दभोलकर की हत्या के
मायने
--------------------------------
संजय मिश्र
----------------
विज्ञान हार गया ! आप सोच रहे होंगे कैसी पहेली समझाई जा रही है?….जी हां,ये चीत्कार है उन
तमाम लोगों की जिनकी संवेदनाएं नरेन्द्र दभोलकर की हत्या किए जाने से हिल गई हैं।
जो आहत हुए वे प्रगतिशील,आधुनिक और संविधानिक इंडिया के हितों के समझदार कहे जाते
हैं। इन्हें रंज है कि हत्यारे पकड़े नहीं गए हैं लिहाजा जादू-टोने और अंधविश्वास
के उभार की आशंका में ये दुबले हुए जा रहे हैं। बौद्धिक जगत,मेनस्ट्रीम और सोशल
मीडिया में इस मुतल्लिक बहस जारी है। इनके सुर में सुर मिला रहे हैं राजनीतिक जमात
के वे लोग जो इस वारदात के बहाने दक्षिणपंथियों को घेरने की जुगत में हिन्दू धर्म
पर हमले किए जा रहे हैं।
क्या वाकई विज्ञान
हार गया है? या फिर नेहरू की चाहत वाली साइंटिफिक टेंपर की कोशिशें हारी हैं।
विलाप करने वाले ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन हारा है? जिसे आप पढ़ाई का विषय
समझते आए हैं उस विज्ञान के हारने का मतलब है कि इसे राजनीतिक-सामाजिक लक्ष्य को
पूरा करने का हथियार बनाया गया था और ये हथियार चूक गया। या फिर हिन्दू जीवन शैली
की हर नई परिस्थितियों में परिमार्जन करने की खूबी, इसके निमित जरूरी समाजिक बदलाव
और वैज्ञानिक मिजाज के सम्मिलित चित के परिष्कार की जो आभा संविधान में प्रकट हुई
थी ........ वो प्रयास निष्फल हुए? क्या प्रगतिशील तबका ऐसे किसी परिष्कार में
यकीन रखता है?
पश्चिम के देशों
से लेकर अमेरिका तक में क्रिस्टियन इवेंजेलिज्म सर उठा रहा है... उधर मुसलमानों में इंडिया सहित अधिकांश मुसलमान
बहुल देशों में धर्म के लिए गतिविधियों बढ़ी हैं ... वहीं हाल के दशकों में हिन्दुओं में धर्म के साथ बाबाओं
के लिए आकर्षण बढ़ा है। ऐसी सूरत में मर्सिया गाया जाना जायज है। लेकिन सवाल ये कि
आखिरकार प्रगतिशीलों की कामना क्या थी? इंडिया में तो नेहरू की अगुवाई में नए
सवेरे की तरफ बढ़े थे यहां के लोग... फैक्ट्रियां आधुनिक मंदिर कहलाई...आधुनिक जीवन शैली में रंगने लगे लोग...उपर से इस
देश में सक्रिय वाम, समाजवादी, मध्यमार्गी और अन्य
जमातों के लोग उन्नतिकामी विचारों को बढ़ावा देने में लगे रहे हैं। फिर क्या हुआ
कि दभोलकरों की हत्या हो जाती है? संभव है तेज आधुनिक जीवन
शैली ने इस देश के तमाम धार्मिक समुदायों को डराया, सहमाया होगा...
उन्हें लगा हो कि उनके पारंपरिक जीवन के तत्व खतरे में पड़ रहे हैं।
प्रगतिशीलों की छटपटाहट
की वजहों को खोजा जाना जरूरी है। अक्सर जो तर्क परोसे जाते हैं उसके मुताबिक
इंडिया ६५ साल का नौजवान देश है और भारत रूपी सनातन विरासत की ये कंटिनियूटी नहीं
है। माने ये कि उस पुरातन संस्कृति का लोप हुआ और नेहरू के सपनों के अनुरूप एक नए
देश ने आकार लिया। प्रगतिशील तबके के अधिकांश लोग ६५ साला कंसेप्ट में यकीन रखते
हैं। तो फिर वे किस आबादी की किस समझ में वैज्ञानिक चेतना का संचार करना चाहते थे?
देश चलाने वाले भले नेहरू के संकल्प के साथ चले होंगे पर यहां की बहुसंख्य आबादी
सनातन परंपरा का निर्वाह पिछली शताब्दी के छठे दशक के आखिर तक करती रही। उसके बाद
इंदिरा युग में वाम असर वाले प्रगतिशीलों के संरक्षण में जो शिक्षा दी गई उसने
संस्कृति के लिहाज से रूटलेस पीढ़ी को जन्म दिया। मदरसा और संस्कृत संस्थानों में
पढ़नेवालों को छोड़ दें तो इस पीढ़ी से धर्म की जानकारी दूर ही रखी गई। इधर-उधर से
मिली जानकारी के कारण उनकी धार्मिक समझ अधकचरी बनी रही।
उस पीढ़ी में अपने
धर्म के लिए हीनता बोध का संचार हुआ। यही कारण है कि आठवें दशक में जब दूरदर्शन ने
रामायण सिरियल का प्रसारण किया तो इन्होंने काफी उत्सुकता दिखाई। पर वामपंथियों को
ये नहीं सुहाया और उन्होंने प्रसारण का तीखा विरोध किया। नब्बे के दशक में बाजार
का असर बढ़ा तो संचार के क्षेत्र ने नया आयाम देखा। निजी टीवी चैनल खुले साथ में
धार्मिक सिरियलों की बाढ़ आई। ऐसा क्यों हुआ कि लोग प्यासे की तरह धार्मिक
कार्यक्रम देखने लगे? टीआरपी के बहाने जादू-टोने, तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास से
भरे कार्यक्रमों की बाढ़ आई।
बाजार के असर ने
लोगों को मतलबी बनाया साथ ही इसने बाबाओं(ढ़ोंगी सहित) की मार्केटिंग के द्वार भी
खोले। इनकी चमक-दमक से वशीभूत होने वालों की तादाद कई गुणा बढ़ गई। यहां तक कि
विभिन्न धर्म के अलग अलग चैनलों के पट भी खुल गए। एक निजी चैनल है जो बच्चों को
कुरान की आयतों का अर्थ समझाता है। जाहिर है निशाना वे बच्चे हैं जो मदरसों में
नहीं जाते बल्कि सरकारी या फिर महंगे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं।
बेशक बाबा टाइप के
लोग चमत्कार की भाषा बोलते। ऐसा लगता मानो असंभव को संभव कर लेने की छुपी हुई
इनसानी अतृप्त आकांक्षा का द्वार ये बाबा अपने भक्तों के लिए खोल देंगे। कई लोग
बेमन से इन बाबाओं के पास जाते। तमाम तरह की असुरक्षा के डर से सहमे लोग इनकी शरण
में जाते। अंगूठी, ताबीज... जैसी चीजें उन्हें संबल देती। उपर से प्राकृतिक आपदा
झेलने की मजबूरी तो कमोबेश रहती ही है। जापान के सुनामी और उत्तराखंड के तांडव के
सर्वाइवरों की मनहस्थिति को याद करें। क्या इंडिया के हुक्मरान सुरक्षा जगाने में
कामयाब हुए हैं? जवाब नकारात्मक ही दिखता है। तो फिर दुखी मन कहां जाए? सरकार से
आस नहीं... एक जरिया समाज थी जिसमें इन्हीं राजनीतिज्ञों ने दरार पैदा कर दिए।
ले-देकर धर्म बचता है।
जब धर्म के ज्यादा
करीब आएंगे तो कुरीतियों का असर भी पड़ेगा। कुरीतियों से बचने की आकांक्षा वालों
का साथ निभाने के लिए प्रगतिशील तबके ने क्या किया? अवैज्ञानिकता दूर करने की
उत्कट अभिलाषा थी तो धार्मिक आबादी के साथ ठोस संवाद कायम करने की जहमत उठानी
चाहिए थी। हर काल के संदर्भ के अनुरूप अपने ही ग्रंथों पर नए सिरे से टीका लिखने
और मीमांसा करने की परंपरा वालों से इस तरह का संवाद अवसर पैदा कर सकता था। यहां
भी नतीजा सिफर ही दिखता है। उल्टे हिन्दू धर्म के भगवानों को विभिन्न माध्यमों से जब
अश्लील गालियां दी जाती है तो वे चुप रहते। ये चलन सोशल मीडिया में चरम पर है।
नेताओं पर अमर्यादित टिप्पणी हो तो मामला दर्ज होता पर हिन्दू धर्म के ईश की निंदा
होती तो कुछ नहीं होता।
दिलचस्प है कि
कांसीराम ने वाम नेताओं के लिए -हरे घास में छुपे हरे सांप- की संज्ञा दी थी।
बावजूद इसके जातीए राजनीति से दूरी रखने वाले वाम राजनेता अपने फायदे के लिए दलित
राजनीति से मिलकर खुलेआम एनीहिलेशन ऑफ कास्ट सिस्टम की बात करते नजर आते। रोचक है
कि समाजवादियों के अलावा कई दक्षिणपंथी राजनेता भी इससे सहमति जताते हैं। पर इस
देश ने कभी भी इन राजनीतिज्ञों को मुसलमानों में पनपे कास्ट सिस्टम के एनीहिलेशन की
चर्चा करते नहीं देखा है।
यानि प्रगतिशीलों का
दुराग्रह है कि जिस धर्म के खास अवयव का अंत वे चाहते उसी समाज से वैज्ञानिक चेतना
जगाने के लिए सरोकार भी जताने को कहते। ये अजीबोगरीब स्थिति है इस देश की। प्रगतिशील
तबका ये आरोप तो लगाता है कि धर्म से जुड़े लोगों ने समय के बहाव के साथ चिंतन
करना छोड़ दिया है। पर धर्म की परिधि में जो बदलाव हो रहे उसे देखना नहीं चाहता। हिन्दू
और बौद्ध धर्म में कई धाराएं हैं जिनमें तंत्र के असर वाली धारा भी है। कर्मकांड में
जटिल प्रक्रियाओं के अलावा पशु बलि चढ़ाने की पिपाशा है। कुछ लोग मानते कि तंत्र
वेद विरोधी धारा है जबकि कई मानते कि ये ट्रांस वैदिक परंपरा है। तमिल सिद्ध
परंपरा से लेकर असम तक में तंत्र का असर है।
वैदिक धारा और बुद्ध
के शांति की धारा वालों से संवाद बनाकर अंध विश्वास को हताश किया जा सकता था।
बिहार के कोसी इलाके के यादवों की तरह देश के कई हिस्सों में ब्राम्हण पुरोहितों
के वर्चस्व को हतोत्साहित करने के लिए विभिन्न जातियों ने अपनी ही जाति के
पुरोहितों से सरल कर्मकांड की राह चुनी है। इसी तरह बीजेपी के कई नेता गैर-द्विजों
के उपनयन संस्कार की मुहिम चलाते रहे हैं। इस तरह की मुहिम को समर्थन दिया जा सकता
था। प्रगतिशील तबका ये क्यों मानता कि धार्मिक लोग विचारवान नहीं हो सकते? दभोलकर
की हत्या के बहाने जो सुखद आत्मनिरीक्षण चल रहा है उसे इन सवालों से भी जूझना
चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें