life is celebration

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8.6.11

अन्ना, रामदेव और पीसी में जूता- पार्ट २

संजय मिश्र
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गृह मंत्री पी चिदंबरम ने आठ जून को लगभग धमकाने वाले अंदाज में कहा कि ....(जन-आंदोलनों के ) कम्पे-टि-टिव कवरेज से देश की लोकतांत्रिक व्यवश्था को ख़तरा है। दिल्ली के कई टीवी चैनलों ने सरकार के इस खतरनाक इरादे की अनदेखी की। इस बयान का पीसी में जूता प्रकरण के दौरान कांग्रेसी बीट वाले पत्रकारों के रवैये से गहरा नाता है। ये नौबत क्यों आई कि हाल के आंदोलनों को सबक सिखाने के बाद अब निशाना मीडिया पर आ गया है। इसकी तह में जाना जरूरी है। -----------------------------------------------------------------------पिछले लोक सभा चुनाव से लेकर झारखंड विधान सभा चुनाव तक दिल्ली के रसूख वाले अधिकाश पत्रकार कांग्रेस की गोद में लोटते नजर आए। इसी दौरान ऐसा माहौल बनाया गया मानो देश की किसी ज्वलंत समस्या को उठाने के लिए पहले आपको इन पत्रकारों से सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट हासिल करना होगा। ये कांग्रेस और वाम प्रतिपक्ष का दुराग्रह रहा है। लेकिन केंद्र की सत्ता को खुश करने के लिए ये पत्रकार ख़म ठोक कर मैदान में आ गए। ऐसा सन्देश दिया जाने लगा मानो सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट लेने में नाकाम हुए तो कम्यूनल करार दिए जाएंगे। जनता हैरान होकर सवाल कर रही है कि सेक्यूलर का --एंटो- निज्म-- कम्यूनल कब से हो गया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------समझदार लोग जानते हैं कि सेक्यूलरिज्म की अवधारणा सत्ता और शाशन के लिए है न कि आम जानो के लिए। संविधान कि मूल स्पिरिट मानती है कि भारत के लोग --इन एसेंसिअल -- धार्मिक हैं और रहेंगे। ऐसे में जनता दिग्भ्रमित हो जाती है जब मीडिया के लोग चुनाव विश्लेषण के दौरान सेक्यूलर वोट और कम्यूनल वोट की बात करने लगते हैं। वोटरों को सेक्यूलर और कम्यूनल घोषित करने के बाद अब बारी है समस्याओं को सेक्यूलर और कम्यूनल घोषित करने की। क्या भूख सेक्यूलर या कम्यूनल हो सकता है? ---------------------------तो फिर दिल्ली के इन पत्रकारों ने अन्ना का समर्थन कैसे कर दिया ये जानते हुए कि कांग्रेस अन्ना के पीछे आर एस एस का हाथ देखती है? कांग्रेस को तो ----तहरीर स्क्वयेर फेनोमेना ---- का डर सता रहा था। पर इन पत्रकारों को किसका डर था? दरअसल ये पत्रकार अपनी ही जाल में उलझ गए हैं। अपनी दूसरी पारी में कांग्रेस ने सोची समझी रण-नीति के तहत पक्ष और विपक्ष खुद ही होने का खेल खेल रही है। इशारा ये कि विपक्ष है ही कहाँ? जूता प्रकरण भी इसी सवाल को लेकर था। -----------------------------------------------------------कांग्रेस को खुश करने के लिए ये पत्रकार भी इसी दोहरी भूमिका में आ गए। यानि खुद ही पक्ष और खुद ही विपक्ष। इसके लिए न्यूज़ की एंगल और स्टूडियो में बहष का टोन एंड टेनर बदला गया। बार बार एंकरों ने बताया कि विपक्ष है ही कहाँ? आम तौर पर जनता मीडिया की बातों पर भरोसा करती है। लिहाजा ये दलील उनके दिमाग में बैठने लगी। जनता ने जानने की जहमत नहीं उठाई कि वाम और दक्षिण विपक्ष अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे या नहीं। जंतर-मंतर पर अन्ना को मिला ये समर्थन इसी समझ का प्रतिफल थी। -----------------------------------नतीजा ये भी सामने है कि वाम विपक्ष जहां डिफेन्स की मुद्रा में है वहीँ दक्षिण विपक्ष हताश। इस असहज स्थिति का नजारा टीवी स्टूडियो की बहसों में देखा गया....जब वाम नेता कई बार एंकरों को फटकारते नजर आए....ये कहते हुए कि ----पत्रकारों की तरह सवाल करो ना कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं की तरह। -----------------------------------------------------------------------------------------विपक्ष दबाव में हो और मीडिया एंटी इस्तेबलिस्मेंट न हो तो सत्ता तानाशाह हो ही जाती है। ऐसा बिहार में भी है और दिल्ली में भी। दोनों जगहों पर पत्रकार सरकारी दबाव झेल रहे और डांट-डपट सुन रहे। इस उलझन से निकल कर ----एंटी एस्तेब्लिस्मेंट मोड़ ---में जाना हमेशा मुश्किल होता है।---------------------------------------------------------रामदेव में आन्दोलन को लीडरशिप देने की अक्षमता सामने है......लिपस्टिक लगाने वालों का मोमवत्ती जलाना बहुतों को रास नहीं आता....बावजूद इसके जनता की निराशा और विपक्ष को ख़त्म दिखाने कि पत्रकारों की जिद्द ने गैर राजनितिक मुहिम को उभरने का मौक़ा दे दिया। लेकिन कई सवाल उठ रहे हैं। लगातार तीन दिनों तक रामदेव की सलवार कमीज में पत्रकारों की दिलचस्पी किस गंभीरता का परिचायक है।---------------------------------------------------------------------------------------------रामदेव के अलावा कई लोग इस बात से वाकिफ हैं कि काला धन से भिड़ना कितना खतरनाक है। काला धन वाले कितने ताकतवर हैं इसे सब जानते। अपनी हैसियत घटा चुके दिल्ली के ये पत्रकार चिदंबरम की चेताबनी के बाद क्या करेंगे? क्या देश फिर उसी राह पर चलेगा जब लोगों की समस्याओं से आर एस एस का भूत दिखा कर मुंह फेर लिया जाएगा?
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7.6.11

अन्ना, रामदेव और पीसी में जूता -----१

संजय मिश्र
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राजनीतिक परंपरा के लिहाज से राम-लीला मैदान में हुई बर्बर कार्रवाई को समेटे ४-५ जून काला दिन कहलाने का अधिकारी है.....इसमें संभव है किसी को आपत्ति हो जाए। लेकिन ६ जून को कांग्रेस पीसी में जो कुछ हुआ वो पत्रकारिता के लिए काला दिन कहलाए .....इसमें किसी संजीदा पत्रकार को शक-सुबहां नहीं होना चाहिए। इसलिए नहीं कि कथित पत्रकार ने जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाया....बल्कि इसलिए कि वहां मौजूद पत्रकारों ने राजस्थान के उस अभागे पत्रकार की बेरहमी से धुनाई कर दी। कांग्रेस बीट संभालने वाले दिल्ली के ये पत्रकार यहीं नहीं रुके...इस घटना के बाद वो दिग्विजय सिंह के सामने निर्लज्जता से अपनी बहादुरी का बखान कर रहे थे। टीवी चैनलों के पत्रकार फ़टाफ़ट फ़ो-नो देने लगे। ई टीवी से एनडीटीवी ज्वाइन करने वाले एक पत्रकार ने अपने फ़ो-नो के दौरान पत्रकारिता में तटस्थ रहने की दुहाई दी। जबकि कई एंकर और पत्रकार जनार्दन, दिग्विजय और राजीव से कांग्रेस ऑफिस में सुरक्षा बढाने के लिए मनुहार करते नजर आए।---------------------------------------------------------------------------------------------------------- इस हंगामे के बीच बार-बार इस की खोज हो रही थी कि जूता दिखाने वाला पत्रकार कहीं एक ख़ास विचार-धारा से प्रभावित तो नहीं। हैरानी कि बात तो ये कि इस पड़ताल में कांग्रेस बीट के पत्रकार भी शामिल थे। क्या वे ---तटस्थ भाव---से व्यवहार कर रहे थे। एक अदना सा दर्शक भी इस वाकये को देख कर महसूस कर रहा था कि उस वक्त कांग्रेसी बीट वाले पत्रकारों से ज्यादा संयम वहां मौजूद कांग्रेसी कार्यकर्ता दिखा रहा था। -------------------------------------------------------------इस वाकये के बाद मीडिया में सवाल उठने लगे हैं कि क्या पत्रकारों के ऐसे रवैये के लिए महज --चमचा-- शब्द काफी है? लोब्बीबाज, दलाल और चमचा के बाद अब कौन सा विशेषण तलाशा जाए? दिल्ली के ये पत्रकार ( खास-कर मशहूर टीवी चैनलों के ) किस मनोदशा में जी रहे हैं? वे चाहते क्या हैं? इसे समझने के लिए थोड़े तफसील में जाना होगा। -------------------------------------------------------------------------------------अन्ना हजारे के आन्दोलन से लेकर रामदेव के राम-लीला प्रकरण के बीच के समय पर ही गौर करें। इस दौरान देश ने कई ऐसे सवालों का सामना किया जो मन को मथने वाला है। यहाँ कुछ ही सवालों जिक्र किया जा रहा है। कहा गया है कि क्या --कोई-- भी समर्थकों के साथ दिल्ली आकर अपनी मांग मनवा लेगा? ये सवाल कांग्रेसी कर रहे पर इसे सबसे ज्यादा मुखर होकर दिल्ली के ये स्व-नाम-धन्य पत्रकार उठा रहे हैं। ये पत्रकार अपने आकाओं को खुश करने के लिए चीख-चीख कर पूछ रहे हैं कि साधू-संत ऐसा कब से करने लगे? --------------------------------------------------------बेशक साधू-संत समाज और सत्ता से दूर रहते। लेकिन विषम समय आने पर वे हस्तक्षेप और मार्ग-दर्शन करते हैं। देशों की जीवन-यात्रा में ऐसे मौके कम ही आते हैं। ऐसा तब और जरूरी हो जाता है जब समाज में विद्वत परंपरा को अनुर्वर बना दिया जाता है। -------------------------------------इस सन्दर्भ में चाणक्य के महा-प्रयास और अंग्रेजों के खिलाफ सन्यासी विद्रोह को बखूबी याद किया जा सकता है। नन्द वंश के समय भारत में बिखराव था। सत्ता की निष्ठुरता पराकाष्ठा पर थी और देश की पश्चिमी सीमा खतरे में थी। ऐसे में सन्यासी की तरह रहने वाले विद्वान चाणक्य ने कैसी भूमिका निभाई इसे इतिहास के पन्नो में खोज सकते हैं ये पत्रकार। इससे भी मन न भरे तो सन्यासी विद्रोह के समय पर मंथन कर लें । लेकिन इस विद्रोह की जानकारी लेने में इन्हें मिहनत करनी पड़ेगी। ------------------------------------------------------दिल्ली के ब्रांड बन चुके इन पत्रकारों में पढने के लिए आस्था कहाँ बची है। नामी पत्रकार विनोद दुआ जब कोई किताब पढ़ते हैं तो कैमरे के सामने आकर देश को बताना नहीं भूलते कि ---देखो मैंने कोई किताब पढ़ ली है। देश हैरान रह जाता है जब इस पढ़ाई के बल पर विनोद दुआ मनमोहन की तुलना महात्मा गांधी से कर बैठते हैं। किताब दिखा कर कैमरे के सामने बोलने की इस अदा की नक़ल कुछ अन्य पत्रकार भी करते नजर आ जाते हैं। ऐसे पत्रकारों के लिए सन्यासी विद्रोह की थोड़ी बानगी बताना लाजिमी है.---------------------------------------------------------------१७५७ में पलासी का संग्राम हुआ। इसके बाद पूर्वी भारत में भ्रम की स्थिति बनी। बंगाल और बिहार के उत्तरी हिस्सों में अंग्रेजों की नीति और शोषण ने किसानो की कमर तोड़ दी। १७६९ के अकाल ने इस आपदा को और बढ़ा दिया। हाउस ऑफ़ लोर्ड्स में इस शोषण और दमन का वर्णन करते हुए एड्मोंड बुर्के दुःख से बेहोश हो गए। समझा जा सकता कि लोगों के लिए कोई आस नहीं थी। पर आशा की किरण फूटी। सन्यासियों के समूह ने अंग्रेजों और उसके पिठुओं के खिलाफ हथियार उठा लिया। उत्तरी बंगाल के इलाके इस संघर्ष का गवाह बने। जाहिर था साधनविहीन सन्यासी परस्त हुए लेकिन इनकी देश-भक्ति और दिलेरी ने लोगों का दिल जीता। आजादी के इन गुमनाम सिपाहियों को सरकारी किताबों में अहमियत नहीं मिली। तभी तो अल्प ज्ञान वाले पत्रकार सवाल करते कि साधू-संत का राजनीति से कैसा वास्ता?--------------------------------------------------------------जारी है......

2.6.11

मिथिला पेंटिंग्स ---पार्ट ३

संजय मिश्र
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स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और धर्म के सनातनी स्वरूप के कारण मिथिला चित्रकला की परंपरा मोटे तौर पर शुद्ध रूप में चलती रही। लेकिन स्थान और समय के असर से किसे इनकार हो सकता है। जब खिड़की खुली तो इसके स्वरूप में बहुत ही परिवर्तन आए। महज मातृभाषा बोलने वाली महिलाएं जब घर से बाहर निकली तो नई दुनिया की सच्चाई ने उनकी कल्पनाशीलता को झक-झोडा। विदेशी धरती में घूंघट और संस्कार अपनी जगह रहे लेकिन थीम के विकल्प बढे.....साथ ही चित्रकला के मानदंडों के दायरे में ही प्रयोग आकार लेने लगी। --------------------------------------------------इधर अपने देश में भी नई प्रवृतियाँ उभरी। रोजी के अवसर की जरूरत महिलाओं के संग पुरूषों को भी थी। सो पहली बार यहाँ के पुरूष भी मिथिला चित्रकला की बारीकियों को समझने लगे। उनके लिए ये पाठ आह्लादकारी अनुभव रहे......इरादा महिलाओं के गढ़ को तोड़ना नहीं था...सब विपत्ति के मारेजो ठहरे । ------------------------------------------------------------------------------------------------------महिलाओं में जातिगत बंधन उतना कठोर न था। ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ महिलाओं की रुचि का असर उन्ही के साथ गुजर कर रही वंचित समाज की स्त्रियों पर भी था। इनके घरों की भीत भी अपने परिवेश के छिट-पुट अंशों से सजी होती। लिहाजा विधि-विधान के बहाने चित्रकला की एक समानांतर छटा मौजूद रही। जब मिथिला स्कूल की चित्रकलाओं को नया आयाम मिला तो वंचित समाज को भी अवसर मिले। इनकी कल्पना जब कागज़ पर उतरी तो कला-पारखियों ने इसे -- हरिजन शैली --- कहा। इस तरह की चित्रकला में रंग के रूप में गोबर के घोल का इस्तेमाल होता है लिहाजा इसे कई लोग --गोबर पेंटिंग--- के नाम से भी पुकारते हैं। बरहेता के कलाकारों ने --गोदना शैली---- को विकसित करने में अहम् भूमिका निभाई है। -----------------------------------------------सरकारी सहयोग की बदौलत मिथिला चित्रकला के कलाकार अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, इंग्लेंड, स्विट्जर्लेंड, डेनमार्क और चीन में अपनी कला का प्रदर्शन कर आए हैं। गंगा देवी अमेरिका गई और वहां की जीवन-शैली को अपनी पेंटिंग में स्थान दिया। उनके बनाये चित्रों में रोलर-कास्टर, बहुमंजिली इमारतें और अमेरिकी परिधानों को जगह मिली। रोचक है कि बसों के पहियों को उन्होंने कमल के फूल जैसा रखा। इस कला के समीक्षक मानते हैं कि गंगा देवी ने जीवन की सच्चाइयों को आध्यात्मिक रूप दिया। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------बाद में वो शशिकला देवी और गोदावरी दत्ता के साथ जापान गई। इन्होने जापानी परंपरा को अपनी कृतियों में समावेश किया। जापान में इनके बनाए चित्रों का एक म्यूजियम भी बनाया गया। उधर शांति देवी और शिवन पासवान ने डेनमार्क और जर्मनी में लोगों को गोबर पेंटिंग से परिचित कराया। जगदम्बा देवी भी कई देश हो आयी। उनके नाम पर मधुबनी में एक सड़क का नामकरण किया गया। ये कलाकार अनपढ़ थीं पर प्रयोग करते समय मिथिला चित्रकला के मर्म का ख़याल रखा। -------------------------------------------विदेश जाने वालों का सिलसिला जारी है। इधर पढ़े-लिखे कलाकारों ने बहुत ही प्रयोग किये हैं। सीतामढी के कलाकारों ने कारगिल युध को ही चित्रित कर दिया। तो मधेपुरा की नीलू यादव के चित्रों में बुध का जीवन चरित , सौर-मंडल और डिज्नी-लेंड जैसे थीम आपको दिख जाएंगे। सुनीता झा ने कला समीक्षकों को चौका दिया जब उन्होंने --घसल अठन्नी --- नामक लंबी कविता को ही चित्रित कर डाला। आपको बता दें कि काशी कान्त मिश्र लिखित इस मैथिली कविता में वंचित तबके की एक मजदूर स्त्री के दर्द को दिखाया गया है। ये कविता मिथिला के गाँव में बहुत ही मशहूर हुई और समाजवादी राजनीतिक नेताओं ने भी अपनी नीतियां फैलाने में इस कविता का सहारा लिया। दरभंगा की अनीता मिश्र ने तो इशा-मसीह के जीवन को ही अपनी कृति में जगह दे दी। इधर कृष्ण कुमार कश्यप ने शशिबाला के साथ मिलकर --गीत-गोविन्द --- और --मेघदूत-- को चित्रित किया है। ये इस श्रृंखला की अगली कड़ी में विद्यापति के जीवन को चित्रित कर रहे हैं। मधुबनी के एक कलाकार ने मखाना उत्पादन को ही अपना थीम बना दिया। ----------------------------------------------------------------------------प्रयोगों की फेहरिस्त लम्बी है। इसने उम्मीदें बधाई.....दायरे बढाए...लेकिन मिथिला चित्रकला लिखने वाले पुराने लोग इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि इस चित्रकला का लोक-स्वरूप टूटता जा रहा है।
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