life is celebration

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17.7.12

सितंबर तक बंद हो जाएँगे बिहार के सभी बाल वर्ग केंद्र

सितंबर तक बंद हो जाएँगे बिहार के सभी बाल वर्ग केंद्र

संजय मिश्र

बिहार शिक्षा परियोजना की ओर से संचालित राज्य के सभी बाल वर्ग केंद्र सितंबर तक बंद कर दिए जाएँगे। राज्य सरकार के कर्ता -धर्ताओं ने परियोजना को इस मुतल्लिक संकेत दे दिए हैं। बिहार शिक्षा परियोजना ( सर्व शिक्षा अभियान ) के वरीय अधिकारियों ने भी अपने तरीके से निशाने पर आए कर्मियों तक सन्देश भिजवा दिया है। यानि इन केन्द्रों से जुड़े साढ़े पांच हजार महिला कर्मियों की नौकरी पर तलवार लटक गई है। भारतीय मजदूर संघ ने सरकार के इस कदम का कड़ा प्रतिवाद करने की ठानी है।

संघ की अनुषांगिक इकाई बाल वर्ग दीदी एवं सुपर-वाईजर संघ ने 23 जुलाई को पटना के आर-ब्लाक चौराहा पर जोरदार प्रदर्शन की तैयारी पूरी कर ली है। सुपर-वाईजर संघ की राज्य संयोजिका मंजू चौधरी का कहना है कि एक तरफ शिक्षा का अधिकार कानून में पूर्व बालपन शिक्षा पर जोर दिया गया है जबकि दूसरी तरफ चल रहे इस तरह के केंद्र बंद करने की केंद्र की साजिश के आगे राज्य सरकार झुक रही है। बाल वर्ग दीदी संघ की राज्य संयोजिका इंदु कुमारी ने हैरानी जताते हुए कहा कि एक दशक से भी ज्यादा समय से काम कर रही 5320 बाल वर्ग दीदी के पेट पर लात मारा जा रहा है वहीं महिलाओं की आवाज बुलंद करने वाली राज्य सरकार चुप्पी साधे हुए है।

भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश महामंत्री धीरेन्द्र प्रसाद सिंह ने इन ख़बरों की पुष्टि करते हुए कहा कि परियोजना के अधिकारियों ने उनसे इस संबंध में संपर्क साधा था। संघ नेता ने साफ़ किया कि बाल वर्ग दीदी को शिक्षिका का दर्जा दिलाने के लिए वे आंदोलनरत रहेंगे। दरअसल सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पुर्व बालपन शिक्षा के जिला समन्वयकों को राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी संजीव कुमार के साथ 26 जून को पटना में हुई बैठक में ही कह दिया गया कि सितंबर तक बाल वर्ग केन्द्रों को बोरिया-बिस्तर समेटना होगा।

सूत्रों की मानें तो केंद्र सरकार आंगनबाडी केन्द्रों को ज्यादा तवज्जो देना चाहता है साथ ही बाल वर्ग केन्द्रों के लिए प्रति जिला 35 लाख के सालाना बजट की बचत करना चाहता है। आपको बता दें कि बाल वर्ग केन्द्रों के लिए केंद्र 65 फीसदी हिस्सा वहन करता है जबकि राज्य सरकार बाकि के 35 फीसदी खर्च को वहन करती है। दिलचस्प है कि इसी साल अप्रैल में बाल वर्ग दीदी के मानदेय एक हजार से बढ़ा कर तीन हजार किये गए वहीं सुपर-वाइजरों का मानदेय डेढ़ हजार से बढ़ा कर साढ़े तीन हजार किया गया। सूत्र ये भी बताते हैं कि पुर्व बालपन शिक्षा के तहत दो अन्य कार्यक्रम महादलित उत्थान केंद्र और तालीमी मरकज केंद्र चलते रहेंगे।

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13.7.12

द लास्ट मुग़ल . . .

द लास्ट मुगल्स  . . .

संजय मिश्र

'द लास्ट मुग़ल' के लेखक विलियम डलरिंपल ने जब कहा कि भारतीय इतिहासकार एक दूसरे के लिए लिखते हैं तो विवाद खड़ा हो गया। लगे हाथ उन्होंने ये आरोप भी जड़ दिया कि इनके लेखन में जन-मानस के इतिहास बोध की घोर उपेक्षा की गई  है। 1857 की लड़ाई के संदर्भ में जनता की इस समझ में अटूट आस्था रखने वाले डलरिंपल निराश हुए होते अगर वे मुगलों के वारिश की खोज में दरभंगा आते। चौंकिए नहीं ! मुगलों के अंतिम वारिश 29 साल तक दरभंगा में रहे और यहीं इस परिवार के सदस्यों का इंतकाल हुआ। इनके मजार पर लोगो का जाना तो दूर की बात, पास के  मस्जिद के नमाजी भी इस धरोहर से अनजान हैं।

साल 1881 की ही बात है जब बहादुरशाह के पोते जुबैरुद्दीन गुड-गाणी दरभंगा आए ... और फिर यहीं के होकर रह गए। असल में 1857 की क्रान्ति से आजिज़ आ चुके अँगरेज़ बहादुरशाह के परिजनों के खून प्यासे हो गए थे। ऐसे में दरभंगा के महराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने न सिर्फ उन्हें शरण दी बल्कि उनकी सुरक्षा का पूरा जिम्मा उठाया।  ' आतिश -ए - पिन्हाँ ' के लेखक मुश्ताक अहमद की माने तो महराज का - हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स - में काफी असर था। जान की सुरक्षा से निश्चिन्त हो जुबैरुद्दीन ने जीवन के बाकि के साल किताबें लिखते हुए बिताई।

दरभंगा में रहकर उन्होंने तीन किताबें लिखी। उनकी लिखी ' चमनिस्तान - ए - सुखन ' कविता संग्रह है जबकि ' मशनबी दुर -ए - सहसबार '  महाकाव्य है। जुबैरुद्दीन की तीसरी रचना ' मौज - ए - सुलतानी ' है। इसमें देश की विभिन्न रियासतों की शासन  व्यवस्था का जिक्र है। खास बात ये है कि महाकाव्य ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' में राज दरभंगा और मिथिला की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को तफसील से बताया गया है।

राज परिवार की अंतिम महारानी के द्वारा संचालित कल्याणी फाउंडेशन की ओर से ''मौज -ए -सुलतानी ' को प्रकाशित कराया गया है। कल्याणी फाउंडेशन के लाएब्रेरियन पारस के मुताबिक़ मौज ए  सुल्तानी की मूल प्रतियों में से एक राज परिवार के पास है। मुश्ताक अहमद भी इसकी तसदीक करते हैं। उनके अनुसार ये प्रति कुमार शुभेश्वर सिंह की लाएब्रेरी में उन्होंने देखी थी। वे दावा करते है कि इस प्रति में जुबैरुद्दीन का मूल हस्ताक्षर भी है।

विलियम डलरिम्पल अपनी  किताब में दारा बखत की बार - बार चर्चा करते हैं जबकि जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं। उधर लाला श्रीराम अपनी किताब 'खुम - खान ए - जाबेद ' में बहादुरशाह की वंशावली का जिक्र करते हैं। इस किताब में दावा किया गया है कि जुबैरुद्दीन ही बहादुरशाह के वारिश थे। असल में बहादुरशाह के सबसे बड़े बेटे दारा बख्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे। लेकिन सिपाही विद्रोह के बाद सब कुछ बदल गया। बहादुरशाह के पांच बेटों को अंग्रेजों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के निकट बेरहमी से मार दिया।

इस मारकाट से बहादुरशाह का एक और पुत्र रईस खान  बच निकला और कलकत्ता के मटिया बुर्ज़ इलाके में पनाह ली। कलकत्ता में ही 1861 में रईस की मौत हो गई। साल 1858 में जुबैरुद्दीन किसी तरह दिल्ली से भागने  में सफल रहा और वाराणसी में सालो तक छुपा रहा। वाराणसी  में ही उसकी मुलाकात दरभंगा के महराज से हुई। महाराज ने उन्हें दरभंगा आने का न्योता दे दिया। घुमते-भटकते अगले साल जुबैरुद्दीन दरभंगा पहुँच गए।

लक्ष्मीश्वर सिंह ने काजी मुहल्ला में उनके लिए घर बनवा दिया। काजी मोहल्ला ही आज का कटहल वाड़ी है।  जुबैर के लिए मस्जिद भी बना दी गई। लेकिन बदकिस्मती ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जुबैरुद्दीन के दो बेटों की मौत हैजा से हो गई। ये साल 1902 की बात है। इसी साल ग़मगीन उनकी पत्नी भी दुनिया छोड़ गई। जुबैरुद्दीन का इंतकाल 1910 में हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिग्घी लेक के किनारे किया गया। राज परिवार की तरफ से 1914 में उस जगह पर एक मजार बनबाया गया।

रेड सैंड स्टोन से बना ये मजार जर्जर हालत में है। दीवार में लगे खूबसूरत झरोखे कई जगह से टूट गए हैं। मजार के अन्दर कंटीले घास उग आए हैं। इसके अन्दर जाने वाली सीढ़ी खस्ताहाल है। दरवाजे पर बना आर्क भी दरकने लगा है। मजार के केयरटेकर उस्मान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि ये मजार मुगलों के अंतिम वारिश की है। ... अगली वार विलियम डलरिंपल भारत आएं तो दरभंगा के संस्कृति प्रेम पर अट्टहास करते इस मजार को जरूर देखें।

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