life is celebration

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22.8.11

अन्ना के आन्दोलन में उलझे सवाल- पार्ट ३

संजय मिश्र
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साल १८८६....स्थान कलकत्ता। अधिवेशन के लिए कांग्रेस को जगह नहीं मिल रही थी। ऐन वक्त पर दरभंगा महाराज आगे आते हैं और अपनी जमीन पर अधिवेशन का इंतजाम करवाते हैं। सन २०११.....अगस्त का महीना। अन्ना की टोली अनशन स्थल के लिए दर-दर भटकती रही। कांग्रेस को १८८६ का अपना दर्द याद नहीं आया। अब वो सत्ता में है। गजब का संयोग है कि कभी आन्दोलन कही जाने वाली कांग्रेस आज अन्ना हजारे के आन्दोलन से सहमी हुई है। २१ अगस्त की शाम अन्ना हुंकार भरते हैं कि या तो जन लोकपाल बिल लाना पड़ेगा नहीं तो जाना पडेगा। डेडलाइन ३० अगस्त का है...जिस दिन अभूतपूर्व आन्दोलन का एलान कर दिया गया है। जाहिर है ये दवाब बनाने की रणनीति है। ये २० अगस्त के शाह-मात के उस खेल का जवाब है जब सोनिया गांधी की करीबी अरुणा राय लोकपाल के अपने वर्जन के साथ मैदान में कूद पडी। -------------------------------------------------------------------------------अन्ना ने लोगों से अपने सांसदों के घर के सामने विरोध जताने का आह्वान कर दिया है। इससे सांसद सकते में हैं। दरअसल, आन्दोलन के विराट स्वरूप के लिए कांग्रेस खुद जिम्मेवार है। पिछले छः महीने के घटनाक्रम बेशक ' काट-लिस्ट ' साबित हुए लेकिन कांग्रेस ने जो हथकंडे अपनाए उसने आग में घी का काम किया। लगातार सत्ता में रहते हुए पार्टी ने अपने संबंध में जो धारणाएं विकसित कर ली हैं यू पी ए-२ में इसका विस्तार हुआ। कांग्रेस इस सोच की आदी है कि इस देश को वो ही चला सकती है। ऐसी भावना कांग्रेसियों में अहंकार भरता है।याद करिए छः महीने पहले तक कांग्रेसी इतरा रहे थे। महंगाई और तमाम तरह के घोटालों से देश दंग रह गया लेकिन पार्टी अपनी ही चाल से चलती रही। खुद पक्ष और खुद विपक्ष की चाल चली गई। यानि चित भी मेरी और पट भी मेरी। विपक्ष को पंगु बनाने साजिशें परवान चढी। वो इस बात को भूल गई कि विपक्ष ' पब्लिक एंगर ' के लिए ' सेफ्टी वाल्व ' का काम करता है। इसने जनता से सरकार की संवादहीनता को बढ़ाया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------------इसी बीच अन्ना और रामदेव की मुहिम तेज हुई। अन्ना स्वीकार करते हैं कि जंतर-मंतर पर मिले जन-समर्थन की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। लेकिन इस जमावड़े के मिजाज की कांग्रेस ने अनदेखी की। ४ जून की रात राम-लीला मैदान में जो कुछ हुआ उसने देश को हिला कर रख दिया। लोग सवाल करते रहे कि रामदेव ने जब समझौते की घोषणा कर दी तब उनके निजी पत्र को सार्वजनिक क्यों किया गया ? संभव है ताकतवर भ्रष्टाचारियों और काला धन विदेश भेजनेवालों का सरकार पर अत्यधिक दवाब हो ? -------------------------------------------------------------------आम जन इस बात से भी असमंजस में पड़ जाते हैं की सरकार और कांग्रेस के बीच खींच-तान का क्या मतलब है ? सरकार में दो गुट और पार्टी में सोनिया और राहुल के दो गुट....यानि केंद्र में चार पावर सेंटर। कांग्रेस का य़े संकट उस उधेरबुन की उपज कि राहुल को कब पी एम बनाया जाए ? इसके लिए जरूरी है कि पी एम ऐसा हो जो अच्छे और कठोर फैसले से देश में लोकप्रिय न होने पाए। नतीजतन एक मजबूर पी एम के दर्शन को देश अभिशप्त है। इसके पीछे दलील य़े कि सरकार और पार्टी के वजूद अलग रखना आदर्श संसदीये राजनीति है। नेहरू के समय भी ऐसी चर्चा होती रहती थी। लेकिन बाद में कांग्रेस ने इस नीति से तौबा किया। -------------------------------------------------------------------------------------------------------गांधी के समर्थन से पी एम बने नेहरू अपने सपनो का भारत बनाना चाहते थे। ' साइंटिफिक टेम्पर ' उनका मूल-मंत्र था। वे रूमानी कहे जाते थे और उनकी भारत दृष्टी ' कोस्मेटिक ' थी। उनके विचारों से प्रेरित नेता और विशेषज्ञों ने जो संविधान बनाया उसमें दुनिया के तमाम संविधानो के अच्छे तत्वों को शामिल किया गया। उस समय ऐसे लोग भी थे जो संविधान को ' इंडीजेनस ' बनाने या यों कहें कि भारतीय जीवन के अनुरूप ढालने के पक्षधर थे। मसलन य़े वर्ग चाहता था कि राष्ट्र का ' पोलिटिकल फाउंडे-सन ' ग्राम-सभा में निहित हो। आई सी एस को ' डिस - बैंड ' करने की भी वकालत हुई। आग्रह होता रहा कि जो संविधान बना वो एक कलाकार की खूबसूरत कृति तो है लेकिन इसमें प्राण डालने की जरूरत है। लेकिन ऐसे विचार दरकिनार किये गए। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जवाब आया के संतनम की ओर से जिन्होंने संविधान बनाने में महती भूमिका अदा की थी। उन्होंने संविधान सभा के फाइनल डिबेट्स में गरजते हुए कहा कि संविधान के किसी हिस्से की आलोचना नापाक मानी जाएगी। यानि संविधान ' सेंकतम -सेंक्तोरम ' की तरह देखी गई। फिर भी इस ' होली काव ' में सैकड़ों संसोधन लाए जा चुके हैं। दिलचस्प है कि ऐसे ही एक संसोधन के जरिये राजीव गांधी ने पंचायती व्यवस्था को व्यापक बनाने की पहल की। दिग्विजय सिंह जब मध्य-प्रदेश के सी एम हुए तो उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रयास किये। सत्ता की निष्ठुर माया देखिये आज वही दिग्विजय हाथ-पैर भांजते हैं और ओसामा को ओसामाजी कह कर संबोधित करते हैं। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म और बी जे पी के हिंदुत्व के बीच भारतीय मानस पिस रहा है। अन्ना का ग्राम-संसद इसी मानस को आवाज देता है। ------------------------------------------------------------------------किसी भी आन्दोलन को अंजाम तक पहुँचने के लिए विचारधारा, नीति और संगठान जरूरी हैं..साथ ही सत्ता हासिल होने पर नीति के हिसाब से बनी योजनाएं अमल में लाइ जाए। अन्ना के पास विचार-धारा तो नहीं पर विचार हैं। लेकिन उनके पास न तो संगठन है और न ही वे सत्ता चाहते हैं। यही असलियत इस अप्रत्याशित आन्दोलन को खतरनाक बनाती है। कांग्रेस को समय की पुकार सुननी चाहिए। तिकरम छोड़ उसे जल्द-से-जल्द सकारात्मक कदम उठाने ही होंगे। आखिरकार, इमर-जेंसी के बाद इंदिरा ने देश से माफी मांग कर बड़प्पन ही दिखाया था।
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20.8.11

अन्ना के आन्दोलन में उलझे सवाल-- पार्ट 2

संजय मिश्र
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देश आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं। कई लोग मानते हैं कि कुछ समय बाद देश पुराने ढर्रे पर लौट आएगा। ऐसा हुआ , तो भी , यकीन मानिये उसकी चाल बदली हुई होगी। सड़कों पर उतरा जन सैलाब कांग्रेस ही नहीं, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों के मौजूदा तौर-तरीकों को खारिज करने पर उतारू है। राजनेता जब कहते हैं कि संसद को चुनौती मिल रही है तब वे खतरे की इसी घंटी को कबूल कर रहे होते हैं। " सब चलता है " --की सोच के आदी ये राजनेता जान रहे हैं कि रवैया बदलना होगा और इसे अलग वेव लेंथ पर ले जाना होगा। --------------------------------------------------------------------------------------------------------------------ऐसा मानने वाले भी कम नहीं कि अन्ना का आन्दोलन खतरनाक दिशा में जा सकता है। तुषार गांधी को आशंका है कि इस जन उबाल को " वेस्टेड इंटरेस्ट " हाईजेक भी कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता मानने लगे हैं कि आन्दोलन का विस्तृत फलक इस दुराग्रह को बेमानी बना चुका है कि ये आर एस एस प्रायोजित है। अब कहा जा रहा है कि राष्ट्रवादी ताकतों के बंधन से ये आन्दोलन १६ अगस्त को ही निकल गया। क्या वाम, क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी .......किसिम किसिम के विचार वाले तत्त्व इस आन्दोलन में घुस गए हैं। यहाँ तक कि माओवादी भी समर्थन कर रहे हैं...जी हाँ वही माओवादी जिनके लिए अन्ना की अहिंसा नीति चुनौती के समान है। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------एक रास्ता कल को उज्जवल बनाने की दिशा का भी है। गाँव से लेकर शहर तक अन्ना को समर्थन कर रहे लोग सुखद भविष्य की कामना पूरा करने वाले राह को खोज रहे हैं। ये कैसी तलाश है ? जो महिलाएं बच्चे को गोद में लेकर पहुँची हैं जरा उनके मिजाज को पढ़िए। गैस सिलेंडर के दाम की याद दिला कर वे कमरतोड़ महंगाई की तरफ इशारा कर रही हैं। सरकार महंगाई की वजह ग्लोबल इकोनोमी में ढूंढ रही है। इस इकोनोमी के बेचैनी बढाने वाले नतीजे दुनिया भर में दिखते हैं। चिंता के बीच वैश्वीकरण की यात्रा के पहले पड़ाव तक के सफ़र की समीक्षा हो रही है। इसके दुष्प्रभावों से " भारत " ही नहीं बल्कि जिसे हम " इंडिया " कहते हैं वो भी अछूता नहीं। अन्ना इस अर्थव्यवस्था की उपज को बढे हुए भ्रष्टाचार में देखना चाह रहे हैं। ------------------------------------------------------------------------------------- पिछले दो दशक में उदारीकरण की नीति से फायदा पाने वाले अमेरिका-मुखी नेट सेवी नौजवानों की भी थोड़ी बात कर लें। किसी भी कीमत पर सफलता और समृधि की चाहत को इन्होने जीवन का मकसद मान रखा है........चाहे इसके लिए नैतिकता की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े ? इस तबके का बड़ा हिस्सा आज आन्दोलन के साथ है.......अन्ना के नैतिक बल की आभा से वशीभूत। क्या इस वर्ग को मालूम है कि अन्ना ने भारत की आत्मा से उसका दर्शन कराया है ? क्या अन्ना को अहसास है कि भारत और इंडिया के मिलन का ये प्रस्थान बिंदु हो सकता है ? क्या वे सचेत हैं कि ये आन्दोलन इस मुतल्लिक एक अवसर लेकर खडा है ? क्या अन्ना के मन में इस सन्दर्भ में कोई योजना आकर ले पाई है ? --------------------------------------------------------------------------------------------------------------फिलहाल, दुनिया का सबसे युवा देश धोती-कुर्ता वाले एक शख्स की धमक सुन रहा है। अन्ना के एजेंडे में भ्रष्टाचार, चुनाव-सुधार और ग्राम-संसद जैसे मुद्दे हैं जिसके जरिये राज-सत्ता को लोक-सत्ता में बदलने, राजनेताओं को जिम्मेदारी का अहसास कराने और संविधान की कमियों को पाट कर उसे ज्यादा जीवंत बनाने की लालसा है। साधारण भाषा में कहें तो शायद हर दिन २० रूपये में जिन्दगी बसर करने वाली ८० फीसदी आबादी और समृधि में जी रहे २० फीसदी आबादी के बीच संवाद बनाने की " जिद " है ये। क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इसे समझ रही है ?
जरी है.........

5.7.11

मिथिला चित्रकला----पार्ट ४

संजय मिश्र
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जातीय और धार्मिक एक्सक्लूसिव्नेश के बावजूद मिथिला के लोगों में मेल-मिलाप बड़ा ही लोचपूर्ण है। जानकार इस तरह की जीवन्तता के अनेक कारण बताएँगे। समझ ये भी है कि यहाँ की समस्याएँ लोगों में सामूहिकता के भाव की वजह बनती है....आखिर विपत्ति बिना भेद-भाव के कष्ट जो देती है। मसलन बाढ़ का पानी जब तांडव मचाता है तो जीवन बचा लेने की आस में सभी एक हो जाते हैं। साठ के दशक का अकाल ऐसी ही नौबत लेकर आया। सूनी आँखों में चमक लाने के लिए केंद्र की हेंडीक्राफ्ट बोर्ड ने मिथिला की लोक चित्रकला को बाज़ार की रौशनी देने का फैसला लिया। ------------------------------------------------------------------------------------------------------ये प्रयास मधुबनी की गांवों से शुरू हुए। बोर्ड की तरफ से मिथिला चित्रकला लिखने के लिए ख़ास किस्म के कागज़ आने लगे। हर कलाकार को दस रूपये प्रति चित्र की दर से भुगतान होता। ब्राह्मण और कायस्थ महिलायें तो कागज़ पर चित्र बनाने लगी लेकिन वंचित समाज की स्त्रियाँ ऐसा नहीं करतीं। उन्हें मिथिला चित्रकला को कागज़ पर उतारना दुरूह लगता। लिहाजा वे बोर्ड की तरफ से मिले कागजों को अपनी सवर्ण बहनों के हाथ औसतन पांच रूपये में बेच लेतीं। मिथिला चित्रकला को बढ़ावा देने में लगे सोशल एक्टिविस्ट इससे निराश हुए। इन्होने ऐसी महिलाओं को प्रेरित किया कि वे अपने घरों की भीत पर लिखे गए पारंपरिक आकृतियों को ही कागज़ पर उतार लें। --------------------------------------------------------------------------------------------------मेहनत रंग लाई और इनके चित्रों का दर्प धीरे-धीरे कला जगत को लुभाने लगा। ये महिलायें अपने-अपने जातिगत संस्कार और परिवेश की विविधता को आकार देने लगी। कला समीक्षकों में --"थीम के इस प्रस्फुटन "-- को नया नाम देने की होड़ मच गई। कोई इसे मिथिला चित्रकला की 'हरिजन शैली ' कहता तो किसी को 'गोबर पेंटिंग ' कहना अच्छा लगता। ये कथा सातवें दशक के शुरूआत की है। महिलाओं को प्रोत्साहन देने के सिलसिले में इसी दौरान कुछ एक्टिविस्टों ने इन्हें 'गोदना ' को ही कागज़ पर उतारने की सलाह दी। कृति में तात्विक अंतर उभरा लेकिन ये कारगर साबित हुआ। -----------------------------------------------------------------------------दरअसल, दलित आकांक्षा की इस चेतना को रौदी पासवान की सक्रियता से बल मिला। बाद में शिवम् पासवान ने बीड़ा उठाया। ये लोग भाष्कर कुलकर्णी की जिजीविषा से बेहद प्रभावित थे। उधर गोदना को अभिव्यक्ति देने की मुहिम में कृष्ण कुमार कश्यप बढ़-चढ़ कर लगे। लेकिन इस उत्साह को बरकरार रखने के लिए गोदना पैटर्न को जमा करने की जरूरत थी। कश्यप उस समय जितवारपुर में ही रह रहे थे। गोदना पैटर्न को संकलित करने के लिए उन्होंने सालों तक यात्रा की। भारतीय और नेपाली मिथिला क्षेत्र के अलावा वे देश के कई राज्यों में गए। पर मुश्किलें मुंह बाए खड़ी थी। आखिर कोई स्त्री अपनी काया को निर्वस्त्र कर उन्हें गोदना पैटर्न कैसे दिखाए? बाद में इस मुहिम में शशिबाला, अनीता और उत्पल जैसे सहयोगी भी उनसे जुड़े। -------------------------------------------------------------------------------------------------------गोदना की परंपरा वैसे तो हर जाति की स्त्रियों में देखा गया है लेकिन हाशिये पर खड़े समाज में इसकी अधिकता है। मिथिला चित्रकला जहां भीत को सुशोभित करती रही वहीं गोदना शरीर का श्रृंगार हुई। जब मामला शरीर का हो तो स्त्री के भाव को समझा जा सकता है.....
............उतरहि राज सं आयले एक नटिनीयां रे जान
रे जान , बसि गेलै चानन बिरिछिया रे जान
घर सं बहार भेली सुनरी पुतौह रे जान
रे जान, हमुर सांवर गोदना गोदायब रे जान.......
ऐसे ही मनोभावों को याद कर महिलाएं जब कागज़ पर गोदना लिखने के लिए उत्साहित हुई , तो फिर पीछे मुड कर नहीं देखा। ---------------------------------------------------------------------------------------------------------लेकिन कला की अपनी ड़ेनामिक्स' होती है। वो महज मनोभावों पर निर्भर कहाँ होती। वो कैसे माने कि करोडी जाति की महिलाएं जो गोदना पैटर्न गृहश्थ स्त्री के अंगों पर बनाती उसे हू-ब-हू चित्र में उतार लिया जाए? जानकार बताते हैं कि गोदना परिचय का प्रतीक है....वंश - कुल की पहचान के रूप में ये चला आ रहा है। पूर्वी भारत में मान्यता है कि गोदना गुदवाने से स्त्रियों की मनोकामना कामख्या देवी पूरा करतीं हैं। कामख्या तंत्र का केंद्र रहा है। तंत्र में चौंसठ योगिनी की चर्चा है......जिसमें नैना योगिन भी एक हुई। मिथिला की विवाह पद्धति में नैना योगिन भी एक विधि है। माना जाता है कि इस विधि से नव-दंपत्ति के कुशल-क्षेम की रक्षा होती है। ----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------मेन-स्ट्रीम मिथिला चित्रकला जहां प्रतीकात्मक और सांकेतिक ज्यादा है वहीं तंत्र के असर से लबरेज गोदना को कला की बारीकियों के हिसाब से ढालना कश्यप के लिए परीक्षा के सामान थी। अब तक उनका सरंजाम बरहेता(उनका पैतृक गांव) आ चुका था। बरहेता मिथिला चित्रकला के बड़े केंद्र के रूप मेन उभर रहा है। यहाँ गोदना को शैली देने की कोशिशें साकार हुई। यहाँ बनने वाले चित्र में मेनस्ट्रीम मिथिला चित्र भंगिमा, गोबर शैली और गोदना शैली का ' फ्यूजन' नई पहचान बना रहा है। --------------------------------------------
प्रयोग स्वांत-सुखाय हो तो कोई बात नहीं....पर कला की दुनिया में कबूले जाने तक की यात्रा कठिन होती है। प्रचलित मान्यता एक तरफ और थीम का विकल्प दूसरी तरफ। अब जैसे मुसहर जाती की स्त्रियों का उदाहरण लें। इनके लिए शादी तब तक अधूरी...जब तक गोदना न कराया गया हो। दुराग्रह ये कि गोदना नहीं तो ससुराल में रसोई घर जाना वर्जित यानि गोदना होने तक वे अपवित्र मानी जाती। इनके गोदना पैटर्न को कला जगत की जरूरत के हिसाब से सिक्वेंस देना दिलचस्प चुनौती। -----------------------------------------------------------------------------------थोड़ी बात रंग की कर लें। पहले स्त्री के वक्ष से निकले दूध, दीप की ज्वाला से निकली कालिख और पीपल की टहनियों से निचोड़े दूध को मिला कर रंग बनाया जाता था। मुसलमान-कालीन भारत में इसमें बदलाव हुए। अब करोडी जाति की स्त्रियाँ प्रचलित तरीके से बने रंग में सूअर की चर्बी का रस मिलाने लगीं। मकसद ये कि मुसलमान फ़ौज गोदना करवाई महिलाओं को उठा ले जाने से परहेज करें। आज-कल तो करोडी बाजारू रंग का इस्तेमाल भी करने लगे हैं। पहले सुई से गोदना गोदा जाता....उसकी जगह आज ब्लाक (ठाप्पा) का चलन हो गया है। गोदना प्रक्रिया में होते रहे बदलाव के बीच इनके पैटर्न में सोच की निरंतरता के सूत्र को खोजना और समझना कलाकार के लिए जरूरी हो जाता है। ---------------------------------------------------------------------------मिथिला चित्रकला की गोदना शैली में पिंक( ईट जैसा रंग) और हरे रंग को महत्त्व मिल रहा है। दूसरे रंग भी सीमित मात्रा में इस्तेमाल हो रहे हैं। तंत्र में बोर्डर को दिक्पाल माना जाता.....जबकि गोदना शैली के बोर्डर में ये भाव भी झांकता है कि स्त्री की कामना का परिवेश कितना बंधा हुआ है? इस तरह के प्रयोग माटि की गंध देने वाले हैं। ये अलग स्वाद देने का आह्लाद है। लेकिन कहावत है---' सुखक श्रृंगार, दुखक अहार'। यानि मिथिला पेंटिंग्स पेट भरने के लिए बन रहे हैं। ये सौन्दर्य-बोध की कौन सी समा बांधेगा? क्या मिथिला चित्रकला का प्रकम्पन आम प्रयोग-धर्मी महसूस करवाने में समर्थ हो रहे हैं?
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8.6.11

अन्ना, रामदेव और पीसी में जूता- पार्ट २

संजय मिश्र
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गृह मंत्री पी चिदंबरम ने आठ जून को लगभग धमकाने वाले अंदाज में कहा कि ....(जन-आंदोलनों के ) कम्पे-टि-टिव कवरेज से देश की लोकतांत्रिक व्यवश्था को ख़तरा है। दिल्ली के कई टीवी चैनलों ने सरकार के इस खतरनाक इरादे की अनदेखी की। इस बयान का पीसी में जूता प्रकरण के दौरान कांग्रेसी बीट वाले पत्रकारों के रवैये से गहरा नाता है। ये नौबत क्यों आई कि हाल के आंदोलनों को सबक सिखाने के बाद अब निशाना मीडिया पर आ गया है। इसकी तह में जाना जरूरी है। -----------------------------------------------------------------------पिछले लोक सभा चुनाव से लेकर झारखंड विधान सभा चुनाव तक दिल्ली के रसूख वाले अधिकाश पत्रकार कांग्रेस की गोद में लोटते नजर आए। इसी दौरान ऐसा माहौल बनाया गया मानो देश की किसी ज्वलंत समस्या को उठाने के लिए पहले आपको इन पत्रकारों से सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट हासिल करना होगा। ये कांग्रेस और वाम प्रतिपक्ष का दुराग्रह रहा है। लेकिन केंद्र की सत्ता को खुश करने के लिए ये पत्रकार ख़म ठोक कर मैदान में आ गए। ऐसा सन्देश दिया जाने लगा मानो सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट लेने में नाकाम हुए तो कम्यूनल करार दिए जाएंगे। जनता हैरान होकर सवाल कर रही है कि सेक्यूलर का --एंटो- निज्म-- कम्यूनल कब से हो गया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------समझदार लोग जानते हैं कि सेक्यूलरिज्म की अवधारणा सत्ता और शाशन के लिए है न कि आम जानो के लिए। संविधान कि मूल स्पिरिट मानती है कि भारत के लोग --इन एसेंसिअल -- धार्मिक हैं और रहेंगे। ऐसे में जनता दिग्भ्रमित हो जाती है जब मीडिया के लोग चुनाव विश्लेषण के दौरान सेक्यूलर वोट और कम्यूनल वोट की बात करने लगते हैं। वोटरों को सेक्यूलर और कम्यूनल घोषित करने के बाद अब बारी है समस्याओं को सेक्यूलर और कम्यूनल घोषित करने की। क्या भूख सेक्यूलर या कम्यूनल हो सकता है? ---------------------------तो फिर दिल्ली के इन पत्रकारों ने अन्ना का समर्थन कैसे कर दिया ये जानते हुए कि कांग्रेस अन्ना के पीछे आर एस एस का हाथ देखती है? कांग्रेस को तो ----तहरीर स्क्वयेर फेनोमेना ---- का डर सता रहा था। पर इन पत्रकारों को किसका डर था? दरअसल ये पत्रकार अपनी ही जाल में उलझ गए हैं। अपनी दूसरी पारी में कांग्रेस ने सोची समझी रण-नीति के तहत पक्ष और विपक्ष खुद ही होने का खेल खेल रही है। इशारा ये कि विपक्ष है ही कहाँ? जूता प्रकरण भी इसी सवाल को लेकर था। -----------------------------------------------------------कांग्रेस को खुश करने के लिए ये पत्रकार भी इसी दोहरी भूमिका में आ गए। यानि खुद ही पक्ष और खुद ही विपक्ष। इसके लिए न्यूज़ की एंगल और स्टूडियो में बहष का टोन एंड टेनर बदला गया। बार बार एंकरों ने बताया कि विपक्ष है ही कहाँ? आम तौर पर जनता मीडिया की बातों पर भरोसा करती है। लिहाजा ये दलील उनके दिमाग में बैठने लगी। जनता ने जानने की जहमत नहीं उठाई कि वाम और दक्षिण विपक्ष अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे या नहीं। जंतर-मंतर पर अन्ना को मिला ये समर्थन इसी समझ का प्रतिफल थी। -----------------------------------नतीजा ये भी सामने है कि वाम विपक्ष जहां डिफेन्स की मुद्रा में है वहीँ दक्षिण विपक्ष हताश। इस असहज स्थिति का नजारा टीवी स्टूडियो की बहसों में देखा गया....जब वाम नेता कई बार एंकरों को फटकारते नजर आए....ये कहते हुए कि ----पत्रकारों की तरह सवाल करो ना कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं की तरह। -----------------------------------------------------------------------------------------विपक्ष दबाव में हो और मीडिया एंटी इस्तेबलिस्मेंट न हो तो सत्ता तानाशाह हो ही जाती है। ऐसा बिहार में भी है और दिल्ली में भी। दोनों जगहों पर पत्रकार सरकारी दबाव झेल रहे और डांट-डपट सुन रहे। इस उलझन से निकल कर ----एंटी एस्तेब्लिस्मेंट मोड़ ---में जाना हमेशा मुश्किल होता है।---------------------------------------------------------रामदेव में आन्दोलन को लीडरशिप देने की अक्षमता सामने है......लिपस्टिक लगाने वालों का मोमवत्ती जलाना बहुतों को रास नहीं आता....बावजूद इसके जनता की निराशा और विपक्ष को ख़त्म दिखाने कि पत्रकारों की जिद्द ने गैर राजनितिक मुहिम को उभरने का मौक़ा दे दिया। लेकिन कई सवाल उठ रहे हैं। लगातार तीन दिनों तक रामदेव की सलवार कमीज में पत्रकारों की दिलचस्पी किस गंभीरता का परिचायक है।---------------------------------------------------------------------------------------------रामदेव के अलावा कई लोग इस बात से वाकिफ हैं कि काला धन से भिड़ना कितना खतरनाक है। काला धन वाले कितने ताकतवर हैं इसे सब जानते। अपनी हैसियत घटा चुके दिल्ली के ये पत्रकार चिदंबरम की चेताबनी के बाद क्या करेंगे? क्या देश फिर उसी राह पर चलेगा जब लोगों की समस्याओं से आर एस एस का भूत दिखा कर मुंह फेर लिया जाएगा?
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7.6.11

अन्ना, रामदेव और पीसी में जूता -----१

संजय मिश्र
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राजनीतिक परंपरा के लिहाज से राम-लीला मैदान में हुई बर्बर कार्रवाई को समेटे ४-५ जून काला दिन कहलाने का अधिकारी है.....इसमें संभव है किसी को आपत्ति हो जाए। लेकिन ६ जून को कांग्रेस पीसी में जो कुछ हुआ वो पत्रकारिता के लिए काला दिन कहलाए .....इसमें किसी संजीदा पत्रकार को शक-सुबहां नहीं होना चाहिए। इसलिए नहीं कि कथित पत्रकार ने जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाया....बल्कि इसलिए कि वहां मौजूद पत्रकारों ने राजस्थान के उस अभागे पत्रकार की बेरहमी से धुनाई कर दी। कांग्रेस बीट संभालने वाले दिल्ली के ये पत्रकार यहीं नहीं रुके...इस घटना के बाद वो दिग्विजय सिंह के सामने निर्लज्जता से अपनी बहादुरी का बखान कर रहे थे। टीवी चैनलों के पत्रकार फ़टाफ़ट फ़ो-नो देने लगे। ई टीवी से एनडीटीवी ज्वाइन करने वाले एक पत्रकार ने अपने फ़ो-नो के दौरान पत्रकारिता में तटस्थ रहने की दुहाई दी। जबकि कई एंकर और पत्रकार जनार्दन, दिग्विजय और राजीव से कांग्रेस ऑफिस में सुरक्षा बढाने के लिए मनुहार करते नजर आए।---------------------------------------------------------------------------------------------------------- इस हंगामे के बीच बार-बार इस की खोज हो रही थी कि जूता दिखाने वाला पत्रकार कहीं एक ख़ास विचार-धारा से प्रभावित तो नहीं। हैरानी कि बात तो ये कि इस पड़ताल में कांग्रेस बीट के पत्रकार भी शामिल थे। क्या वे ---तटस्थ भाव---से व्यवहार कर रहे थे। एक अदना सा दर्शक भी इस वाकये को देख कर महसूस कर रहा था कि उस वक्त कांग्रेसी बीट वाले पत्रकारों से ज्यादा संयम वहां मौजूद कांग्रेसी कार्यकर्ता दिखा रहा था। -------------------------------------------------------------इस वाकये के बाद मीडिया में सवाल उठने लगे हैं कि क्या पत्रकारों के ऐसे रवैये के लिए महज --चमचा-- शब्द काफी है? लोब्बीबाज, दलाल और चमचा के बाद अब कौन सा विशेषण तलाशा जाए? दिल्ली के ये पत्रकार ( खास-कर मशहूर टीवी चैनलों के ) किस मनोदशा में जी रहे हैं? वे चाहते क्या हैं? इसे समझने के लिए थोड़े तफसील में जाना होगा। -------------------------------------------------------------------------------------अन्ना हजारे के आन्दोलन से लेकर रामदेव के राम-लीला प्रकरण के बीच के समय पर ही गौर करें। इस दौरान देश ने कई ऐसे सवालों का सामना किया जो मन को मथने वाला है। यहाँ कुछ ही सवालों जिक्र किया जा रहा है। कहा गया है कि क्या --कोई-- भी समर्थकों के साथ दिल्ली आकर अपनी मांग मनवा लेगा? ये सवाल कांग्रेसी कर रहे पर इसे सबसे ज्यादा मुखर होकर दिल्ली के ये स्व-नाम-धन्य पत्रकार उठा रहे हैं। ये पत्रकार अपने आकाओं को खुश करने के लिए चीख-चीख कर पूछ रहे हैं कि साधू-संत ऐसा कब से करने लगे? --------------------------------------------------------बेशक साधू-संत समाज और सत्ता से दूर रहते। लेकिन विषम समय आने पर वे हस्तक्षेप और मार्ग-दर्शन करते हैं। देशों की जीवन-यात्रा में ऐसे मौके कम ही आते हैं। ऐसा तब और जरूरी हो जाता है जब समाज में विद्वत परंपरा को अनुर्वर बना दिया जाता है। -------------------------------------इस सन्दर्भ में चाणक्य के महा-प्रयास और अंग्रेजों के खिलाफ सन्यासी विद्रोह को बखूबी याद किया जा सकता है। नन्द वंश के समय भारत में बिखराव था। सत्ता की निष्ठुरता पराकाष्ठा पर थी और देश की पश्चिमी सीमा खतरे में थी। ऐसे में सन्यासी की तरह रहने वाले विद्वान चाणक्य ने कैसी भूमिका निभाई इसे इतिहास के पन्नो में खोज सकते हैं ये पत्रकार। इससे भी मन न भरे तो सन्यासी विद्रोह के समय पर मंथन कर लें । लेकिन इस विद्रोह की जानकारी लेने में इन्हें मिहनत करनी पड़ेगी। ------------------------------------------------------दिल्ली के ब्रांड बन चुके इन पत्रकारों में पढने के लिए आस्था कहाँ बची है। नामी पत्रकार विनोद दुआ जब कोई किताब पढ़ते हैं तो कैमरे के सामने आकर देश को बताना नहीं भूलते कि ---देखो मैंने कोई किताब पढ़ ली है। देश हैरान रह जाता है जब इस पढ़ाई के बल पर विनोद दुआ मनमोहन की तुलना महात्मा गांधी से कर बैठते हैं। किताब दिखा कर कैमरे के सामने बोलने की इस अदा की नक़ल कुछ अन्य पत्रकार भी करते नजर आ जाते हैं। ऐसे पत्रकारों के लिए सन्यासी विद्रोह की थोड़ी बानगी बताना लाजिमी है.---------------------------------------------------------------१७५७ में पलासी का संग्राम हुआ। इसके बाद पूर्वी भारत में भ्रम की स्थिति बनी। बंगाल और बिहार के उत्तरी हिस्सों में अंग्रेजों की नीति और शोषण ने किसानो की कमर तोड़ दी। १७६९ के अकाल ने इस आपदा को और बढ़ा दिया। हाउस ऑफ़ लोर्ड्स में इस शोषण और दमन का वर्णन करते हुए एड्मोंड बुर्के दुःख से बेहोश हो गए। समझा जा सकता कि लोगों के लिए कोई आस नहीं थी। पर आशा की किरण फूटी। सन्यासियों के समूह ने अंग्रेजों और उसके पिठुओं के खिलाफ हथियार उठा लिया। उत्तरी बंगाल के इलाके इस संघर्ष का गवाह बने। जाहिर था साधनविहीन सन्यासी परस्त हुए लेकिन इनकी देश-भक्ति और दिलेरी ने लोगों का दिल जीता। आजादी के इन गुमनाम सिपाहियों को सरकारी किताबों में अहमियत नहीं मिली। तभी तो अल्प ज्ञान वाले पत्रकार सवाल करते कि साधू-संत का राजनीति से कैसा वास्ता?--------------------------------------------------------------जारी है......

2.6.11

मिथिला पेंटिंग्स ---पार्ट ३

संजय मिश्र
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स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और धर्म के सनातनी स्वरूप के कारण मिथिला चित्रकला की परंपरा मोटे तौर पर शुद्ध रूप में चलती रही। लेकिन स्थान और समय के असर से किसे इनकार हो सकता है। जब खिड़की खुली तो इसके स्वरूप में बहुत ही परिवर्तन आए। महज मातृभाषा बोलने वाली महिलाएं जब घर से बाहर निकली तो नई दुनिया की सच्चाई ने उनकी कल्पनाशीलता को झक-झोडा। विदेशी धरती में घूंघट और संस्कार अपनी जगह रहे लेकिन थीम के विकल्प बढे.....साथ ही चित्रकला के मानदंडों के दायरे में ही प्रयोग आकार लेने लगी। --------------------------------------------------इधर अपने देश में भी नई प्रवृतियाँ उभरी। रोजी के अवसर की जरूरत महिलाओं के संग पुरूषों को भी थी। सो पहली बार यहाँ के पुरूष भी मिथिला चित्रकला की बारीकियों को समझने लगे। उनके लिए ये पाठ आह्लादकारी अनुभव रहे......इरादा महिलाओं के गढ़ को तोड़ना नहीं था...सब विपत्ति के मारेजो ठहरे । ------------------------------------------------------------------------------------------------------महिलाओं में जातिगत बंधन उतना कठोर न था। ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ महिलाओं की रुचि का असर उन्ही के साथ गुजर कर रही वंचित समाज की स्त्रियों पर भी था। इनके घरों की भीत भी अपने परिवेश के छिट-पुट अंशों से सजी होती। लिहाजा विधि-विधान के बहाने चित्रकला की एक समानांतर छटा मौजूद रही। जब मिथिला स्कूल की चित्रकलाओं को नया आयाम मिला तो वंचित समाज को भी अवसर मिले। इनकी कल्पना जब कागज़ पर उतरी तो कला-पारखियों ने इसे -- हरिजन शैली --- कहा। इस तरह की चित्रकला में रंग के रूप में गोबर के घोल का इस्तेमाल होता है लिहाजा इसे कई लोग --गोबर पेंटिंग--- के नाम से भी पुकारते हैं। बरहेता के कलाकारों ने --गोदना शैली---- को विकसित करने में अहम् भूमिका निभाई है। -----------------------------------------------सरकारी सहयोग की बदौलत मिथिला चित्रकला के कलाकार अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, इंग्लेंड, स्विट्जर्लेंड, डेनमार्क और चीन में अपनी कला का प्रदर्शन कर आए हैं। गंगा देवी अमेरिका गई और वहां की जीवन-शैली को अपनी पेंटिंग में स्थान दिया। उनके बनाये चित्रों में रोलर-कास्टर, बहुमंजिली इमारतें और अमेरिकी परिधानों को जगह मिली। रोचक है कि बसों के पहियों को उन्होंने कमल के फूल जैसा रखा। इस कला के समीक्षक मानते हैं कि गंगा देवी ने जीवन की सच्चाइयों को आध्यात्मिक रूप दिया। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------बाद में वो शशिकला देवी और गोदावरी दत्ता के साथ जापान गई। इन्होने जापानी परंपरा को अपनी कृतियों में समावेश किया। जापान में इनके बनाए चित्रों का एक म्यूजियम भी बनाया गया। उधर शांति देवी और शिवन पासवान ने डेनमार्क और जर्मनी में लोगों को गोबर पेंटिंग से परिचित कराया। जगदम्बा देवी भी कई देश हो आयी। उनके नाम पर मधुबनी में एक सड़क का नामकरण किया गया। ये कलाकार अनपढ़ थीं पर प्रयोग करते समय मिथिला चित्रकला के मर्म का ख़याल रखा। -------------------------------------------विदेश जाने वालों का सिलसिला जारी है। इधर पढ़े-लिखे कलाकारों ने बहुत ही प्रयोग किये हैं। सीतामढी के कलाकारों ने कारगिल युध को ही चित्रित कर दिया। तो मधेपुरा की नीलू यादव के चित्रों में बुध का जीवन चरित , सौर-मंडल और डिज्नी-लेंड जैसे थीम आपको दिख जाएंगे। सुनीता झा ने कला समीक्षकों को चौका दिया जब उन्होंने --घसल अठन्नी --- नामक लंबी कविता को ही चित्रित कर डाला। आपको बता दें कि काशी कान्त मिश्र लिखित इस मैथिली कविता में वंचित तबके की एक मजदूर स्त्री के दर्द को दिखाया गया है। ये कविता मिथिला के गाँव में बहुत ही मशहूर हुई और समाजवादी राजनीतिक नेताओं ने भी अपनी नीतियां फैलाने में इस कविता का सहारा लिया। दरभंगा की अनीता मिश्र ने तो इशा-मसीह के जीवन को ही अपनी कृति में जगह दे दी। इधर कृष्ण कुमार कश्यप ने शशिबाला के साथ मिलकर --गीत-गोविन्द --- और --मेघदूत-- को चित्रित किया है। ये इस श्रृंखला की अगली कड़ी में विद्यापति के जीवन को चित्रित कर रहे हैं। मधुबनी के एक कलाकार ने मखाना उत्पादन को ही अपना थीम बना दिया। ----------------------------------------------------------------------------प्रयोगों की फेहरिस्त लम्बी है। इसने उम्मीदें बधाई.....दायरे बढाए...लेकिन मिथिला चित्रकला लिखने वाले पुराने लोग इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि इस चित्रकला का लोक-स्वरूप टूटता जा रहा है।
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17.5.11

मिथिला पेंटिंग -- पार्ट २

संजय मिश्र
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मिथिला में ये धारणा रही है कि बाढ़ के बाद अकाल नहीं आता ......इसलिए कि हिमालय से आने वाली नदियों में पानी के साथ गाद आता है जो खेतों में जमा होता रहता है। ये नई मिट्टी उपज बढाती है। लेकिन नदियों को बाँधने वाली अव्यावहारिक और आधी-अधूरी योजनाएं इस प्राकृतिक सिस्टम से खिलवाड़ करने वाली साबित हुई। इसका असर साठ के दशक से ही दिखना शुरू हुआ ....लिहाजा लोगों का जीवन और दुरूह होता गया। साल १९६७ तक इस इलाके में अकाल की ताप मारक हो गई। इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने लोगों को रोजगार देने वाली कई योजनाएं बनाई। इसी के तहत मिथिला चित्रकला को दुनिया की पहुँच में लाने और इससे जुड़े कलाकारों को रोजी के अवसर जुटाने पर काम शुरू हुआ। -----------------------------------------------------------------------------
साल १९६५ की बात है....चहल-पहल से दूर रहने वाले मधुबनी रेलवे स्टेशन पर एक दुबला व्यक्ति जब उतरा तो उसका सामना लोगों की सूनी आँखों से हुआ। मिथिला चित्रकला को लेकर उसने बहुत मंसूबे बाँध रखे थे। उसके मन में जहां इस परंपरा को दुनिया भर में फैलाने की उत्कंठा थी वहीं इसे पेशेवर रूप देने की लालसा थी। इसका सुलभ उपाय ये था कि चित्रकला को भीत की सतह से उतार कर कागजों पर लाया जाए। पहले तो मिथिला चित्रकला लिखने वाली महिलाएं हिचकिचाई ..... फिर शुरू हुआ ट्रेनिंग का दौर। कुछ ही महीनों की मिहनत के बाद कलाकारों की उंगलियाँ कागज़ पर ही सृजन के सोपान गढ़ने लगी। ----------------------------------------------------------------------
सर जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से ग्रेजुएट ये व्यक्ति भाष्कर कुलकर्णी था। अफ्रीकी देशों की चित्रकला का गहन अध्ययन कर चुके कुलकर्णी ने पहले तो खुद मिथिला चित्रकला सीखी और तब शुरू हुआ प्रयोगों का दौर। ये सिलसिला अवरोधों के बावजूद लगभग दो दशक तक चला। साल १९८३ में लम्बी बीमारी के बाद दरभंगा में कुलकर्णी की मौत हो गई। उनका सबसे बड़ा योगदान ये था कि उन्होंने मिथिला चित्रकला के प्रतीकों को ' सेक्वेन्सिंग ' दी। कागज पर चित्रकला को उतारने के लिए ये बेहद जरूरी था। जबकि समाज-सेविका गौरी मिश्र ने इस चित्रकला को नई थीम देने में बढ़-चढ़ कर दिलचस्पी दिखाई। जानकारी के मुताबिक़ मिथिला चित्रकला से जुड़े कुलकर्णी के कई स्केच और सूत्र उनकी डायरियों में हैं जो प्रकाश में लाइ जानी चाहिए। इनमे कई डायरियां गौरी मिश्र के पास हैं। --------------------------------------------------------------------------------------------------
भाष्कर कुलकर्णी अकेले बाहरी व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने इस चित्रकला को बढ़ावा दिया। रेमंड, डब्ल्यू सी आर्थर, जोर्ज लूबी, एरिका मोज़े, होसेगावा जैसे कला प्रेमियों ने विदेशों में इसको बढ़ावा देने में काफी सहयोग दिया। जहाँ पुपुल जयकर ने देश के विभिन्न राज्यों में प्रदर्शनी लगाने में सहयोग किया वहीं उपेन्द्र महारथी ने इस कला परंपरा के विभिन्न परतों को खोला। महारथी ने कई गाँव का सघन दौरा किया साथ ही बिहार ललित कला अकादमी के जरिये इसका प्रचार किया। अब ये आलीशान घरों के ड्राइंग रूमों, सितारा होटलों और कोर्पोरेट भवनों की कौरीडोरों की शोभा बढाने लगी। विदेशों में इसका बाज़ार बनाने में पूर्व विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण मिश्र ने बड़ी भूमिका निभाई। --------------------------------------------------------------------------------------------
बाज़ार बनते ही बिचौलियों की जाति पनपी। ये वर्ग जरूरी भी था पर कलाकारों के शोषण का कारण भी बना हुआ है। इस जरूरी मुसीबत से पार पाने के रास्ते कलाकारों को नहीं मिले हैं। पेंटिंग के वाह्य स्वरुप में परिवर्तन तो आया ही साथ ही थीम में प्रयोगों की होड़ सी मच गई। कागज के केनवास पीछे छूटे....अब तो कपडे, कार्ड्स से लेकर प्लास्टिक पर भी ये चित्रकला छा गई है। टिकुली, ग्रीटिंग कार्ड्स, अन्तः और वाह्य वस्त्र, चुनाव प्रचार सामग्री तक में ये जगह बना चुकी है। ---------------------------------------------------------------------------------------
सीता और राम के कोहबर में इस चित्रकला के लिखे जाने की चर्चा रामायण में है। कोहबर यानि नव-विवाहितों के शयन कक्ष से शुरू हुई ये यात्रा समय के थापेरों से बेपरवाह बनी रही.....लेकिन आज ये बाज़ार की चंगुल में है। प्रयोगों की अधिकता के नतीजे अवसर बढ़ाने के साथ सवाल भी उठा रहे।
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10.4.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ--पार्ट 3

संजय मिश्र ------------ पटना के जो छात्र स्कूलिंग के बाद महानगरों में पढने जाते हैं.....वे वहां अपना परिचय अक्सर ' पटना-एट ' कह कर देते हैं....' बिहारी ' कह कर नहीं। ये मानसिकता ग्लोबलैजेसन के दौर में नहीं पनपी है। इसके दर्शन लालू युग में भी होते थे ...और उससे भी पहले कांग्रेसी शासनों में यही वास्तविकता थी। -----------------------------------------------------बिहार दिवस के मौके पर ऐसे युवा बिहारीपन की कसमें खा रहे थे। ये विलाप, टीवी स्क्रीन पर दिखने की चाहत का कमाल ज्यादा था....वनिस्पत ह्रदय परिवर्तन के। ये मानना खंडित सच होगा कि महज लालू प्रसाद के अ-गंभीर अंदाज की वजह से बिहारीपन को चोट पहुँची थी और अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। दर-असल, राज्य के प्रति अनुराग में खालीपन की बुनियाद बिहार बनने के समय ही पर गई। ---------------------------------आज की पीढी को ये जान शायद हैरानी हो कि बिहार का निर्माण इस बात को ध्यान में रख कर किया गया ताकि उस समय के पढ़े-लिखे ख़ास तबकों को नौकरी के अवसर मिलें। असल में उस समय सरकारी नौकरियों में बांग्ला-भाषियों का दब-दबा था। बिहार के हर शहर में बंगाली टोला की मौजूदगी इसे बखूबी बयान करते हैं। आधुनिक शिक्षा पाए कायस्थ वर्ग के लोग बांग्ला-भाषियों के कारण हाशिये पर होते। जबकि बिहार की कचहरियों में खडी बोली के प्रयोग की इजाजत से वे उत्साहित थे। उस समय अन्य जातियों में नौकरी के लिए लगाव नहीं के बराबर था। ------------------------------------------------------------------------------------ उधर, कायस्थ और मुसलमानों में उच्च शिक्षा पाने वाला वर्ग अपनी महत्वाकांक्षा छुपा नहीं पा रहा था। कलकत्ता में इस तबके को भाव नहीं मिल रहा था। सच्चिदानंद सिन्हा, अली इमाम, और हसन इमाम जब बिहार के लिए मुहीम चला रहे थे तो नौकरी के अवसरों और समाज में धाक पर इनकी नजर गरी थी। किसी विराट सपने के वगैर चली ये मुहिम , अंग्रेजों की बांग्ला-भाषियों को कमजोर करने की नीति के कारण आसानी से सफल हुई। ------------------------------------------------------------------------------------------------बिहार बनने के बाद मुहिम चलाने वालों को फायदे हुए। सच्चिदाबाबू, बिहार गवर्नर के ' एक्जेक्युटिव काउनसेलोर ' बनाए गए। ये पद पाने के लिए सच्चिदानंद सिन्हा ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। गणेश दत्त सिन्हा ' मिनिस्टर इन चार्ज ' बने। ज्वाला प्रसाद को पटना हाई-कोर्ट का जज बनाया गया। अली इमाम दिल्ली में ' एक्जेक्युटिव काउंसे-लर ' बने। वहीं हसन इमाम पटना हाई-कोर्ट में जज बनाए गए। ये फेहरिस्त लम्बी है। -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जाहिर है स्वार्थ और महत्वाकाक्षा की कोख जे जन्मे बिहार की ' लोंगेविटी ' का सवाल सामने था। बिहार आन्दोलन के समानांतर बंगाल से मिथिला को अलग कर देने की सुगबुगाहट भी आकार ले चुकी थी। फिर भी मिथिला के मुरलीधर झा सरीखे लोग बिहार को ' मगध -मिथिला ' नाम से स्वीकार करना चाह रहे थे। आखिरकार ' बिहार ' नाम ही चला। सच्चिदानंद ने दरभंगा महाराज से अपने इस्टेट के काम-काज में हिन्दी के प्रयोग का अनुरोध किया । दरभंगा महाराज हिन्दी को प्रश्रय देने के लिए राजी हो गए।-----------------------------------------------------------बिहार को बनाए रखने के लिए दो तरह की सोच काम कर रही थी। पहली धारा ये मान कर चल रही थी कि मगध, मिथिला, भोजपुर, झारखण्ड, और उड़ीसा जैसे सांस्कृतिक क्षेत्रों की आकांक्षा का शासन में ' रिफ्लेक्सन ' हो तो लोगों में राज्य के लिए लगाव जगेगा। इस धारा के लोग मानते रहे कि एक साझा संस्कृति बनाई जा सकती । भोजपुरी, मगही और मैथिली के बीच रक्त संबंध में इन्हें सहमति के बिन्दु नजर आ रहे थे। -------------------------------------------------------------------------------------------------------------जबकि दूसरी धारा के लोग समझा रहे थे कि बिहार एक माडर्न स्टेट है लिहाजा इसकी अलग पहचान होनी चाहिए। इनका दुराग्रह रहा कि इसके लिए बिहार के परम्परागत सांस्कृतिक क्षेत्रों की पहचान ' मिटनी' होगी। इस दिशा में बकाएदा कोशिशें हुई। रणनीति बनी कि सबल सांस्कृतिक क्षेत्रों को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर किया जाए और इनके सांस्कृतिक अवदान को अहमियत ना दी जाए। इसी कारण इन क्षेत्रों के प्रति ' इंटल - रेन्स ' शासन का स्थायी भाव बन गया। ---------------------------------------------------------------------------दूसरी धारा का प्रभुत्व ज्यादा था लेकिन लक्ष्य मुश्किल। सौरसेनी हिन्दी थोपी गई। एक ' बिहारी ' हिन्दी की कल्पना भी की गई जो कमोवेश बिहार के सरकारी ऑफिसों में में क्लर्कों के बीच प्रचलन में है। हिन्दुस्तानी की भी वकालत हुई। आज भी प्रकाश झा अपने टीवी चैनल के जरिये बिहार की अलग हिन्दी गढ़ने में लगे हैं। ये ' बेतिया ब्रांड ' हिन्दी कहाँ तक चलेगी ..... कहना मुश्किल। ----------------------------------------------------दूसरी धारा के वर्चस्व का नतीजा भयावह तस्वीर पेश करता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि सोमदेव के अनुसार भोजपुरी में लिखे जा रहे साहित्य में स्तरीय रचना की संख्या सौ के पार बमुश्किल जाती है। दरअसल, बिहार बनने के बाद भोजपुरी भाषी हिन्दी सेवा में लगे। भोजपुरी में साहित्य रचने की जरूरत का लगभग तिरस्कार किया गया। वे अब सचेत हुए हैं लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने की छटपटाहट में वे ' शार्टकट ' की तलाश में हैं.....ये जानते हुए कि साहित्य सृजन उन्हें शार्ट -कट की इजाजत नहीं देता। मगही का हाल बुरा है.....वो अपनी पहचान का मोहताज है। ये एक स्वतन्त्र भाषा है बावजूद इसके मगही साहित्यकार इसे हिन्दी की बोली कहने में शर्म नहीं करते। उधर, मैथिली की जीवन यात्रा का लगभग नब्बे साल संघष में ही बीत गया। -----------------------------------------------------------------------------------------------ये नौबत बिहार की सांस्कृतिक संपदा की अनदेखी के कारण ही नहीं आया। दरअसल, सार्वजनिक जीवन में जातिवादी सोच को मिला प्रश्रय मारक साबित हुआ। इसे एक उदाहरण से समझें। छपरा का एक यादव, मधेपुरा के स्वजातिये से जितनी आत्मीयता दिखाता है....उतना वो छपरा के ही अन्य जाती के पडोशी से नहीं दिखाता। यही भाव अन्य जातियों में भी लागू होता है। शुरुआती दौर में कायाश्थों और मुसलमानों के हाथ लगे वर्चस्व ने अन्य जातियों को भी उकसाया । अब बारी थी भूमिहारों और राजपूतों की। त्रिवेणी संघ के तहत कोयरी, कुर्मी और यादव सत्ता में हिस्सेदारी के लिए आगे बढे। ये सिलसिला चल पडा जो कि जारी है। लालू युग में दूसरी धारा नग्न रूप में दिखी। ------------------------------------------------------------------------------------------जातिवादी हथियार इस ललक के साथ आगे बढ़ी कि जातीय उत्थान में ही राज्य का उत्थान है। इस हथियार का इतना प्रचंड असर हुआ कि विभिन्न क्षेत्रों की आशा का मर्दन तो हुआ ही साथ ही बिहार के लिए ममता का भाव पीछे छूट गया। निर्मम होकर सुख-भोग की अभिलाषा को तरजीह मिली। आर्थिक प्रगति में क्षेत्रीय असंतुलन को बढ़ावा मिला। मोहन गुरुस्वामी जब कहते हैं कि केंद्र से बिहार को ४०,००० करोड़ रूपए कम मिले तो इसकी वजह बिहार के सत्ता-धीशों की अलग प्राथमिकता में खोजी जा सकती है। ----------------------------------------नीतीश शायद पहली धारा के लिए रुझान दिखाना चाह रहे हैं। जीवन में बेहतरी की गुंजाइश राज्य के लिए लगाव पैदा करेगा। समस्याओं के अम्बार के बावजूद, नीतीश कुमार राज्य की योजना को संस्कृति सापेक्ष बनाबें। बेहतर होगा स्टेट योजना के अंतर्गत मगध, मिथिला, और भोजपुर के लिए अलग प्लानिंग कमिटी बने। आज का बिहारी युवा ये मानता है कि पुरातन गौरव से प्रेरणा ली जा सकती...पर इसे पुनर-स्थापित नहीं किया जा सकता। आखिरकार, भावी पीढी के लिए वर्तमान में गौरव करने लायक तत्व होने चाहिए। ऐसे में बंशी चाचा, किसान चाची, काशीनाथ और दशरथ मांझी जैसे नाम उम्मीद जगाते हैं। ' हमारा बिहार ' की लौ अभी मध्धम है...इसे तेज करना चुनौती। ' अपना बिहार ' की तमन्ना तो अभी दूर की कौड़ी है.

1.4.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ --पार्ट २

संजय मिश्र ------------ -------साल २००० में जब झारखंड राज्य बनाने की घोषणा हुई , तो बिहार में कोई भूचाल नहीं आया। थोड़ी सी हलचल....और अखबारों में विरोध दर्ज कराने वाले रूटीन से बयान। पटना में कुछ लोग धरने पर बैठे। इस रस्म-अदायगी पर वो वर्ग भी हैरान हुआ जो बिहार की अखण्डता का कायल नहीं था। जी हाँ, ये उस बिहार की दास्ताँ है जिसके राजनीतिक हेवीवेट लालू प्रसाद ने १५ अगस्त १९९८ को दहाड़ते हुए कहा था---" मेरी लाश पर ही बिहार का बंटवारा होगा।" ये उसी बिहार की दास्तान है जिसके निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा ने इंग्लेंड में बिहारी कह कर अपना परिचय दिया था.... उस समय....जब बिहार अस्तित्व में भी नहीं आया था। तब से लेकर सन २००० तक गंगा में न जाने कितना पानी बहा होगा। ----------------------------------------------------------------------------------------------आम बिहारी का ये चरित्र दूसरे प्रदेशों के लोगों को विस्मय में डाल देता है। दरअसल , उसके ( बिहारी के ) दिल में बिहार के लिए अपनत्व की कमी हरदम खोजी जा सकती है। जब ये कहा जा रहा है कि राज्य के लोगों में बिहारीपन के लिए आह्लाद जगाया जा रहा है, तो शायद वो बिहारी चरित्र की इसी मनोदशा की ओर इशारा करता है। गहराई से सोचेंगे तो इस मनोदशा को परत-दर-परत समझा जा सकता है। -----------------------------------------------------------------------------------राज्य के लोग उस अर्थ में ' बिहारी ' नहीं हो पाते जिस अर्थ में एक बंगाली या मराठी होता है। आखिर, किस पहचान से वो नाता जोड़े ? जबकि उसे पता है कि इतिहास में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई के रूप में बिहार की कोई अनवरत मौजूदगी नहीं रही है। उसे बताया जाता है कि ' बिहार ' शब्द बौध भिक्षुओं के ' विहार ' से निकला है। कोई उसे बिहार-शरीफ में बिहार दिखाने लगता है। नीतीश कुमार को ' बहार ' शब्द में ही बिहार नजर आता है। इस संबंध में जितने भी विवेचन दिए जाते हैं वो बौध काल से पुराने नहीं हैं। बिहारीपन के आग्रही कभी ये नहीं बताते कि बौध विहारों का ' विहार ' शब्द आखिर कहाँ से आया ? -------------------------------------------------------------------------------उस दौर में जब वैदिक ज्ञान और अनुभव को ठोस आकार दिया जा रहा था, ऋषी - मुनियों के आश्रम में चहल-पहल परवान पर होती। वहां रहने वाले छात्र जिजीविषा से भरे होते ...... रोमांचित होकर यज्ञमंडप और आस-पास की गतिविधियों को अनुभूत करते। ये जानते हुए कि इन क्रिया-कलापों के मूल तत्वों को उन्हें ही गृहस्थों के बीच बांटना है। वनों में स्थित आश्रमों का ये परिवेश ' विहार ' कहलाता । आश्रमों के कण - कण में समाई ये फिजा राजाओं की ओर से आयोजित यज्ञ और शास्त्रार्थ से बिलकुल ही अलग होती। ये बातें , भगवान् बुद्ध के समय से पहले की हैं। बुद्ध धर्म के लोगों ने इसी ' विहार ' शब्द को भाव की पवित्रता के साथ आत्मसात किया। ये सच है कि बिहार के सामान्य इतिहासकार इस असलियत से वाकिफ नहीं हैं। लेकिन , कई इतिहासकार इसकी जानकारी रखते हैं। इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि किस मजबूरी के तहत इस वास्तविकता को लगातार छुपाया गया।---------------------------- अक्सर कहा जाता है कि बिहार ने दुनिया को प्रजातंत्र की नसीहत दी । यहाँ ये बताना जरूरी है कि जिस काल-खंड के बारे में ये दावा किया जाता है उस समय भारतीय उप-महाद्वीप में कई जगह गणतंत्रात्मक शासन चल रहा था। ...उनमें बिहार भी शामिल था। बावजूद इसके बिहार अकेले इसका श्रेय लेने पर तुला रहता है। --------------------------------------------------------------------------वामपंथ , समाजवाद और बाद के समय में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के लिए बिहार उर्वर जमीन साबित हुई। जमींदारों की उपस्थिति , समाज में सांस्कृतिक जागरण का अभाव और बिहारीपन की ठोस अवधारणा की गैर- मौजूदगी ने इन विचारों को संजीवनी दी। इन विचारों से जुड़े जुनूनी नेताओं को लगा कि बिहार ' नो मेंस लैंड ' की तरह है ....और फैलाव के लिए मुफीद जगह। लिहाजा , किसी तरह के बिहारीपन को ' सींचने ' की इन्होने जहमत नहीं उठाई। जबकि बिहार के जो हुक्मरान समाजवादी विचारों को ' ओढ़ने वाले ' रहे उन पर बुद्ध वाद हावी रहा। वामपंथियों के साथ ऐसे समाजवादी नेता भी मानते रहे कि बुद्ध के दर्शन और इस्लाम में ही प्रजातंत्र है। इसलिए बिहार की पहचान में बुद्ध ही ज्यादा दीखते । बुद्ध ईश्वर और आत्मा में यकीन नहीं करते जबकि महावीर ईश्वर और पुनर्जन्म को मानने वाले ठहरे। यही कारण है कि महावीर का गुण-गान गाहे-बगाहे ही होता। ये अकारण नहीं कि पटना के कई सार्वजनिक भवनों की बनावट में स्तूप - शैली और मुग़ल शैली के दर्शन हो जाएंगे। -----------------------------------------------------------------------------------------------रह- रह कर मौर्य साम्राज्य के शौर्य को बिहार का शौर्य बताया जाता है....ये जानते हुए कि मौर्य शासन साम्राज्यवादी और तानाशाही प्रवृति को इंगित करता है। अतीत से प्रेरणा लेना अच्छी बात है लेकिन यहाँ आकर आम बिहारी फंस जाता है। समाजवाद और तानाशाही प्रवृति से एक साथ वो कैसे ताल-मेल बिठाए ? उसे बिहारीपन ' क्रैक्द मिरर ' लगने लगता है। उसे कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त, चाणक्य , आर्यभट , बुद्ध, चंपारण के गांधी , और जे पी महान हुए । ऐसा कहने वाले विदेह जनक, सीता , याज्ञवल्क्य , विश्वामित्र , भारती , मंडन , वाचस्पति , कुमारिल , उदयन , विद्यापति और भिखारी ठाकुर जैसों के बारे में चुप्पी साध लेते। ये राजा अशोक का नाम भी कम ही लेते क्योंकि तब उदार और सहिष्णु बनना पडेगा। बिहार का जनमानस एकबारगी मुदित होता है और फिर उलझन में पर जाता है.... ------------------------------------------------------------------------------------------------वो जानता है कि लालू युग में भी बिहारीपन को खूब उछाला गया। पर वो समझ नहीं पाता कि बिहार में विकास के मुद्दे पर चिढने वाले लालू ने उस समय विन्ध्याचल में धर्म-शाला बनबाने में रूचि कैसे ली ? ज़रा याद कीजीये सारनाथ में हुए आर जे डी सम्मलेन को। लालू ने वहां ' पूर्वांचल राज्य ' बनाने की वकालत ही नहीं की बल्कि उसे अपने एजेंडे में प्रमुखता दी। अब, आम बिहारी के असमंजस को महसूस करिए, जिसे पता है कि पूर्वांचल राज्य का सपना देखने वाले बिहार में भी बड़ी तादाद में हैं। वो (बिहारी) ये सोच कर असहज हो जाता है कि शाहाबाद और सारण क्षेत्र के अधिकाँश बड़े नेताओं की ' आत्मा ' तो पूर्वांचल में होती पर शरीर बिहार में....और नश्वर शरीर को तो सुख-सुविधा और भोग-विलास से मतलब।----------------------------------------------------------------------------------------- मिथिला में आत्मा-सम्मान की चेतना उदयन और अ-याची की गाथा में विराट रूप में प्रकट होती है। वे अपने सद्गुणों से प्रेरणा का स्रोत बने रहे। लेकिन आज का मिथिला जीवन बचा लेने की होड़ में इतना खोया है कि उसके संस्कार में समा गई अवनति-पूर्ण समाज की बुराइयां उसे नजर नहीं आती। मोटे तौर पर, उसकी छटपटाहट में न तो बिहारीपन के लिए स्पष्ट सोच उभर पाती है और न ही मिथिला राज्य के लिए ख़ास दिलचस्पी।--------------------------------------------------------------- मगध एक सांस्कृतिक क्षेत्र है.....मिथिला की तरह पूर्ण -परिभाषित। मगध में ही बिहार की सत्ता का केंद्र है। ऐसे में मगही मानस में गुमान आ जाना लाजिमी है। यही वजह है कि मगही लोग और उसके नेता अक्सर ' फील गुड ' की दशा में पहुँच जाते हैं। वे बताएंगे कि पूरे सूबे की बेहतरी का बोझ है उनपर। संयोग से बिहार में राज करने वाले दो ऐसे मगही नेता हुए जो संयत शासन देने वाले कहलाते। श्री कृष्ण सिंह के बिहार को --एपल्बी -- ने ' बेस्ट एडमिनिस्टर्ड स्टेट ' कहा। अभी के नीतीश कुमार हैं जो ' बिहार मॉडल ' की महक को फैलाने में जी-जान से लगे हैं।------------------------------------------- लेकिन बीच-बीच में इनकी तन्द्रा भंग हो जाती है। २५ मार्च को पटना हाई-कोर्ट ने कह दिया कि ' एल एन एम् यू ' राज्य का सबसे गया गुजरा विश्वविद्यालय है '। ये नीतीश के लिए झटका है। ख़ास कर तब जब वे पटना और आस-पास को शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक पहचान दिलाना चाहते हैं। कोर्ट के रिमार्क के बाद संभव है नीतीश को भान हुआ हो की पटना से नालंदा की दूरी नापने से न तो बिहार का काया-कल्प होने वाला और न ही बिहारीपन को खाद-पानी मिलने वाला।--------------------------- ...अच्छा है ... नालंदा विश्वविद्यालय बन रहा है। काश...इसके चालू होने के बाद नालंदा से निसृत ज्ञान की रौशनी पटना में बैठने वाले सत्ताधारी वर्ग को विवेक-शील बनाता रहे।--------------- ....जारी है......

25.3.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ -- पार्ट १

संजय मिश्र
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" सच्चिदानंद सिन्हा
बाय द नाइन गौड्स ही स्वोर ,
दैट इव द इयर वाज ओवर ,
ही सुड बी अ जज एट बांकीपुर । "
इस कविता में बिहार निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा का यशोगान है। ये ' कोप्लेट ' साल १९१० में लिखी गई। लेकिन २२ मार्च , २०११ के दिन जब गांधी मैदान में बिहार दिवस को लेकर भव्य आयोजन किया गया तो उस इतिहास पुरुष का कोई नामलेबा नहीं था। जिन्हें सत्ता के खेल की बारीक समझ है , वे भी , उन्हें भुला दिए जाने पर हैरान हुए । क्या ये सच्चिदानंद ब्रांड बिहारीपन युग के अंत का उदघोष है ?
२२ मार्च को ही , उसी बांकीपुर में , एक नए नायक की जय-जयकार हो रही थी। गांधी मैदान के मुख्य समारोह स्थल पर मौजूद सरकारी लोग ये समझाने की कोशिश में लगे थे की नए युग का आगाज हो चुका है और इसके सूत्र-धार नीतीश कुमार हैं। उत्सवी माहौल का लुत्फ़ उठाने आये आम-जन समारोह स्थल के बीच खड़ी सुनहरे रंग की स्त्री की प्रतिमा को जतन से निहार रहे थे। किसी को मेनहटन के सामने खड़ी " स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी " याद हो आई तो कोई सभा-मंच से हो रहे भाषण के मजमून से, इस स्त्री की आकांक्षा का मिलान करने में मशगूल था। कितने ही चेहरे आश्वस्त हो जाना चाह रहे थे की ये मूर्ति नए बिहार के उदय का प्रति-बिम्ब हो । क्या , सचमुच मुक्ति की गाथा के सपने वहाँ बुने जा रहे थे ? किस दुविधा से मुक्ति चाहिए बिहार को?
जब से बिहार दिवस की तैयारियों ने जोर पकड़ा , तभी से बिहारी उप-राष्ट्रीयता , बिहारीपन और बिहारी अस्मिता जैसे शब्दों की अनुगूंज सुनाई देने लगी। कई लोगों का मानना है कि बिहारीपन का भाव प्रबल नहीं है जिस कारण राज्य में पिछडापन है। सरकार दावा करती है कि उसने बिहारी सोच को जगा दिया है और हमें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। सवाल उठता है कि जब बिहारी अस्मिता पर गर्व करना लोगों को आ गया है, तो फिर इतने बड़े पैमाने का उत्सव क्यों?
खैर , पूरे राज्य में उत्सव मनाया जा रहा है और साल भर ऐसे आयोजन होते रहेंगे। बिहार के सौवें साल का जश्न है ये। निश्चय ही इससे पहले इतने बड़े आयोजन नहीं हुए। बिहार के जीवन में ये नया ' एलीमेंट ' है। ख़याल है कि इससे ' सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग ' पुख्ता होगा। लेकिन राज्य के दुसरे शहरों से जो जानकारी मिली उसके मुताबिक़ समारोह स्थलों पर लोगों से अधिक कुर्सियां नजर आई। जो टीवी चैनलों के सहारे इस जश्न में शरीक होना चाहते थे उन्हें बिजली की बाधित आपूर्ति ने निराश किया।

जन-सहभागिता की इस तल्ख़ वास्तविकता के बाद रुख करें गांधी मैदान का। सरकारी सभा-स्थल पर सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता विराजमान थे। विपक्ष के बड़े नेताओं को बुलाने की जहमत नहीं उठाई गई। ऐसे मौकों पर अन्य राज्यों में विपक्षी नेता को बुलाने का प्रोटोकॉल है। मंच पर स्वास्थय मंत्री अश्विनी चौबे मौजूद थे जिन्हें रंगदारी नहीं देने पर जान से मारने की धमकी मिली हुई है। लेकिन नीतीश अपनी उपलब्धियां गिनाने में लगे थे। मौके पर उन्होंने विशेष राज्य की मांग दुहरा दी ।
सरकार मानती है की विकास हुआ है इसलिए बिहारी होने पर जनता गर्व कर रही है। सरकार का ये भी कहना है कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने से राज्य का और विकास होगा , नतीजतन बिहारीपन की भावना दृढ़ होगी। सर्कार के साथ मीडिया का दुराग्रह भी सामने है जिसे बिहारीपन के विशेष राज्य की मांग में तब्दील होने में कोई राजनीति नहीं दिखता। ऐसे पत्रकारों का आग्रह है कि उत्सव के इन शानदार पलों में डूब जाएँ सब। उन्हें अहसास नहीं कि इस कोशिश में वे नीतीश के गुण-गान को ही पराकाष्ठा पर पहुंचा रहे हैं। ये पत्रकार लगातार इस बात को उछाल रहे हैं कि बिहारी मेहनती, मेधावी और देश को नई राह दिखाने वाले होते हैं । क्या, बिहारी मीडिया का ये वर्ग जताना चाहता है कि दुसरे प्रदेशों के लोग काहिल, भुसकोल, और सामाजिक बदलाव को समझने में नाकाबिल होते हैं ?
बेशक , बिहार में बदलाव हुए हैं । लेकिन इसे अतिरंजित करने में मीडिया झूठ का सहारा भी लेता है। एक उदाहरण काफी होगा । बालिका साईकिल योजना को बिहार की देन बता कर प्रचारित किया जाता है। जबकि असलियत ये है कि ऐसी योजना छतीसगढ़ में पहले से अमल में है। मीडिया के इस फरेब से आत्मा-गौरव कितना मजबूत होगा ..... ये तो वही जाने।
गांधी मैदान में जिस मंच से नीतीश का संबोधन चल रहा था उस पर बिहार दिवस का ' लोगो ' अंकित था जिसके नीचे लिखा था -' हमारा बिहार ' । ये दो शब्द सरकार की ओर से बिहारीपन की ब्रांडिंग के लिए बनाए गए तीन सूत्रों का हिस्सा हैं । लेकिन लोगों के जेहन में तो ब्रांड के रूप में उस सुनहरी स्त्री की आकृति बस गई जो उनकी आकांक्षा को रिफ्लेक्ट कर रही थी । नीतीश ने भी इस प्रतिमा को बड़े गौर से देखा .... जो शायद सवाल कर रही थी कि - हमारा बिहार - कब - अपना बिहार - बनेगा ।
सच्चिदानंद की प्रशंसा वाली कविता को एक बार फिर पढ़ें ....ख़ास कर इसके अंतिम लाइन को । जी हाँ , यहाँ सत्ता और स्वार्थ की गंध है । आज के बिहारी नायकों को इसे जरूर याद रखना चाहिए .... वरना फिर कोई प्रतिमा ' बांकीपुर ' में लगी होगी ....जो किसी युग के अंत का गवाह बनेगी ।
जारी है .....

17.3.11

मिथिला पेंटिंग - पार्ट १

संजय मिश्र
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कोई पांच हज़ार साल पहले की ही बात होगी..... जब आर्य मिथिला में बसने आये। यहाँ की अनुकूल परिस्थितियों और व्यवस्थित जीवन ने उन्हें ज्ञान की मीमांसा के लिए पर्याप्त समय दिया। चिंतन प्रवाह कुलाचें मार रहा था ... यही कारण है कि मिथिला में विद्वान महिलाओं के उदाहरण हमें मिलते हैं। ऐसे ही समय में घर संभाल रही महिलाओं की सोच भीत की सतहों पर फूट पडी। साधारण सी दिखने वाली ये चित्रकारी उनकी कल्पनाशीलता का दायरा दिखने के लिए काफी है। इसमें जहाँ आस्था और सौन्दर्यबोध से मिलने वाली खुशियों का संगम है वहीं जीवन की संगीतात्मकता के परम सत्य से संयोग के दर्शन भी हैं।
मिथिला आज भी कृषि प्रधान समाज है। यही कारण है कि यहाँ के मिजाज में जननी रूप का भाव रचा-बसा है। ये भाव इस चित्रकारी में भी प्रखरता से झलकता है। जहाँ बंगाल की ---अल्पना -- में तंत्र की प्रधानता है वहीं मिथिला चित्रकला --प्रतीकात्मक -- है। ये प्रतीक यहाँ के ग्रामीण जीवन की व्यवहारिक तस्वीर दिखाते हैं साथ ही आपको कल्पना लोक में भी ले जाते हैं।
-सुग्गा- को प्रेम दिखाने के लिए उपयोग किया जाता है जबकि - मोर - प्रणयलीला का परिचायक होता है। वहीं - बांस, केला का पेड़ और कमल का फूल - ये तीनो ही उर्वरता के प्रतीक हैं।
इस चित्रकारी में प्रयोग किये जाने वाले रंग मिथिला की वानस्पतिक सम्पदा से ही निकाले जाते हैं। सिंदूरी रंग का स्रोत -कुसुम का फूल- है जबकी लकड़ी को जला कर काला रंग बनाया जाता है। पलास के फूल से पीला रंग निचोड़ा जाता है तो हल्दी से गहरा पीला रंग बनाया जाता है। हरी लतिकाओं से हरा रंग निकाला जाता है। सुनहरे रंग के लिए केले के पत्ते का रस , दूध और नीबू के रस को मिलाया जाता है। रंगों को घोलने के लिए बकरी का दूध और पेड़ों से निकलने वाले गोंद का इस्तेमाल किया जाता है।
ये रंग कई बातों को इंगित करते हैं। पीला रंग- पृथ्वी, तो उजला रंग - पानी को दर्शाता है। हवा को काले रंग से दिखाते हैं वहीं लाल रंग - आग- का परिचायक होता है। नीला तो आसमान ही होता है। दिलचस्प है कि ब्राह्मण स्त्रियाँ चित्रकारी करने में लाल, गुलाबी, हरे, पीले और नीले रंग को पसंद करती हैं जबकि कायस्थ महिलाओं को लाल और काला रंग विशेष भाता है।
उपरी तौर पर इस चित्रकारी के विषय धार्मिक लगते हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएँ इसमें दर्शायी जाती हैं। राधा और कृष्ण की लीला को एक वृत में दिखाया जाता है जो जीवन चक्र का संकेत है। इलाके में प्रचलित त्योहार और विधि-विधान भी इसमें जगह पाते हैं। लेकिन दैनिक जीवन की सच्चाई इसके पोर-पोर से झांकती रहती है।
एक मैथिलानी का जीवन दर्शन और उसकी आकांक्षा का प्रस्फुटन मिथिला चित्रकला का मूल स्वर है। स्त्री घर की उन्नति का वाहक मानी जाती है इसलिए लक्ष्मी को बार बार दर्शाया जाता है। विवाह को बांस के पेड़ से दिखाया जाता है तो गर्भ का प्रतीक -सुग्गा- होता है। वहीं नवजात को बांस के पल्लव से दिखाते हैं। इस चित्रकला में आँखों को वृतात्मक और नुकीला रखा जाता है। ये चित्रकारी कौशल हाल के समय तक पीढी - दर- पीढी माँ से बेटी को मिलती रही।
साल १९६७- के बाद ये चित्रकारी परम्परा भीत की दीवारों से उतार दी गई। अकाल से पस्त जन-समूह को रोजगार के अवसर देने के लिए इस चित्रकारी को व्यवसाय बनाया गया। तब से लेकर अब तक कितने ही प्रयोग किये गए। अब तो इसके पवित्र स्वरूप के दर्शन भी मुश्किल से हो सकते। सबसे बड़ा असर तो ये है कि अब कलाकार इस परंपरा को महसूस नहीं करता बल्कि सीखता है।

26.2.11

पेड़ न्यूज से आगे....

संजय मिश्र
१०, जनपथ उलझन में है। सत्ता का गुरूर टूटा है। जिस दलदल में कांग्रेस-नीत सरकार फंसी है उससे उबरने के रास्ते सीमित हैं। बिहार चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जिन मुद्दों के सहारे वो चुनाव में उतरी ...वो बैतरनी पार करने में नाकाफी साबित हुई। इस बीच घोटालों की बौछार ने उसे बेदम करने में कोई कसर नहीं छोडी । मजबूर कांग्रेस ने अब छवि सुधारने की कोशिशें तेज कर दी है।
ये मुहिम दो स्तरों पर है और इसे हिंदी पट्टी के सभी राज्यों में आजमाया जा रहा है...पहला संगठनात्मक स्तर पर और दूसरा नीतीश शैली की मीडिया मैनेजमेंट के जरिये। संगठन को कहा गया है कि वो केंद्र सरकार के उद्देश्यों और घोटालों पर पार्टी की राय को लोगों के बीच स्पष्टता से उजागर करे। कांग्रेस का थिंक-टैंक छवि निर्माण को बेहद अहम् मान रहा है। यही कारण है कि मीडिया के वशीकरण के नीतीश के फार्मूले को तबज्जो दिया जा रहा है।

पार्टी को अहसास है कि छवि बनाने में नीतीश ने मीडिया का किस खूबी से इस्तेमाल किया। हालत ये है कि बिहारीपन के प्रकटीकरण में जुटी मीडिया के सारे प्रयास अपने आप नीतीश की आभा से तारतम्य स्थापित करते नजर आ रहे। यहाँ तक कि किसी बिहारी की व्यक्तिगत उपलब्धि के किस्से मीडिया में इस तरह परोसे जारहे मानो ये सब नीतीश के कारण ही हासिल हुआ हो।
ज्यादा पीछे जाने की जरूरत कहाँ.....यही कोई एक-डेढ़ साल पहले नीतीश ने पत्रकारों से बिहार की छवि निखारने की गुजारिश की थी। पत्रकार गदगद हुए। नीतीश सरकार के " पी आर " के रोल में अपने को फिट करने में इन्हें कोई झिझक नहीं हुई। पत्रकारों का इस तरह निहाल होना समाज के लिए बड़ी खबर थी। ये सदमा देने जैसी थी।
राम विलास पासवान जैसों का मानना है कि नीतीश की " लार्जर देन लाइफ इमेज " बुलबुला है जो कि फूटेगा। कांग्रेस को लगता है कि ऐसा होने में समय भी लगता है और ये अक्सर " रिजनल क्षत्रपों ' पर असर डालता है। कांग्रेस की छवि का बुलबुला भी फूट सकता है। इस पर कांग्रेसी रणनीतिकार सचेत हैं और मान कर चल रहे हैं कि इसको बर्दाश्त करने के लिए उसके पास विशाल संगठन है। वैसे भी कांग्रेसी कवायद अगले लोक-सभा चुनाव के मद्देनजर है जिसकी ट्रेलर यूपी चुनाव में दिखेगी । पार्टी समझती है की राहुल की ताजपोशी के लिए हिन्दी पट्टी में स्वीकार्यता जरूरी है। यही कारण है कि सकारात्मक छवि निर्माण पर भरोसा जताया गया है।
जानकारी के मुताबिक़ हिन्दी पट्टी के स्थापित रिजनल न्यूज चैनलों से " डील " की गई है । ये चैनल मनरेगा, प्रधान-मंत्री ग्रामीण सड़क योजना , इंदिरा आवास, इंदिरा गांधी वृधावस्था पेंशन जैसी योजनाओं पर स्टोरी बनाएँगे और न्यूज स्लॉट में दिखायेंगे । ये विशेष ख़बरें सकारात्मक होंगी। इनका टोन सफलता की कहानी जैसा होगा। ये दिखाया जाएगा कि वंचितों के जीवन में इन योजनाओं के कारण कैसे खुश-हाली आई है।
जोर इस बात पर है कि इन योजनाओं के तहत जो भी निर्माण कार्य हुए हैं या हो रहे हैं , उसके अच्छे हिस्से को दिखाया जाए। जहाँ काम बंद है वहां स्थानीय मुखिया की मदद से कैमरे के सामने काम होता दिखाया जा रहा है। मजदूरों को ये बताना होता है कि कैसे उनकी किस्मत बदली है। इन मैनेज्ड स्टोरीस के लिए रिसर्च टीम है। रिसर्च टीम के प्रमुखों को कान्ट्रेक्ट पर लाया गया है जो संभवतः केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय से टिप्स पाते हैं।
खबर के मुताबिक रिजनल न्यूज चैनल के सबसे बड़े खिलाड़ी को बिहार सहित सात राज्यों का जिम्मा मिला है। इसके एवज में चैनल को ६० करोड़ रुपये मिलेंगे। एक अन्य स्थापित हिन्दी चैनल को छः राज्यों की जिम्मेवारी सौंपी गई है। इस चैनल के साथ ४० से ५० करोड़ के लेन-देन की बात है। इसके अलावा एक भोजपूरी चैनल को दो राज्यों में काम सौंपा गया है। उसे २० से ३० करोड़ के बीच मिलेगा। स्टोरी के स्तर पर खासा ध्यान रखा जा रहा है जिस कारण इन चैनलों की प्रोग्रामिंग टीम के सदस्य शूट पर निकल रहे हैं।
जी हाँ ! ये पेड़ न्यूज से आगे की शक्ल है जो अखबारों के साथ चैनलों में भी झाँक रहा है। यहाँ राजनीतिक चेहरों के आख्यान की जगह आम आदमी की खुश-हाली का विमर्श है। इसमें स्वार्थ और छल का सामाजीकरण किया जाता है। ये मानवीय दिखता है लिहाजा " डिसेपटिव " है। आपको अख्यास हो गया होगा कि चैनलों के खांटी स्वभाव को बदलने के किसिम-किसिम के दखल कितने रंग लाने लगे हैं।
याद करिए अर्जुन सिंह के मुख्या-मंत्रित्व काल को। इस दौरान सरकार को सकून देने देने की जिस पत्रकारिता के बीज बोये गए अब उसका प्रचंड विस्तार सामने है। मध्य भारत में इस विकृति को " विकास की पत्रकारिता " कही गई। पत्रकार जमात के चतुर खिलाड़ी खूब फले-फूले। पंजाब को भी याद करना चाहिए जहां पत्रकारिता की कब्र खोदने के लिए नए-नए प्रयोग हुए।
हिन्दी पट्टी के अन्य राज्यों की बनिस्पत बिहार में " चेस्ट ' पत्रकारिता होती रही। लेकिन यहाँ पत्रकारिता का मौजूदा कोलाहल अशांत करने वाला है। बिहार की स्थापना के सौ साल होने वाले हैं। इसके लिए जश्न का माहौल बनाया जा रहा है। तैयारी के मिजाज को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकारी और गैर-सरकारी आयोजनों की श्रुंखला सामने आते जाएँगे और बिहारी अस्मिता का " ओवरटोन " मजबूत उपस्थिति दर्ज करता जाएगा । मीडिया में भी इसको लेकर उन्मादी सक्रियता है। लेकिन आशंका है कि मीडिया के इस उत्साह का जश भी नीतीश उठा ले जायेंगे। ये आशंका इसलिए भी है के बिहारी मीडिया का बड़ा हिस्सा नीतीश में चाणक्य और चन्द्रगुप्त के समवेत स्वरूप दिखाने का आदी हो चला है। जबकि इस पेशे में बे-ढव बन चुके समझदार लोग टुकुर-टुकुर ताकने को बाध्य हैं।
इस दारुन परिदृश्य के निहितार्थ हैं। पत्रकारिता " हर क्षण के इतिहास का गवाह " नहीं रहा.....अब वो इसका साझीदार है। समाज और घटना के बीच " इंटरफेस " की बजाय पत्रकार अब कारक हैं। अब आप कुत्ते को नहीं काटेंगे तो भी न्यूज बनेंगे। पानी में रहकर नहीं भींगने की कला दम तोड़ रही है। पत्रकार अब पानी में भींग भी रहे हैं और नंगे भी हो रहे हैं। वे इतने से संतुष्ट नहीं कि पत्रकारिता उन्हें " रिफ्लेक्टिव पावर " देती है....चांदनी जैसी आभा। अब वो सूरज की तरह ना सही , उल्का पिंड की रौशनी के लिए ठुनक रहा है।
नतीजा सामने है। कई पत्रकार खूब पैसे पा रहे हैं। वे " ब्रांड " भी बन रहे हैं। इन्हें देख बांकी के पत्रकार आपा-धापी में हैं। सफल होने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार। ये बात उन्हें नहीं सालती कि वे खुद न्यूज बन रहे हैं।
कांग्रेस को पत्रकारिये कौशल के इस अवतार पर खूब भरोसा है। उसे पता है कि दिल्ली के नाम-चीन पत्रकारों ने एक दिन में ही मंदी को कैसे छू-मंतर कर दिया था। याद है ना पिछली दिवाली। भूल गए हों तो दिवाली के अगले दिन के अखबार फिर से पलट लें । दिल्ली के इन पत्रकारों की माया देखिये पिछले लोक-सभा चुनाव से लेकर झारखण्ड चुनाव तक मंदी, महंगाई, काला-धन कभी मुद्दा नहीं बन सके। तब दिल्ली की सत्ता खूब खिलखिलाई थी । झारखण्ड चुनाव के पांच-दस दिनों बाद ही महंगाई सुर्खियाँ बनने लगी। अब बारी है रिजनल मीडिया के भरपूर दोहन की।

कई लोग मानने लगे हैं कि चौथा खम्भा जैसा कुछ नहीं होता। कहीं ये आर्त-नाद तो नहीं ? मानो कोई बूढा व्यक्ति बीच सड़क पर चीख-चीख कर कह रहा हो ....कि उसका बाप मर गया ....आस-पास जमा अपेक्षाकृत जवान लोग फूस-फुसा रहे हों कि ये तो खुद बूढा है...फिर किस बाप के लिए विलाप कर रहा है...इनके बीच से बेपरवाह लाल-बत्ती मचलती हुई गुजर रही होगी....
कल को कोई पत्रकार ये पूछे कि पत्रकारिता क्या है तो ...हे लोकतंत्र के " लोक " आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए ?...

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