life is celebration

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24.12.12

आम आदमी पार्टी से क्यों मची है हलचल?
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संजय मिश्र
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पिछला साल अन्ना का रहा तो साल 2012 पर अरविन्द केजरीवाल छाए रहे। लोकपाल बिल पास नहीं होने और केजरीवाल के चुनावी राजनीति में कूद पड़ने के बाद माना जाने लगा की पारंपरिक राजनीति पर आन्दोलनों का संकट टल गया है। पर घाघ राजनेताओं का अमर्यादित सार्वजनिक व्यवहार चीख-चीख कर कह रहा कि संकट टला नहीं है उलटे इसका असर पड़ा है। मणि शंकर अय्यर का सांसदों को जानवर कहना पोलिटिकल क्लास के मन की हलचल बयां करता है। पेश है बीत रहे साल में केजरीवाल की यात्रा पर एक नजर --

साधारण कद-काठी, हाफ शर्ट और पैंट पहना एक व्यक्ति जब दिल्ली के गैर-संभ्रांत इलाके की गलियों में हाथ में पिलास लिए बिजली कनेक्शन जोड़ने आ धमकता है तो लोग-बाग़ खिंचे चले आते हैं ... कानून टूटने के डर से निर्विकार। दिलासा देने की जरूरत कहाँ रह जाती है सहट कर आ जाती इस औसत भीड़ को ... न कोई उत्पात और न ही हिंसा ... बस लोगों के मानस पटल पर फ़ैल जाती राहत की प्रखरता। ये राजनीति का नया स्वाद है ... सुखद आश्चर्य बिखेरती ... सुच्चा देसी ग्रामर। इस दस्तक से इंडिया की एलीट हो चली राजनीति असहज है।

अब तक आप समझ गए होंगे कि बात केजरीवाल की ही हो रही है। घनी मूंछों के नीचे से झांकती निश्छल मुस्कान और पैर में साधारण सा चप्पल। मोटी - मोटी फ़ाइल कांख में दबाए यही व्यक्ति जब प्रेस कांफ्रेंस करने पहुँचता है तो उसी एलीट राजनीतिक वर्ग को इसकी धमक सुनाई देती है ... न जाने इस बार किसकी बारी हो। रिपोर्टरों को उनके संपादक नसीहतें दे कर भेजते, निरंतर उनसे संपर्क में रहते कि कब कौन से सवाल करने हैं? होम-वर्क कर आए रिपोर्टर के जेहन में ये बात घुमड़ती रहती कि वो ऐतिहासिक पलों को कवर करने आए हैं। लिहाजा दिल और दिमाग ... दोनों से सवालों की बौछार निकलती ... और अगले कई घंटों तक टीवी स्टूडियो इन बातों पर रणनीति बदल- बदल कर विमर्श करने को मजबूर होते।

केजरीवाल और उसकी टोली से न चाहते हुए देश के नियंता व्याकुल हो चले हैं। बौखलाहट इतनी कि उन नेताओं, संयमी भाषा बोलने के आदी बुजुर्ग पत्रकारों और विशफुल दुनिया में रहने वाले बुद्धिजीवियों की जुबान  फिसलने लगी हैं। कभी कोई माखौल उडाता तो कभी नसीहतें देता। दिलचस्प है कि 65 साल के कथित इंडिया में किसी राजनीतिक शख्स को इतनी नसीहतें नहीं दी गई जितनी केजरीवाल की झोली में गई हैं। सवाल उठता है कि ये देश सुहाना क्यों नहीं बन पाया जहां सलाह देने वालों की इतनी बड़ी तादाद है? क्या वे अन्दर से हिल गए हैं?

पारंपरिक राजनीति वाले तो पहले ही खौफजदा हुए ... 16 अगस्त 2011 को ही। आन्दोलन का संकट इतना भारी पड़ा कि लग गए चक्रव्यूह में। सत्ता की माया से जुड़े बाकि के मशविरा देने वाले लोग दरअसल उसी व्यूह के बाहरी फ्रंट हैं जो केजरीवाल को आफत मानते उसकी यात्रा को थाम लेना चाहते। व्यूह रचने वाली कोर जमात को भरोसा है अपने निर्लज्ज राजनीतिक कौशल पर। वे चाहते कि जैसे-तैसे केजरीवाल पारंपरिक राजनीति की चाल में उलझें ... जो नए राजनीतिक बिंब केजरीवाल ने गढ़े हैं वो ध्वस्त हों। फिर तो राह आसान हो जाए।

ये बिंब क्या हैं जो आसानी से लोगों के दिमाग में घुस जाते? एक उदाहरण काफी होगा -- जनता मालिक है, नेता उसके नौकर (सेवक) -- इस नारे की मारक क्षमता से तिलमिला जाते राजनेता। याद करें कैसे वे कहते कि - सड़क के लोगों को बड़े लोगों ( मंत्रियों ) के साथ लोकपाल के लिए वार्ता की मेज पर बिठाया। खैर जमीनी सच ये है कि आम आदमी का नारा देने वाले पुराने राजनीतिक ध्रुव  को आम आदमी के नए पैरोकार से चुनौती मिल रही है। आम आदमी पार्टी ये समझाने में कामयाब हो रही कि देश में चल रही कल्याणकारी योजनाएं जनता पर उपकार नहीं बल्कि ये तो सरकारों की मौलिक जिम्मेदारी है।

देश में ये संदेश खुलकर जा रहा कि केजरीवाल ने राजनीति को हिम्मत दी है। इसने मौजूदा राजनीति की उस आपसी समझ को तोड़ा है जो ये मान कर चलता कि राष्ट्रपति, सोनिया और उसके परिजन, बाजपेयी और उसके परिजन, अंबानी और टाटा जैसों को सार्वजनिक तौर पर चुनौती नहीं दी जाए। मीडिया भी हैरान हुआ कि जिसे छूने से वो डरता रहा उस पर लगे केजरीवाल के आरोपों की कवरेज का उसे मौका मिलने लगा।

हम राजा, हम महराजा की मानसिकता की कलई खोलने तक बात सीमित नहीं है। ग्राम स्वराज को सुदृढ़ आकार देने पर फोकस है इन नए खिलाड़ियों का। गाँव भारत की संरचना का मूल आधार है। गाँव में सभी जाति और वर्ग के लोगों के बीच सामूहिकता के भाव को पारंपरिक राजनीति ने क्षत-विक्षत कर दिया। स्थानीय योजनाएं ग्राम-सभा से बनें और इसी के संरक्षण में कार्यान्वित हों साथ ही अहम् मसलों पर पंचायत स्तर पर रेफरें-डॉम की व्यवस्था की केजरीवाल की मांग से सहम गया है घाघ नेताओं का वर्ग। उसे भय है कि इस रास्ते चीजें चली तो विभिन्न वर्गों के बीच साझेदारी का अहसास बढेगा जो बांटने और राज करने की प्रवृति पर अंकुश लगाएगा। दिल्ली और राज्य की राजधानियों के हुक्मरान सकते में हैं कि इस तरह के विकेन्द्रीकृत सत्ता केंद्र से क्षेत्रीय विषमता का दंश भी कुछ हद तक कम होगा। और तब न नरेगा और न ही विशेष पैकेज जैसे मुद्दे जादुई छडी रह जाएंगे।

किसी राजनीतिक प्रयास को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अनुकूल माहौल ( जनमत) के अलावा कम से कम चार प्रमुख तत्वों की दरकार होती है। ये हैं--दर्शन (यानि वैचारिक आधार ), संगठन ( यानि उस वैचारिक आधार का वाहक ), कार्यक्रम (जिसमें कि दर्शन झांकते रहते ) और जनसहभागिता (यानि जिनके लिए आंदोलन किया जा रहा उनकी भागीदारी)। इसके इतर नेतृत्व क्षमता की परख तो होती ही रहती है हर पल ... सरकारी दाव-पेंच से पार पाने में।

केजरीवाल ने ये कहा है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष जैसा कोई पद नहीं होगा। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उससे लगता है कि वाम दलों की केंद्रीय कमिटी जैसा ही समझदार लोगों का ग्रुप होगा जो किसी मसले पर पंचायत स्तर से छन कर आए रुझानो पर आख़िरी राय रखेगा। बीजेपी और वाम दलों को छोड़ कर देश के तमाम राजनीतिक दल व्यक्तिवादी (प्रजातांत्रिक तानाशाही ) नेतृत्व के आसरे चल रहे हैं। पब्लिक का माय-बाप होने वाली संस्कृति के वे पोषक हैं।

केजरीवाल ने जो पासा फेका है वो अलग नजरिया पेश करता है। उनकी नेतृत्व शैली में लोगों को प्रभावित करने और लोगों की समझ और परिवेश से खुद प्रभावित होने की ललक है। इसकी गूँज फ़ैल रही तभी तो घबराए पारंपरिक नेताओं का ख़ास तबका केजरीवाल पर ही तानाशाह होने का आरोप मढ़ रहे। इस तरह के आरोप जान-बूझ कर लगाए जा रहे ताकि केजरीवाल के चाहनेवाले भ्रम की स्थिति में रहें। इन हमलों से बेफिक्र आम आदमी पार्टी उन क्रियाकलापों में लगा है जहाँ लोगों को स्वेछा से सामूहिक लक्ष्य की दिशा में प्रयास के लिए मनाया जाए।

अरविन्द करिश्माई लीडरों से अलग दिखना चाहते। पर उनकी सादगी ( ममता बनर्जी की तरह) लोगों को उस हद तक मोहती है जो करिश्मा का डर पैदा करती। लाल बत्ती जैसे श्रेष्ठता ज़माने वाले सरकारी लाभ से तौबा साथ ही ये कहना कि धंधे या लाभ के लिए उनकी पार्टी से न जुड़ें लोग ... शहरी मध्य वर्ग और ग्रामीण आबादी को एक जैसा आकर्षित करते हैं। समस्याओं को उठाना और हल सुझाना पॉलिटिकल क्लास और उनके चहेतों की वेदना बढाता है।

ये अकारण नहीं है कि आम आदमी पार्टी से विचारधारा और आरक्षण जैसे मसलों पर स्टैंड साफ़ करने वाले सवालों की झरी लगाई जाती है। मकसद ये कि या तो केजरीवाल मौजूदा खांचे वाली राजनीति की कुटिल चाल में फांस लिए जाएं या फिर स्टैंड साफ़ नहीं करने पर एक्सपोज किये जाएं। इस देश में माइनिंग नीति की खामियों पर माओवादियों के बाद सबसे ज्यादा मुखरता केजरीवाल के लोगों ने दिखाई है। इसके अलावा अलग-अलग मुद्दों पर जो स्टैंड लिया गया है उससे साफ़ है कि राजनीति के ये नए खिलाड़ी जातिवादी और धर्म की राजनीति के पचरे से दूर जनवादी राष्ट्रवाद की ओर चल पड़े हैं।

केजरीवाल की राजनीति को तरह-तरह से देखा जा रहा है। कहा जा रहा कि वो मीडिया का काम आसान कर रहे ... ये कि वो वोटरों की सोच समृद्ध कर रहे, ये भी कि वो मेधा पाटकर और अरुंधती की जन हस्तक्षेप वाली रीति-नीति को व्यापकता दे रहे ... वो प्रोजेक्ट वर्क की तर्ज पर चलते .. वगैरह-वगैरह। पर गौर करें तो हिट एंड रन से आगे का सफ़र तय हो चुका है। जन हितैषी राजनीति का अजेंडा अब सामने है।

देश के तमाम दल गठबंधन की मजबूरी के नाम पर मुद्दा आधारित राजनीति ही तो कर रहे। ऐसे में मुद्दों पर आधारित केजरीवाल की राजनीति कुछ सालों तक प्रासंगिक रह ही सकती है। पारंपरिक राजनीति और देश के मानस के बीच एक तल्खी है। देश का बड़ा वर्ग विचारधारा की जगह विचारों के युग में जी रहा है। पारंपरिक राजनीति उपरी तौर पर तो विचारधारा के आग्रही दिखने में लगे रहते हैं पर हर दिन गवाह बनता है इनके मोल-भाव और लेन -देन की राजनीति का। ऐसा जब तक चलेगा आम आदमी पार्टी इनकी चिंता बढाती रहेगी।

ये कितना सफल होगा फिलहाल आंकना कठिन है। सात्विक आंदोलनों की कोख से जन्मी है ये। लिहाजा दाव-पेंच और चुनावी अखाड़े में कितनी ही बार फिसलने का खतरा बना रहेगा। दिल्ली विधान सभा चुनाव इसके लिए परीक्षा की घड़ी होगी। आम आदमी मेंगो पीपुल वाले डकार से आहत तो है पर वो सकते में है ... क्योकि असल परीक्षा की घड़ी उसकी आई है ... वो भद्र छवि वाली मीरा कुमार को भी चुन लेता है ... साथ ही शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जैसों को भी जिता देता है। यानि फर्क करने का समय आ गया है ....केजरीवाल आम आदमी के मन में मची ऐसी हलचल से थोड़ा मुस्करा सकते हैं।

3.12.12

दम तोड़ने की कगार पर खड़ा है खादी उद्योग

बिहार में खादी की दुर्दशा पीड़ादायक है। केंद्र सरकार के खादी कमीशन और बिहार सरकार के खादी बोर्ड से जुड़े कई संस्थाएं हैं जो उपेक्षा के कारण नाम के लिए चल रहे हैं। बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ की इकाइयाँ खादी कमीशन से संबद्ध हैं। पर कमीशन की तरफ से रिबेट मिलना बंद हो गया है। ले देकर बिहार सरकार की ओर से दस फीसदी का रिबेट मिलता है। लेकिन रिबेट का पैसा भी कई सालों का बकाया है। आय के साधन नहीं ... समस्याओं के मकडजाल से निजात दुरूह है। संघ की दरभंगा इकाई के बहाने खादी की दुर्दशा की पड़ताल करती ये रिपोर्ट .....

दम तोड़ने की कगार पर खड़ा है खादी उद्योग
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संजय मिश्र
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.... सूत का हर धागा जो मैं कातता हूँ उसमें मुझे ईश्वर दिखाई देते हैं .... खादी व्यावसायिक युद्ध की जगह व्यावसायिक शांति का प्रतीक है .... ये भारत की आर्थिक आज़ादी का बाहक है ....
महात्मा गांधी ने जब ये बातें कही होगी तो उन्हें रत्ती भर अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनके सपनों के भारत में
खादी बदहाली की दास्तान लिखने को मजबूर होगी। गांधी की इन उत्कट आस्था से बेखबर और  अनमन-यस्क दरभंगा जिला खादी ग्रामोद्योग संघ परिसर में आज सन्नाटा पसरा है। न तो चरखे की घर्र- घर्र और न ही उत्पादन से जुडी कोई चहलकदमी।  माहौल में सताती भविष्य की दुश्चिंता और थम कर निकलते निःश्वास के बीच एक इंतजार कि कहीं से सहायता के कोई हाथ उठ जाएं।

खादी भंडार नाम से मशहूर बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ की दरभंगा इकाई ने इतनी विकलता कभी न देखी। हाल में यहाँ के कर्मी धरने पर बैठे। इनकी वेदना ख़बरें बनी तो आस जगी पर जिन्दगी फिर उसी पटरी पर। बाईस कठ्ठे के परिसर में फैले इस परिसर में कभी ढाई सौ कर्मी अपना कौशल दिखाते थे। नील टीनोपाल में धुले झक झक करते खादी के कपडे पहने लोगों की अलग ही दुनिया बसती थी। विपत्ति की मारी महिलाओं का आँखों में उम्मीद लिए यहाँ चरखा कातने के अवसर की तलाश में आना, ट्रकों से अनलोड होता कच्चा माल, फिनिश्ड उत्पादों को खादी के शो रूम ले जाने की गहमा-गहमी और उत्कंठा बढ़ाते स्वाधीनता सेनानियों की आवा-जाही। सादगी के बीच भव्यता के भाव का ये अहसास एम एल अकेडमी चौक ने सालों तक महसूस किया। चौक पर उठने-बैठने वाले लोग आज खादी भण्डार की दुर्दशा का गवाह हैं।

कांति -विहीन हो चुके इस परिसर में विवशता की टीस झेलते 7-8 परिवार ही रह गए हैं। मेस बंद, चरखे गोदाम में, उत्पादन लगभग ठप। एक मात्र आसरा बिक्री केन्द्रों का। बिक्री प्रभारी शिवेश्वर झा कहते हैं कि शहर में स्थित चार में से दो बिक्री केन्द्रों को दूकान का किराया नहीं चुका पाने के कारण बंद कर देना पड़ा। केंद्र सरकार के खादी ग्रामोद्योग कमीशन से संबद्ध इस संघ की जिले में 32 इकाई थी। अब ये संख्या 24 पर सिमट आई है। संघ के संयुक्त मंत्री नन्द किशोर लाल दास के मुताबिक इनमें से दस केंद्र ऐसे हैं जहाँ एक भी स्टाफ नहीं है। पूरे जिले की संघ की गतिविधि 28 स्टाफ के आसरे जैसे-तैसे चल रही है। स्टाफ विहीन होने के कारण कई केंद्र लैंड माफिया के चंगुल में आ गए हैं।

ये नौबत क्यों है? आंकड़ों के सहारे समझने की कोशिश करें। खादी कमीशन के अंतर्गत ऊनी और सिल्क के देशव्यापी उत्पादन की ग्रोथ रेट छह फीसदी के आस-पास रही। ये आंकड़े साल 2009 से 2012 के बीच के हैं। जबकि इसी अवधि में कमीशन को केंद्र सरकार की सहायता राशि में पचास फीसदी से भी ज्यादा का इजाफा हुआ। यानि इन पैसों का सही दिशा में उपयोग नहीं हो रहा। दरभंगा का खादी संघ कमीशन से पैसों की सहायता के लिए तरस रहा है। अब यहाँ के आंकड़े देखें। साल 2000 के मुकाबले साल 2011 के बीच उत्पादन, बिक्री और रोजगार सृजन साल दर साल घटता ही रहा।

टेबल -
                                             दरभंगा खादी संघ
                                             साल - 2000                                साल - 2011
उत्पादन                                65.66 लाख रूपये                         9.03 लाख रूपये
बिक्री                                     78.34 लाख रूपये                         20.40 लाख रूपये
रोजगार सृजन (स्टाफ)          112                                              28

                                              खादी कमीशन (मुंबई)
                                              साल - 2000                                साल - 2005
उत्पादन                                 431.5 करोड़ रूपये                        461.5 करोड़ रूपये
बिक्री                                      570.5 करोड़ रूपये                        617.8 करोड़ रूपये
रोजगार सृजन                        9.5 करोड़                                     8.6 करोड़


ऊपर से केंद्र सरकार ने रिबेट देना बंद कर दिया है। फाइलों को खंगालते खादी भण्डार के अका-उन-टेंट राज कुमार बताते हैं कि अभी 35 लाख की देनदारी है। इसके अलावा वेतन और ई पी एफ के लिए पैसे जुटाने पड़ते हैं। उत्पादन के लिए कच्चा माल चाहिए और उसके लिए चाहिए पैसे। कमीशन का मोहम्मदपुर और सकरी में रुई का गोदाम था जहाँ से रियायत में कच्चा माल मिल जाता था। साल 1998 में ये गोदाम बंद कर दिए गए। फिलहाल कमीशन के ही हाजीपुर स्थित टेप पूनी प्लांट से नकद में पूनी की खरीद हो रही है।  टेप पूनी के जरिये संघ के दोघरा, सिंह-वाड़ा  और मोहम्मदपुर यूनिट में कपडे का उत्पादन  होता है। इसके अलावा बिरौल केंद्र में सूत कटाई होता है। बाकि जगहें उत्पादन पूरी तरह ठप है। 

पहले उत्पादन अधिक था तो देश भर में यहाँ का माल जाता था। उस कमाई का एक हिस्सा  बाहर से ऊनी कंबल मंगवाने के काम आता था जो यहाँ के बिक्री केन्द्रों पर बेचे जाते। अभी कंबल की खरीदारी नहीं के बराबर है। तेलघनी, बढईगिरी और अन्य उद्योग भी बंद हो गए हैं। समस्याएँ और भी हैं। खादी कमीशन ने 1972 में रोजगार सृजन के लिए संघ की जिले भर की अचल संपत्ति के एवज में 2 करोड़ का लोन दिया था। अब इस कर्ज की राशि लौटाने का दबाव बनाया जा रहा है। अपग्रेडेड चरखे की कमी और स्किल्ड लेबर का अभाव तो झेलना ही पड़ रहा है। खादी भण्डार के कर्मी सुनील राय बताते हैं कि यहाँ के काम की समझ के बावजूद स्टाफ के बच्चे इस पेशे में नहीं आना चाहते।

निरंजन कुमार मिश्र - मंत्री , बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ , दरभंगा
- पैसे की कमी आड़े आ रही है। केंद्र ने साल 2010-11 से रिबेट देना बंद कर दिया है। जबकि बिहार सरकार ने रिबेट 20 फीसदी से घटा कर 10 फीसदी कर दिया है। केंद्र की करीब 22 लाख और बिहार की करीब 18 लाख रूपये रिबेट की राशि का भुगतान हमें नहीं हुआ है। बावजूद इसके उत्पादन की रुग्णावस्था से पार पाने की हम कोशिश कर रहे हैं।



18.11.12

आस्था के आसरे बाज़ार को चुनौती देने की कोशिश

आस्था के आसरे बाज़ार को चुनौती देने की कोशिश
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संजय मिश्र
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जै ज़माना मे दुनिया बनले ... कहै छै जे परकृति माए अपन देह के बांटि लेलखिन ... छठम अंश जे भेलै से छठी माए भेलखिन .....बूढ़ पुरनिया इहो कहै छै जे ओ ब्रह्मा के मानस पुत्री छलखिन ... जे से ... हिनकर पूजा केला स बच्चा सबहक रक्षा होई छै .... कतेक खिस्सा कहब। इस किस्सागोई के बीच कोनिया का एक हिस्सा आकार ले चुका था। लम्बी सांस छोड़ने के बाद वृद्ध कारीगर के हाथ फिर से बांस करची पर फिसलने लगे। बीच-बीच में सड़क की ओर नजर जाती। टक -टकी इस तरफ कि पिछले साल की तुलना में इस साल कितना ऑर्डर आ रहा है। दरभंगा के भटियारी सराय के बांस के कामगार बताते हैं कि खरीदारी सामान्य चल रही है। ये जानते हुए कि सेमी-फाइबर सूप (डगरा ) और पीतल के कोनिया से इन्हें चुनौती मिल रही है ... ये बांस को कलात्मक अभिव्यक्ति देने में मग्न हैं।

शहर के बीच में स्थित इस गाँव में करीब पच्चीस लोग इस पुश्तैनी काम को अंजाम देने में लगे हैं। लक्ष्मण मल्लिक बताते हैं कि कोनिया, सूप, चंगेरा, बड़ा चंगेरा( जिसे दौड़ा भी कहते हैं ) की सामान्य बिक्री हो रही है। कोनिया 25 से 35 रूपये में जबकि दौड़ा 100 रूपये में। बांस की करची से बना पथिया 100 रूपये में बिक जाता है लेकिन इसकी डिमांड में तेजी नहीं है। कच्चा माल के रूप में बांस, रंग, और अन्य सजावटी सामान की इन्हें खरीद करनी पड़ती है। एक हरौथ बांस 250 रूपये में आता है।

बारह साल के नाती प्रहलाद को कारीगरी की बारीकी समझाते हुए लक्ष्मण कह उठते हैं कि 300 रूपये में लोग पीतल का कोनिया खरीदते हैं। ज्यादा खर्च करने वाले इसे खरीदने लगे हैं और साल-दर-साल इसका इस्तेमाल करते हैं। उधर चमक-दमक में यकीन रखने वाले प्लास्टिक ( सेमी-फाइबर ) सामान लेने लगे हैं। प्लास्टिक का सूप 125 रूपये में मिलता है। लेकिन आस्थावान लोग पारंपरिक विचारों को अहमियत देते हैं। मुस्कुराते हुए लक्ष्मण कहते हैं कि -- हमर सबहक हाथ सं बनल बांसक समान शुद्ध मानल ज़ाई छै ... बांसक समान बंश बढबैत छै। शायद इस सोच में ही इन कारीगरों की उम्मीद बची है। प्रहलाद के मुताबिक़ पढ़-लिख कर नौकरी करेंगे लेकिन पुश्तैनी धंधा सीखने में क्या हर्जा है?

10.11.12

चिंता न करें जेठमलानी इसी देश में मिथिला भी है।

चिंता न करें जेठमलानी इसी देश में मिथिला भी है।
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संजय मिश्र
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जेठमलानी के राम संबंधी बयान को सप्ताह होने को आए पर कांग्रेस की खुशामद में रमे दिल्ली के पत्रकार खासकर टीवी पत्रकार पूरे रौ में हैं। कांग्रेसी आका खुश होंगे सो बीजेपी को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इनमें वो चैनल भी लगे हैं जिनके ब्रांड बन चुके पत्रकार को उसी जेठमलानी ने बेइज्जत कर अपने घर से भगा दिया था। आज जेठमलानी उनके लिए हॉट केक हैं जो राम, हिन्दू जीवन शैली से कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की खातिर अछूत सरीखा व्यवहार करती रही है। पत्रकारिता का तनिक भी ख़याल होता तो ये चैनल मिथिला में स्थित अपने किसी रिपोर्टर से लाइव करवा रहे होते। जेठमलानी अपने विचार पर मुग्ध हैं। न जाने उन्हें राम के संबंध में मिथिला की सोच का कितना अहसास है।

मिथिला में राम का ससुराल है। ये इलाका धर्म और आध्यात्म का बड़ा केंद्र रहने का आदर हासिल रखता है। कुछ दिलचस्प पहलू यहाँ रखे जा रहे हैं। राम के भगवान्, मर्यादा वाले चरित्र और जमाई --इन तीनों रूपों का अनूठा संगम मिथिला में दीखता है। आस्थावान लोग भगवान् या नारायण का रूप उनमें देख धन्य होते। वहीं जनमानस लोक हितवादी मर्यादा के लिए उन्हें उसी श्रधा से याद करते हैं। जमाई के रूप में भी वे स्तुत्य ही हैं। पर सीता माता को मिले कष्ट से द्रवित स्वर जब लोगों के मुख से निकलते तो लगता आसमान फटने वाली कहावत चरितार्थ हो जाती। तभी तो यहाँ विवाह पंचमी के दिन लोग अपनी बेटियों के ब्याह से कतराते हैं। इसी दिन सीता का विवाह हुआ था।

मिथिला की  धरती पर कई साहित्यकारों ने राम कथा लिखी पर उनमें सीता की महानता को ज्यादा उकेरा गया। ये भी गौर करने वाली बात है कि कष्ट हरने के लिए विद्यापति नें कृष्ण और भोलेनाथ को अपनी पदावली में अधिक जगह दी। मिथिला में संभवतः राम के कारण ही जमाई को भगवान् की तरह आदर देने की परंपरा है। पर ये भी सच है कि भगवान् के रूप में राम के मंदिर मुश्किल से मिल जाएं। सीता के प्रति ममता के साथ ही राम के तीनों रूपों के साथ मिथिला सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती रही है। जेठमलानी जी सीता के दुखों को महसूस करने के लिए मिथिला की तरफ से आपको धन्यवाद।

5.11.12

रियल रिजनल क्षत्रप बन गए नीतीश

रियल रिजनल क्षत्रप बन गए नीतीश
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संजय मिश्र
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04-11-12
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एक दिन ने इतनी राजनीतिक हलचल कभी-कभार ही देखी होगी। जहां दिल्ली में राजनीति इठला रही थी वहीं पटने में ये छुई -मुई सी हो रही थी। सुपर-डुपर  सन्डे यानि 04-11-12 को दिल्ली से ज्यादा राजनीतिक रंग पटने ने देखे जहां देश के अगले पी एम की रेस के तीन दावेदार
जमे थे। अड़चनों से पार पाते नीतीश कुमार गांधी मैदान में अधिकार रैली में जब अपने समर्थकों को निहार
रहे थे तो उनके मुख-मंडल पर संतोष के भाव झलक रहे थे। राहत मिली थी दो महीने की उथल-पुथल भरी
जद्दोजहद से। सकून ये कि दिल्ली की गद्दी की महत्वाकांक्षा के लिए जिस हैलीपैड की जरूरत है वो चाहत
साकार हुई। परसेप्सन वाले रिजनल क्षत्रप होने के दिन अब लद गए हैं। नीतीश कुमार का रियल रिजनल
क्षत्रप के रूप में अवतरण हो गया है।

दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस ने भी इसी दिन अपनी ताकत दिखाई। 16 अगस्त 2011 को इसी रामलीला मैदान में अन्ना के चाहने वाले जन सैलाब ने जो चुनौती राजनीतिक जमात के लिए पेश
की थी उससे उबड़ना कांग्रेस के लिए जरूरी था। ये पार्टी अपनी लाज बचाने में कामयाब रही। उत्साह में
अगले आमचुनाव का शंखनाद हो चला। नीतीश के लिए यहाँ भी राहत के क्षण आए। रामलीला के मुकाबले
गांधी मैदान में जुटान अधिक रही। यानि मोल-भाव के लिहाज से मुफीद अवसर के संकेत। नीतीश ने
हुंकार भरते हुए मार्च में दिल्ली कूच करने का ऐलान कर दिया। साथ ही जब उन्होंने पिछड़े राज्यों को विशेष
राज्य के दर्जे की मांग के लिए गोलबंद करने की घोषणा की तो राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट झाँकने लगे।
जाहिर है इस राजनीतिक ध्रुवीकरण की जद में ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और शिबू सोरेन जैसों को
साधा जा सकता है।

शतरंज की बिसात बिछ चुकी है। नीतीश की रणनीति है कि मौजूदा राजनीतिक गठबंधनो के अलावा
संभावित तीसरे मोर्चे में स्वीकार्यता का विकल्प कायम हो। लेकिन इसके लिए मॉस लीडर होने का तमगा
जरूरी था। अधिकार रैली की सफलता ने ये तमगा दे दिया है। बिहार को समझने वाले जानते हैं कि नीतीश
की राजनीतिक यात्रा सवर्णों के दृढ़ लालू विरोध और बीजेपी के मजबूत संगठन के आसरे टिका रहा है।
जे डी यू संगठन के मामले में बेहद कमजोर था। लेकिन विशेष राज्य की मुहिम के बहाने पूरा जोर संगठन
को मजबूत करने पर लगा रहा। कड़ी मेहनत रंग लाई। गांधी मैदान में जब नीतीश समर्थको को संबोधित
कर रहे थे तो यही कठिन परीक्षा पास कर लेने का सकून था।

राजनीतिक बिम्ब के लिहाज से देखें तो पिछड़े राज्यों के विकास का मुद्दा अब सतह पर आ चुका है। हर
हिन्दुस्तानी को तरक्की करने का हक़ जैसे नारे आने वाले समय में गूंजेंगे। सोच-समझ कर ही उसी तारीख
और उसी गांधी मैदान में अधिकार रैली रखी गई जहाँ से जे पी ने इंदिरा को चुनौती दी थी। दिलचस्प है कि
इसी दिन पी एम पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी दिवंगत कैलाश पति मिश्र को श्रधांजलि देने पटना पहुंचे।
बीजेपी कार्यकर्ताओं ने ग़मगीन माहौल में भी -देश का पी एम कैसा हो नरेन्द्र मोदी जैसा हो - जैसे नारे
लगा कर राजनीतिक कशमकश को गरमा दिया। कुछ ही देर बाद आडवाणी ने पटने में ही नीतीश की
तारीफ़ कर चौंका दिया। जाहिर है आडवाणी के पी एम पद की होड़ में होने का जे डी यू समर्थन करता है
... मोदी को किनारे करने के लिए। नीतीश ने भी दिवंगत बीजेपी नेता को मंच से ही श्रधांजलि देकर ये
जता दिया कि सारे ऑप्सन खुले हैं। लालू का छटपटाना स्वाभाविक है। नीतीश से भी अधिक भीड़ जुटा कर कभी इतिहास रचने वाले लालू अब कांग्रेस खेमे में कमजोर पड़ते जाएंगे। उधर, विशेष राज्य के अभियान से आस लगाने वाली जनता को अब तक अहसास हो चुका होगा कि
ये मुद्दा पृष्ठभूमि में जा चुकी है और इसकी डगर कठिन है।  

3.10.12

नीतीश के विरोध के मायने

नीतीश के विरोध के मायने
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संजय मिश्र
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नीतीश का प्रभामंडल बिखरने लगा है . . . ऐसी सोच राजनीतिक विश्लेषकों को मथ रहे हैं। वे एकमत नहीं हुए हैं पर आम राय बनी है कि जो बवंडर आया था वो फिलहाल शांत हो चला है। नीतीश चाहते होंगे कि ये थमा रहे . . . आखिरकार सत्ता के परम सुख के बीच पहली दफा धरातल से लावा फूटा है। ये न तो उपेन्द्र कुशवाहा, ललन सिंह सरीखे नजदीकियों की चेतावनी है और न ही पटना के आर-ब्लाक के प्रदर्शनों की हुंकार। अभी की चुनौती ग्रोथ रेट के छलावे को उघार करते हुए सवालों की झड़ी लगाते हैं।

26 सितम्बर और तीन अक्टूबर के बीच के अंतराल में नीतीश ने दिखाया है कि वे अपने ही एजेंडे पर चलेंगे। 26 को दरभंगा से विरोध की जो चिंगारी निकली खगडिया जाते जाते धधक गई। इस दौरान जहाँ जहाँ विरोध और उपद्रव हुए वहां के शिक्षकों पर कठोर कार्रवाई हुई है। लोक लाज से बेपरवाह प्रशासन की नीतीश भक्ति देखिये कि सुपौल के कई स्कूली छात्रों से विरोध नहीं जताने का बोंड तक भरवा लिया। उधर बन्दूक लहराने वाले रणबीर यादव पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। दिल्ली के वे राजनीतिक विश्लेषक नीतीश के इन मनोभावों से भौचक हैं जो उन्हें पीएम पद का दावेदार बता रहे थे।

बिहार के सी एम जताना चाह रहे हैं कि राज्य के स्वयंभू गार्जियन अकेले वही हैं और उनकी अथोरिटी को कोई चुनौती कैसे दे सकता? और ये भी बताना चाहते कि बिहार की चिंता करने के कारण बात नहीं मानने वाली जनता को कनैठी देने का उन्हें प्राकृतिक हक़ है। आम सभाओं
में किसी के विरोध करने पर देश के पहले पी एम नेहरू की नाराजगी के किस्से मशहूर हैं। वे गुसैल थे और उनके नाराज होने पर विरोध करने वाले सम्मान देते हुए शांत हो जाते थे। लेकिन दरभंगा की अधिकार रैली के दौरान नीतीश नाराज हुए और मर्यादा भूल बैठे। सम्मान देने और  शांत होने के  बदले शिक्षकों ने चप्पल दिखा कर सीमा लांघी। नीतीश कुमार के लिए ये आत्म मंथन का वक्त आया है।

बिहार की हित कामना करने वाले लोग लालू के राज में विजन के अभाव की बात करते थे . . .
ख़ास कर राज्य के विकास के सन्दर्भ में। पर इनके जेहन में ये सवाल तब नहीं कौंधा होगा कि कल को कुर्सी में बैठा विजन वाला व्यक्ति भी अपनी महत्वाकांछा से वशीभूत हो राह से भटक सकता है। उस समय फौरी तौर पर कथित जंगल राज से मुक्ति की अकुलाहट इतनी तीव्र थी कि  नीतीश का आना उन्हें राहत दे गया।

ऐसी सोच वालों में वो तबका भी शामिल था जो प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्थानों के जरिये बदलाव का पक्षधर था। पर उन्हें भी तब अंदेशा था कि अपराध के खिलाफ प्रचंड जनमत के कारण अपराधियों से गैरकानूनी तरीके से निपटने की कोशिश होगी। लेकिन नीतीश ने फास्ट ट्रैक  कोर्ट को सक्रिय कर संस्थागत रास्ता अख्तियार किया। इस पहल ने उन तमाम अंदेशों को निराधार साबित किया। भय का माहौल दूर हुआ पर ये दीर्घजीवी कहाँ रहा? अपराधियों का मनोबल आज लालू युग  के दिनों की झलकी दिखाने पर आमादा है। एक तरफ महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रयास हो रहे वहीं उनपर अत्याचार का ग्राफ बढ़ रहा है। चूक कहाँ पर हो रही है? इस परिदृश्य पर चिंता जताने की जहमत नहीं उठाना नीतीश पर सवाल खड़े करता है।

नीतीश अपने आप को चाणक्य और चन्द्रगुप्त की दोहरी भूमिका में देखने के आदी हो चले हैं।
ऊपर से विपक्षी विधायकों की कम संख्या उन्हें अभय दान दे गई। कमजोर विपक्ष को और कमजोर करने के लिए जुनून इतना बढ़ा कि इन दलों से थोक के भाव जिन नेताओं का आयात किया गया उनकी पृष्ठभूमि तक नहीं देखी। जे डी यू में आतंरिक प्रजातंत्र को पुष्ट करने की जगह विधायक निधि समाप्त कर दी गई। विधायकों को अफसरों के रहमोकरम के हवाले कर दिया गया। शरद यादव को नीतीश के दबाव में कई बार अपने ही बयान को चबा कर निगलना पड़ा। उपेन्द्र कुशवाहा से लेकर ललन सिंह तक की बगावत की वजह नीतीश का निरंकुश व्यवहार रही। वे हाशिये पर चले जाने को मजबूर किये गए।

ऊपर से प्रिंट मीडिया अपने कब्जे में। यानि चेक एंड बैलेंस के तमाम रास्ते बंद। एक मात्र रास्ता जनता के फैसले का रख छोड़ा है नीतीश ने। अफसरों के साथ मिलकर आंकड़ों की कलाबाजी और छवि निर्माण की सनक अभी भी मौजूद है। वे, उनके अफसर और चारण पत्रकार बताते फिर रहे कि
चीन के ग्रोथ रेट से भी आगे निकल गया बिहार। हर तरफ जय जय कार है। इतना भी ध्यान नही कि
समस्याओं की अनदेखी घातक हो सकती है . . . ऐसे में जबकि समाधान की राह देख रही जनता की आँखें
पथरा रही हैं। समझदार लोग कहते हैं कि कुछ नहीं कमाने वाला एक साल में सौ रुपये कमाए तो उसका ग्रोथ रेट सौ फीसदी कहलाएगा जबकि हजार रूपए कमाने वाला एक साल में सौ रूपए कमाए तो उसका ग्रोथ रेट महज दस फीसदी होगा। बावजूद इसके दस फीसदी ग्रोथ रेट वाला व्यक्ति ही ज्यादा साधन संपन्न रहेगा। यही संबंध बिहार और देश के विकसित राज्यों के बीच है। यानि बिहार के
लोगों की माली हालत विकसित प्रदेशों के लोगों से बहुत खराब है।

राज्य सरकार इस सच को छुपाती रहती है और ग्रोथ रेट की डुगडुगी बजाने में रमी हुई है। आंकड़ों की फरेब
नहीं समझने वाली जनता ये जानना चाहती है कि जब राज्य चीन से आगे निकल गया तो विशेष राज्य की
भीख क्यों माँगी जा रही है? नीतीश की दुविधा यही है। ग्रोथ रेट से दिल्ली में डंका तो बज जाता पर राज्य की
जनता की बढी उम्मीदों का क्या करे? दरअसल बिहार की जरूरतों के हिसाब से विशेष राज्य के अभियान
का मुफीद समय तब था जब नीतीश दुबारा सत्ता में आए थे। उस समय जनता भी ये सोच कर साथ देती कि
इससे उनके कल्याण का रास्ता खुलेगा। लेकिन दिल्ली की सत्ता के मंसूबों के लिहाज से नीतीश इस मुद्दे को
अभी उठा रहे।

साल 2014 का अवसर इस अभियान पर इतना हावी है कि किसी मांग को लेकर किसी तबके का विरोध
नीतीश को विचलित कर रहा है। तभी वे उसी अंदाज में विरोधियों से बदला लेने पर उतारू हैं जिस अंदाज में
कांग्रेस विरोध करने वालों से निपटती है। जाहिर है निरंकुश राजनीतिक शैली के मामले में नीतीश और
कांग्रेस एक वेबलेंथ पर हैं। 03 अक्टूबर को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बिहार दौरे पर नीतीश विशेष राज्य की
मांग करते हैं। प्रणब भी बिहार के कृषि रोड मैप की तारीफ़ करते हैं साथ ही नीड एंड ग्रीड के फर्क को भी
समझाते हैं। लालू वैसे ही साकांक्ष नहीं हुए हैं। बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष के चालीसो लोक सभा सीट से पार्टी
उम्मीदवार उतारने के संकेत ने लालू को अतिरिक्त उर्जा से भर दिया है। 03 अक्टूबर से ही बिहार में
परिवर्तन यात्रा पर निकल गए हैं लालू।





21.9.12

विशेष राज्य के अभियान का सच

विशेष राज्य के अभियान का सच

संजय मिश्र
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जो भौगोलिक क्षेत्र अदौ से ( सदा से ) ख़ास रहा हो वो विशेष राज्य बनने की लालसा दिखाए ये सुनने में अटपटा सा लगता है। पर यहाँ सन्दर्भ दूसरा है। विशेष राज्य की पैरोकारी करने वाले बताते हैं कि अपने बूते बिहार को जितना बढ़ना था वो चरम बिंदु छू लिया गया है। आगे की तरक्की के लिए और विकसित राज्य की कतार में आने के लिए जो सफ़र है उसमें विशेष राज्य के दर्जे का साथ चाहिए। इसके लिए नीतीश की पार्टी जे डी यू बाकायदा राज्यव्यापी अभियान चला रही है। दिलचस्प है कि ठीक इसी समय बिहार में सर्वाधिक पाठक संख्या का दावा करने वाला एक अखबार समूह विशेष राज्य के लिए जनमत जुटाने में लगा है।

आगे की  पड़ताल से पहले बिहार के तीन लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों के बयान को याद करें। राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कहा था कि बिहार के डूबने से बंगाल का भला हो तो वे ऐसा ही होने देंगे। लालू प्रसाद की वो मशहूर हुंकार तो आपको याद ही होगी कि --- बिहार मेरी लाश पर बंटेगा। और अब परिदृश्य पर नीतीश कुमार हैं जो मानते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा तो बिहार का हक़ है और इसे छीन लिया जाएगा और ये कि इसके लिए किसी हद तक जाया जा सकता है। यहाँ तक कि जो विशेष राज्य का दर्जा देगा केंद्र में उस दल की सरकार बनाने में वो सहयोग करेंगे।

राजनीति की महीनी को नहीं तार पाने वाले कहेंगे कि अच्छा है कांग्रेसी श्रीबाबू बिहार हित साधन के प्रति उदासीन रहे---जबकि लालू और उससे भी आगे बढ़ कर नीतीश इस राज्य का भला चाहते। इसे ही भांप कर जे डी यू का अभियान चलाने वाले आम जन को समझाने कि कोशिश में लगे हैं कि कांग्रेस(केंद्र) बिहार की हकमारी कर रही है। यानि केंद्र पर दबाव बनाए रखना उचित है--और ये कि विशेष दर्जा तो बस अब मिलने ही वाला है। इनकी रणनीति के विविध आयामों के खुलासे से पहले तीनो मुख्यमंत्रियों के बयानों को समझने की कोशिश करें।

सूबे के पहले सीएम के बयान का संबंध कोसी परियोजना से था . . . वो परियोजना जो लॉर्ड वेभेल का ब्रेन चाइल्ड थी। पहले आम चुनाव का ये प्रमुख मुद्दा बनी . . .  ख़ास कर मिथिला में। समाजवादी लक्स्मन झा और कांग्रेसी जानकीनंदन सिंह इस मुद्दे पर आंदोलनरत थे। घबराई कांग्रेस (पटना) की सरकार वेभेल प्लान के बदले नित नई कमजोर वैकल्पिक योजनाएं सुझा रही थी। उस समय के दस्तावेजों को खंगालें तो साफ़ पता चलता है की पटना का सत्ता प्रतिष्ठान मिथिला के विकास का आग्रही तो बिलकुल ही नहीं था। जबकि वेभेल की योजना मिथिला(बिहार) का काया-पलट करने की क्षमता रखनेवाली।

विकसित मिथिला की कल्पना से इर्ष्या करने वाला पटना का सत्ता प्रतिष्ठान इससे होने वाली बिहार की प्रगति के अवसर को हाथ से जाने दिया। पटना के हुक्मरानों और कलकत्ता(बी सी रॉय) के बीच सांठ-गाँठ हुई और डी वी सी परियोजना को आगे किया गया। श्रीबाबू के बयान का मतलब था कि बिहार(मिथिला) बाढ़ से डूबती रहे और डी वी सी के बूते बंगाल के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बच जाएँ। यहाँ तक कि डी वी सी के समझौते को बंगाल फ्रेंडली बनाया गया।

नेहरू को कोसी की वेभेल परियोजना से शुरू में अनुराग था। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री ने उनसे ये बहाने बनाए कि वेभेल परियोजना की डैम (बारह-क्षेत्र) सिस्मिक जोन में पड़ता है और ये बिहार(मिथिला) के लिए जानलेबा  साबित होगा। नेहरू को ये भी कहा गया कि इस परियोजना से निकलने वाली बिजली का उपयोग करने में बिहार सक्षम नहीं है। इन्होने ये संकेत दिए कि नेहरू चाहें तो भाखड़ा-नांगल परियोजना शुरू कर लें। यानि वेभेल परियोजना लटका दी गई और इन पैसों से भाखड़ा-नांगल (पंजाब का काया-कल्प ), डी वी सी (बंगाल का भला हुआ) का रास्ता  साफ़ हुआ।

अब लालू के बयान को परखें। देस-दुनिया में बड़ा नाम था लालू का। समर्थक उनकी तुलना कृष्ण भगवान् से करने लगे थे। ऐसे में अखंड बिहार पर एक-छत्र राज की चाहत परबान पर थी। लेकिन इस अकबाल के बावजूद प्रचंड बहुमत नसीब न था। सलाहकारों ने समझाया कि अपने बयान को किनारा करें और बंटबारे के लिए तैयार हो जाएं। उन्हें ये बताया गया कि झारखण्ड बन जाएगा तो जे एम एम की जरूरत नहीं रह जाएगी। बचे बिहार में अपना ही बहुमत रहेगा। आखिरकार बंटवारे के लिए वे तैयार हो गए।

लालू युग में विशेष दर्जे का मामला जोर-शोर से उठा। अनिवासी भारतीय पटना बुलाए गए। केंद्र-राज्य संबंधों के जानकार और अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी भी बाद में पटना आए। यहाँ लोगों को वो समझा गए कि आज़ादी के बाद से सामान्य स्थिति में केंद्र को बिहार को जो राशि देनी चाहिए उससे चालीस हज़ार करोड़ कम मिले। बिहार का आर्थिक अवरोधन नामक उनकी पुस्तिका बिहार की हकमारी की कहानी कहती है। बावजूद इसके लालू अपनी ही दुनिया में रमे रहे और बिहार की उन्नति की चाहत अधूरी रही।

बिहार में जे डी यू का संगठन कमजोर है। विशेष राज्य के अभियान के दौरान अधिक माथा पच्ची  इसी बात को लेकर है। ये महसूस किया जा रहा है कि नीतीश की बेहतर छवि कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ोत्तरी में तब्दील नहीं हुई। इस बात पर भी ध्यान है कि छवि निर्माण में जितना लंबा वक्त गुजरा उस अनुपात में कार्यकर्ता बढाने पर लापरवाही रही। अब इसकी भरपाई को प्राथमिकता दी जा रही है।

नीतीश के चाणक्य संजय झा इन दिनों अभियान की कमान संभाले हुए हैं। कार्यकर्ताओं को वे समझा रहे हैं कि केंद्र की राजनीति के बड़े कैनवास में नीतीश की अहम् भूमिका है। कार्यकर्ताओं को संगठन शक्ति पुख्ता करने की नसीहत देते कहा जा रहा है कि नीतीश को पी एम बनाना है तो चार नवम्बर की रैली को ऐतिहासिक बनाएं। संजय झा ये बताने से नहीं चूक रहे कि पटना में उस दिन होने वाली अधिकार रैली में दस लाख समर्थक जुटेंगे और ये रैली मौजूदा राजनीति के रुख को दिशा देने वाला साबित होगा।

मकसद साफ़ है। विशेष राज्य के अभियान के बहाने नजर संगठन की मजबूती और दिल्ली की गद्दी पर है। अब तक लालू विरोध के नाम पर और बीजेपी के संगठन के आसरे सत्ता मिलती रही। बीजेपी से पल्ला झाड़ने के लिए संगठन चाहिए तभी दिल्ली में हैसियत बढ़ेगी। जे डी यू को ये अनुमान है कि लालू विरोध वाले वोट बैंक की सहूलियत के कारण बीजेपी भी अपने संगठन विस्तार के प्रति लापरवाह है। यानि इस छिजन (खाली पोलिटिकल स्पेस) पर नजर गड़ा ली गई है। यही कारण है कि बीजेपी से जे डी यू में आए संजय झा को इस काम में लगाया गया है। अपने पुराने संबंधों के बूते वे बीजेपी समर्थकों में थोड़ी सेंधमारी में कामयाब हुए है।

कम समय में कार्यकर्ता संख्या का अधिक विस्तार हो इसके लिए सन्देश के प्रसार की जरूरत है। लिहाजा अभियान को धारदार बनाने के लिए एक बड़े अखबार समूह का सहारा लिया गया है। ये अखबार समूह विशेष राज्य के लिए मुहिम चला रहा है। जानकार बता रहे हैं कि अखबार की ये अदा पचास दिनों तक दिखेगी। अखबार के जरिये विशेष राज्य के मुद्दे को गावों तक ले जाया जा रहा है। इससे जे डी यू के सदस्यता अभियान में भी सहूलियत मिल रही है। ये मुहिम जब थमेगी तब जे डी यू की तरफ से पार्टी अभियान को आख़री स्ट्रोक मारा जाएगा . . .  4 नवम्बर के लिए। आम धारणा बनी है कि अखबार समूह ने नीतीश को बड़ी राहत दी है। नीतीश और बिहार के हिन्दी प्रिंट मीडिया के संबंधों को देखते हुए ये जानना बेमानी है कि अखबार समूह को नीतीश से कितनी राहत मिली होगी। उन्नति की दिशा में लम्बी छलांग का मंसूबा पालने वाले लोग गुण-धुन में होंगे कि राज्य के शीर्ष नेतृत्व(नीतीश) को बड़ी बड़ी गद्दी मिलना ही बिहार वासियों का कल्याण है क्या?


  

1.9.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 4

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 4
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संजय मिश्र
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किसी राह चलते व्यक्ति से पूछिए कि सेक्यूलरिज्म क्या है तो वो एकबारगी चौंक उठेगा? दिमाग पर जोर देगा और कहेगा कि कांग्रेस सेक्यूलर है . . . लालू का पार्टी भी और हाँ वामपंथी लोग भी . . . आखिर में थोड़ा झल्लाते हुए कहेगा कि बी जे पी को छोड़ कर सभी। थोड़ा और कुरेदिए तब पूछिए कि जे डी यू क्या है? . . . इस बार झट से जबाव आएगा कि . . . हाँ वो भी क्योंकि मोदी का विरोध करता है . . .  गुजरात में दंगा हुआ था न। अब याद दिलाइये कि सिखों के कत्लेआम की वजह से कांग्रेस भी सेक्यूलर नहीं हुआ . . तो वो अकबका जाएगा।

अब किसी और राही से बात करिए। उससे सवाल करिए कि सामंतवाद क्या होता है? वो कहेगा फॉरवर्ड कास्ट के लोग सामंत होते हैं। कहने का मतलब ये कि आम लोग नहीं जान पाए हैं कि स्टेट के शासन करने का प्राकृतिक स्वभाव ही सेक्यूलर यानि गैर-धार्मिक होता है . . .  और ये कि सेक्यूलर नहीं होने का अर्थ धार्मिक होने से है न कि कम्यूनल होने से है . . . और ये भी कि आम जन(वोटर)  धार्मिक बने रह सकते। वे जान नहीं पाए हैं कि सामंतवाद अर्थव्यवस्था की एक स्टेज थी न कि
इसका जाति से कोई मतलब है। राजनीतिक क्रियाकलापों और संचार माध्यमों के जरिये इन शब्दों के संबंध
में दरअसल सच बताया ही नहीं गया।

विषय बदलते हैं . . .
टू इच एकोर्डिंग टू हिज नीड्स . . . एंड फ्रॉम इच एकोर्डिंग टू हिज कैपसिटी . . .
आप सोच रहे होंगे कि ये क्या माजरा समझाया जा रहा है? आप से कहा जाए कि ये मार्क्सवाद का एसेंस
है तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे। ये विचार सुन वामपंथी बिद्केंगे-- मुंह चुराएंगे और इस सच
को नकारेंगे। आम वामपंथी इससे अवगत नहीं और विषद समझ रखने वाले भारतीय मार्क्सवादी
इन्हें बताते नहीं। ये उस देश का हाल है जहाँ सोशल मीडिया के आने से पहले की तीन पीढी वाम
विचारों से लैस रही है . . तब जवान होने का मतलब होता था वामपंथी होना।

सनातन धर्म के उस दर्शन पर गौर करें जिसमें कहा गया कि उनका भी भला हो जो सबल हैं और उनका भी जो समर्थ नहीं  ---------- यानि सबके उन्नति की निश्छल कामना। अब मार्क्सवाद के ऊपर कहे विचार और सनातन जीवन शैली के इस सोच का मिलान करें---साफ़ है दोनों नजरिये में समानता झलकती है। अमेरिकी दर्शन के --- सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट --- वाले सोच के ठीक उलट। तो क्या अमेरिका विरोधी इंडियन मार्क्सवादी कभी सनातन सोच के साथ अपनी कन्वर्जेन्स को एक्सप्लोर करना चाहेंगे। अभी तक इन्होने ऐसा नहीं किया है।

इन्होने किया क्या है? इंडियन राजनीति की उस बड़ी समझ का साथ दिया है जो कहता है आमजनों को भ्रम में रखो और राज करो। दरअसल ऐसी नौबत आई कैसे? कई कारण खोजे जा सकते। संभव है इंडियन राष्ट्र की कांग्रेसी अवधारणा में भी इसके संकेत मिलें। चलिए इसे ही टटोलते है। ये अवधारणा कहती है--- एक दिशा से हिन्दू आए ..... दूसरी तरफ से मुसलमान . . . तीसरी दिशा से सिख। इसी तरह क्रिस्टियन आये--- और सबने कहा चलो एक राष्ट्र बनाते। कांग्रेस की अगुवाई में चलती मुहिम में इसे -- मोजाइक -- कहा जाता। अब मोजाइक भी तो किसिम किसिम के हो सकते जिस पर कोई विमर्श न हुआ।

मकसद दिख ही जाता है। भारत के इतिहास और जीवन शैली को जितना संभव हो झुठलाते जाओ। तभी तो बड़े फक्र के साथ वे कहते कि ये देश तो 65 साल का जवान है--- यानि इसका अतीत नहीं बल्कि महज वर्तमान और भविष्य है। तो क्या इंडिया हवा में बनी है? रूट-लेसनेस का आरोप न लगे इसलिए कांग्रेस और इसके हितैषी बताएँगे कि हिन्दू धर्म में जड़ता है और ये प्रगतिशील बनने में बाधक। ख़म ठोक कर बताएँगे कि सनातन जीवन प्रवाह ( कनटिनियूटी) का उत्कर्ष नहीं है इंडिया। लेकिन बड़ी ही चालाकी और ढिठाई से संवैधानिक इंडिया की समस्याओं और ना-समझ क़दमों का ठीकरा हिन्दू व्यवस्था पर जरूर फोर देते।

हिन्दू तौर-तरीकों के प्रगतिशील नहीं होने की बात पर वामपंथी भी हरकत में आ जाते। वे हिन्दुओं को याद दिलाते कि धर्म तो -- अफीम-- होता सो इससे विरत रहें। तो क्या सिर्फ हिन्दू धर्म ही अफीम होता? क्या इस्लाम और क्रिस्टियन धर्म अफीम जैसा असर नहीं डाल सकते? इस पर वे चुप्पी साध लेते। साझा हित कि बात है न तभी तो असम में भी अवैध बांग्लादेशी राशन कार्ड और वोटर कार्ड बनबा लेते और ज्योति बासु के बंगाल में भी।

ऐसा कहने वाले मिल जाएंगे कि नेहरु की सोच सिंथेटिक थी। मान लिया पर उन्होंने जतन से भारत को खोजने की कोशिश की। राहुल गांधी भी कभी-कभार ऐसा ही करते। वे ऐसा क्यों करते जिनके सलाहकार 65 साल के इंडिया का जुमला गढ़ते? इसी उधेड़बुन में हैं राहुल। इसलिए कि नेहरु के समय लोग नागरिक हुआ करते जबकि आज वोट-बैंक बना दिए गए है। सेक्यूलर वोट--- कम्यूनल वोट--- और न जाने कितने तरह के वोट हो गए आज। रहस्य यहाँ है। भूल वश राष्ट्र हित पर चिंता जता कर देखें ---पकिस्तान के साथ ट्रैक-2 पालिसी में लगे कांग्रेसी हितैषी लाल-पीले हो जाएंगे। कह दीजिये कि क्या एक दब्बू राष्ट्र की नीव रखी जा रही--तो वे फुफकार उठेंगे।

23.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 3

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 3
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संजय मिश्र
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किसी देश की सेहत का अंदाजा लगाना हो तो उस देश की मीडिया के हालात पर नजर दौराएं . . . ख़ास कर उस देश में जो प्रजातांत्रिक होने का दंभ भरे। अब जरा भारत की मौजूदा परिस्थिति पर निगाह डालें। मुंबई से लेकर लखनऊ तक उत्पाती भीड़ ने पत्रकारों की जमकर धुनाई की है . . . ये आरोप लगाते हुए कि असम और म्यांमार में रहने वाले अवैध घुसपैठी बांग्लादेशी मुसलमानों के दर्द को मीडिया ने नहीं दिखाया।

दिल्ली के चुनिंदा साधन-संपन्न टी वी चैनलों के एंकर और रिपोर्टर सप्ताह भर सकते में रहे . . . उनके चेहरों के भाव अहसास कराते रहे कि सदमा मारक है . . . यकीन करना मुश्किल कि जिस कौम की तीमारदारी का आरोप इन पर लगता रहा वही भष्मासुर बन कर टूट पड़ेंगे पत्रकार बिरादरी पर। न जाने राजदीप इस दौर में क्या सोच रहे होंगे . . . वो बयान कि असम दंगों में एक हज़ार हिंदू मारे जाएंगे तो भी वहां की खबर नहीं दिखाएंगे . . . बरबस चैन चुराता होगा उनका। पता नहीं इशरत जेहां मामले में मीडिया की तरफ से माफी मांगने वाले पुण्यप्रसून इस पेशे के वर्तमान हालात पर किस उधेड़बुन में हों।

थोड़ा ठहर कर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को याद कर लें। संसद में नेताओं को लताड़ते हुए एक बार उन्होंने आगाह किया था कि छूत - अछूत ( बी जे पी के प्रति ) की राजनीति छोड़ें . . . सिख दंगों जैसे संवेदनशील मसलों को बार बार न उछालें . . . इससे देश का माहौल बिगड़ता है . . . रंजिशें उभर आती हैं। बीते दस साल से इस सलाह को ठेंगा दिखाया जा रहा है। दिन रात गुजरात दंगों की याद दिलाई जा रही है। कांग्रेस के इशारे पर चल रही इस मुहिम में दिल्ली के
पत्रकारों का एक जमात ग्राउंड जीरो पर तैनात रहने वाले फ़ौजी दस्ते जैसी भूमिका अदा कर रहा है। इस बात को जानते हुए कि इससे मुसलमानों की दुखती रग भड़क उठेगी। और हुआ भी ऐसा --- एक चिन्गारी भर चाहिए थी।

क्या ये काम भारत में कार्यरत देसी या विदेशी पत्रकारों का हो सकता है कि वे इस देश की कांग्रेसी ब्रांड सेक्यूलरिज्म का झंडा फहराते फिरें? क्या विचारधाराओं का गुलाम बनना पत्रकारिता के दायरे में आता है? विचारधाराएं तो हुक्मरानों के लिए होती और उनके लिए प्रेरणा का काम करती हैं। इत्तेफाक से विचारधारा अतिवादी रुख अख्तियार करे तो एक बड़ा वर्ग पीड़ा झेलने को मजबूर होता है। पत्रकार इस दर्द को संभालकर खबर बनाते।

गुजरात के दंगों में मुसलमान ज्यादा मरे, हिंदू कम मरे। असम में मुसलमान कम मरे और हिंदू (बोडो) ज्यादा मारे गए। एक हिंदू या एक मुसलमान अपनी भावनाओं के अनुरूप दोनों जगहों की ख़बरों को कम या ज्यादा दिखाए जाने पर मीडिया से सवाल करता है। पत्रकार कह सकता है कि ऐसे सवाल भावुकतावश किये जा रहे। लेकिन पत्रकारिता के नजरिये पर इन सवालों को कसें तो मीडिया का असली रंग दिख जाएगा। तब पता चलेगा कि दरअसल वे राजनीतिक हथियार के तौर पर काम कर रहे।

जीवन अमूल्य है और पूरा जीवन जी लेना प्राकृतिक अधिकार। इसमें जब बाधा आती है यानि जब किसी की इहलीला जबरदस्ती समाप्त की जाए तो वो न्यूज़ के दायरे में आता है . . . चाहे वो गुजरात में हो, असम में हो, मुंबई, दिल्ली या फिर और कहीं। पत्रकारिता ये इजाजत पत्रकार को नहीं देता कि इसकी रिपोर्टिंग या इसे पेश करने में भेद-भाव बरती जाए। पर भारत में हो क्या रहा है? राजदीप के बयान पत्रकारिता के दायरे में आते या फिर अंध राजनीतिक कार्यकर्ता की सोच की श्रेणी में? सामाजिक सदभाव चाहने वाले कहेंगे जो हो रहा है वो खतरनाक ट्रेंड है।

पत्रकार की एक ही विचारधारा हो सकती है और वो है मानववाद। इसमें स्थानीय पहलू को ध्यान में रहकर न्यूज़ सेन्स खोजने की भी जरूरत नहीं पड़ती। म्यान्मार में मुसलमान, कश्मीर में कश्मीरी पंडित एथनिक क्लिंजिंग के शिकार हुए। गुजरात 2002 दंगों में कुछ हद तक ऐसी नौबत आ गई थी। असम में कुछ पोकेट्स में बोडो एथनिक क्लींजिंग के शिकार हुए हैं। पत्रकार का धर्म है कि ऐसे मंसूबों से आगाह करते हुए खबर पेश करे। पत्रकारिता सवाल पूछती है कि
सिर्फ गुजरात की ही चर्चा क्यों?

 पर ये पत्रकार हवाला देंगे कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं इसलिए उनकी पीड़ा दिखाते।  अब उनसे सवाल पूछिए की कश्मीर में कश्मीरी पंडित भी अल्पसंख्यक ही हैं और इसी तरह बिहार के किशनगंज जिले में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। आपको ये कह कर टरका दिया जाएगा कि कश्मीरी पंडितों पर भी कार्यक्रम हुए है। क्या दिल्ली के नामी चैनलों में इतनी हिम्मत है कि वे बता सकें कि गुजरात के मुकाबले कितने मिनट या कितने सेकेण्ड उन्होंने कश्मीरी पंडितों के दर्द को आवाज दी है?

इंडिया में न्यूज़ सेन्स का एक बड़ा आधार है संविधान। यानि चीजें संविधान के अनुरूप न चले तो वो खबर का हिस्सा बनती है। कई संवैधानिक सवाल अनसुलझे रह गए हैं। क्या इन चैनलों में आपको धारा 374 पर बहस दिखाई देता है? बड़ी ही सफाई से ऐसे संवैधानिक सवालों को बी जे पी का सवाल बता कर मुंह मोड़ लिया जाता है। सी ए जी संवैधानिक संस्था है पर जब कांग्रेसी उसकी वीभत्स आलोचना करते तो ये पत्रकार इस खबर को एक दो बार चलाने के बाद डंप कर देते हैं।

इंडिया में काम कर रहा एक पत्रकार जब ड्यूटी पर होता है तो वो सिर्फ पत्रकार होता है। उस वक्त इस देश के लिए खुद की देशभक्ति का इजहार करना उसका काम नहीं होता है। न्यूज़ लिखते समय न तो वो इंडियन होता, न ही हिन्दू या मुसलमान। ड्यूटी के बाद घर जाकर वो देशभक्ति दिखा सकता है अगर वो इंडियन है। पर याद कीजिये जब जब पाकिस्तानी स्पोंसोर्ड आतंकी घटनाएं देश में होती है ये पत्रकार देशभक्ति दिखाने में लग जाते है। मकसद होता है बी जे पी ब्रांड देशभक्ति वाले बयान को प्री-एम्प्ट करना।

चलिए अब विस्फोटक यथार्थों से अपेक्षाकृत मुलायम लेकिन तल्ख़ सच्चाई की ओर। भ्रष्टाचार के खिलाफ हाल के समय में हुए सात्विक आंदोलनों से खार खाए पत्रकारों की कुछ चर्चा करें। पत्रकारों का धर्म होता है कि वो पीड़ितों के साथ खड़ा हो। स्टेट पावर के सामने आम लोगों का वो पक्षकार बने। जिस वक्त साल 2011 के 4 जून की रात रामदेव और उनके समर्थकों की निर्दयतापूर्वक पिटाई  हुई उस वक्त हमला झेल रहे लोग पीड़ितों की श्रेणी में थे। लेकिन अगले पंद्रह दिनों तक ये टीवी पत्रकार रामदेव पर हमलावर रहे, उन पर बहादुरी दिखाते रहे। स्टेट की शक्तियों से तीखे सवाल करने से बचते रहे, इन शक्तियों के इशारे पर लाठी चार्ज के विजुअल गायब करते रहे साथ ही आन्दोलनकारियों का मजाक उड़ाते रहे। राजबाला की दर्दनाक मौत पर इनकी चुप्पी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा करता रहा।

इंडिया में एक शब्द आजकल फैशन में है और ये शब्द है - अकबाल। शरद यादव इसके बड़े
पैरोकार हैं। सरकार, राजनेता, अन्ना (16 अगस्त, 2011)---सबका अकबाल देखा है देश ने। पत्रकारों का भी अकबाल होता और ये पीपल्स मैंडेट के कारण होता है। आज वही पीपुल उससे चुभने वाले सवाल कर रहा है। क्या पत्रकारिता को ये अधिकार है कि वो उसी पीपुल(आन्दोलनकारियों) का मजाक उडाए जिसकी बदौलत उसे शक्ति मिलती है।

वो कहेंगे कि चिदंबरम की एडवाइजरी का खौफ था। 14 अगस्त 2012 को रामदेव ने कहा कि यूपीए हुक्मरानों ने दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकारों को बुलाकर उनके आन्दोलन को डाउन प्ले करने के निर्देश दिए। मान लिया कि पत्रकारों के एंटी इस्टाबलिशमेंट मोड के उनके प्राकृतिक व्यवहार से बचने के बावजूद सरकार इन्हें धमकाती है। बेशक सरकारी नेता चाहते हैं कि ये पत्रकार उनके चरणों में लोटें। बावजूद इस लालसा के, सरकार इनकी हर धड़कन पर अंकुश नहीं लगा सकती। अन्ना के हाल के आन्दोलन के पहले तीन दिनों तक सरकार ने इन्हें नहीं कहा होगा कि दिन-रात भीड़ की गिनती करो। ये भी नहीं कहा होगा कि जब भीड़ जुट आए तो उसे वीक एंड करार दो। आन्दोलन वीक एंड की बदौलत नहीं चला करते इतनी समझ तो पत्रकारों को दिखानी ही चाहिए थी।

जरा याद करिए . . . देश के विभिन्न प्रांतों में किसी घटना या अहम् मसले पर सीबीआई जांच की मांग के लिए महीनों तक लोग सड़कों पर जोड़-आजमाइस करते हैं तब जाकर उस मसले पर सीबीआई जांच के आदेश दिए जाते हैं। पर गौर करें-- किसी गुमनाम व्यक्ति के एक आवेदन पर झट-पट में बालकृष्ण के खिलाफ सीबीआई जांच शुरू हो जाती है। संभव है बालकृष्ण ने कोई गलती की हो पर इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिज्म के पैरोकार ये पत्रकार क्या देश को बता सकेंगे कि विच हंट के इस खेल का वो आवेदनकर्ता कौन है?

ये मत भूलिए कि इनमें से कई पत्रकारों को पत्रकारिता की बारीकियों की खूब समझ है। दरअसल ये सयाने हैं। बाजार और विचारधारा के बीच ताल-मेल बिठाना खूब आता है इन्हें। सोच समझ कर ही न्यूज़ सेन्स की बलि लेते हैं ये। ए बी पी न्यूज़ के बहाने एक दिलचस्प दृश्य देखें। स्टूडियो में बहस के दौरान यदि चार लोग पैनल में हैं तो उनमें कांग्रेस के प्रतिनिधि सहित तीन गेस्ट कांग्रसी मानसिकता के हो जाते हैं। चौथा गेस्ट इस असंतुलित बहस का पूरे कार्क्रम के दौरान भार ढोने को मजबूर रहता है। इस बीच कपिल सिब्बल या दिग्विजय सिंह की बाईट आ जाए तो इनके एक एंकर चहक उठते हैं। पैनल में मौजूद संजय झा नाम के शख्स का चेहरा खिल उठता है। ये शख्स प्रजातंत्र की भी बात करता है साथ ही अगले चालीस सालों तक लगातार कांग्रेसी शासन की वकालत करने लगता है। न जाने क्यों, ये चैनल दो सालों से संजय झा को हर मर्ज की दवा और इंडिया का सबसे बड़ा विद्वान साबित करने पर तुला है?

अन्ना आन्दोलन के ठहराव के बाद आशंका बनी कि उनके युवा समर्थकों की ऊर्जा किसी भी दिशा में जा सकती है। बेहतरी में यकीन रखने वाले कह सकते हैं कि मुंबई की हिंसा इस उर्जा के गलत दिशा में जाने का संकेत है। लेकिन इस एंगल पर सार्थक बहस न हुई। बेनी प्रसाद के वचन और राज ठाकरे ने इन पत्रकारों को राहत दी है। टीवी स्टूडियो फिर से गुलजार हो गए हैं अपने पसंदीदा शगल की ओर। सेक्यूलरिज्म और कम्यूनलिज्म पर बहस पटरी पर लौट आई है . . . साथ में है आरक्षण का तड़का। भारत की आत्मा पत्रकारों की इस जमात से सवाल कर रही है कि किस साल और किस तारीख को इंडिया के कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की रक्षा हो जाएगी? क्या उस तारीख के बाद देश के बुनियादी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करेंगे वे? क्या तारीख जानने की भारत की आस पूरी होगी?

16.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 2

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 2
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संजय मिश्र
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4 जून 2011 के बहशियाना हमला झेलने के बाद रामदेव ने कहा था कि मरकर शहीद होने की सलाह को एक न एक दिन पीछे छोड़ दूंगा। 14 अगस्त 2012 को जीवित रह गए रामदेव के मुस्कराने का दिन था। एक आध दलों को छोड़ अधिकाँश गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल काला धन के मुद्दे पर उन्हें समर्थन देते नजर आए। हाथ धो कर उनकी आलोचना करने वाले पत्रकार और टीवी स्टूडियो में बैठे विश्लेषक 13 और 14 अगस्त को जे पी आन्दोलन के दौर के गैर कांग्रेसवाद को याद करने का लोभ कर रहे थे। बेशक जे पी की शख्सियत बहुत ऊँची थी और वे खालिस राजनेता थे। ऊपर से सिक्सटीज का गैर कांग्रेसवाद 74 के आन्दोलन में अपने चरम पर था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो लोग जे पी आन्दोलन से तुलना करने को मजबूर हुए? आज कांग्रेसी रवैये पर देश भर में प्रचंड नाराजगी व्याप्त है जिसे रामदेव अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब हुए हैं। लिहाजा अन्ना आन्दोलन के ठहराव से मायूस हुए कई लोग रामदेव के आन्दोलन में  छाँव की तलाश कर रहे थे।  रामदेव के व्यापक समर्थक आधार को विपक्षी दलों के अलावा कांग्रेस की शरण में रहने वाले दल भी अवसर के रूप में देख रहे थे। ऐसा लगता है कि कोई अकेला गैर कांग्रेसी मोर्चा तो नहीं बन  पाए पर रामदेव के मुद्दे का समर्थन करने आए लोग विभिन्न राज्यों में चुनाव के दौरान उनसे समर्थन की आस रखे। रामदेव ने संकेत दिया है कि समर्थन करनेवाले दलों ने उन दलों के अन्दर भ्रष्ट तत्वों को ठीक करने का वायदा किया है। संभव है ये दल अत्यधिक विवादित उम्मीदवारों से परहेज कर रामदेव का समर्थन ले लें। 

अन्ना और रामदेव के आन्दोलन में तात्विक फर्क दिखता है। अन्ना के प्रयास संविधानिक इंडिया के शुद्ध देसीकरण की तरफ है। जबकि रामदेव के आन्दोलन में गांधी के देशज विचार, मालवीय की सोच, संविधान को ग्राम सभा केन्द्रित करने वाले आह्लाद, रामदेव की खुद की देसज सोच, बीजेपी के गोविन्दाचार्य ब्रांड विचार और इन तरह के तमाम आग्रह एक साथ अपनी झलक दिखाते हैं। याद करें कांग्रेस विभिन्न विचारों को आत्मसात करने की क्षमता रखती थी। अब कांग्रेस को उसी की पुरानी शैली में जबाव मिल रहा है।

यकीन करिए अंदरखाने इस पार्टी में चिंता तैर रही है। इस बीच राष्ट्रवाद की भी बात होती रही। अन्ना आन्दोलन का राष्ट्रवाद देश हित की चरम चिंता में प्रस्फुटित हुआ है जबकि रामदेव राष्ट्रवाद के विभिन्न विचारों को एक साथ ढोने की कोशिश में लगे हैं। ये संविधानिक इंडिया की राष्ट चिंता को भी बुलावा देना चाहता। यहाँ भी कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है। जे पी के आन्दोलन की परिणति को याद करें तो सत्ता परिवर्तन तो हो गया लेकिन उनके चेले सत्तासीन होते ही खुद जे पी के विचारों को भूल गए। जातीय और धार्मिक उन्माद की राजनीति, घोटालों में संलिप्तता और इन सबके बीच अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की निर्लज कोशिश अभी तक परवान है। ऐसे दल रामदेव से समर्थन ले लेने के बाद राजनीतिक शुद्धीकरण की दिशा में कितनी दूर तक साथ निभा पाएंगे ये अंदाजा रामदेव को भी नहीं होगा। भारत के लोग ठहर कर देख लेना चाहते हैं।






14.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत-- 1

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 1
संजय मिश्र -- 07 अगस्त
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अन्ना आंदोलन नेपथ्य में जा चुका है।  राजनीतिक वर्ग का बड़ा तबका कुटिल मुस्कान बिखेड़ने में मगन है। आम जन कुछ खोजते से नजर आ रहे हैं। उनका संबल कितना टूटा कहा नहीं जा सकता। मीडिया ये चीत्कार सुनता पर डेढ़ साल से सरकारी आकाओं की खुशामद में लगे दिल्ली के अधिकाँश पत्रकार चारण भाट की तरह अपने इस अनुभव का विस्तार करते आंदोलनी नेताओं के विच हंट में रमा है। जन-चेतना के ऐतिहासिक उभार से उबर चुके नेताओं ने जता दिया है कि सिविल सोसाइटी की मौजूदगी उसे बर्दाश्त नहीं। इंडिया में यकीन रखने वाला ये राजनीतिक जमात इतना भर चाहता कि सोसाइटी से जुड़े लोग नरेगा और इसी तरह की योजनाओं को चमत्कारिक बताता फिरे और भूल से भी ग्रीन-पीस जैसा दबाव समूह बनने की हिमाकत ना करे। ये भी तय हो गया है कि सत्ता की उद्दंडता और मीडिया के बीच गठ-जोड़ अभी चलेगा।

उस दिन यानि 3 अगस्त ... जब अन्ना के मंच से आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा हुई तो रंग-बिरंगी पोशाक में डटे लोग जंतर-मंतर के यंत्रों की तजबीज करना चाह रहे थे कि कहीं धूप और छाया का अनुपात तो नहीं गड़बड़ाया। ? निराशा और विषाद के बीच पैरों की चहलकदमी कबूल कर रहे थे कि भारत की उम्मीद एक  बार फिर पश्त हुई है। सपने संजोए आँखों को पेड़ों की झुरमुट के बीच से दूर खड़े सत्ता  केन्द्रों के विशाल खम्भे अट्टहास करते नजर आ रहे थे। मनो प्रजा पर जीत हासिल कर तंत्र खिलखिला रही हो। तंत्र की तरफ से सन्देश आने की उम्मीद ख़त्म हो गई थी।

टीवी स्टूडियो गुलजार हैं उन लोगों से जो अन्ना आन्दोलन की खामियां उजागर करने में लगे हैं। उन्हें अहसास है कि साल 2011 के 16 अगस्त के जन-सैलाब की याद भर से कांपने वाले नेता फिर से रुतबे में आए हैं। लिहाजा अन्ना आन्दोलन को कमतर बताने के लिए जे पी आन्दोलन को याद किया जा रहा है। इस आलेख में परिपाटी के विपरीत कुछ लोगों के नाम लिए जा रहे हैं ... मकसद उनके बहाने चीजों को सिर्फ स्पष्ट करना है।

मसलन उर्मिलेश नाम के पत्रकार जे पी मूवमेंट और प्रजातंत्र को अमृत वचन की तरह पेश करते। बेशक जे पी लोकतंत्र वापसी करवाने में सफल रहे और देश उनका शुक्रगुजार रहेगा। लेकिन उर्मिलेश आज की पीढी को ये नहीं बताते कि 74 के आन्दोलन में जे पी ने सेना को उकसाते हुए दिल्ली का तख्ता पलट देने के लिए कहा था। उसी आन्दोलन के दौरान देश में कुछ जगहों पर उनके समर्थकों द्वारा हिंसक वारदातों को अंजाम दिया गया। उर्मिलेश ये बताना क्यों भूलते कि जे पी आन्दोलनकारियों ने देश के कुछ हिस्सों में जगह-जगह मकानों की दीवारें इंदिरा गांधी के संबंध में गंदी गालियों से पाट दी थी। बेशक प्रशासन के लोगों ने उसे मिटाया था। चौक-चौराहों पर इंदिरा सहित वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के सांकेतिक श्राद्ध कर्म किये गए।

अन्ना आन्दोलन के लोगों ने अभी तक इस दर्जे की नीचता नहीं दिखाई है। बल्कि जन-चेतना के नैतिक पक्ष का अवतार आजादी के बाद अन्ना के ही लोगों ने विराट रूप में पहली बार दिखाया। दग्ध नेताओं की ओर से साम, दाम, दंड, और भेद की तमाम कोशिशें आजमाई गई बावजूद इसके नई पीढी में प्रेरणा जगाने में आन्दोलनकारी लगे रहे। उर्मिलेश को मलाल है कि अन्ना आन्दोलन ने दम तोड़ा। संभव है उन्हें अपने आन्दोलन की याद हो आई हो। पटना में उनके द्वारा पत्रकारों के लिए किया गया आन्दोलन इस मायने में असफल रहा कि नव भारत टाइम्स का पटना संस्करण बंद कर दिया गया। इस संस्करण के तमाम पत्रकार सड़कों पर आ गए।

कहा जा रहा है कि अन्ना के लोग भारत में यूरोप की तर्ज पर एक दबाव समूह के तौर पर बने रहेंगे। इसका अंदाजा  अनशन को समाप्त करवाने में लगे लोगों की फेहरिस्त देख कर लगाया जा सकता है।  कुलदीप नैयर जैसे लोग भी थे इसमें। वे लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर सवाल उठा सकते पर इसी मुद्दे पर कांग्रेस से सवाल करने से बचते हैं। अन्ना टीम के लोगों की अनशन करने की रणनीतिक भूल इस फेहरिस्त में शामिल विभिन्न विचारधाराओं और सरकार से पंगा नहीं लेने वाले ऐसे नामी-गिरामी लोगों के लिए सुनहरा मौका बनकर आया। केजरीवाल जैसों को समझा-बुझा कर सत्ता की राजनीति करने वालों की राह आसान कर दी गई। अनशन पर सिर्फ अन्ना होते तो दृश्य कुछ दूसरा होता।

ये अकारण नहीं है कि जे एन यू के वामपंथी शिक्षक भी अपने मार्क्सवादी छात्रों के इस आन्दोलन में शामिल रहने की बात कबूलने लगे हैं। पिछले साल अप्रैल में भी इन्होने ये बात स्वीकारी थी। लेकिन बीच के डेढ़ साल में जब कांग्रेस की तरफ से इसे आर एस एस प्रायोजित आन्दोलन करार दिया जा रहा था तो ये वामपंथी चुप रहे ... बल्कि कांग्रेस की मुहिम को शह देते रहे। यही रवैया समाजवाद के नाम पर राजनीति करने वाले रिजनल क्षत्रपों का रहा जो विभिन्न घोटालों की जद  में रहे हैं। इन नेताओं ने राहत की सांस ली है कि बेहतर लोकपाल अब दूर की कौड़ी है।

बावजूद इसके लोकपाल के लिए यश लेने की होड़ में तमाम पार्टियां कलाबाजी दिखाएंगे। इतना तो तय है कि अन्ना के साथ युवा वर्ग की जो केमिस्ट्री बनी उन युवाओं को कांग्रेस अपने पाले में लाना चाहेगी। राहुल गांधी जो कि अन्ना के कारण युवाओं के लिए तरस गए थे अब अपना सूखा मिटाने की कोशिश करेंगे। लोकपाल पर हलचल दिखा कर कांग्रेस इस मकसद को साकार करना चाहेगी। उधर अन्ना के लोगों की हताशा को भुनाने की कोशिश बीजेपी की ओर से होगी। इन दलों को अहसास है कि ये वर्ग किसी भी तरफ सरक सकता है। अन्ना आन्दोलन के ठहराव की इस से बेहतर टाइमिंग की लालसा बीजेपी ने नहीं की होगी। लोकसभा चुनाव तक के लिए उसे फोकस में रहने का वक्त मिल जाएगा। कांग्रेस के इशारे पर चली मीडिया की उस मुहिम का अंत भी होगा जिसके तहत विपक्ष की स्पेस अन्ना द्वारा ले लेने का लगातार प्रचार किया गया।

अब टीवी मीडिया में इन्डियन राजनीति के तिलिस्म दिखलाए जाएंगे। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म - कम्युनलिज्म पर गरमागरम बहस होगी, कांग्रेस की तानाशाही मानसिकता को एरोगेंस कह कर छुपाया जाएगा। जातीय राजनीति करने वालों के लिए आरक्षण के मुद्दे उठाए जाएँगे। तिस पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाएगी। प्रगतिशीलता दिखाने के लिए खाप पंचायतों से इनपुट मिल ही जाएगा। विदर्भ के किसान आत्महत्या करेंगे तो शाहरुख़ खान को दस-दस दिनों तक दिखा देंगे ... देस में भूख से मौत होगी तो मोहाली वन डे को सात दिनों तक थोप दिया जाएगा। एन के सिंह अन्ना टीम से पत्रकारों के लिए माफी मंगवा लेंगे पर मुंबई की हिंसा के शिकार पत्रकारों के लिए चुपी साध लेंगे। राजदीप के असम दंगों पर उस खतरनाक बयान की चर्चा नहीं चलाएंगे। अगले चुनाव तक भारत की चीत्कार पर इनकी तरफ से विमर्श अब भूल जाएं।

17.7.12

सितंबर तक बंद हो जाएँगे बिहार के सभी बाल वर्ग केंद्र

सितंबर तक बंद हो जाएँगे बिहार के सभी बाल वर्ग केंद्र

संजय मिश्र

बिहार शिक्षा परियोजना की ओर से संचालित राज्य के सभी बाल वर्ग केंद्र सितंबर तक बंद कर दिए जाएँगे। राज्य सरकार के कर्ता -धर्ताओं ने परियोजना को इस मुतल्लिक संकेत दे दिए हैं। बिहार शिक्षा परियोजना ( सर्व शिक्षा अभियान ) के वरीय अधिकारियों ने भी अपने तरीके से निशाने पर आए कर्मियों तक सन्देश भिजवा दिया है। यानि इन केन्द्रों से जुड़े साढ़े पांच हजार महिला कर्मियों की नौकरी पर तलवार लटक गई है। भारतीय मजदूर संघ ने सरकार के इस कदम का कड़ा प्रतिवाद करने की ठानी है।

संघ की अनुषांगिक इकाई बाल वर्ग दीदी एवं सुपर-वाईजर संघ ने 23 जुलाई को पटना के आर-ब्लाक चौराहा पर जोरदार प्रदर्शन की तैयारी पूरी कर ली है। सुपर-वाईजर संघ की राज्य संयोजिका मंजू चौधरी का कहना है कि एक तरफ शिक्षा का अधिकार कानून में पूर्व बालपन शिक्षा पर जोर दिया गया है जबकि दूसरी तरफ चल रहे इस तरह के केंद्र बंद करने की केंद्र की साजिश के आगे राज्य सरकार झुक रही है। बाल वर्ग दीदी संघ की राज्य संयोजिका इंदु कुमारी ने हैरानी जताते हुए कहा कि एक दशक से भी ज्यादा समय से काम कर रही 5320 बाल वर्ग दीदी के पेट पर लात मारा जा रहा है वहीं महिलाओं की आवाज बुलंद करने वाली राज्य सरकार चुप्पी साधे हुए है।

भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश महामंत्री धीरेन्द्र प्रसाद सिंह ने इन ख़बरों की पुष्टि करते हुए कहा कि परियोजना के अधिकारियों ने उनसे इस संबंध में संपर्क साधा था। संघ नेता ने साफ़ किया कि बाल वर्ग दीदी को शिक्षिका का दर्जा दिलाने के लिए वे आंदोलनरत रहेंगे। दरअसल सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पुर्व बालपन शिक्षा के जिला समन्वयकों को राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी संजीव कुमार के साथ 26 जून को पटना में हुई बैठक में ही कह दिया गया कि सितंबर तक बाल वर्ग केन्द्रों को बोरिया-बिस्तर समेटना होगा।

सूत्रों की मानें तो केंद्र सरकार आंगनबाडी केन्द्रों को ज्यादा तवज्जो देना चाहता है साथ ही बाल वर्ग केन्द्रों के लिए प्रति जिला 35 लाख के सालाना बजट की बचत करना चाहता है। आपको बता दें कि बाल वर्ग केन्द्रों के लिए केंद्र 65 फीसदी हिस्सा वहन करता है जबकि राज्य सरकार बाकि के 35 फीसदी खर्च को वहन करती है। दिलचस्प है कि इसी साल अप्रैल में बाल वर्ग दीदी के मानदेय एक हजार से बढ़ा कर तीन हजार किये गए वहीं सुपर-वाइजरों का मानदेय डेढ़ हजार से बढ़ा कर साढ़े तीन हजार किया गया। सूत्र ये भी बताते हैं कि पुर्व बालपन शिक्षा के तहत दो अन्य कार्यक्रम महादलित उत्थान केंद्र और तालीमी मरकज केंद्र चलते रहेंगे।

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13.7.12

द लास्ट मुग़ल . . .

द लास्ट मुगल्स  . . .

संजय मिश्र

'द लास्ट मुग़ल' के लेखक विलियम डलरिंपल ने जब कहा कि भारतीय इतिहासकार एक दूसरे के लिए लिखते हैं तो विवाद खड़ा हो गया। लगे हाथ उन्होंने ये आरोप भी जड़ दिया कि इनके लेखन में जन-मानस के इतिहास बोध की घोर उपेक्षा की गई  है। 1857 की लड़ाई के संदर्भ में जनता की इस समझ में अटूट आस्था रखने वाले डलरिंपल निराश हुए होते अगर वे मुगलों के वारिश की खोज में दरभंगा आते। चौंकिए नहीं ! मुगलों के अंतिम वारिश 29 साल तक दरभंगा में रहे और यहीं इस परिवार के सदस्यों का इंतकाल हुआ। इनके मजार पर लोगो का जाना तो दूर की बात, पास के  मस्जिद के नमाजी भी इस धरोहर से अनजान हैं।

साल 1881 की ही बात है जब बहादुरशाह के पोते जुबैरुद्दीन गुड-गाणी दरभंगा आए ... और फिर यहीं के होकर रह गए। असल में 1857 की क्रान्ति से आजिज़ आ चुके अँगरेज़ बहादुरशाह के परिजनों के खून प्यासे हो गए थे। ऐसे में दरभंगा के महराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने न सिर्फ उन्हें शरण दी बल्कि उनकी सुरक्षा का पूरा जिम्मा उठाया।  ' आतिश -ए - पिन्हाँ ' के लेखक मुश्ताक अहमद की माने तो महराज का - हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स - में काफी असर था। जान की सुरक्षा से निश्चिन्त हो जुबैरुद्दीन ने जीवन के बाकि के साल किताबें लिखते हुए बिताई।

दरभंगा में रहकर उन्होंने तीन किताबें लिखी। उनकी लिखी ' चमनिस्तान - ए - सुखन ' कविता संग्रह है जबकि ' मशनबी दुर -ए - सहसबार '  महाकाव्य है। जुबैरुद्दीन की तीसरी रचना ' मौज - ए - सुलतानी ' है। इसमें देश की विभिन्न रियासतों की शासन  व्यवस्था का जिक्र है। खास बात ये है कि महाकाव्य ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' में राज दरभंगा और मिथिला की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को तफसील से बताया गया है।

राज परिवार की अंतिम महारानी के द्वारा संचालित कल्याणी फाउंडेशन की ओर से ''मौज -ए -सुलतानी ' को प्रकाशित कराया गया है। कल्याणी फाउंडेशन के लाएब्रेरियन पारस के मुताबिक़ मौज ए  सुल्तानी की मूल प्रतियों में से एक राज परिवार के पास है। मुश्ताक अहमद भी इसकी तसदीक करते हैं। उनके अनुसार ये प्रति कुमार शुभेश्वर सिंह की लाएब्रेरी में उन्होंने देखी थी। वे दावा करते है कि इस प्रति में जुबैरुद्दीन का मूल हस्ताक्षर भी है।

विलियम डलरिम्पल अपनी  किताब में दारा बखत की बार - बार चर्चा करते हैं जबकि जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं। उधर लाला श्रीराम अपनी किताब 'खुम - खान ए - जाबेद ' में बहादुरशाह की वंशावली का जिक्र करते हैं। इस किताब में दावा किया गया है कि जुबैरुद्दीन ही बहादुरशाह के वारिश थे। असल में बहादुरशाह के सबसे बड़े बेटे दारा बख्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे। लेकिन सिपाही विद्रोह के बाद सब कुछ बदल गया। बहादुरशाह के पांच बेटों को अंग्रेजों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के निकट बेरहमी से मार दिया।

इस मारकाट से बहादुरशाह का एक और पुत्र रईस खान  बच निकला और कलकत्ता के मटिया बुर्ज़ इलाके में पनाह ली। कलकत्ता में ही 1861 में रईस की मौत हो गई। साल 1858 में जुबैरुद्दीन किसी तरह दिल्ली से भागने  में सफल रहा और वाराणसी में सालो तक छुपा रहा। वाराणसी  में ही उसकी मुलाकात दरभंगा के महराज से हुई। महाराज ने उन्हें दरभंगा आने का न्योता दे दिया। घुमते-भटकते अगले साल जुबैरुद्दीन दरभंगा पहुँच गए।

लक्ष्मीश्वर सिंह ने काजी मुहल्ला में उनके लिए घर बनवा दिया। काजी मोहल्ला ही आज का कटहल वाड़ी है।  जुबैर के लिए मस्जिद भी बना दी गई। लेकिन बदकिस्मती ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जुबैरुद्दीन के दो बेटों की मौत हैजा से हो गई। ये साल 1902 की बात है। इसी साल ग़मगीन उनकी पत्नी भी दुनिया छोड़ गई। जुबैरुद्दीन का इंतकाल 1910 में हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिग्घी लेक के किनारे किया गया। राज परिवार की तरफ से 1914 में उस जगह पर एक मजार बनबाया गया।

रेड सैंड स्टोन से बना ये मजार जर्जर हालत में है। दीवार में लगे खूबसूरत झरोखे कई जगह से टूट गए हैं। मजार के अन्दर कंटीले घास उग आए हैं। इसके अन्दर जाने वाली सीढ़ी खस्ताहाल है। दरवाजे पर बना आर्क भी दरकने लगा है। मजार के केयरटेकर उस्मान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि ये मजार मुगलों के अंतिम वारिश की है। ... अगली वार विलियम डलरिंपल भारत आएं तो दरभंगा के संस्कृति प्रेम पर अट्टहास करते इस मजार को जरूर देखें।

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5.4.12

भारत की जंग !.....और मीडिया

संजय मिश्र
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सेनाध्यक्ष वी के सिंह ने मीडिया में आई उस खबर को बकवास कहा है जिसमें सेना की दो टुकड़ियों की दिल्ली कूच और देश के कुछ हुक्मरानों में उस रात बेचैनी का जिक्र है। नेपाल यात्रा के दौरान जनरल ने भारत में उबाल पर पहुँची कयासबाजी पर विराम लगाते हुए कहा है कि इसमें कोई तथ्य नहीं है। इससे पहले प्रधान-मंत्री और रक्षा मंत्री ने भी ऐसी अटकलों को सिरे से ख़ारिज कर दिया। प्रधान-मंत्री ने इसे --अलार्मिस्ट--यानि खतरों से भरी खबर करार दिया। उन्होंने ऐसे समाचारों को ठीक से समझने की लोगों से गुजारिश की।

इन्डियन एक्सप्रेस की खबर पर अब भले ही हर तरफ से खंडन आ गए हों लेकिन इसके साथ ही कई सवाल मुंह बा कर खड़े हो गए हैं। क्या दिल्ली में बैठे नीति-नियंता भारत जैसी आवो-हवा में भी तख्ता-पलट जैसी आशंका पाल सकते हैं ? क्या --स्लीपलेस नाईट -- के दौर से उनका गुजरना उनके मन में बैठे चोर से पैदा हुआ ? क्या इन्हीं में से कुछ लोग सेना प्रमुख वी के सिंह को हटाने की कोशिश के सूत्रधार थे ? एक अखबार की रिपोर्ट पर यकीन करें तो सरकार में बैठे एक कांग्रेसी नेता जनरल से जल्द मुक्ति पाने को व्याकुल हैं । ये कहा जा रहा है कि रक्षा सौदों के दलाल वी के सिंह को इतना बदनाम कर देना चाहते हैं कि या तो सरकार उन्हें वर्खास्त कर दे या फिर जनरल खुद ही पद छोड़ दें । रक्षा खरीद के कई मामलों का पेंडिंग रहना इसकी वजह बताया जा रहा है।

लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आर्म्स लॉबी क्या हुक्मरानों और मीडिया में इतनी पहुँच बना चुका है कि वो भारत की बेदाग़ सेना-सरकार संबंधों को धूल में मिलाने का दुस्साहस करे ? क्या इस लॉबी को लगता है कि सॉफ्ट स्टेट की छवि पेश करने वाले भारत को हिलाया जा सकता है ? इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता ने अपने उस रिपोर्ट का बचाव किया है जिससे ये हंगामा उठ खड़ा हुआ। उन्होंने साफ़ किया है कि तख्ता-पलट जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ है। लेकिन पत्रकारिये कारणों का हवाला देकर क्या वे इस खबर से होने वाले नुकसान को छुपा सकते हैं ? बेशक पत्रकारिये निष्ठा देशों की सीमा से ऊपर की चीज होती है। इस निष्ठा को धर्म और सभी तरह की आस्था से प्रभावित हुए बिना ही सही तरीके से जिया जा सकता है। लेकिन मर्यादा ये है कि जहाँ पत्रकारिता की जा रही है वहां के --लौ ऑफ़ द लैंड -- का सम्मान करने और वहां के लोगों के -- थिंकिंग पैटर्न --को सुलझे दिमाग से देखने की जरूरत है।

जाहिर है वैज्ञानिक सोच की पौध विकसित करने के लिए धार्मिक मामलों में पत्रकारिये आक्रामकता पसंद कर ली जाती है। लेकिन देशों की सुरक्षा को दांव पर लगा देने जैसे समाचार खतरनाक किस्म के ही माने जाएंगे। ये सही है कि शेखर गुप्ता भारतीय पत्रकार हैं और एक भारतीय नागरिक के तौर पर उनके राष्ट्र प्रेम पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। लेकिन सवाल पत्रकारिये निष्ठा वाले मन का है। कुछ साल पहले की एक खबर को याद करें। बिहार के गया में आत्म-दाह वाली एक खबर विवादों में फंस गई। यहाँ भी पत्रकार की संवेदना पर सवाल उठे। दरअसल आत्म-दाह करने वाले की हिम्मत पत्रकारों के सामने डगमगा गई। लेकिन विजुअल लेने की सनक में पत्रकारों ने उस व्यक्ति को आग लगाने के लिए उकसाया। ये खबर सुर्खियाँ बटोरने में जरूर कामयाब हुई लेकिन अपने साथ कई सवाल छोड़ गई।
क्या पत्रकारों की कोई विचारधारा हो सकती है ? मौजूदा आलेख में आपको ये सवाल अटपटा सा लगेगा। लेकिन भारत में आम-तौर पर ऐसे मौके आते हैं जहाँ पत्रकार अपने उस आम लोगों से ही टकराता है जिसका वो पक्षधर होने की कसमें खाता है। अब वामपंथी और सेक्यूलरवादी रूझान को ही लें । देश के अधिकाँश पत्रकार इन विचारधाराओं से इस हद तक लगाव रखते हैं कि वे भूल जाते कि विचारधाराएँ देशों के लिए बनते हैं न कि विचारधारा के लिए देश बनते। पत्रकारिये निष्ठा सीमाओं से ऊपर की चीज होती है पर क्या इस निष्ठा के लिए देशें बनी हैं। या देशों की जन-भलाई के लिए इस निष्ठा को कसौटी पर कसी जाए। इसके लिए ....वे क्यों भूल जाना चाहते कि उनके पास विचारधारा का एक ही विकल्प सामने आकर खड़ा होता है और वो है "ह्यूमनिज्म" ---इस नजरिये से भी देखा जाए तो पत्रकारिये प्रतिबद्धता शेखर गुप्ता जैसों को ये इजाजत नहीं देता कि वो किसी राष्ट्र के समस्त नागरिकों को कुछ समय के लिए दहशत में धकेल दे।
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28.3.12

अन्ना आन्दोलन की दिशा

संजय मिश्र


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जंतर-मंतर पर हुए एक-दिनी उपवास ने फिर साबित कर दिया कि लोगों पर अन्ना हजारे की पकड़ बरकरार है। आन्दोलन के इस सांकेतिक चरण ने जहां कई मिथक तोड़े वहीं रणनीतिक कौशल की नुमाइश भी हुई। दिन ढलने के साथ आन्दोलनकारियों में संतोष का भाव था। पहले की तरह इस बार भी तनातनी का माहौल बना। विश्लेषक नए सिरे से आन्दोलन पर विमर्श करते नजर आये। उधर, टीवी सेटों पर नजर गडाए आम-जन मीडिया के रंग बदलने को बड़ी उत्सुकता से देखते रहे।


२५ मार्च ....कई मायनों में नई हकीकत बयां कर गया। ये साफ़ हो गया कि मीडिया का बड़ा तबका टीम अन्ना पर पूरी तरह हमलावर रहने वाला है। इस वर्ग को पता चल गया है कि उनकी बेरुखी के बावजूद लोगों का इस आन्दोलन से अनुराग है। राजनीतिक जमात को भी अहसास हुआ कि टीवी चैनलों में कम कवरेज से बेपरवाह लोग चिलचिलाती धूप में जंतर मंतर पर डटे रह सकते हैं। ये अकारण नहीं कि बयानों की तल्खी के बीच राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया सावधान रही।


बेशक, उपवास के दौरान इस्तेमाल हुए एक कहावत (मुहावरे) पर संसद में हंगामा हुआ। क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि सदन में बैठने वालों को ये मालूम न हो कि ' चोर की दाढी में तिनका ' एक कहावत है ...... और ये कि इसका अर्थ है---दोषी का चौकन्ना रहना --- ? फिर ये हंगामा क्यों ? असल में टीम अन्ना का निशाना इस बार व्यापक था। -एन डी ए - के संयोजक शरद यादव मुहावरा प्रकरण से जुड़ गए। देश के लोक जानते हैं कि साफ़ छवि वाले शरद भाषणों के दौरान अक्सर बहक जाते हैं ..... संसद में भी और संसद के बाहर भी। राहुल गांधी पर उनके अमर्यादित बयान से कांग्रेसी नेता बेहद नाराज हुए थे। बावजूद इसके २६ मार्च को संसद में टीम अन्ना पर तिलमिलाए शरद यादव का वही कांग्रेसी मेज थपथपा कर साथ दे रहे थे।

कांग्रेसी, दरअसल उस मकसद को कामयाब होता देख रहे थे जिसके तहत महीनो पहले बड़े जतन से यू पी ए सरकार के कुछ मंत्रियों ने आन्दोलन को टीम अन्ना वर्सेस संसद में तब्दील करने की कोशिश की थी। कांग्रेस की सधी प्रतिक्रिया से संकेत मिलने लगा है कि पार्टी अब आन्दोलन के प्रति आक्रामक नीति का त्याग करने के मूड में है। सुषमा स्वराज का संसद में अन्ना के साथियों पर बरसना इस बात को दर्शा गया कि २०१४ चुनाव से पहले का डेढ़ साल बीजेपी अपने पाले में रखना चाहती है। यानि अन्ना का फोकस में रहना अब बीजेपी नेताओं को रास नहीं।
सांसदों के लिए तय करना मुश्किल हो रहा था कि आन्दोलनकारियों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव कौन लाए ? आखिरकार स्पीकर की तरफ से टीम अन्ना के विवादित बयानों को अनुचित और अस्वीकार्य बताया गया। दिलचस्प है कि इस कार्यवाही के दौरान तीन सांसदों ने अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर दिया। एक मौके पर तो स्पीकर को याद दिलाना पड़ा कि सदस्य संसद की गरिमा पर बात कर रहे हैं। भले ही सांसदों के अभद्र शब्दों को एक्सपंज कर दिया गया लेकिन कार्यवाही को टीवी पर देखने वाले से सांसदों का आचरण छुप नहीं सका।

टीम अन्ना से जुड़े विशेषाधिकार हनन का मामला अभी लंबित है। जाहिर है इसे अमल में लाने पर टकराव की नौबत बनेगी । यह सन्देश जाएगा कि टकराव संसद और जनता के बीच है । साथ ही अवमानना के लपेटे में आने वाले याद दिलाएंगे कि करीब पाने दो सौ दागी व्यक्ति संसद में हैं। क्या कोई सांसद कह पाएगा कि संसद में सभी पाक-साफ़ हैं ? जिस जल्दबाजी में निंदा प्रस्ताव पास हुआ उससे स्पष्ट है कि समझदार सांसद टकराव से बचना चाहते हैं। उन्हें पता है कि उनके विशेषाधिकार और कोर्ट के अवमानना के अधिकार के कोडिफिकेसन की मांग उठने लगी है। टीम अन्ना के रणनीतिक बदलाव से भी वे सचेत हैं।
टीम अन्ना में समझ बनी है कि राजनीतिक वर्ग के आचरण का जनता से सीधा सामना कराया जाए। इसी के तहत सांसदों के संसद में दिए गए भाषणों की फिल्म जंतर-मंतर पर जनता को दिखाई गई। ये जताया गया कि नेताओं की कथनी और करनी में फर्क कितना गहरा है। जाहिर है इस तरीके से एक्सपोज होना कोई नेता नहीं चाहेगा। वो तो इस सिधांत पर चलता है कि पब्लिक मेमोरी बेहद अल्प होती है । इसके आलावा भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मारे गए व्हिसल ब्लोअर्स के परिजनों को भी उपवास स्थल पर लाने में टीम अन्ना सफल हुई। फिल्म के जरिये उनकी साहसिक कहानिया बताई गई। ये प्रभावित परिवार देश के अनेक राज्यों से आए थे और उन राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें हैं और रही हैं। ये बताया गया कि पीड़ितों के साथ इन सरकारों ने न्याय नहीं किया है।
मीडिया सन्न रह गया। बेगुसराय के शशिधर मिश्र जैसे अनेक आर टी आई कार्यकर्ताओं की सहादत से दिल्ली के पत्रकार बिलकुल अनजान थे। मीडिया अब ये आरोप लगाने की सूरत में नहीं था कि टीम अन्ना की नजर राज्यों के भ्रष्टाचार पर नहीं है। कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के पैरोकार जो पत्रकार रामदेव को सांप्रदायिक साबित करने पर तुले हैं उन्हें अन्ना और रामदेव का हाथ मिलाना पसंद नहीं आ रहा। मीडिया का अकबकाना साफ़ दिख रहा था। लिहाजा एक मुहावरे के बहाने गंभीर मुद्दों को स्काई-जैक कर लिया गया। कांग्रेस की --बी - टीम-- का अक्स दिखाने वाला एक राष्ट्रीय टीवी चैनल तो दो दिनों तक डिस्क्लेमर ही दिखाता रह गया। इस चैनल को समझ नहीं आ रहा था कि लालू यादव द्वारा कहे गए मुहावरे ---धान के रोटी तवा में , अन्ना उड़ गए हवा में ---- के लिए कैसा डिस्क्लेमर दिखाएँ।
अन्ना ने अपने भाषण में कहा कि सरकार २०१४ तक जन लोकपाल पारित करा दे। इतना लम्बा समय देने पर बहस छिड़ी हुई है। लेकिन पोलिटिकल क्लास के लिए ये समय काफी होगा ....अपने स्याह पक्ष पर गौर करने के लिए। टकराव से बेहतर है कि नेता इस दौरान चुनाव सुधार की दिशा में सकारात्मक पहल करें। ये कदम उनके वोटर का उन पर भरोसा कायम करने में मददगार होगा। ये देश के हित में होगा। मीडिया भी इसे समझे तो बेहतर है।
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23.3.12

राजनीति में नई आहट.....

संजय मिश्र
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भारी विरोध के बीच अंशुमन मिश्र नाम के शख्स ने झारखंड से राज्यसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन वापस कर लिया है। इसके साथ ही बीजेपी के वरिष्ट नेताओं ने राहत की सांस ली है। कहा जा रहा है कि अंशुमन को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी का आशीर्वाद है और उन्ही के बूते वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखारे में कूद परे थेसार्वजानिक जीवन में अनजान इस व्यक्ति के बहाने राज्यसभा चुनावो में पैसो की माया पर फिर से फोकस है । वही दूसरी ओर गडकरी के मनमाने फैसले के खिलाफ पार्टीजनो की जीत अलग तरह के संकेत दे रही है।
कई दिन चले इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बीच 'पापुलर परसेप्सन ' में श्रीहीन नहीं दिखने की बीजेपी नेताओ की चाहत बार -बार झाकती रही । जिस दिन नामांकन वापसी की अंशुमन की घोषणा हुई ठीक उसी दिन दिल्ली में पुस्तक विमोचन के एक कार्यक्रम में बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी ने ये कहकर चौका दिया कि भारतीय राजनीति के मौजूदा तेवर को ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता । बाबू सिह कुशवाहा और अंशुमन प्रकरण के दौरान शीर्ष पार्टी नेतृत्व के तुगलकी फैसलों की खिलाफत क्या इस चक्रव्यूह से निकलने की अकुलाहट है। दिलचस्प है कि पुस्तक विमोचन कार्यकरम में अन्ना हजारे भी मौजूद थे।
इस सुगबुगाहट को बीते संसद सत्र में शरद यादव के उस उदगार से जोड़ कर देखें तो उम्मीद जगती है। शरद यादव ने ठसक से कहा था कि राजनेता तो सनातनी दुसरे को टोपी पहनाते आये हैं। उन्हें मलाल था कि नेताओं के इस जन्म सिद्ध अधिकार को अन्ना का आन्दोलन चुनौती दे रहा है। अब हाल के समय में देश की राजनीति को जिन अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पडा है उन पर नजर दौराएं। यहाँ रेडार पर कांग्रेस और तृणमूल आ गई। आम समझ है कि कांग्रेसी संस्कृति में हाई कमांड को चुनौती देना पार्टी नेताओं के लिए लगभग नामुमकिन सा होता है। लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ हरीश रावत के बागी तेवर ने सोनिया और राहुल की सलाहकार मंडली को सकते में डाल दिया। जनप्रिय नेता की अबहेलना और ऊपर से मुख्यमंत्री थोपने की प्रवृति का वे विरोध कर रहे थे।
नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। बावजूद इसके , क्या राजनेता अपने दलों के भीतर जड़ जमा चुकी संवादहीनता पर मुखर हो रहे हैं? क्या वे पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र को जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं? आम तौर पर देश के क्षेत्रीय दलों की आभा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है....और ये नेतृत्व सवालों से ऊपर माना जाता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने रेल मंत्री रहते हुए पार्टी नेतृत्व से भिड़ने की हिमाकत की। उन्होंने जता दिया कि वे हाई कमांड द्वारा पशुओं की तरह हांके जाने को तैयार नहीं। त्रिवेदी ने पालिटिकल सिस्टम से सवालों की झाड़ी लगा दी।
देश बड़ा या पार्टी का हित बड़ा....या फिर क्या पार्टी का हित देश हित से लयबद्ध नहीं हो? इन चुभते सवालों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि राजनेताओं में स्वीकार्यता छिजने को रोकने की कोई कोशिश आकार ले रही है। पर इस इच्छा-पूर्ति के लिए उनका अंतस दवाब में जरूर दिखता है। ये दवाब जन-आंदोलनों का प्रतिफल है। १६ अगस्त २०११ के जन सैलाब का असर राजनीति पर हुआ है। राजनेताओं से पूछा जा रहा है कि उनके सरोकार सत्ता में जाते ही क्यों बदल जा रहे हैं?
ऐसा नहीं कि बेचैनी सिर्फ तंत्र में है....ये लोक में भी है। लोकतंत्र में लोक का यशोगान करने वाले विश्लेषक अक्सर इसे नजर अंदाज करते पाए जाते हैं कि चुनावों में जनता के फैसले क्या जनता की आकांक्षा पूरी करने में समर्थ होते हैं? नई सरकार बनने के बाद यूपी के हालात क्या वोटरों की दूरदर्शिता दिखाते .......अन्ना आन्दोलन में लगे लोगों में इसको लेकर सकून नहीं है? क्या आन्दोलनकारियों का सन्देश उस मुकाम तक पहुंचा है जहाँ तक इसे वे ले जाना चाहते? अन्ना आन्दोलन के तीसरे चरण की तैयारी इन्हीं सवालों से जूझ रही है। राजनीतिक वर्ग तभी तो चौकन्ना है।
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3.3.12

नदी जोड़ो योजना -- तल्ख़ सच्चाई

संजय मिश्र
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नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है । इसके साथ ही बहस का नया पिटारा खुल गया है। विरोध के स्वर को देखते हुए अब तक ये माना जा रहा था कि ये योजना देश-व्यापी नहीं रह जाएगी और ख़ास-ख़ास जगहों पर ही इसे आजमाना ज्यादा मुफीद रहेगा । ये उम्मीद की जा रही थी कि इस दौरान किसी विवाद में योजना विरोधियों की ओर से कोर्ट का दखल लिया जाएगा। ये विकल्प अब भी खुला है लेकिन कोर्ट के रूख ने साफ़ कर दिया है कि सरकारें अब तेजी दिखाएं । सरकारी कार्यप्रणाली समझने वाले मान रहे हैं कि ऐसे मेगा प्रोजेक्ल्ट्स के लिए फंड का रोना देखने को नहीं मिलेगा । खर्च जुटा ही लिया जाएगा। योजना के अमल में कमीशन की माया की पूजा होगी और अगले कई सालों तक राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए पैसा आड़े नहीं आएगा।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना ---बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।

क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है ? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते ? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे ? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी ? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा ? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा । जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का --राईस बवेल--कहलाता रहेगा ? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे ? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी --क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर --डिस्जोर्ज--होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें ---निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है।पहले ये इलाका तीन फसली था ---अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में --डॉल्फिन--बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी --आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा।? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्या काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।

14.2.12

कोसी पुल --कहीं खुशी कहीं गम

संजय मिश्र
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कोसी नदी पर बने पुल के उदघाटन से मिथिला के लोगों में खुशी की लहर दौर गई है । इसे एतिहासिक पल बताया गया । पुल का उदघाटन करते हुए आह्लादित नीतीश कुमार ने इस क्षण को उत्सव के रूप में लेने की अपील की। कहा जा रहा है कि इससे इलाके की तस्वीर बदलेगी।
साल १९३४ के भूकंप के कारण कोसी रेल पुल ध्वस्त हो गया था। बाद के सालों की बाढ़ इसके अवशेषों को बहा ले गई। नतीजतन इलाके के बड़े हिस्से में सीधी आवाजाही अवरूध हो गई। दूरियां बढ़ी..... और ऐसे बढ़ी कि दैनिक जीवन से लेकर आर्थिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के रूप भयावह शक्ल लेने लगे। मधुबनी-दरभंगा और सुपौल-सहरसा जिलों के गाँव के बीच शादी-ब्याह में रूकावटें आने लगी। औसतन १५ किलोमीटर के फासले पर स्थित ये गाँव आपस में कट चुके थे। नाव से पार करना जोखिम से कम नहीं....ऊपर से कोसी बांधों के बीच भौगोलिक बनावट ऐसी हो गई जो जल-दस्युओं और तस्करों का शरण-स्थली साबित हुई। ऐसे गिरोहों की दहशत नेपाल की सीमा से कुरसेला तट तक फ़ैली हुई है। लिहाजा डकैतों के खौफ के कारण लोग १५ किलोमीटर की दूरी तय करने की जगह अतिरिक्त २५० किलोमीटर सफ़र कर अपने पड़ोसी गाँव जाना ज्यादा मुफीद समझते रहे।
आवागमन ठप होने का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा। निर्मली और घोघरडीहा के बीच कभी चावल मीलों की भरमार हुआ करती थी। लिहाजा ये इलाका चावल की मंडी के तौर पर विकसित हुआ। उन्नत व्यापार की वजह थी रेल यातायात। कोसी नदी पर रेल पुल के कारण इलाके का संपर्क पूर्वी और पश्चिमी भागों से था। आपको ताज्जुब होगा कि घोघरडीहा जैसे गाँव में आई टी आई और टीचर ट्रेनिंग संस्थान अरसे से मौजूद हैं। हाल के वर्षों में जिन्होंने इन कस्बाई जगहों के पतन को को देखा हो उन्हें ये बातें कहानी जैसी ही लगेंगी।
बेशक इस इलाके में खुशी का आलम है....उम्मीद जगी है। उम्मीद कोसी के पूर्वी इलाकों में भी जगी है। वहाँ बड़े पैमाने पर नकदी फसल उपजाई जाती है। कोसी सड़क पुल के के कारण अब उनका माल आसानी से पश्चिमी इलाको में पहुंचेगा साथ ही उत्पाद का अच्छा दाम भी मिलेगा। इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है। केले का उत्पादन वहाँ बड़ी मात्रा में होता है लेकिन दरभंगा और मुजफ्फरपुर जैसे शहरों में पहुँचते-पहुँचते ये उत्पाद खराब होने लगता है। हर सीजन में एक समय ऐसा आता है जब ये दो-तीन रूपये दर्जन खपाना पर जाता है। अब नए कोसी पुल से ये आसानी से पहुंचेगा और उत्पाद की विक्री के लिए अच्छा - खासा समय मिल जाएगा।

इस पुल के कारण इस्ट-वेस्ट कोरिडोर भारतीय अर्थव्यवस्था को साउथ-इस्ट एशिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ेगा। इंडिया-मियान्मार फ्रेंडशिप रोड इसमें लिंक का काम करेगा। भारत की लुक-इस्ट पालिसी को देखते हुए संभावनाएं जगती हैं। ऐसे में मिथिला की अर्थव्यवस्था को जो गति मिलेगी उसका आभास किया जा सकता है। जाहिर तौर पर आतंरिक और वाह्य आर्थिक गतिविधियाँ बढेंगी। अब किशनगंज की चाय ज्यादा आसानी से दिल्ली जैसे बाजारों में पहुंचेगी। समस्तीपुर और कटिहार के बीच जूट का व्यापार तेज होगा। पूर्णिया कमिश्नरी के जूट उत्पादक किसान अब बंगाल और बांग्लादेश के साथ-साथ समस्तीपुर के जूट मीलों को भी अपना उत्पाद बेच सकेंगे।
कोसी और महानंदा नदी के बीच के इलाके में हाल के वर्षों में हर्बल उत्पाद की खेती पर ज्यादा जोर दिया गया है। कोसी का नया पुल इन उत्पादों के लिए पश्चिम का बाजार आसानी से खोल सकता है। ये बताना दिलचस्प है कि गायत्री मंत्र के रचयिता महर्षि विश्वामित्र ने हिमालय और गंगा के बीच इसी कोसी इलाके में बोटानिकल रिसर्च किया था। निश्चय ही मिथिला में हर्बल खेती की तरफ बढ़ रहा रूझान देवर्षि के प्रयासों की याद दिलाता है।

महिषी शक्तिपीठ है । दरभंगा और तिरहुत प्रमंडल के श्रद्धालू बड़ी संख्या में वहां जाना चाहते हैं। अब उन्हें काफी सहूलियत होगी। इसी तरह इन दोनों कमिश्नरी के लोगों का दार्जीलिंग जाना महज कुछ घंटों की बात होगी। कोसी के पूरब के लोगों को भी उच्चैठ और कुशेश्वर आने में आसानी होगी।
कहीं खुशी-कहीं गम....जी हाँ....पुल की तकनीकी खामी ने अच्छी खासी आबादी को निराश किया है। कोसी के पूर्वी और पश्चिमी बाधों के बीच के 11 किलोमीटर में ये पुल एक फ्लाई -ओवर की शक्ल में नहीं है। दरअसल 1.8 किलोमीटर के पुल के आलावा 9 किलोमीटर सड़क बनाई गई हैं। इन सड़कों की वजह से पुल के उत्तर में कई किलोमीटर दूर तक पानी का सतह पहले की तुलना में उंचा बना रहता है। नतीजतन इस दायरे में बांधों के बीच के तमाम गाँव जल-जमाव का शिकार हो जा रहे हैं । पुल का डिजाइन बनाते समय माना गया कि इससे पुल के उत्तर आठ किलोमीटर तक पानी का फुलाव होगा और करीब दस हजार लोग प्रभावित होंगे। लेकिन पिछले साल की बाढ़ का अनुभव बताता है कि पानी का फुलाव कई किलोमीटर आगे तक चला गया । माना जा रहा है कि करीब पचास हजार लोगों पर इसका असर रहेगा। पुल के मौजूदा डिजाइन ने लागत जरूर कम की लेकिन इसने हजारों लोगों को रोने के लिए विवश किया है। क्या इनका दर्द सुनने के लिए हुक्मरानों को फुर्सत है?
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26.1.12

सेवा यात्रा और मधुबनी को समृद्ध करने वाले पत्रकार

संजय मिश्र -- २३-०१-१२
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मधुबनी की झोली कितनी बड़ी है ....... क्या आपको अनुमान है उसकी जरूरतों और आकांक्षा की ? उम्मीद कर सकते हैं कि आपका जवाब ना में ही होगा । १९ जनवरी २०१२--शाम होते-होते मधुबनी के लोग हैरानी से भर उठे । सेवा यात्रा की कवरेज दिखा रहे एक रीजनल न्यूज चैनल की स्क्रीन पर लगातार एक टेक्स्ट फ्लैश हो रहा था । इसमें लिखा था--मधुबनी हुई मालामाल। असल में ४.३ अरब की योजनाओं के शिलान्यास के मद्देनजर ये कहा जा रहा था। अगले दिन बिहार में सर्वाधिक रीडरशिप का दावा करने वाले एक अखवार की हेडलाइन देख वे अचम्भे में पड़ गए। इसमें कहा गया कि --मधुबनी की भर गई झोली। शहरवासी एक दूसरे से तजबीज करते दिखे कि क्या वाकई उनकी झोली भर गई ?
आम दर्शक या पाठक मीडिया घरानों की परदे के पीछे की हलचल से अनजान होते...लिहाजा उनकी उलझन समझी जा सकती है। लेकिन इन घरानों में काम करने वाले पत्रकार भी हैरान थे....ख़ास कर टीवी पत्रकार। उन्हें पता है कि सेवा यात्रा से जुड़े विज्ञापनों की बंदरबांट में टीवी चैनलों को ठेंगा दिखाया गया है...जबकि अखबारों पर विशेष कृपा की गई। यही कारण है कि सेवा यात्रा के कवरेज में अधिकाँश न्यूज चैनल एंटी इस्तैब्लिस्मेंट मोड में हैं। विज्ञापन की माया के बावजूद ये समझना मुश्किल है की मधुबनी की उम्मीदों का अंदाजा इन संपादकों ने कैसे लगाया?
दरअसल नीतीश बंदना की कोशिश में ये बताया गया मानो मधुबनी का अब कल्याण होने वाला है। लेकिन जमीनी हकीकत इनका मूंह चिढाने के लिए काफी है। यात्रा के दौरान बलिराजगढ़ में मुख्यमंत्री को ये अहसास हो गया कि जिले के ऐतिहासिक धरोहरों की घनघोर उपेक्षा हुई है। स्थानीय लोग इस उपेक्षा को पहचान मिटाने की साजिश का हिस्सा मानते हैं। खुली आँखों से गढ़ को निहारते नीतीश कुमार को अंदाजा हो रहा था कि बिहार में गया, नालंदा और वैशाली से आगे भी संभावनाएं मौजूद हैं। मधुबनी जिले में खुदाई की बाट जोह रहे ऐसे कई पुरातात्विक स्थल हैं जो वैदिक काल तक की कहानी कहने में सक्षम हैं।
मुख्यमंत्री को अपने बीच पाकर लोगों का गद-गद होना स्वाभाविक है लेकिन फ़रियाद लेकर जनता दरबार में पहुचने के लिए हंगामा करने वालों की तादाद बहुत कुछ कह रही थी। मुख्यमंत्री तक नहीं पहुँच पाए ऐसे लोगों के विदीर्ण चेहरे आभास कर रहे थे कि ख़राब माली हालत देर-सवेर उन्हें पलायन करने वालों की भीड़ में धकेलेगी....और अपने सामाजिक सन्दर्भों से दूर ले जाएगी। जहाँ इनमें से कई लोग गलत संगत में भी पड़ेंगे। आतंकवादियों के चंगुल में फंसे जिले के पांच लोगों की दास्तान मधुबनीवासियों को साल रही है।

इस जिले में पलायन नासूर बन गया है। इसकी मारक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दरभंगा स्टेशन से खुलने वाली लम्बी दूरी की अधिकाश ट्रेनों का एक्सटेंसन जयनगर तक कर दिया गया है। सघन जन्संख्यां और बाढ़ की विभीषिका पलायन के ताप को बढाती है। उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई के लिहाज से जमीन का बेहतरीन ढाल इस इलाके को खेती के लिए बेहद अनुकूल बनाता है। लेकिन पांच दशक से निर्माणाधीन पश्चिमी कोसी नहर यहाँ के लोगों के लिए सपना बना हुआ है। क्या सेवा यात्रा में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को पूरा करने का संकल्प है ?
कई बार अकाल की मार झेल रहे इस इलाके में सेकेंडरी सेक्टर का हाल बेहाल है। बिजली सप्लाई में मधुबनी प्राथमिकता सूची से कोसों दूर है। नतीजतन उद्योग -धंधों का विकास चौपट है। पंडौल इंडस्ट्रियल एरिया में चिमनियाँ सालों से बुझी पडी हैं। जिले की बंद चीनी मीलों के खुलने की खबर सुन-सुन कर लोग थक चुके हैं। जिन लोगों को बिहार में इन्फ्रास्त्रक्चार के विकास पर गुमान हो उन्हें इस जिले से गुजरने वाली एन एच १०५ पर एक बार जरूर सफ़र कर लेना चाहिए।
अकाल ने ही मिथिला पेंटिंग का परिचय व्यावसायिक दुनिया से कराया था। दो सालों से मिथिला पेंटिंग संस्थान खोलने की बात कही जा रही है। नीतीश ने एक बार फिर इस वायदे को दुहराया है। ये संस्थान सौराठ में स्थापित होगा.....जी हाँ उसी सौराठ में जहां शादी के इच्क्षुक दूल्हों का मेला लगता है। लेकिन केंद्र से विशेष पॅकेज की मांग करने वाले नीतीश इस बात पर चुप्पी साध गए कि इसी जिले में तेल खुदाई के लिए ओ एन जी सी की ड्रीलिंग का काम क्यों ठप पडा है ? आपको बता दें की सौराठ गाँव में ही ओ एन जी सी का लाव-लश्कर महीनो तक रहा लेकिन रहस्यमई तरीके से ड्रीलिंग का काम रोक दिया गया।
सरकार के अनुसार जिले में करीब ४.३ अरब की ४६७ छोटी-बड़ी विकास योजनाओं का शिलान्यास हुआ । मधुबनी को समृद्ध बनाने वाले संपादक ज़रा नालंदा जिले के आंकड़ों पर गौर कर लें । राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं से अलग नालंदा जिले में स्थाई महत्त्व की करीब ७५० अरब की योजनाओं पर काम चल रहा है। इन आंकड़ों से भी मन न भरे तो ये संपादक मधुबनी के काशीनाथ उर्फ़ राधा-कान्त को याद कर लें जिसने तंगहाली में नगर-पालिका परिसर के सामने आत्म-दाह कर लिया था।

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