ज्योति बहुत खुश है। बहेड़ा के राजकीय कन्या प्राथमिक विद्यालय में चौथी क्लास में पढने वाली ये बच्ची चहकते हुए कहती है -- जब वो नौवीं क्लास में जाएगी तो उसे भी साईकिल मिलेगा। ज्योति खुश इसलिए भी है कि अपने सहपाठियों के संग वो भी दरभंगा हो आई ....पहली बार ... ये बच्चे प्रदर्शन करने गए थे। हाथों में तख्तियां लिए ये बच्चे डी एम से गुहार लगा रहे थे कि ---" स्कूल में ताड़ी खाना नहीं चलेगा "। ज्योति प्रदर्शन के मायने नहीं समझती और न ही उसे अहसास है कि उसके स्कूल को ढहा दिया जाएगा।
आप समझ रहे होंगे कि मैं कोई पहेली बूझा रहा हूँ....पर ये सच है। दरभंगा का शिक्षा विभाग जिले के बहेड़ा के इस स्कूल को तोड़ने की मुहिम में लगा है। इसलिए नहीं कि नया भवन बनना है ....इसलिए भी नहीं कि स्कूल को नए परिसर में शिफ्ट करना है। १९ अगस्त २०१० को जिला शिक्षा अधीक्षक ने बेनीपुर के ब्लोक शिक्षा प्रसार अधिकारी को लिखित आदेश दिया कि स शस्त्र बल के साथ स्कूल भवन को तोड़ने की कार्रवाई को अंजाम दिया जाए। अगले ही दिन इसकी तामील के लिए जिले के डी एम संतोष कुमार मल्ल ने .....फ़ोर्स को बहेड़ा भेज दिया। लेकिन ग्रामीणों के भारी विरोध के कारण उन्हें बैरंग लौटना पड़ा।
इस कहानी में कई पात्र हैं। एक पक्ष है बहेड़ा के उन महा दलित परिवारों का जिन्होंने स्कूल बनबाने के लिए जमीन दी थी। ये स्कूल १९५५ में बना जबकि इसका सरकारीकरण १९६१ में हुआ। महा दलित बस्ती के बीच स्थित इस स्कूल के जमीन दाताओं में कुशे राम , राजेंद्र मोची , कमल राम, फेकू राम, उपेन्द्र राम शामिल हैं। वे बताते हैं कि बस्ती के बच्चों का पड़ोस के सवर्ण बहुल गाँव के स्कूल में जाकर पढाई करना उस दौर में कितना मुश्किल था। सरकारीकरण केसाथ ही स्कूल की जमीन बिहार के राज्यपाल के नाम कर दी गई। यही कारण है कि १९६१ से २०१० तक राज्यपाल के पदनाम से ही जमीन की रसीद कटी है। महा दलितों के बीच शिक्षा के प्रसार के लिए बस्ती के लोग इस स्कूल को कन्या उच्च विद्यालय में उत्क्रमित करने के लिए प्रयासरत हैं।
इस कहानी की दूसरी पात्र हैं भगवनिया देवी .... महा दलित वर्ग से ही आती हैं। ठसक के साथ कहती हैं कि बहेड़ा के विधायक और आर जे डी के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी का उन्हें आशीर्वाद मिला हुआ है। इसी राजनीतिक नजदीकी की बदौलत भगवनिया देवी साल १९८९ में स्कूल भवन के हिस्से में कब्ज़ा ज़माने में कामयाब हो गई। जमीन दाताओं के लगातार विरोध के बाद साल १९९० में प्रशासन ने स्कूल से कब्ज़ा हटा दिया। कुछ साल चुप बैठने के बाद , साल १९९६ में भगवनिया देवी एक बार फिर स्कूल भवन में कब्ज़ा ज़माने में सफल हुई। इस बार उसने स्कूल भवन में ताड़ी खाना ही खोल लिया। भगवनिया देवी ने दावा किया कि उसके पास जमीन के कागजात मौजूद हैं। ग्रामीणों के लगातार विरोध के बाद प्रशासन ने जांच के आदेश दिए। जांच में कागजात फर्जी पाए गए। आखिरकार प्रशासन ने साल २००९ के जनवरी में ताड़ी खाने को हटा दिया।
इस प्रकरण में तीसरा कोना आर जे डी नेता सिद्दीकी का है। वो जे पी आन्दोलन की उपज हैं और देश का मीडिया उन्हें साफ़ छवि वाला नेता मानता है। उन्हें चुनाव जीतने के लिए महा दलित कार्ड की जरूरत हो ...ऐसी विवशता नहीं है। दर असल उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया है। भगवनिया देवी को फायदा दिलाने की उनकी बेचैनी पर बहेड़ा के पूर्व मुखिया बैद्यनाथ मल्लिक रौशनी डालते हैं। उनका कहना है कि भगवनिया देवी की नतनी सिद्दीकी के पटना आवास में नौकरी करती हैं। अपने इसी स्टाफ को उपकृत करने के लिए आर जे डी नेता ने विधान सभा में कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा। इसमें भगवनिया देवी के साथ न्याय करने कि गुहार लगाई गई। अपने मकसद में कामयाबी नहीं मिलने के बाद सिद्दीकी ने इसी साल अगस्त महीने में एक बार फिर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा। उन्होंने सरकार के मंसूबे पर एतराज जताते हुए स्पीकर से मामले में हस्तक्षेप का आग्रह किया। स्पीकर उदय नारायण चौधरी महा दलित वर्ग से आते हैं। आपको याद हो आएगा वो प्रकरण जब स्पीकर चौधरी ने मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के समर्थन में नारा लगा दिया था। खैर , अब भगवनिया देवी के मामले में दरभंगा के अधिकारियों को स्पीकर कार्यालय से ही लिखित और मौखिक आदेश मिल रहे हैं।
मामले का चौथा बिंदू जिले के अधिकारियों से जुड़ा है। उनकी मनोदशा जानने के लिए फिर रूख करते हैं दरभंगा समाहरणालय के उस वाकये का जब बहेड़ा स्कूल के छात्रों ने २१ अगस्त को वहां प्रदर्शन किया था। प्रदर्शन के संबंध में जब पत्रकारों ने डी एम मल्ल की प्रतिक्रिया चाही , तो वे मीडिया कर्मियों से ही उलझ गए। इस दौरान कई टी वी चैनलों के कैमरे टूट गए। बाद में डी एम ने पत्रकारों के साथ बैठक में खेद जताया और अपनी बेबसी बताई। उन्होंने खुलासा किया कि स्कूल भवन गिराने के लिए उन पर पटना से जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है। इस दबाव को जिला शिक्षा विभाग की लाचारी में भी टटोला जा सकता है....अपने ही स्कूल को ढहाने का फरमान और वो भी बिना कोई वजह बताए। सूत्रों की माने तो शिक्षा विभाग स्कूल भवन तोड़ लेगा और तब भगवनिया देवी को कब्ज़ा दिलानेका मार्ग प्रशस्त होगा।
स्कूल बचाने की मुहिम में लगे लोगों ने अब हाई कोर्ट की शरण ली है। इस बीच बेनीपुर अनुमंडल कोर्ट में पहले से पेंडिंग इस मामले के जल्द निष्पादन का आदेश दरभंगा जिला कोर्ट ने दिया है। इसके लिए ४ अक्टूबर तक का समय दिया गया है।
विधान सभा चुनाव की प्रक्रिया चालू है। सत्ताधारी दल की ओर से मुख्य मंत्री नीतीश कुमार स्टार प्रचारक हैं। उनकी पिछली जन सभाओं को याद करें तो चुनाव प्रचार के दौरान वे महा दलितों के उत्थान की बात करेंगे। सबसे ज्यादा जोर बालिका शिक्षा योजना पर होगा उनका.... छात्राओं को साईकिल देने की स्कीम पर वे इतराने से नहीं चूकेंगे । जाहिर है बहेड़ा स्कूल की ज्योति भी ऐसे भाषण सुन आह्लादित होगी...अपने अरमानों को पंख लगने के सपने देखेगी....इस बात से बे-खबर कि उसके स्कूल को जमींदोज करने की कोशिशें जारी हैं....
life is celebration
27.9.10
12.9.10
बाढ़ ----- भाग 3
हर खेत को पानी, हर हाथ को काम......
जी हाँ ! ये नारा है बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग का। विभाग के इरादों पर शक करना मुनासिब नहीं लेकिन परबत्ता और गई जोरी जैसे इलाकों के हालात सरकार के पैगाम की कलई खोलते हैं। इन गांवों के खेत जल -जमाव से सालो भर डूबे रहते हैं। जबकि यहाँ के अधिकतर कमाऊ हाथ दूसरे प्रदेशों में जीवन बचा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो उत्पादक हाथ बाहर नहीं जा सके उनमें से कईयों ने माओ वादियों का दामन थाम लिया। यहाँ का आवागमन नाव पर टिका है। ये दशा महज परबत्ता और गैजोरी की नहीं है .... राज्य के सैकड़ो गावों की यही नियति है।
बाढ़ग्रस्त इलाकों में जल-जमाव विकराल समस्या बन गया है। इसे आंकड़ों से समझें तो सहूलियत होगी। मोटे अनुमान के मुताबिक़ दस लाख हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है जबकि इससे प्रभावित जनसंख्या पोने एक करोड़ के आस-पास है। अकेले कोसी परियोजना के पूर्वी नहर प्रणाली के दायरे में जल जमाव वाले एक लाख २६ हजार हेक्टेयर से जल निस्सरण की योजना सरकार को बनानी पडी। इसी तरह गंडक से निकली तिरहुत नहर प्रणाली के तहत जल- जमाव वाली दो लाख हेक्टेयर को खरीफ की फसल लायक बनाने की योजना बनाई गई। आंकड़ों पर असहमति हो सकती है क्योंकि जल-जमाव को समझने और मान ने के अपने अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि १९५४ में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र २५ लाख हेक्टेयर था जो कि आज तीन गुना हो गया है। जाहिर है जल-जमाव क्षेत्र भी साल-दर-साल बढ़ता ही गया।
दर असल , जल-जमाव प्राकृतिक और मानवीय प्रयासों के प्रतिफल के रूप में सामने आता है। मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही अधिसंख्य जल-जमाव वाले इलाके बन गए जिनके साथ लोगों ने ताल-मेल बिठा लिया। लेकिन जबसे बाढ़ से सुरक्षा के उपाय करने में तेजी आई नए जल-जमाव वाले क्षेत्र आकार लेने लगे। इसने कई क्षेत्रों का भूगोल ही बदल दिया।
पहले प्राकृतिक प्रक्रिया को समझें। नदियों में बाढ़ आने के बाद इसका पानी नदी के तट से दूर तक फैलता है। नदी में पानी का दबाव कम होने पर बाहरी पानी वापस नदी में आना चाहता है। ये पानी बड़े इलाके में फैला हो तो ये आगे जाकर नदी में मिलने की कोशिश करता है। दोनों ही स्थितियों में आबादी वाले क्षेतों के अवरोध और जगह जगह जमीन की नीची सतह के कारण सारा पानी नदी में नहीं लौट पाता है। नतीजतन कई जगहों पर पानी का स्थाई जमाव हो जाता है। स्थानीय भाषा में इसे " चौर" कहते हैं।
नदियों में सिल्ट अधिक रहने पर बाढ़ के समय कई उप धाराएं फूट पड़ती हैं। ये वैज्ञानिक भाषा में " उमड़ धाराएं " कहलाती हैं। उमड़ धाराएं नदी के समानांतर बहती हुई आगे जा कर फिर से नदी में मिल जाती है। नदी के निचले हिस्सों में जमीन का ढाल कम रहने के कारण जल प्रवाह की रफ़्तार धीमी हो जाती है। जिस वजह से सिल्ट को जमने का मौक़ा मिल जाता है। अधिक मात्रा में पसरा ये सिल्ट कभी- कभी संगम से पहले ही उमड़ धारा का मुहाना बंद कर देता है। उमड़ धाराओं का अवरुद्ध पानी आखिरकार बड़े चौरों का निर्माण करता है। चंपारण में झीलों और चौरों की श्रुंखला इस प्रक्रिया की याद दिलाते हैं।
अधिक सिल्ट वाली नदियों का ये स्वाभाव होता है कि कुछ सालों के अंतराल पर ये उमड़ धारा को ही मुख्या धारा बना लेती हैं। छोडी गई मुख्या धारा को स्थानीय भाषा में " छाडन धारा" कहते हैं। बाढ़ के समय में तो छाडन धारा में खूब पानी रहता है लेकिन अन्य समय में इनमे कई जगह जमीन की सतह जग जाती है। इस तरह कई झीलों की श्रुंखला का रूप ये अख तियार करती हैं। कोसी इलाके में इसके अनेको उदाहरण आपको मिल जाएंगे।
तटबंधों के निर्माण ने नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बेतरह प्रभावित किया है। असल में इसके कारण उमड़ धाराओं का उद्गम और संगम दोनों बाधित हो जाता है। नतीजा ये हुआ कि कई उमड़ धाराएं तट बंधों के कारण जल-लमाव वाले क्षेत्रों में तब्दील हो गए हैं। इसके अलावा कई सहायक नदियों का संगम बाधित हो गया। कोसी पश्चिमी तट बांध के बनने की वजह से भूतही बालन नदी का इस नदी में मिलन बाधित हो गया। अब ये दूर का साफर तय कर कोसी में मिलती है। जिस कारण भेजा से कुशेश्वर स्थान के बीच का अवादी वाला हिस्सा जल-जमाव से ग्रस्त रहता है।
तट बंधों के कच्चे अस्तर और रख-रखाव में कोताही के कारण तट बांध के बाहर स्थाई तौर पर पानी का जमाव हो जाता है। ये रिसाव के कारण भी होता है साथ ही जमीन के अन्दर पानी के तल को मिलने वाले दबाव के कारण भी । तट बांध के भीतर पानी का दबाव बढ़ने से तट बांध के बाहर जमीन के अन्दर के पानी का तल ऊपर उठ जाता है। कई बार ये जमीन के ऊपर भी आ जता है। ये जमा हुआ पानी तट बांध के बाहरी ढलान को कमजोर बनता है जिस कारण तट बांध टूट भी जाते हैं। कोसी पूर्वी तटबंध के बाहर भाप्तियाही से कोपडिया के बीच ३७००० एकड़ में जल-जमाव इसका अनूठा उदहारण है।
जल-जमाव वाले क्षेत्रों के दुःख का अनुमान लगाना हो तो कुशेश्वर स्थान, घनश्यामपुर, किरतपुर, बिरौल, हायाघाट, सिघिया, महिषी, नौहट्टा, सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ , महनार, बैर्गेनिया, पिपराही, कतरा, खगरिया, चौथम, परबत्ता, गोगरी, काढ़ा-कोला , प्राण-पुर, आजम नगर, नौगछिया, बीहपुर, गोपालपुर जैसी जगहों पर हो आयें। कुशेश्वर स्थान और खगडिया इलाके में कई नदियाँ कोसी से संगम करती हैं। इन्ही इलाकों में कई तटबंधों समाप्त हो जाते हैं। जिससे इन नदियों का पानी संगम से पहले ही पसर जाता है। विस्तृत जल-राशि की ये तस्वीर आपको विचलित कर सकती है। लोगों की पीड़ा को धैर्य से महसूसना हो तो कोसी तटबंधों के बीच के दो लाख ६० हजार एकड़ जल-जमाव वाले इलाके में जाने का साहस करें। इन इलाकों में नहीं आ सके तो टाल क्षेत्र में ही जाकर इस दुःख का ट्रेलर देख लें।
ये सोचने वाली बात है की एक तरफ सिंचाई प्रणाली का विस्तार किया जा रहा है तो दूसरी और जल-जमाव वाले इलाके से पानी निकालने की कवायद की जा रही है। ये दोनों ही उल्टी प्रक्रिया हैं। और एक ही नदी बेसिन में चालू हैं। नदियों के पानी का ड्रेनेज कितना कारगर रह पाया है ये सोचना भी अबूह लगता है।
जी हाँ ! ये नारा है बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग का। विभाग के इरादों पर शक करना मुनासिब नहीं लेकिन परबत्ता और गई जोरी जैसे इलाकों के हालात सरकार के पैगाम की कलई खोलते हैं। इन गांवों के खेत जल -जमाव से सालो भर डूबे रहते हैं। जबकि यहाँ के अधिकतर कमाऊ हाथ दूसरे प्रदेशों में जीवन बचा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो उत्पादक हाथ बाहर नहीं जा सके उनमें से कईयों ने माओ वादियों का दामन थाम लिया। यहाँ का आवागमन नाव पर टिका है। ये दशा महज परबत्ता और गैजोरी की नहीं है .... राज्य के सैकड़ो गावों की यही नियति है।
बाढ़ग्रस्त इलाकों में जल-जमाव विकराल समस्या बन गया है। इसे आंकड़ों से समझें तो सहूलियत होगी। मोटे अनुमान के मुताबिक़ दस लाख हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है जबकि इससे प्रभावित जनसंख्या पोने एक करोड़ के आस-पास है। अकेले कोसी परियोजना के पूर्वी नहर प्रणाली के दायरे में जल जमाव वाले एक लाख २६ हजार हेक्टेयर से जल निस्सरण की योजना सरकार को बनानी पडी। इसी तरह गंडक से निकली तिरहुत नहर प्रणाली के तहत जल- जमाव वाली दो लाख हेक्टेयर को खरीफ की फसल लायक बनाने की योजना बनाई गई। आंकड़ों पर असहमति हो सकती है क्योंकि जल-जमाव को समझने और मान ने के अपने अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि १९५४ में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र २५ लाख हेक्टेयर था जो कि आज तीन गुना हो गया है। जाहिर है जल-जमाव क्षेत्र भी साल-दर-साल बढ़ता ही गया।
दर असल , जल-जमाव प्राकृतिक और मानवीय प्रयासों के प्रतिफल के रूप में सामने आता है। मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही अधिसंख्य जल-जमाव वाले इलाके बन गए जिनके साथ लोगों ने ताल-मेल बिठा लिया। लेकिन जबसे बाढ़ से सुरक्षा के उपाय करने में तेजी आई नए जल-जमाव वाले क्षेत्र आकार लेने लगे। इसने कई क्षेत्रों का भूगोल ही बदल दिया।
पहले प्राकृतिक प्रक्रिया को समझें। नदियों में बाढ़ आने के बाद इसका पानी नदी के तट से दूर तक फैलता है। नदी में पानी का दबाव कम होने पर बाहरी पानी वापस नदी में आना चाहता है। ये पानी बड़े इलाके में फैला हो तो ये आगे जाकर नदी में मिलने की कोशिश करता है। दोनों ही स्थितियों में आबादी वाले क्षेतों के अवरोध और जगह जगह जमीन की नीची सतह के कारण सारा पानी नदी में नहीं लौट पाता है। नतीजतन कई जगहों पर पानी का स्थाई जमाव हो जाता है। स्थानीय भाषा में इसे " चौर" कहते हैं।
नदियों में सिल्ट अधिक रहने पर बाढ़ के समय कई उप धाराएं फूट पड़ती हैं। ये वैज्ञानिक भाषा में " उमड़ धाराएं " कहलाती हैं। उमड़ धाराएं नदी के समानांतर बहती हुई आगे जा कर फिर से नदी में मिल जाती है। नदी के निचले हिस्सों में जमीन का ढाल कम रहने के कारण जल प्रवाह की रफ़्तार धीमी हो जाती है। जिस वजह से सिल्ट को जमने का मौक़ा मिल जाता है। अधिक मात्रा में पसरा ये सिल्ट कभी- कभी संगम से पहले ही उमड़ धारा का मुहाना बंद कर देता है। उमड़ धाराओं का अवरुद्ध पानी आखिरकार बड़े चौरों का निर्माण करता है। चंपारण में झीलों और चौरों की श्रुंखला इस प्रक्रिया की याद दिलाते हैं।
अधिक सिल्ट वाली नदियों का ये स्वाभाव होता है कि कुछ सालों के अंतराल पर ये उमड़ धारा को ही मुख्या धारा बना लेती हैं। छोडी गई मुख्या धारा को स्थानीय भाषा में " छाडन धारा" कहते हैं। बाढ़ के समय में तो छाडन धारा में खूब पानी रहता है लेकिन अन्य समय में इनमे कई जगह जमीन की सतह जग जाती है। इस तरह कई झीलों की श्रुंखला का रूप ये अख तियार करती हैं। कोसी इलाके में इसके अनेको उदाहरण आपको मिल जाएंगे।
तटबंधों के निर्माण ने नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बेतरह प्रभावित किया है। असल में इसके कारण उमड़ धाराओं का उद्गम और संगम दोनों बाधित हो जाता है। नतीजा ये हुआ कि कई उमड़ धाराएं तट बंधों के कारण जल-लमाव वाले क्षेत्रों में तब्दील हो गए हैं। इसके अलावा कई सहायक नदियों का संगम बाधित हो गया। कोसी पश्चिमी तट बांध के बनने की वजह से भूतही बालन नदी का इस नदी में मिलन बाधित हो गया। अब ये दूर का साफर तय कर कोसी में मिलती है। जिस कारण भेजा से कुशेश्वर स्थान के बीच का अवादी वाला हिस्सा जल-जमाव से ग्रस्त रहता है।
तट बंधों के कच्चे अस्तर और रख-रखाव में कोताही के कारण तट बांध के बाहर स्थाई तौर पर पानी का जमाव हो जाता है। ये रिसाव के कारण भी होता है साथ ही जमीन के अन्दर पानी के तल को मिलने वाले दबाव के कारण भी । तट बांध के भीतर पानी का दबाव बढ़ने से तट बांध के बाहर जमीन के अन्दर के पानी का तल ऊपर उठ जाता है। कई बार ये जमीन के ऊपर भी आ जता है। ये जमा हुआ पानी तट बांध के बाहरी ढलान को कमजोर बनता है जिस कारण तट बांध टूट भी जाते हैं। कोसी पूर्वी तटबंध के बाहर भाप्तियाही से कोपडिया के बीच ३७००० एकड़ में जल-जमाव इसका अनूठा उदहारण है।
जल-जमाव वाले क्षेत्रों के दुःख का अनुमान लगाना हो तो कुशेश्वर स्थान, घनश्यामपुर, किरतपुर, बिरौल, हायाघाट, सिघिया, महिषी, नौहट्टा, सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ , महनार, बैर्गेनिया, पिपराही, कतरा, खगरिया, चौथम, परबत्ता, गोगरी, काढ़ा-कोला , प्राण-पुर, आजम नगर, नौगछिया, बीहपुर, गोपालपुर जैसी जगहों पर हो आयें। कुशेश्वर स्थान और खगडिया इलाके में कई नदियाँ कोसी से संगम करती हैं। इन्ही इलाकों में कई तटबंधों समाप्त हो जाते हैं। जिससे इन नदियों का पानी संगम से पहले ही पसर जाता है। विस्तृत जल-राशि की ये तस्वीर आपको विचलित कर सकती है। लोगों की पीड़ा को धैर्य से महसूसना हो तो कोसी तटबंधों के बीच के दो लाख ६० हजार एकड़ जल-जमाव वाले इलाके में जाने का साहस करें। इन इलाकों में नहीं आ सके तो टाल क्षेत्र में ही जाकर इस दुःख का ट्रेलर देख लें।
ये सोचने वाली बात है की एक तरफ सिंचाई प्रणाली का विस्तार किया जा रहा है तो दूसरी और जल-जमाव वाले इलाके से पानी निकालने की कवायद की जा रही है। ये दोनों ही उल्टी प्रक्रिया हैं। और एक ही नदी बेसिन में चालू हैं। नदियों के पानी का ड्रेनेज कितना कारगर रह पाया है ये सोचना भी अबूह लगता है।
4.9.10
बाढ़ क्यों आती है ? bhaag - २
बिहार में इस साल इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हैं। मौसम विभाग का अनुमान भी गलत साबित हो रहा है। राज्य के सभी जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं जबकि बड़ी आबादी बाढ़ से जूझ रही है। लोग समझ नहीं पा रहे की औसत से कम बारिश के बावजूद बाढ़ तांडव क्यों मचा रही है? आम लोगों को बताया जा रहा है कि नेपाल ने पानी छोड़ दिया .... इसलिए ऐसी नौबत आई है। इसी समझ के सहारे चंपारण के लोग बाल्मिकीनगर बराज को " विलेन " मान कोस रहे होंगे। फर्ज करिए ये सही हो ...फिर बागमती बेसिन में मची तबाही के लिए किसे दोष देंगे .....बागमती पर तो बराज नहीं है। इतना ही क्यों... कुशेश्वर स्थान और खगडिया की दुर्दशा के लिए किसे कसूरवार ठहराएंगे?
दर असल , बिहार का भूगोल ही ऐसा है कि हर क्षेत्र के लोग बाढ़ की प्रक्रिया को अच्छे तरीके से समझ नहीं पाते। पहाडी इलाके के लोगों की इस संबंध में जो सोच है उससे अलग समझ गंगा के दक्षिण के मैदानी इलाके के लोगों की है। गंगा के उत्तर के लोग कमोवेश पूर्णता के साथ बाढ़ के चक्रव्यूह में फंसते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो प्रकृति से जो पानी हमें मिलता हैकुछ हिस्सा रिसकर जमीन के अन्दर चला जाता है जबकि अधिकाँश हिस्सा बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इन्हें हम नदियाँ कहते हैं। यानि ये पानी के ' ड्रेनेज" का जरिया हैं। जमीन का ढाल नदियों के प्रवाह का " डा इनेमिक्स " तय करता है। ज्यादातर नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं जिनके पानी का स्रोत वर्षा, वर्फ और बड़े झील होते हैं। मैदानी इलाकों में कई नदियाँ बड़े चौरों से निकलती हैं। इसका बड़ा उदाहरण है बूढ़ी गंडक, जो कि पश्चिम चंपारण के चौतरवा चौर से निकलती है।
पहाड़ों और मैदानी भागों में जब मूसलाधार बारिश होती है तो पानी नदी के किनारों को पार कर जाता है। ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से भी नदियाँ इस दशा में आती हैं। ये पानी बढ़ते हुए ख़ास दूरी तक जाता है जिसे नदी का " कैचमेंट एरिया " यानि डूब क्षेत्र कहते हैं। ये भौगोलिक प्रक्रिया है...जिसे वैज्ञानिक भाषा में " बाढ़" कहते हैं। लेकिन जब डूब क्षेत्र की सीमा को भी नदी का पानी पार कर लेता है तो ये तबाही का कारण बनता है। जब हम कहते हैं कि बाढ़ से राज्य तबाह है तो हम इसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे होते हैं.... यानि पानी का डूब क्षेत्र को भी पार कर जाने वाली स्थिति। अमूमन डूब क्षेत्र के बाहर आबादी अधिक रहती है। हर साल ये आबादी इस नौबत से गुजरती है।
गंगा के दक्षिण की नदियाँ हिम पोषित नहीं हैं। भारी बारिश से ही इनमे सैलाब आता है। जबकि गंगा के उत्तर की अधिकाँश नदियाँ हिम पोषित हैं। हिम पोषित रहने के कारण ये " पेरेनियल रिवर " कहलाती हैं यानि ऐसी नदी जिसमे सालो भर पानी आता हो। यही कारण है कि मानसून की दस्तक से पहले भी इनमे बाढ़ आती है। कभी-कभार ये पानी डूब क्षेत्र को भी पार कर जाता है। ऐसा अक्सर मई के दुसरे और जून के पहले पखवाड़े में देखने में आता है। कमला- बलान नदी के किनारे रहने वाले हर साल इस स्थिति से दो-चार होते रहते हैं।
नदियों के अत्यधिक फैलाव के अन्य कारण भी हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की अंधा-धुन कटाई के कारण नदियों के पानी का बहाव तेज हो जाता है। तेज गति " सिल्ट" की अधिक मात्रा मैदानों तक पहुंचता है। नदी का ताल उठाता जाता है .... जिससे बाढ़ का पानी बड़े इलाके में फ़ैल जाता है।
बाढ़ के विस्तार की बड़ी वजह सिंचाई परियोजनाएं भी हैं। इन परियोजनाओं के तहत बराज या डैम और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तट बंध बनाए जाते हैं। तट बंधों के बीच की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती। नदी का पानी इन्हीं तट बंधों के बीच सिमटने को बाध्य रहता है। पानी के साथ जो सिल्ट आता है वो साल-दर-साल जमा होता रहता है। नतीजतन , तट बंधों के अन्दर जमीन का तल उठता रहता है। उधर तट बंध के बाहर की जमीन पहले की तरह रहती है यानि तट बंध के अन्दर की जमीन की अपेक्षा नीची । यही कारण है कि तट बांध के अन्दर पानी का दबाव बढ़ने पर तट बंध टूट जाता है.... और पानी नीची जमीन की तरफ भागता है। इस पानी का बेग इतना अधिक होता है कि लोगों को सुरक्षित स्थानों तक जाने का मौक़ा तक नहीं मिलता . इस साल भी सिकरहना, लखन्देइ, जमींदारी, त्रिवेणी नहर और दोन नहरों के तट बंध जब टूटे तो लोगों को भारी दुःख झेलना पड़ा।
सिंचाई परियोजनाएं जब पूरी हो जाती हैं तब लाभ के साथ साथ जो कष्ट भोगना पर सकता है उसकी बानगी की ओर इशारा किया हमने। अब हम बताते हैं आधी-अधूरी परियोजनाओं के खतरनाक परिदृश्य के संबंध में। अब बागमती परियोजना को ही लीजीये। ये बहु-उद्देशीये परियोजना अभी शुरू भी नहीं हुई है लेकिन इस नदी पर कई जगह तट बंध बना दिए गए हैं। ढ़ंग से रूनी सैदपुर तक नदी का पानी तट बंधों के बीच कैद रहता है जिसे रूनी सैदपुर से आगे खुला छोड़ दिया गया है। लिहाजा कट रा इलाका पूरी तरह जलमग्न हो जाता है। इससे भी विकत स्थिति कुशेश्वर स्थान और खगडिया की है। ये बताना दिलचस्प होगा कि २३ अगस्त को जिस समय कुशेश्वर स्थान में सूखे की स्थिति पर सरकारी अधिकारियों की बैठक चल रही थी उसी समय इस प्रखंड का सड़क संपर्क अनुमंडल मुख्यालय बिरौल से भंग हो गया। बाढ़ के पानी में सड़क डूब चुकी थी।
ना तो नेपाल में वर्षा ऋतू अलोपित हो जाएगी और ना ही हिमालय पर बर्फ पिघलना बंद होगा... ये भी अपेक्षा नहीं राखी जा सकती कि नेपाल भगवान् शिव की तरह ये सारा पानी जटाओं में कैद कर ले। समस्या के निपटारे के लिए नेपाल की सहभागिता को बल देना ही पडेगा।
दर असल , बिहार का भूगोल ही ऐसा है कि हर क्षेत्र के लोग बाढ़ की प्रक्रिया को अच्छे तरीके से समझ नहीं पाते। पहाडी इलाके के लोगों की इस संबंध में जो सोच है उससे अलग समझ गंगा के दक्षिण के मैदानी इलाके के लोगों की है। गंगा के उत्तर के लोग कमोवेश पूर्णता के साथ बाढ़ के चक्रव्यूह में फंसते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो प्रकृति से जो पानी हमें मिलता हैकुछ हिस्सा रिसकर जमीन के अन्दर चला जाता है जबकि अधिकाँश हिस्सा बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इन्हें हम नदियाँ कहते हैं। यानि ये पानी के ' ड्रेनेज" का जरिया हैं। जमीन का ढाल नदियों के प्रवाह का " डा इनेमिक्स " तय करता है। ज्यादातर नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं जिनके पानी का स्रोत वर्षा, वर्फ और बड़े झील होते हैं। मैदानी इलाकों में कई नदियाँ बड़े चौरों से निकलती हैं। इसका बड़ा उदाहरण है बूढ़ी गंडक, जो कि पश्चिम चंपारण के चौतरवा चौर से निकलती है।
पहाड़ों और मैदानी भागों में जब मूसलाधार बारिश होती है तो पानी नदी के किनारों को पार कर जाता है। ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से भी नदियाँ इस दशा में आती हैं। ये पानी बढ़ते हुए ख़ास दूरी तक जाता है जिसे नदी का " कैचमेंट एरिया " यानि डूब क्षेत्र कहते हैं। ये भौगोलिक प्रक्रिया है...जिसे वैज्ञानिक भाषा में " बाढ़" कहते हैं। लेकिन जब डूब क्षेत्र की सीमा को भी नदी का पानी पार कर लेता है तो ये तबाही का कारण बनता है। जब हम कहते हैं कि बाढ़ से राज्य तबाह है तो हम इसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे होते हैं.... यानि पानी का डूब क्षेत्र को भी पार कर जाने वाली स्थिति। अमूमन डूब क्षेत्र के बाहर आबादी अधिक रहती है। हर साल ये आबादी इस नौबत से गुजरती है।
गंगा के दक्षिण की नदियाँ हिम पोषित नहीं हैं। भारी बारिश से ही इनमे सैलाब आता है। जबकि गंगा के उत्तर की अधिकाँश नदियाँ हिम पोषित हैं। हिम पोषित रहने के कारण ये " पेरेनियल रिवर " कहलाती हैं यानि ऐसी नदी जिसमे सालो भर पानी आता हो। यही कारण है कि मानसून की दस्तक से पहले भी इनमे बाढ़ आती है। कभी-कभार ये पानी डूब क्षेत्र को भी पार कर जाता है। ऐसा अक्सर मई के दुसरे और जून के पहले पखवाड़े में देखने में आता है। कमला- बलान नदी के किनारे रहने वाले हर साल इस स्थिति से दो-चार होते रहते हैं।
नदियों के अत्यधिक फैलाव के अन्य कारण भी हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की अंधा-धुन कटाई के कारण नदियों के पानी का बहाव तेज हो जाता है। तेज गति " सिल्ट" की अधिक मात्रा मैदानों तक पहुंचता है। नदी का ताल उठाता जाता है .... जिससे बाढ़ का पानी बड़े इलाके में फ़ैल जाता है।
बाढ़ के विस्तार की बड़ी वजह सिंचाई परियोजनाएं भी हैं। इन परियोजनाओं के तहत बराज या डैम और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तट बंध बनाए जाते हैं। तट बंधों के बीच की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती। नदी का पानी इन्हीं तट बंधों के बीच सिमटने को बाध्य रहता है। पानी के साथ जो सिल्ट आता है वो साल-दर-साल जमा होता रहता है। नतीजतन , तट बंधों के अन्दर जमीन का तल उठता रहता है। उधर तट बंध के बाहर की जमीन पहले की तरह रहती है यानि तट बंध के अन्दर की जमीन की अपेक्षा नीची । यही कारण है कि तट बांध के अन्दर पानी का दबाव बढ़ने पर तट बंध टूट जाता है.... और पानी नीची जमीन की तरफ भागता है। इस पानी का बेग इतना अधिक होता है कि लोगों को सुरक्षित स्थानों तक जाने का मौक़ा तक नहीं मिलता . इस साल भी सिकरहना, लखन्देइ, जमींदारी, त्रिवेणी नहर और दोन नहरों के तट बंध जब टूटे तो लोगों को भारी दुःख झेलना पड़ा।
सिंचाई परियोजनाएं जब पूरी हो जाती हैं तब लाभ के साथ साथ जो कष्ट भोगना पर सकता है उसकी बानगी की ओर इशारा किया हमने। अब हम बताते हैं आधी-अधूरी परियोजनाओं के खतरनाक परिदृश्य के संबंध में। अब बागमती परियोजना को ही लीजीये। ये बहु-उद्देशीये परियोजना अभी शुरू भी नहीं हुई है लेकिन इस नदी पर कई जगह तट बंध बना दिए गए हैं। ढ़ंग से रूनी सैदपुर तक नदी का पानी तट बंधों के बीच कैद रहता है जिसे रूनी सैदपुर से आगे खुला छोड़ दिया गया है। लिहाजा कट रा इलाका पूरी तरह जलमग्न हो जाता है। इससे भी विकत स्थिति कुशेश्वर स्थान और खगडिया की है। ये बताना दिलचस्प होगा कि २३ अगस्त को जिस समय कुशेश्वर स्थान में सूखे की स्थिति पर सरकारी अधिकारियों की बैठक चल रही थी उसी समय इस प्रखंड का सड़क संपर्क अनुमंडल मुख्यालय बिरौल से भंग हो गया। बाढ़ के पानी में सड़क डूब चुकी थी।
ना तो नेपाल में वर्षा ऋतू अलोपित हो जाएगी और ना ही हिमालय पर बर्फ पिघलना बंद होगा... ये भी अपेक्षा नहीं राखी जा सकती कि नेपाल भगवान् शिव की तरह ये सारा पानी जटाओं में कैद कर ले। समस्या के निपटारे के लिए नेपाल की सहभागिता को बल देना ही पडेगा।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)