती दौर में कायाश्थों और मुसलमानों के हाथ लगे वर्चस्व ने अन्य जातियों को भी उकसाया । अब बारी थी भूमिहारों और राजपूतों की। त्रिवेणी संघ के तहत कोयरी, कुर्मी और यादव सत्ता में हिस्सेदारी के लिए आगे बढे। ये सिलसिला चल पडा जो कि जारी है। लालू युग में दूसरी धारा नग्न रूप में दिखी। ------------------------------------------------------------------------------------------जातिवादी हथियार इस ललक के साथ आगे बढ़ी कि जातीय उत्थान में ही राज्य का उत्थान है। इस हथियार का इतना प्रचंड असर हुआ कि विभिन्न क्षेत्रों की आशा का मर्दन तो हुआ ही साथ ही बिहार के लिए ममता का भाव पीछे छूट गया। निर्मम होकर सुख-भोग की अभिलाषा को तरजीह मिली। आर्थिक प्रगति में क्षेत्रीय असंतुलन को बढ़ावा मिला। मोहन गुरुस्वामी जब कहते हैं कि केंद्र से बिहार को ४०,००० करोड़ रूपए कम मिले तो इसकी वजह बिहार के सत्ता-धीशों की अलग प्राथमिकता में खोजी जा सकती है। ----------------------------------------नीतीश शायद पहली धारा के लिए रुझान दिखाना चाह रहे हैं। जीवन में बेहतरी की गुंजाइश राज्य के लिए लगाव पैदा करेगा। समस्याओं के अम्बार के बावजूद, नीतीश कुमार राज्य की योजना को संस्कृति सापेक्ष बनाबें। बेहतर होगा स्टेट योजना के अंतर्गत मगध, मिथिला, और भोजपुर के लिए अलग प्लानिंग कमिटी बने। आज का बिहारी युवा ये मानता है कि पुरातन गौरव से प्रेरणा ली जा सकती...पर इसे पुनर-स्थापित नहीं किया जा सकता। आखिरकार, भावी पीढी के लिए वर्तमान में गौरव करने लायक तत्व होने चाहिए। ऐसे में बंशी चाचा, किसान चाची, काशीनाथ और दशरथ मांझी जैसे नाम उम्मीद जगाते हैं। ' हमारा बिहार ' की लौ अभी मध्धम है...इसे तेज करना चुनौती। ' अपना बिहार ' की तमन्ना तो अभी दूर की कौड़ी है.

1.4.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ --पार्ट २

संजय मिश्र ------------ -------साल २००० में जब झारखंड राज्य बनाने की घोषणा हुई , तो बिहार में कोई भूचाल नहीं आया। थोड़ी सी हलचल....और अखबारों में विरोध दर्ज कराने वाले रूटीन से बयान। पटना में कुछ लोग धरने पर बैठे। इस रस्म-अदायगी पर वो वर्ग भी हैरान हुआ जो बिहार की अखण्डता का कायल नहीं था। जी हाँ, ये उस बिहार की दास्ताँ है जिसके राजनीतिक हेवीवेट लालू प्रसाद ने १५ अगस्त १९९८ को दहाड़ते हुए कहा था---" मेरी लाश पर ही बिहार का बंटवारा होगा।" ये उसी बिहार की दास्तान है जिसके निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा ने इंग्लेंड में बिहारी कह कर अपना परिचय दिया था.... उस समय....जब बिहार अस्तित्व में भी नहीं आया था। तब से लेकर सन २००० तक गंगा में न जाने कितना पानी बहा होगा। ----------------------------------------------------------------------------------------------आम बिहारी का ये चरित्र दूसरे प्रदेशों के लोगों को विस्मय में डाल देता है। दरअसल , उसके ( बिहारी के ) दिल में बिहार के लिए अपनत्व की कमी हरदम खोजी जा सकती है। जब ये कहा जा रहा है कि राज्य के लोगों में बिहारीपन के लिए आह्लाद जगाया जा रहा है, तो शायद वो बिहारी चरित्र की इसी मनोदशा की ओर इशारा करता है। गहराई से सोचेंगे तो इस मनोदशा को परत-दर-परत समझा जा सकता है। -----------------------------------------------------------------------------------राज्य के लोग उस अर्थ में ' बिहारी ' नहीं हो पाते जिस अर्थ में एक बंगाली या मराठी होता है। आखिर, किस पहचान से वो नाता जोड़े ? जबकि उसे पता है कि इतिहास में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई के रूप में बिहार की कोई अनवरत मौजूदगी नहीं रही है। उसे बताया जाता है कि ' बिहार ' शब्द बौध भिक्षुओं के ' विहार ' से निकला है। कोई उसे बिहार-शरीफ में बिहार दिखाने लगता है। नीतीश कुमार को ' बहार ' शब्द में ही बिहार नजर आता है। इस संबंध में जितने भी विवेचन दिए जाते हैं वो बौध काल से पुराने नहीं हैं। बिहारीपन के आग्रही कभी ये नहीं बताते कि बौध विहारों का ' विहार ' शब्द आखिर कहाँ से आया ? -------------------------------------------------------------------------------उस दौर में जब वैदिक ज्ञान और अनुभव को ठोस आकार दिया जा रहा था, ऋषी - मुनियों के आश्रम में चहल-पहल परवान पर होती। वहां रहने वाले छात्र जिजीविषा से भरे होते ...... रोमांचित होकर यज्ञमंडप और आस-पास की गतिविधियों को अनुभूत करते। ये जानते हुए कि इन क्रिया-कलापों के मूल तत्वों को उन्हें ही गृहस्थों के बीच बांटना है। वनों में स्थित आश्रमों का ये परिवेश ' विहार ' कहलाता । आश्रमों के कण - कण में समाई ये फिजा राजाओं की ओर से आयोजित यज्ञ और शास्त्रार्थ से बिलकुल ही अलग होती। ये बातें , भगवान् बुद्ध के समय से पहले की हैं। बुद्ध धर्म के लोगों ने इसी ' विहार ' शब्द को भाव की पवित्रता के साथ आत्मसात किया। ये सच है कि बिहार के सामान्य इतिहासकार इस असलियत से वाकिफ नहीं हैं। लेकिन , कई इतिहासकार इसकी जानकारी रखते हैं। इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि किस मजबूरी के तहत इस वास्तविकता को लगातार छुपाया गया।---------------------------- अक्सर कहा जाता है कि बिहार ने दुनिया को प्रजातंत्र की नसीहत दी । यहाँ ये बताना जरूरी है कि जिस काल-खंड के बारे में ये दावा किया जाता है उस समय भारतीय उप-महाद्वीप में कई जगह गणतंत्रात्मक शासन चल रहा था। ...उनमें बिहार भी शामिल था। बावजूद इसके बिहार अकेले इसका श्रेय लेने पर तुला रहता है। --------------------------------------------------------------------------वामपंथ , समाजवाद और बाद के समय में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के लिए बिहार उर्वर जमीन साबित हुई। जमींदारों की उपस्थिति , समाज में सांस्कृतिक जागरण का अभाव और बिहारीपन की ठोस अवधारणा की गैर- मौजूदगी ने इन विचारों को संजीवनी दी। इन विचारों से जुड़े जुनूनी नेताओं को लगा कि बिहार ' नो मेंस लैंड ' की तरह है ....और फैलाव के लिए मुफीद जगह। लिहाजा , किसी तरह के बिहारीपन को ' सींचने ' की इन्होने जहमत नहीं उठाई। जबकि बिहार के जो हुक्मरान समाजवादी विचारों को ' ओढ़ने वाले ' रहे उन पर बुद्ध वाद हावी रहा। वामपंथियों के साथ ऐसे समाजवादी नेता भी मानते रहे कि बुद्ध के दर्शन और इस्लाम में ही प्रजातंत्र है। इसलिए बिहार की पहचान में बुद्ध ही ज्यादा दीखते । बुद्ध ईश्वर और आत्मा में यकीन नहीं करते जबकि महावीर ईश्वर और पुनर्जन्म को मानने वाले ठहरे। यही कारण है कि महावीर का गुण-गान गाहे-बगाहे ही होता। ये अकारण नहीं कि पटना के कई सार्वजनिक भवनों की बनावट में स्तूप - शैली और मुग़ल शैली के दर्शन हो जाएंगे। -----------------------------------------------------------------------------------------------रह- रह कर मौर्य साम्राज्य के शौर्य को बिहार का शौर्य बताया जाता है....ये जानते हुए कि मौर्य शासन साम्राज्यवादी और तानाशाही प्रवृति को इंगित करता है। अतीत से प्रेरणा लेना अच्छी बात है लेकिन यहाँ आकर आम बिहारी फंस जाता है। समाजवाद और तानाशाही प्रवृति से एक साथ वो कैसे ताल-मेल बिठाए ? उसे बिहारीपन ' क्रैक्द मिरर ' लगने लगता है। उसे कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त, चाणक्य , आर्यभट , बुद्ध, चंपारण के गांधी , और जे पी महान हुए । ऐसा कहने वाले विदेह जनक, सीता , याज्ञवल्क्य , विश्वामित्र , भारती , मंडन , वाचस्पति , कुमारिल , उदयन , विद्यापति और भिखारी ठाकुर जैसों के बारे में चुप्पी साध लेते। ये राजा अशोक का नाम भी कम ही लेते क्योंकि तब उदार और सहिष्णु बनना पडेगा। बिहार का जनमानस एकबारगी मुदित होता है और फिर उलझन में पर जाता है.... ------------------------------------------------------------------------------------------------वो जानता है कि लालू युग में भी बिहारीपन को खूब उछाला गया। पर वो समझ नहीं पाता कि बिहार में विकास के मुद्दे पर चिढने वाले लालू ने उस समय विन्ध्याचल में धर्म-शाला बनबाने में रूचि कैसे ली ? ज़रा याद कीजीये सारनाथ में हुए आर जे डी सम्मलेन को। लालू ने वहां ' पूर्वांचल राज्य ' बनाने की वकालत ही नहीं की बल्कि उसे अपने एजेंडे में प्रमुखता दी। अब, आम बिहारी के असमंजस को महसूस करिए, जिसे पता है कि पूर्वांचल राज्य का सपना देखने वाले बिहार में भी बड़ी तादाद में हैं। वो (बिहारी) ये सोच कर असहज हो जाता है कि शाहाबाद और सारण क्षेत्र के अधिकाँश बड़े नेताओं की ' आत्मा ' तो पूर्वांचल में होती पर शरीर बिहार में....और नश्वर शरीर को तो सुख-सुविधा और भोग-विलास से मतलब।----------------------------------------------------------------------------------------- मिथिला में आत्मा-सम्मान की चेतना उदयन और अ-याची की गाथा में विराट रूप में प्रकट होती है। वे अपने सद्गुणों से प्रेरणा का स्रोत बने रहे। लेकिन आज का मिथिला जीवन बचा लेने की होड़ में इतना खोया है कि उसके संस्कार में समा गई अवनति-पूर्ण समाज की बुराइयां उसे नजर नहीं आती। मोटे तौर पर, उसकी छटपटाहट में न तो बिहारीपन के लिए स्पष्ट सोच उभर पाती है और न ही मिथिला राज्य के लिए ख़ास दिलचस्पी।--------------------------------------------------------------- मगध एक सांस्कृतिक क्षेत्र है.....मिथिला की तरह पूर्ण -परिभाषित। मगध में ही बिहार की सत्ता का केंद्र है। ऐसे में मगही मानस में गुमान आ जाना लाजिमी है। यही वजह है कि मगही लोग और उसके नेता अक्सर ' फील गुड ' की दशा में पहुँच जाते हैं। वे बताएंगे कि पूरे सूबे की बेहतरी का बोझ है उनपर। संयोग से बिहार में राज करने वाले दो ऐसे मगही नेता हुए जो संयत शासन देने वाले कहलाते। श्री कृष्ण सिंह के बिहार को --एपल्बी -- ने ' बेस्ट एडमिनिस्टर्ड स्टेट ' कहा। अभी के नीतीश कुमार हैं जो ' बिहार मॉडल ' की महक को फैलाने में जी-जान से लगे हैं।------------------------------------------- लेकिन बीच-बीच में इनकी तन्द्रा भंग हो जाती है। २५ मार्च को पटना हाई-कोर्ट ने कह दिया कि ' एल एन एम् यू ' राज्य का सबसे गया गुजरा विश्वविद्यालय है '। ये नीतीश के लिए झटका है। ख़ास कर तब जब वे पटना और आस-पास को शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक पहचान दिलाना चाहते हैं। कोर्ट के रिमार्क के बाद संभव है नीतीश को भान हुआ हो की पटना से नालंदा की दूरी नापने से न तो बिहार का काया-कल्प होने वाला और न ही बिहारीपन को खाद-पानी मिलने वाला।--------------------------- ...अच्छा है ... नालंदा विश्वविद्यालय बन रहा है। काश...इसके चालू होने के बाद नालंदा से निसृत ज्ञान की रौशनी पटना में बैठने वाले सत्ताधारी वर्ग को विवेक-शील बनाता रहे।--------------- ....जारी है......

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