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6.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१
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संजय मिश्र
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इंडिया का राजनीतिक और सामाजिक विमर्श यही मान कर चल रहा है कि आबादी के बड़े हिस्से ने जीने का सलीका तो बदला है लेकिन मुसलमान औरंगजेब और ब्राम्हण मनु के दौर में बने हुए हैं... हकीकत इससे अलग है ... जाहिर है समरसता की चाहत के बावजूद सार्वजनिक डिस्कोर्स हांफ रहा है...पहरुए न तो ब्राम्हण के मानस में आए बदलाव को स्वीकार कर रहे और न ही मुसलमानों के मिजाज की दस्तक सुनना चाहते।

ब्राम्हण की कथा फिर कभी... फिलहाल मुसलमानों के रूख में परिवर्तन को पहचानने की कोशिश करें... ... इस देश की आम समझ है कि दो बड़े कौम की सहभागिता का पहला आधुनिक पड़ाव साल १८५७ ने देखा... अंग्रेजों से छुटकारा पाने की अकुलाहट के छिट-पुट दर्शन इससे पहले भी हुए...लेकिन १८५७ में ये व्यापक आयाम के साथ उभरा... फिर भी बहादुरशाह जफर की कामना हिन्दू प्रजा के सहयोग... हिन्दू जमींदारों के सहयोग से मुगल सल्तनत की वापसी पर टिकी रही ... बेशक अंग्रेजों को परास्त करना पहली जरूरत थी।

आपसी सहयोग की मिसाल कायम हुई पर ये प्रयास विफल रहे... असफलता ने मुसलमानों को तोड़ दिया... शासक वर्ग होने के दिन लद चुके थे... जख्म थोड़े भरे तो अंग्रेजों से दोस्ताना रिश्ते पर उन्होंने गौर फरमाया...सर सैयद अहमद के समय में इस दोस्ताना रिश्ते के साथ आधुनिक शिक्षा का सूरज उगा... इस समझ को काफी बाद झटका लगा जब बंग-भंग आंदोलन के समय वे राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजों की सहृदयता के बीच जूझते रहे।

किस्मत बदलने की तमन्ना हावी हुई... खिलाफत आंदोलन में गांधी के सहयोग के बावजूद पश्चिम की तरफ ताकने और प्रोपोर्सनल रिप्रजेंटेशन की दिशा की तरफ वे बढ़ चले .... आजादी के आंदोलन की तीव्रता ने उन्हें अहसास करा दिया कि लोकतंत्र आएगा और उन्हें प्रजा वाला मिजाज विकसित करना पड़ेगा... मन की हलचल के बीच अलग देश के तत्व हावी हो गए... देश का बटवारा हो गया... मुसलमानों के लिए अलग देश बन गया।

जो भारत में रह गए उनके सामने धर्मसंकट था... आजादी की बेला क्रूरता की हदें पार करने का गवाह बनी थी... भीषण दंगों से हिन्दुओं के मन पर पड़ने वाले असर से भी वे वाकिफ थे...हिन्दू राष्ट्र की तमन्ना के स्वर भी उन्हें सुनाई दे रहे थे...फिर भी नेहरू ने उन्हें भरोसा दिया...अब वे जनता बन चुके थे... चुनावी राजनीति में बहुसंख्यकों के वर्चस्व की धारणा के बोझ को वे उतारने लगे...फ्री इंडिया में उनके मनोभावों को एक आसान से उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है।

फिल्म की दुनिया में दिलीप कुमार को हिन्दू नाम के सहारे खूब सफलता मिली... अपने नाम से सफल होने में उस समय के मुसलमान कलाकारों को हिचक थी... ये दौर बीता...  तब फिरोज खान और संजय खान का समय आया... ये मुसलमानों के आत्मविश्वास का संकेत कर रहा था... अपनी पहचान से ही उन्होंने सफलता के झंडे गाड़े...आज शाहरूख, आमीर और सलमान आत्मविश्वास के साथ आक्रामकता की नुमाइश कर रहे हैं।

शासक से जनता बनने के मुसलमानों के इस सफर में न तो औरंगजेब की महिमा है और न ही दबे-कुचले होने का दंश ...मुफलिसी से उबरते रहने की आकांक्षा इन भावों पर भारी है।

जारी है............ 

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