life is celebration

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23.5.14

बिहार के बहादुरशाह जफर बन गए नीतीश कुमार!

बिहार के बहादुरशाह जफर बन गए नीतीश कुमार!
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संजय मिश्र
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लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद नीतीश ने जब सीएम पद छोड़ने की घोषणा की तो एकबारगी लोग चौंक गए... नौटंकी है... हार पर मंथन नहीं करना चाहते... वगैरह, वगैरह... उस वक्त धूंध घनी थी... कहीं से मास्टर स्ट्रोक की अनुगूंज तो किसी तरफ से रमई राम की पिटाई पर शोक के स्वर ... तिसपर शरद यादव की बेईज्जती की कराह ...बावजूद इसके शरद ठसक से बयान देते रहे... अचरज के बीच खबर ये है कि जेंटलमैन का तगमा पहनने वाले नीतीश कुमार ने जंगल राज वाले लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया है........आरजेडी ने जीतन राम मांझी की सरकार को समर्थन दे दिया है।

बुद्ध मुस्करा रहे होंगे... शरद यादव यही कहेंगे.... वे इस बात के आग्रही रहे हैं कि जनता नामधारी पार्टियों को एक हो जाना चाहिए... शरद इसलिए भी मुस्करा रहे होंगे कि नीतीश से उनके रिश्ते की खटास के बीच उन्होंने वो कर दिखाया जो बिहारवासियों के लिए दो ध्रुव के मिलने के समान है... राजनीतिक नजरिए से देखें तो ये नीतीश की घर वापसी मतलब मंडल राजनीति की तरफ वापसी है... लेकिन बिहार की मांझी सरकार को मिला कांग्रेसी समर्थन इसे खिचड़ी बनाती है... तो क्या नीतीश राजनीतिक रूप से इतने कमजोर हुए कि राह बदल ली?

इतिहास में झांकें तो दिल्ली की तख्त पर बैठे आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर एक समय इतने कमजोर हुए कि उनके राज की सीमा दिल्ली से महरौली तक सिमटने की बात कही गई... सिद्धांत की लड़ाई उन्होंने भी लड़ी थी ...१८५७ में... तब क्या हिन्दू...क्या मुसलमां... सब एक वेवलेंथ पर आ गए थे... लेकिन क्या नीतीश उस तरह की गौरव गाथा के हकदार हैं... उनके साथ जुड़े परसेप्सन और उनकी कार्यशैली की हकीकत की पड़ताल करेंगे तो जानेंगे कि वे उस तरह की फसल काटने के हकदार कभी नहीं रहे।

हर समाजवादी की तरह नीतीश भी लोकतंत्र में विश्वास की बात करते... लोहिया का नाम लेते... लेकिन नीतीश के आदर्श साम्राज्यवादी मौर्य शासक रहे... चंद्रगुप्त का नाम लेना उनका शगल रहा... बड़ी ही चतुराई से वे चाणक्य भी बनते रहे...खासकर तब जब गठबंधन के खेबनहार होने की बात पर जोर देने की बारी आती थी... अहंकारी पर डेमोक्रैटिक होने की छवि...बिहार के एडिटर इन चीफ भी कहलाए...  परसेप्सन का कमाल देखिए... जंगल राज के बरक्स महज पटरी पर बिहार को लाने के कौशल के बूते चीन से अधिक विकास करने की छवि पसारने में कामयाब हुए।    

वोटरों से रूठ तो ऐसे रहे हैं कि मानो लोगों ने अपने दुलारे नेता के साथ अन्याय किया हो... रूठ कर बदला लेने से मन नहीं भरा तो लालू से हाथ मिला कर जंगल राज की याद दिला-दिलाकर मानसिक यातना देने की कोशिश कर रहे... जनादेश को कबूल करने में इतना कष्ट?...  ... बावजूद इस बेरूखे हठ के चाहत यही कि दुनिया डेमोक्रैटिक कहती फिरे ...दिल में झांक कर देखें कि बिहार के वोटरों ने किस बुनियाद पर उन्हें सर पर चढ़ाया था... नीतीश ने उसे भुलाकर दिल्ली की आबोहवा के मुताबिक चुनावी एजेंडा नहीं बदला था क्या?

नीतीश गमजदा हैं ...ब्लोअर की हवा में उड़ जाने के अहसास से भींगे हुए और मर्सिया गाने को मजबूर... भले वो कुछ भी कहें गठबंधन तोड़ने की गलती का अहसास उन्हें चुनाव से पहले ही हो गया था... लिहाजा नतीजा उन्हें मालूम था... जिस आस में मंसूबे बांध रखे थे नीतीश ने...वो पूरे नहीं हुए... मजे खिलाड़ी की तरह बाल नोच नहीं सकते... पर मजे खिलाड़ी की तरह नैतिकता के नाम पर अपनी कमी को शक्ति के रूप में दिखाने की कवायद तो कर ही सकते। और वो वही कर भी रहे। उन्हें मान लेना चाहिए कि वो उतने महान नहीं जितना वो लोगों से मनवाना चाहते।

वो चंद्रगुप्त जितना महान होते तो अपना राज पटना से राजगीर तक सिमटा कर नहीं रख देते... बहुत खुश हुए तो मगध की सीमा तक पहुंच जाते... आप सोच रहे होंगे कि ये कैसी पहेली है? ...दिल्ली से महरौली और फिर ये पटना से राजगीर... पर ये सच है... यकीन न हो तो कुछ आंकड़े देख लें... साल २०१२ की ही बात है... १९ जनवरी को मधुबनी के लिए करीब ४.३ अरब की योजनाओं के शिलान्यास किए गए... नीतीश के चारण पत्रकारों ने हेडलाइन दी—मधुबनी की भर गई झोली--- वहीं नालंदा जिले के लिए इससे भी अधिक खर्च की राज्य सरकार की योजनाओं के अलावा इसी जिले में स्थाई महत्व की करीब ७५० अरब की योजनाओं पर काम चल रहा है...दिल पर हाथ थाम कर नीतीश और उनके लगुए पत्रकार कहें कि नालंदा के लिए उन्होंने कभी मधुबनी जैसी हेडलाइन दी है?

चलिए आंकड़ों को समझने में दिक्कत आ रही हो तो कुछ देश स्तरीय संस्थानों के नाम ही सुन लें.......आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, आईआईटी, एम्स, महिला विश्वविद्यालय(वीमेंस कॉलेज परिसर), आईटी सिटी, नालंदा विश्वविद्यालय, परमाणु परियोजना, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का शूटिंग रेंज.... आप नाम लेते चले जाएं और पता चलेगा कि ये सारे नाम पटना से लेकर राजगीर के बीच पसरे हैं या पसरने वाले हैं... इतना ही नहीं पटना एयरपोर्ट भी नालंदा ही शिफ्ट होगा... चंपारण में बनने वाले सेंट्रल यूनिवर्सिटी पर ऐसा पेंच फसाया कि कपिल सिब्बल गया में भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी का जुगाड़ कर गए। मधुबनी में मिथिला पेंटिंग संस्थान की स्थापना की बात जरूर कही पर वो अधर में ही लटका हुआ है। चुनाव से ऐन पहले किराए के मकान में संस्थान का ऑफिस खोलने की घोषणा की गई।  

ये वही नीतीश हैं जो कहते कि देश में क्षेत्रीय असमानता न हो। थिंक इंडिया डायलॉग में उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय असंतुलन से देश में रोष है। बिहार के अंदर फैले क्षेत्रीय असंतुलन पर उन्हें कोई रोष है? जिस आरजेडी से उन्होंने समर्थन का जुगाड़ किया है उसके वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने नीतीश के नालंदा प्रेम पर झल्लाते हुए कह दिया था कि--- बिहार की राजधानी फिर से राजगीर में स्थापित कर दी जाए तो उन्हें हैरानी नहीं होगी.....

बहुत कम लोगों को पता है कि नालंदा पहले से ही विकसित जिला रहा है... नीतीश के राजनीतिक पटल पर उभरने से पहले से... यानि विकसित को विकसित बनाने का स्वार्थ... याद होगा आपको कि नीतीश कुमार जब-तब विकसित गुजरात के विकास की गाथा को नकारने की कोशिश में बयान देते रहते हैं... पर यही काम वो बिहार में करते हैं... लोकसभा चुनाव में मिली पराजय से खार खाए नीतीश ने अपना जो उत्तराधिकारी चुना है वो भी मगध से ही हैं... जी हैं गया जिले के जीतन राम मांझी उनकी पसंद बने हैं।

चाणक्य के प्रेमी नीतीश गंगा के उस तट पर कुछ समय बैठें जिसे वो मरीन ड्राइव की शक्ल देने की चाहत रखते... गंगा नदी के थपेरों की कौंध के बीच मंथन करें कि वोटरों ने उन्हें सचेत ही किया है...राह दिखाई है... वो खूब आत्मालाप करें... गंगा की लहरों के संगीत उनसे यही कहेंगे कि पूरे बिहार का होकर जीने की ख्वाहिश पालें... सही अर्थ वाले समावेशी चिंतन की ओर मुड़ें...।
 


17.5.14

ये इंडिया का भारत से कनेक्ट है...

ये इंडिया का भारत से कनेक्ट है...
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संजय मिश्र
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मोदी, मोदी.... मोदी, मोदी.... की चांटिंग..... जी हां, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम... हर तरफ यही गूंज... गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद नरेन्द्र मोदी की धन्यवाद सभा से जो ये ध्वनि इंडिया के लोगों तक पहुंची तो ...फिर इसे देश के लोगों के मानस के साथ शिंक ( sync… ) होने में देर नहीं लगा... मोदी के पीएम उम्मीदवार बनने के बाद ये कदमताल आकार लेता गया... लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाली राजनीतिक जमात इसे पढ़ने और कबूल करने को तैयार न हुई... लिहाजा ... १६ मई २०१४ को जब नतीजे आए तो इस देश की सबसे बूढ़ी राजनीतिक पार्टी यानि कांग्रेस लीडर आफ अपोजिशन के लायक भी न बची... नरेन्द्र मोदी के नायकत्व में बीजेपी ने अपने बूते मेजोरिटी हासिल कर इतिहास रच दिया है...
देश चलाने की खातिर एनडीए की ही सरकार बनेगी.. सत्ता में आने वालों के इस संदेश पर समर्थक विहुंसि रहे हैं और वो भी संतोष कर रहे होंगे जो मोदी को रोकने के लिए हर जायज और निर्लज्ज कदम उठाते रहे... जनता के इस फैसले के संकेत स्पष्ट हैं... क्षत्रपों खासकर हिन्दी क्षेत्रों के जातीए नेताओं की ब्लैकमेल की राजनीति के दिन अब लदने वाले हैं... उन लोगों को भी झटका लगा है जो विशफुल थिंकिंग के आसरे पारंपरिक राजनीति को बनाए रखना चाहते थे... मुसलमानपरस्ती के जवाब में धर्म से भींगी राजनीति ( यहां बीजेपी पढ़ें) और इसे कम्यूनल बताकर और उसे चेक करने के चलते जातीए राजनीति को बढ़ावा देने की हरसंभव कोशिश... हिन्दू धर्म में यकीन रखने वालों को बांटने की इस मंशा पर वोटरों ने खींज उतारा है..
ये नतीजे कांग्रेस की उस कोशिश को करारा जवाब है जिसके तहत सेक्यूलरिज्म को चुनावी मुद्दा बनाने का दांव खेला गया। देश दुखी होता रहा कि वोट पाने की खातिर शासन चलाने के मिजाज(यानि सेक्यूलरिज्म ) को ही बलि क्यों बनाया जा रहा... लेकिन सत्ता पाने के स्वार्थ में अंधी हो चली कांग्रेस और उनके वामपंथी, प्रगतिवादी और समाजवादी समर्थकों को ये चिंता नजर न आई.. सोनिया ने जब शाही इमाम से अपील कर सेक्यूलर वोट बिखड़ने से रोकने की गुहार लगाई तो संजीदा लोगों को सर पीटने के अलावा कोई चारा न बचा। संदेश ये गया कि मुसलमान सेक्यूलर हुए और बाकि आबादी पर चुप्पी... इस बची आबादी को लगा उसे कम्यूनल ही माना गया।
शाजिया इल्मी जी हां आम आदमी पार्टी की नेता ने फरमाया कि मुसलमान बहुत सेक्यूलर हुए और उसके सांसारिक हितों की रक्षा के लिए उसे कम्यूनल होना होगा... मतलब ये कि उसे मुसलमान होकर वोट करना होगा... बेशक जीवन की जद्दोजहद से परेशान लोग बुनियादी सुविधाए चाहें तो इसमें हर्ज नहीं... बतौर शाजिया इन बुनियादी हकों के चलते वो धार्मिक ब्लॉक की तरह व्यवहार करे ... इस चाहत में न तो नफरत की जगह है और न ही हिंसा... जब इस मासूम सी अभिलाषा को शाजिया कम्यूनल कह सकती हैं तो फिर इस महीन परिभाषा से इतर पीएम मनमोहन सिंह के पाकिस्तान की शह पर काम करने वाले एक आतंकवादी के लिए रात भर सो नहीं सकने की वेदना को किस श्रेणी के कम्यूनलिज्म का दर्जा देती इस देश की जनता...
एक अल्पसंख्यक की पीड़ा मीडिया के लिए न्यूज सेंस के हिसाब से बड़ी खबर हो सकती है... पर शासन चलाने वाले के लिए देश के हर व्यक्ति का दुख चिंता का कारण होता है... उसे नफरत फैला कर या डराकर न्याय नहीं करना चाहिए...मनमोहन और दिग्विजय सिंह के कई बयान बहुसंख्यकों को उद्वेलित और अपमानित करने वाले रहे... आरएसएस के विरोध की अंधी दौर में ये होश न रहा कि बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने की चूक हो रही। सैफ्रोन टेररिज्म यानि केसरिया आतंकवाद यानि इंडिया के झंडे में उपयोग किए जाने वाले केसरिया रंग का अपमान कर बैठे।
बीजेपी के लिए खुश होने का समय रहा जब ये शाब्दिक हमले होते रहे...चुनाव प्रचार के दौरान इस पार्टी के नेता को पाशविक साबित करने की होड़ मची रही... बीजेपी के लिए वोट में इजाफा होने की सूरत बन रही थी... उसे ये भी अहसास रहा कि बीजेपी के हिन्दुत्व को निशाना बनाने के चक्कर में हिन्दू हित और हिन्दू चेतना पर भी कांग्रेसी निशाना साध रहे ... फायदा बीजेपी को ही मिलना था... कांग्रेस भूलती रही कि आजादी के आंदोलन के दिनों में उसकी कोख में ये हिन्दू चेतना भी समाहित रही... विभाजन के बाद वो इसे धीरे-धारे अच्छी तरह भूल बैठी... इंदिरा के समय वाम सोच के साथ मिल कर ऐसे इंडिया के कंसेप्ट को पल्लवित करने में सफल हुई जिसमें भारत के साथ कंटिनुइटी नहीं रहे... उसी इरादे का इजहार कांग्रेसी करते रहते जब वे कहते हैं कि इंडिया महज ६५ साल का नौजवान देश है... नरेन्द्र मोदी का उभार उसी भारत और इंडिया के बीच पुल बनाने की दस्तक है।
मोदी विरोधी नादान नहीं है ... वे इस मर्म को समझ रहे। यही कारण है कि कांग्रेस का बौद्धिक समर्थक वर्ग बहुसंख्यक उभार के खतरे की तरफ ध्यान खींचने लगा है... उसे अहसास है कि ६५ साला देश की विशफुल थिंकिंग दरकने वाली है... कांग्रेस के कई नेता चुनाव अभियान के दौर में बहुसंख्यक कम्यूनलिज्म के खतरे से यूं ही आगाह नहीं कर रहे थे... ये आत्ममंथन का भाव नहीं था बल्कि इस नाम पर अपने वैचारिक पाप को ढकने की कोशिश ज्यादा प्रबल थी... हां कांग्रेस इस बात से खुश हो सकती है कि मेनस्ट्रीम पार्टी के शासन के चलते रहने की जो आकांक्षा उसने भी पाली थी उसे बीजेपी ने साकार कर दिखाया...क्षत्रपों के कमजोर होने से कांग्रेस अपने पारंपरिक जनाधार फिर से हासिल करने की हसरत पाल सकती है।

मुसलमानों के वोट कमोबेश कांग्रेस के पाले में आ गए हैं... आम जनता बने रहने की मानसिकता विकसित करने के लिए कांग्रेस मुसलमानों को समय दे दे यही वक्त की मांग है...मुसलमानपरस्ती से तौबा करने से रूटलेस इंडिया की जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी... कुछ सालों तक शानदार विपक्ष की भूमिका निभाए कांग्रेस ताकि लोकतांत्रिक फिजा में योगदान हो। इससे उसके उस अहंकार का भी नाश होगा कि इंडिया को सिर्फ वही चला सकती है। नरेन्द्र मोदी कुछ सालों तक देश को ढंग से चला गए तो इस देश को पुनर्जीवित कांग्रेस भी मिल सकता है।          

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