life is celebration

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25.3.11

बिहारी उप-राष्ट्रीयता के यथार्थ -- पार्ट १

संजय मिश्र
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" सच्चिदानंद सिन्हा
बाय द नाइन गौड्स ही स्वोर ,
दैट इव द इयर वाज ओवर ,
ही सुड बी अ जज एट बांकीपुर । "
इस कविता में बिहार निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा का यशोगान है। ये ' कोप्लेट ' साल १९१० में लिखी गई। लेकिन २२ मार्च , २०११ के दिन जब गांधी मैदान में बिहार दिवस को लेकर भव्य आयोजन किया गया तो उस इतिहास पुरुष का कोई नामलेबा नहीं था। जिन्हें सत्ता के खेल की बारीक समझ है , वे भी , उन्हें भुला दिए जाने पर हैरान हुए । क्या ये सच्चिदानंद ब्रांड बिहारीपन युग के अंत का उदघोष है ?
२२ मार्च को ही , उसी बांकीपुर में , एक नए नायक की जय-जयकार हो रही थी। गांधी मैदान के मुख्य समारोह स्थल पर मौजूद सरकारी लोग ये समझाने की कोशिश में लगे थे की नए युग का आगाज हो चुका है और इसके सूत्र-धार नीतीश कुमार हैं। उत्सवी माहौल का लुत्फ़ उठाने आये आम-जन समारोह स्थल के बीच खड़ी सुनहरे रंग की स्त्री की प्रतिमा को जतन से निहार रहे थे। किसी को मेनहटन के सामने खड़ी " स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी " याद हो आई तो कोई सभा-मंच से हो रहे भाषण के मजमून से, इस स्त्री की आकांक्षा का मिलान करने में मशगूल था। कितने ही चेहरे आश्वस्त हो जाना चाह रहे थे की ये मूर्ति नए बिहार के उदय का प्रति-बिम्ब हो । क्या , सचमुच मुक्ति की गाथा के सपने वहाँ बुने जा रहे थे ? किस दुविधा से मुक्ति चाहिए बिहार को?
जब से बिहार दिवस की तैयारियों ने जोर पकड़ा , तभी से बिहारी उप-राष्ट्रीयता , बिहारीपन और बिहारी अस्मिता जैसे शब्दों की अनुगूंज सुनाई देने लगी। कई लोगों का मानना है कि बिहारीपन का भाव प्रबल नहीं है जिस कारण राज्य में पिछडापन है। सरकार दावा करती है कि उसने बिहारी सोच को जगा दिया है और हमें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। सवाल उठता है कि जब बिहारी अस्मिता पर गर्व करना लोगों को आ गया है, तो फिर इतने बड़े पैमाने का उत्सव क्यों?
खैर , पूरे राज्य में उत्सव मनाया जा रहा है और साल भर ऐसे आयोजन होते रहेंगे। बिहार के सौवें साल का जश्न है ये। निश्चय ही इससे पहले इतने बड़े आयोजन नहीं हुए। बिहार के जीवन में ये नया ' एलीमेंट ' है। ख़याल है कि इससे ' सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग ' पुख्ता होगा। लेकिन राज्य के दुसरे शहरों से जो जानकारी मिली उसके मुताबिक़ समारोह स्थलों पर लोगों से अधिक कुर्सियां नजर आई। जो टीवी चैनलों के सहारे इस जश्न में शरीक होना चाहते थे उन्हें बिजली की बाधित आपूर्ति ने निराश किया।

जन-सहभागिता की इस तल्ख़ वास्तविकता के बाद रुख करें गांधी मैदान का। सरकारी सभा-स्थल पर सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता विराजमान थे। विपक्ष के बड़े नेताओं को बुलाने की जहमत नहीं उठाई गई। ऐसे मौकों पर अन्य राज्यों में विपक्षी नेता को बुलाने का प्रोटोकॉल है। मंच पर स्वास्थय मंत्री अश्विनी चौबे मौजूद थे जिन्हें रंगदारी नहीं देने पर जान से मारने की धमकी मिली हुई है। लेकिन नीतीश अपनी उपलब्धियां गिनाने में लगे थे। मौके पर उन्होंने विशेष राज्य की मांग दुहरा दी ।
सरकार मानती है की विकास हुआ है इसलिए बिहारी होने पर जनता गर्व कर रही है। सरकार का ये भी कहना है कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने से राज्य का और विकास होगा , नतीजतन बिहारीपन की भावना दृढ़ होगी। सर्कार के साथ मीडिया का दुराग्रह भी सामने है जिसे बिहारीपन के विशेष राज्य की मांग में तब्दील होने में कोई राजनीति नहीं दिखता। ऐसे पत्रकारों का आग्रह है कि उत्सव के इन शानदार पलों में डूब जाएँ सब। उन्हें अहसास नहीं कि इस कोशिश में वे नीतीश के गुण-गान को ही पराकाष्ठा पर पहुंचा रहे हैं। ये पत्रकार लगातार इस बात को उछाल रहे हैं कि बिहारी मेहनती, मेधावी और देश को नई राह दिखाने वाले होते हैं । क्या, बिहारी मीडिया का ये वर्ग जताना चाहता है कि दुसरे प्रदेशों के लोग काहिल, भुसकोल, और सामाजिक बदलाव को समझने में नाकाबिल होते हैं ?
बेशक , बिहार में बदलाव हुए हैं । लेकिन इसे अतिरंजित करने में मीडिया झूठ का सहारा भी लेता है। एक उदाहरण काफी होगा । बालिका साईकिल योजना को बिहार की देन बता कर प्रचारित किया जाता है। जबकि असलियत ये है कि ऐसी योजना छतीसगढ़ में पहले से अमल में है। मीडिया के इस फरेब से आत्मा-गौरव कितना मजबूत होगा ..... ये तो वही जाने।
गांधी मैदान में जिस मंच से नीतीश का संबोधन चल रहा था उस पर बिहार दिवस का ' लोगो ' अंकित था जिसके नीचे लिखा था -' हमारा बिहार ' । ये दो शब्द सरकार की ओर से बिहारीपन की ब्रांडिंग के लिए बनाए गए तीन सूत्रों का हिस्सा हैं । लेकिन लोगों के जेहन में तो ब्रांड के रूप में उस सुनहरी स्त्री की आकृति बस गई जो उनकी आकांक्षा को रिफ्लेक्ट कर रही थी । नीतीश ने भी इस प्रतिमा को बड़े गौर से देखा .... जो शायद सवाल कर रही थी कि - हमारा बिहार - कब - अपना बिहार - बनेगा ।
सच्चिदानंद की प्रशंसा वाली कविता को एक बार फिर पढ़ें ....ख़ास कर इसके अंतिम लाइन को । जी हाँ , यहाँ सत्ता और स्वार्थ की गंध है । आज के बिहारी नायकों को इसे जरूर याद रखना चाहिए .... वरना फिर कोई प्रतिमा ' बांकीपुर ' में लगी होगी ....जो किसी युग के अंत का गवाह बनेगी ।
जारी है .....

17.3.11

मिथिला पेंटिंग - पार्ट १

संजय मिश्र
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कोई पांच हज़ार साल पहले की ही बात होगी..... जब आर्य मिथिला में बसने आये। यहाँ की अनुकूल परिस्थितियों और व्यवस्थित जीवन ने उन्हें ज्ञान की मीमांसा के लिए पर्याप्त समय दिया। चिंतन प्रवाह कुलाचें मार रहा था ... यही कारण है कि मिथिला में विद्वान महिलाओं के उदाहरण हमें मिलते हैं। ऐसे ही समय में घर संभाल रही महिलाओं की सोच भीत की सतहों पर फूट पडी। साधारण सी दिखने वाली ये चित्रकारी उनकी कल्पनाशीलता का दायरा दिखने के लिए काफी है। इसमें जहाँ आस्था और सौन्दर्यबोध से मिलने वाली खुशियों का संगम है वहीं जीवन की संगीतात्मकता के परम सत्य से संयोग के दर्शन भी हैं।
मिथिला आज भी कृषि प्रधान समाज है। यही कारण है कि यहाँ के मिजाज में जननी रूप का भाव रचा-बसा है। ये भाव इस चित्रकारी में भी प्रखरता से झलकता है। जहाँ बंगाल की ---अल्पना -- में तंत्र की प्रधानता है वहीं मिथिला चित्रकला --प्रतीकात्मक -- है। ये प्रतीक यहाँ के ग्रामीण जीवन की व्यवहारिक तस्वीर दिखाते हैं साथ ही आपको कल्पना लोक में भी ले जाते हैं।
-सुग्गा- को प्रेम दिखाने के लिए उपयोग किया जाता है जबकि - मोर - प्रणयलीला का परिचायक होता है। वहीं - बांस, केला का पेड़ और कमल का फूल - ये तीनो ही उर्वरता के प्रतीक हैं।
इस चित्रकारी में प्रयोग किये जाने वाले रंग मिथिला की वानस्पतिक सम्पदा से ही निकाले जाते हैं। सिंदूरी रंग का स्रोत -कुसुम का फूल- है जबकी लकड़ी को जला कर काला रंग बनाया जाता है। पलास के फूल से पीला रंग निचोड़ा जाता है तो हल्दी से गहरा पीला रंग बनाया जाता है। हरी लतिकाओं से हरा रंग निकाला जाता है। सुनहरे रंग के लिए केले के पत्ते का रस , दूध और नीबू के रस को मिलाया जाता है। रंगों को घोलने के लिए बकरी का दूध और पेड़ों से निकलने वाले गोंद का इस्तेमाल किया जाता है।
ये रंग कई बातों को इंगित करते हैं। पीला रंग- पृथ्वी, तो उजला रंग - पानी को दर्शाता है। हवा को काले रंग से दिखाते हैं वहीं लाल रंग - आग- का परिचायक होता है। नीला तो आसमान ही होता है। दिलचस्प है कि ब्राह्मण स्त्रियाँ चित्रकारी करने में लाल, गुलाबी, हरे, पीले और नीले रंग को पसंद करती हैं जबकि कायस्थ महिलाओं को लाल और काला रंग विशेष भाता है।
उपरी तौर पर इस चित्रकारी के विषय धार्मिक लगते हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएँ इसमें दर्शायी जाती हैं। राधा और कृष्ण की लीला को एक वृत में दिखाया जाता है जो जीवन चक्र का संकेत है। इलाके में प्रचलित त्योहार और विधि-विधान भी इसमें जगह पाते हैं। लेकिन दैनिक जीवन की सच्चाई इसके पोर-पोर से झांकती रहती है।
एक मैथिलानी का जीवन दर्शन और उसकी आकांक्षा का प्रस्फुटन मिथिला चित्रकला का मूल स्वर है। स्त्री घर की उन्नति का वाहक मानी जाती है इसलिए लक्ष्मी को बार बार दर्शाया जाता है। विवाह को बांस के पेड़ से दिखाया जाता है तो गर्भ का प्रतीक -सुग्गा- होता है। वहीं नवजात को बांस के पल्लव से दिखाते हैं। इस चित्रकला में आँखों को वृतात्मक और नुकीला रखा जाता है। ये चित्रकारी कौशल हाल के समय तक पीढी - दर- पीढी माँ से बेटी को मिलती रही।
साल १९६७- के बाद ये चित्रकारी परम्परा भीत की दीवारों से उतार दी गई। अकाल से पस्त जन-समूह को रोजगार के अवसर देने के लिए इस चित्रकारी को व्यवसाय बनाया गया। तब से लेकर अब तक कितने ही प्रयोग किये गए। अब तो इसके पवित्र स्वरूप के दर्शन भी मुश्किल से हो सकते। सबसे बड़ा असर तो ये है कि अब कलाकार इस परंपरा को महसूस नहीं करता बल्कि सीखता है।

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