आम आदमी पार्टी से क्यों मची है हलचल?
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संजय मिश्र
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पिछला साल अन्ना का रहा तो साल 2012 पर अरविन्द केजरीवाल छाए रहे। लोकपाल बिल पास नहीं होने और केजरीवाल के चुनावी राजनीति में कूद पड़ने के बाद माना जाने लगा की पारंपरिक राजनीति पर आन्दोलनों का संकट टल गया है। पर घाघ राजनेताओं का अमर्यादित सार्वजनिक व्यवहार चीख-चीख कर कह रहा कि संकट टला नहीं है उलटे इसका असर पड़ा है। मणि शंकर अय्यर का सांसदों को जानवर कहना पोलिटिकल क्लास के मन की हलचल बयां करता है। पेश है बीत रहे साल में केजरीवाल की यात्रा पर एक नजर --
साधारण कद-काठी, हाफ शर्ट और पैंट पहना एक व्यक्ति जब दिल्ली के गैर-संभ्रांत इलाके की गलियों में हाथ में पिलास लिए बिजली कनेक्शन जोड़ने आ धमकता है तो लोग-बाग़ खिंचे चले आते हैं ... कानून टूटने के डर से निर्विकार। दिलासा देने की जरूरत कहाँ रह जाती है सहट कर आ जाती इस औसत भीड़ को ... न कोई उत्पात और न ही हिंसा ... बस लोगों के मानस पटल पर फ़ैल जाती राहत की प्रखरता। ये राजनीति का नया स्वाद है ... सुखद आश्चर्य बिखेरती ... सुच्चा देसी ग्रामर। इस दस्तक से इंडिया की एलीट हो चली राजनीति असहज है।
अब तक आप समझ गए होंगे कि बात केजरीवाल की ही हो रही है। घनी मूंछों के नीचे से झांकती निश्छल मुस्कान और पैर में साधारण सा चप्पल। मोटी - मोटी फ़ाइल कांख में दबाए यही व्यक्ति जब प्रेस कांफ्रेंस करने पहुँचता है तो उसी एलीट राजनीतिक वर्ग को इसकी धमक सुनाई देती है ... न जाने इस बार किसकी बारी हो। रिपोर्टरों को उनके संपादक नसीहतें दे कर भेजते, निरंतर उनसे संपर्क में रहते कि कब कौन से सवाल करने हैं? होम-वर्क कर आए रिपोर्टर के जेहन में ये बात घुमड़ती रहती कि वो ऐतिहासिक पलों को कवर करने आए हैं। लिहाजा दिल और दिमाग ... दोनों से सवालों की बौछार निकलती ... और अगले कई घंटों तक टीवी स्टूडियो इन बातों पर रणनीति बदल- बदल कर विमर्श करने को मजबूर होते।
केजरीवाल और उसकी टोली से न चाहते हुए देश के नियंता व्याकुल हो चले हैं। बौखलाहट इतनी कि उन नेताओं, संयमी भाषा बोलने के आदी बुजुर्ग पत्रकारों और विशफुल दुनिया में रहने वाले बुद्धिजीवियों की जुबान फिसलने लगी हैं। कभी कोई माखौल उडाता तो कभी नसीहतें देता। दिलचस्प है कि 65 साल के कथित इंडिया में किसी राजनीतिक शख्स को इतनी नसीहतें नहीं दी गई जितनी केजरीवाल की झोली में गई हैं। सवाल उठता है कि ये देश सुहाना क्यों नहीं बन पाया जहां सलाह देने वालों की इतनी बड़ी तादाद है? क्या वे अन्दर से हिल गए हैं?
पारंपरिक राजनीति वाले तो पहले ही खौफजदा हुए ... 16 अगस्त 2011 को ही। आन्दोलन का संकट इतना भारी पड़ा कि लग गए चक्रव्यूह में। सत्ता की माया से जुड़े बाकि के मशविरा देने वाले लोग दरअसल उसी व्यूह के बाहरी फ्रंट हैं जो केजरीवाल को आफत मानते उसकी यात्रा को थाम लेना चाहते। व्यूह रचने वाली कोर जमात को भरोसा है अपने निर्लज्ज राजनीतिक कौशल पर। वे चाहते कि जैसे-तैसे केजरीवाल पारंपरिक राजनीति की चाल में उलझें ... जो नए राजनीतिक बिंब केजरीवाल ने गढ़े हैं वो ध्वस्त हों। फिर तो राह आसान हो जाए।
ये बिंब क्या हैं जो आसानी से लोगों के दिमाग में घुस जाते? एक उदाहरण काफी होगा -- जनता मालिक है, नेता उसके नौकर (सेवक) -- इस नारे की मारक क्षमता से तिलमिला जाते राजनेता। याद करें कैसे वे कहते कि - सड़क के लोगों को बड़े लोगों ( मंत्रियों ) के साथ लोकपाल के लिए वार्ता की मेज पर बिठाया। खैर जमीनी सच ये है कि आम आदमी का नारा देने वाले पुराने राजनीतिक ध्रुव को आम आदमी के नए पैरोकार से चुनौती मिल रही है। आम आदमी पार्टी ये समझाने में कामयाब हो रही कि देश में चल रही कल्याणकारी योजनाएं जनता पर उपकार नहीं बल्कि ये तो सरकारों की मौलिक जिम्मेदारी है।
देश में ये संदेश खुलकर जा रहा कि केजरीवाल ने राजनीति को हिम्मत दी है। इसने मौजूदा राजनीति की उस आपसी समझ को तोड़ा है जो ये मान कर चलता कि राष्ट्रपति, सोनिया और उसके परिजन, बाजपेयी और उसके परिजन, अंबानी और टाटा जैसों को सार्वजनिक तौर पर चुनौती नहीं दी जाए। मीडिया भी हैरान हुआ कि जिसे छूने से वो डरता रहा उस पर लगे केजरीवाल के आरोपों की कवरेज का उसे मौका मिलने लगा।
हम राजा, हम महराजा की मानसिकता की कलई खोलने तक बात सीमित नहीं है। ग्राम स्वराज को सुदृढ़ आकार देने पर फोकस है इन नए खिलाड़ियों का। गाँव भारत की संरचना का मूल आधार है। गाँव में सभी जाति और वर्ग के लोगों के बीच सामूहिकता के भाव को पारंपरिक राजनीति ने क्षत-विक्षत कर दिया। स्थानीय योजनाएं ग्राम-सभा से बनें और इसी के संरक्षण में कार्यान्वित हों साथ ही अहम् मसलों पर पंचायत स्तर पर रेफरें-डॉम की व्यवस्था की केजरीवाल की मांग से सहम गया है घाघ नेताओं का वर्ग। उसे भय है कि इस रास्ते चीजें चली तो विभिन्न वर्गों के बीच साझेदारी का अहसास बढेगा जो बांटने और राज करने की प्रवृति पर अंकुश लगाएगा। दिल्ली और राज्य की राजधानियों के हुक्मरान सकते में हैं कि इस तरह के विकेन्द्रीकृत सत्ता केंद्र से क्षेत्रीय विषमता का दंश भी कुछ हद तक कम होगा। और तब न नरेगा और न ही विशेष पैकेज जैसे मुद्दे जादुई छडी रह जाएंगे।
किसी राजनीतिक प्रयास को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अनुकूल माहौल ( जनमत) के अलावा कम से कम चार प्रमुख तत्वों की दरकार होती है। ये हैं--दर्शन (यानि वैचारिक आधार ), संगठन ( यानि उस वैचारिक आधार का वाहक ), कार्यक्रम (जिसमें कि दर्शन झांकते रहते ) और जनसहभागिता (यानि जिनके लिए आंदोलन किया जा रहा उनकी भागीदारी)। इसके इतर नेतृत्व क्षमता की परख तो होती ही रहती है हर पल ... सरकारी दाव-पेंच से पार पाने में।
केजरीवाल ने ये कहा है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष जैसा कोई पद नहीं होगा। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उससे लगता है कि वाम दलों की केंद्रीय कमिटी जैसा ही समझदार लोगों का ग्रुप होगा जो किसी मसले पर पंचायत स्तर से छन कर आए रुझानो पर आख़िरी राय रखेगा। बीजेपी और वाम दलों को छोड़ कर देश के तमाम राजनीतिक दल व्यक्तिवादी (प्रजातांत्रिक तानाशाही ) नेतृत्व के आसरे चल रहे हैं। पब्लिक का माय-बाप होने वाली संस्कृति के वे पोषक हैं।
केजरीवाल ने जो पासा फेका है वो अलग नजरिया पेश करता है। उनकी नेतृत्व शैली में लोगों को प्रभावित करने और लोगों की समझ और परिवेश से खुद प्रभावित होने की ललक है। इसकी गूँज फ़ैल रही तभी तो घबराए पारंपरिक नेताओं का ख़ास तबका केजरीवाल पर ही तानाशाह होने का आरोप मढ़ रहे। इस तरह के आरोप जान-बूझ कर लगाए जा रहे ताकि केजरीवाल के चाहनेवाले भ्रम की स्थिति में रहें। इन हमलों से बेफिक्र आम आदमी पार्टी उन क्रियाकलापों में लगा है जहाँ लोगों को स्वेछा से सामूहिक लक्ष्य की दिशा में प्रयास के लिए मनाया जाए।
अरविन्द करिश्माई लीडरों से अलग दिखना चाहते। पर उनकी सादगी ( ममता बनर्जी की तरह) लोगों को उस हद तक मोहती है जो करिश्मा का डर पैदा करती। लाल बत्ती जैसे श्रेष्ठता ज़माने वाले सरकारी लाभ से तौबा साथ ही ये कहना कि धंधे या लाभ के लिए उनकी पार्टी से न जुड़ें लोग ... शहरी मध्य वर्ग और ग्रामीण आबादी को एक जैसा आकर्षित करते हैं। समस्याओं को उठाना और हल सुझाना पॉलिटिकल क्लास और उनके चहेतों की वेदना बढाता है।
ये अकारण नहीं है कि आम आदमी पार्टी से विचारधारा और आरक्षण जैसे मसलों पर स्टैंड साफ़ करने वाले सवालों की झरी लगाई जाती है। मकसद ये कि या तो केजरीवाल मौजूदा खांचे वाली राजनीति की कुटिल चाल में फांस लिए जाएं या फिर स्टैंड साफ़ नहीं करने पर एक्सपोज किये जाएं। इस देश में माइनिंग नीति की खामियों पर माओवादियों के बाद सबसे ज्यादा मुखरता केजरीवाल के लोगों ने दिखाई है। इसके अलावा अलग-अलग मुद्दों पर जो स्टैंड लिया गया है उससे साफ़ है कि राजनीति के ये नए खिलाड़ी जातिवादी और धर्म की राजनीति के पचरे से दूर जनवादी राष्ट्रवाद की ओर चल पड़े हैं।
केजरीवाल की राजनीति को तरह-तरह से देखा जा रहा है। कहा जा रहा कि वो मीडिया का काम आसान कर रहे ... ये कि वो वोटरों की सोच समृद्ध कर रहे, ये भी कि वो मेधा पाटकर और अरुंधती की जन हस्तक्षेप वाली रीति-नीति को व्यापकता दे रहे ... वो प्रोजेक्ट वर्क की तर्ज पर चलते .. वगैरह-वगैरह। पर गौर करें तो हिट एंड रन से आगे का सफ़र तय हो चुका है। जन हितैषी राजनीति का अजेंडा अब सामने है।
देश के तमाम दल गठबंधन की मजबूरी के नाम पर मुद्दा आधारित राजनीति ही तो कर रहे। ऐसे में मुद्दों पर आधारित केजरीवाल की राजनीति कुछ सालों तक प्रासंगिक रह ही सकती है। पारंपरिक राजनीति और देश के मानस के बीच एक तल्खी है। देश का बड़ा वर्ग विचारधारा की जगह विचारों के युग में जी रहा है। पारंपरिक राजनीति उपरी तौर पर तो विचारधारा के आग्रही दिखने में लगे रहते हैं पर हर दिन गवाह बनता है इनके मोल-भाव और लेन -देन की राजनीति का। ऐसा जब तक चलेगा आम आदमी पार्टी इनकी चिंता बढाती रहेगी।
ये कितना सफल होगा फिलहाल आंकना कठिन है। सात्विक आंदोलनों की कोख से जन्मी है ये। लिहाजा दाव-पेंच और चुनावी अखाड़े में कितनी ही बार फिसलने का खतरा बना रहेगा। दिल्ली विधान सभा चुनाव इसके लिए परीक्षा की घड़ी होगी। आम आदमी मेंगो पीपुल वाले डकार से आहत तो है पर वो सकते में है ... क्योकि असल परीक्षा की घड़ी उसकी आई है ... वो भद्र छवि वाली मीरा कुमार को भी चुन लेता है ... साथ ही शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जैसों को भी जिता देता है। यानि फर्क करने का समय आ गया है ....केजरीवाल आम आदमी के मन में मची ऐसी हलचल से थोड़ा मुस्करा सकते हैं।
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संजय मिश्र
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पिछला साल अन्ना का रहा तो साल 2012 पर अरविन्द केजरीवाल छाए रहे। लोकपाल बिल पास नहीं होने और केजरीवाल के चुनावी राजनीति में कूद पड़ने के बाद माना जाने लगा की पारंपरिक राजनीति पर आन्दोलनों का संकट टल गया है। पर घाघ राजनेताओं का अमर्यादित सार्वजनिक व्यवहार चीख-चीख कर कह रहा कि संकट टला नहीं है उलटे इसका असर पड़ा है। मणि शंकर अय्यर का सांसदों को जानवर कहना पोलिटिकल क्लास के मन की हलचल बयां करता है। पेश है बीत रहे साल में केजरीवाल की यात्रा पर एक नजर --
साधारण कद-काठी, हाफ शर्ट और पैंट पहना एक व्यक्ति जब दिल्ली के गैर-संभ्रांत इलाके की गलियों में हाथ में पिलास लिए बिजली कनेक्शन जोड़ने आ धमकता है तो लोग-बाग़ खिंचे चले आते हैं ... कानून टूटने के डर से निर्विकार। दिलासा देने की जरूरत कहाँ रह जाती है सहट कर आ जाती इस औसत भीड़ को ... न कोई उत्पात और न ही हिंसा ... बस लोगों के मानस पटल पर फ़ैल जाती राहत की प्रखरता। ये राजनीति का नया स्वाद है ... सुखद आश्चर्य बिखेरती ... सुच्चा देसी ग्रामर। इस दस्तक से इंडिया की एलीट हो चली राजनीति असहज है।
अब तक आप समझ गए होंगे कि बात केजरीवाल की ही हो रही है। घनी मूंछों के नीचे से झांकती निश्छल मुस्कान और पैर में साधारण सा चप्पल। मोटी - मोटी फ़ाइल कांख में दबाए यही व्यक्ति जब प्रेस कांफ्रेंस करने पहुँचता है तो उसी एलीट राजनीतिक वर्ग को इसकी धमक सुनाई देती है ... न जाने इस बार किसकी बारी हो। रिपोर्टरों को उनके संपादक नसीहतें दे कर भेजते, निरंतर उनसे संपर्क में रहते कि कब कौन से सवाल करने हैं? होम-वर्क कर आए रिपोर्टर के जेहन में ये बात घुमड़ती रहती कि वो ऐतिहासिक पलों को कवर करने आए हैं। लिहाजा दिल और दिमाग ... दोनों से सवालों की बौछार निकलती ... और अगले कई घंटों तक टीवी स्टूडियो इन बातों पर रणनीति बदल- बदल कर विमर्श करने को मजबूर होते।
केजरीवाल और उसकी टोली से न चाहते हुए देश के नियंता व्याकुल हो चले हैं। बौखलाहट इतनी कि उन नेताओं, संयमी भाषा बोलने के आदी बुजुर्ग पत्रकारों और विशफुल दुनिया में रहने वाले बुद्धिजीवियों की जुबान फिसलने लगी हैं। कभी कोई माखौल उडाता तो कभी नसीहतें देता। दिलचस्प है कि 65 साल के कथित इंडिया में किसी राजनीतिक शख्स को इतनी नसीहतें नहीं दी गई जितनी केजरीवाल की झोली में गई हैं। सवाल उठता है कि ये देश सुहाना क्यों नहीं बन पाया जहां सलाह देने वालों की इतनी बड़ी तादाद है? क्या वे अन्दर से हिल गए हैं?
पारंपरिक राजनीति वाले तो पहले ही खौफजदा हुए ... 16 अगस्त 2011 को ही। आन्दोलन का संकट इतना भारी पड़ा कि लग गए चक्रव्यूह में। सत्ता की माया से जुड़े बाकि के मशविरा देने वाले लोग दरअसल उसी व्यूह के बाहरी फ्रंट हैं जो केजरीवाल को आफत मानते उसकी यात्रा को थाम लेना चाहते। व्यूह रचने वाली कोर जमात को भरोसा है अपने निर्लज्ज राजनीतिक कौशल पर। वे चाहते कि जैसे-तैसे केजरीवाल पारंपरिक राजनीति की चाल में उलझें ... जो नए राजनीतिक बिंब केजरीवाल ने गढ़े हैं वो ध्वस्त हों। फिर तो राह आसान हो जाए।
ये बिंब क्या हैं जो आसानी से लोगों के दिमाग में घुस जाते? एक उदाहरण काफी होगा -- जनता मालिक है, नेता उसके नौकर (सेवक) -- इस नारे की मारक क्षमता से तिलमिला जाते राजनेता। याद करें कैसे वे कहते कि - सड़क के लोगों को बड़े लोगों ( मंत्रियों ) के साथ लोकपाल के लिए वार्ता की मेज पर बिठाया। खैर जमीनी सच ये है कि आम आदमी का नारा देने वाले पुराने राजनीतिक ध्रुव को आम आदमी के नए पैरोकार से चुनौती मिल रही है। आम आदमी पार्टी ये समझाने में कामयाब हो रही कि देश में चल रही कल्याणकारी योजनाएं जनता पर उपकार नहीं बल्कि ये तो सरकारों की मौलिक जिम्मेदारी है।
देश में ये संदेश खुलकर जा रहा कि केजरीवाल ने राजनीति को हिम्मत दी है। इसने मौजूदा राजनीति की उस आपसी समझ को तोड़ा है जो ये मान कर चलता कि राष्ट्रपति, सोनिया और उसके परिजन, बाजपेयी और उसके परिजन, अंबानी और टाटा जैसों को सार्वजनिक तौर पर चुनौती नहीं दी जाए। मीडिया भी हैरान हुआ कि जिसे छूने से वो डरता रहा उस पर लगे केजरीवाल के आरोपों की कवरेज का उसे मौका मिलने लगा।
हम राजा, हम महराजा की मानसिकता की कलई खोलने तक बात सीमित नहीं है। ग्राम स्वराज को सुदृढ़ आकार देने पर फोकस है इन नए खिलाड़ियों का। गाँव भारत की संरचना का मूल आधार है। गाँव में सभी जाति और वर्ग के लोगों के बीच सामूहिकता के भाव को पारंपरिक राजनीति ने क्षत-विक्षत कर दिया। स्थानीय योजनाएं ग्राम-सभा से बनें और इसी के संरक्षण में कार्यान्वित हों साथ ही अहम् मसलों पर पंचायत स्तर पर रेफरें-डॉम की व्यवस्था की केजरीवाल की मांग से सहम गया है घाघ नेताओं का वर्ग। उसे भय है कि इस रास्ते चीजें चली तो विभिन्न वर्गों के बीच साझेदारी का अहसास बढेगा जो बांटने और राज करने की प्रवृति पर अंकुश लगाएगा। दिल्ली और राज्य की राजधानियों के हुक्मरान सकते में हैं कि इस तरह के विकेन्द्रीकृत सत्ता केंद्र से क्षेत्रीय विषमता का दंश भी कुछ हद तक कम होगा। और तब न नरेगा और न ही विशेष पैकेज जैसे मुद्दे जादुई छडी रह जाएंगे।
किसी राजनीतिक प्रयास को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अनुकूल माहौल ( जनमत) के अलावा कम से कम चार प्रमुख तत्वों की दरकार होती है। ये हैं--दर्शन (यानि वैचारिक आधार ), संगठन ( यानि उस वैचारिक आधार का वाहक ), कार्यक्रम (जिसमें कि दर्शन झांकते रहते ) और जनसहभागिता (यानि जिनके लिए आंदोलन किया जा रहा उनकी भागीदारी)। इसके इतर नेतृत्व क्षमता की परख तो होती ही रहती है हर पल ... सरकारी दाव-पेंच से पार पाने में।
केजरीवाल ने ये कहा है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष जैसा कोई पद नहीं होगा। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उससे लगता है कि वाम दलों की केंद्रीय कमिटी जैसा ही समझदार लोगों का ग्रुप होगा जो किसी मसले पर पंचायत स्तर से छन कर आए रुझानो पर आख़िरी राय रखेगा। बीजेपी और वाम दलों को छोड़ कर देश के तमाम राजनीतिक दल व्यक्तिवादी (प्रजातांत्रिक तानाशाही ) नेतृत्व के आसरे चल रहे हैं। पब्लिक का माय-बाप होने वाली संस्कृति के वे पोषक हैं।
केजरीवाल ने जो पासा फेका है वो अलग नजरिया पेश करता है। उनकी नेतृत्व शैली में लोगों को प्रभावित करने और लोगों की समझ और परिवेश से खुद प्रभावित होने की ललक है। इसकी गूँज फ़ैल रही तभी तो घबराए पारंपरिक नेताओं का ख़ास तबका केजरीवाल पर ही तानाशाह होने का आरोप मढ़ रहे। इस तरह के आरोप जान-बूझ कर लगाए जा रहे ताकि केजरीवाल के चाहनेवाले भ्रम की स्थिति में रहें। इन हमलों से बेफिक्र आम आदमी पार्टी उन क्रियाकलापों में लगा है जहाँ लोगों को स्वेछा से सामूहिक लक्ष्य की दिशा में प्रयास के लिए मनाया जाए।
अरविन्द करिश्माई लीडरों से अलग दिखना चाहते। पर उनकी सादगी ( ममता बनर्जी की तरह) लोगों को उस हद तक मोहती है जो करिश्मा का डर पैदा करती। लाल बत्ती जैसे श्रेष्ठता ज़माने वाले सरकारी लाभ से तौबा साथ ही ये कहना कि धंधे या लाभ के लिए उनकी पार्टी से न जुड़ें लोग ... शहरी मध्य वर्ग और ग्रामीण आबादी को एक जैसा आकर्षित करते हैं। समस्याओं को उठाना और हल सुझाना पॉलिटिकल क्लास और उनके चहेतों की वेदना बढाता है।
ये अकारण नहीं है कि आम आदमी पार्टी से विचारधारा और आरक्षण जैसे मसलों पर स्टैंड साफ़ करने वाले सवालों की झरी लगाई जाती है। मकसद ये कि या तो केजरीवाल मौजूदा खांचे वाली राजनीति की कुटिल चाल में फांस लिए जाएं या फिर स्टैंड साफ़ नहीं करने पर एक्सपोज किये जाएं। इस देश में माइनिंग नीति की खामियों पर माओवादियों के बाद सबसे ज्यादा मुखरता केजरीवाल के लोगों ने दिखाई है। इसके अलावा अलग-अलग मुद्दों पर जो स्टैंड लिया गया है उससे साफ़ है कि राजनीति के ये नए खिलाड़ी जातिवादी और धर्म की राजनीति के पचरे से दूर जनवादी राष्ट्रवाद की ओर चल पड़े हैं।
केजरीवाल की राजनीति को तरह-तरह से देखा जा रहा है। कहा जा रहा कि वो मीडिया का काम आसान कर रहे ... ये कि वो वोटरों की सोच समृद्ध कर रहे, ये भी कि वो मेधा पाटकर और अरुंधती की जन हस्तक्षेप वाली रीति-नीति को व्यापकता दे रहे ... वो प्रोजेक्ट वर्क की तर्ज पर चलते .. वगैरह-वगैरह। पर गौर करें तो हिट एंड रन से आगे का सफ़र तय हो चुका है। जन हितैषी राजनीति का अजेंडा अब सामने है।
देश के तमाम दल गठबंधन की मजबूरी के नाम पर मुद्दा आधारित राजनीति ही तो कर रहे। ऐसे में मुद्दों पर आधारित केजरीवाल की राजनीति कुछ सालों तक प्रासंगिक रह ही सकती है। पारंपरिक राजनीति और देश के मानस के बीच एक तल्खी है। देश का बड़ा वर्ग विचारधारा की जगह विचारों के युग में जी रहा है। पारंपरिक राजनीति उपरी तौर पर तो विचारधारा के आग्रही दिखने में लगे रहते हैं पर हर दिन गवाह बनता है इनके मोल-भाव और लेन -देन की राजनीति का। ऐसा जब तक चलेगा आम आदमी पार्टी इनकी चिंता बढाती रहेगी।
ये कितना सफल होगा फिलहाल आंकना कठिन है। सात्विक आंदोलनों की कोख से जन्मी है ये। लिहाजा दाव-पेंच और चुनावी अखाड़े में कितनी ही बार फिसलने का खतरा बना रहेगा। दिल्ली विधान सभा चुनाव इसके लिए परीक्षा की घड़ी होगी। आम आदमी मेंगो पीपुल वाले डकार से आहत तो है पर वो सकते में है ... क्योकि असल परीक्षा की घड़ी उसकी आई है ... वो भद्र छवि वाली मीरा कुमार को भी चुन लेता है ... साथ ही शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जैसों को भी जिता देता है। यानि फर्क करने का समय आ गया है ....केजरीवाल आम आदमी के मन में मची ऐसी हलचल से थोड़ा मुस्करा सकते हैं।