life is celebration

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26.10.09

मीडिया की त्रासदी

संजय मिश्र
मीडिया दोराहे पर खड़ा है । एक तरफ़ पेशे से विलग गतिविधियों के कारण ये आलोचना के केन्द्र में है तो दूसरी ओर विकासशील भारत की परवान चढ़ती उम्मीदों पर खरा रहने की महती जिम्मेदारी का बोझ । मीडिया पर उठ रही उंगली अ़ब नजरंदाज नही की जा सकती । ये विश्वसनीयता का सवाल है...सर्विवल का सवाल है । आवाज बाहर से ज्यादा आ रही है पर इसकी अनुगूंज पत्रकारों में भी कोलाहल पैदा कर रही है । लेकिन अन्दर की आवाज दबी ...सहमी सी ...बोलना चाहती पर जुबान हलक से उपर नही उठ पाती। ऐसे में शुक्रगुजार वेब पत्रकारिता का जिसने एक ऐसा प्लेटफार्म दिया है जहाँ इस पेशे की सिसकी धीरे धीरे शब्द का आकार ले रही है ।
बहुत ज्यादा बरस नही बीते होंगे जब पत्रकारिता पर समाज की आस टिकी होती थी । आज़ादी के दिनों को ही याद करें तो मीडिया ने स्वतंत्रता की ललक पैदा करने में सराहनीय योगदान दिया था। कहा गया की ये मिशन पत्रकारिता थी । बाद के बरसों में भी मिशन का तत्त्व मौजूद रहा । कहीं इसने विचारधारा को फैलाने में योगदान किया तो कहीं समाज सुधार के लिए बड़ा हथियार बनी । लेकिन इस दौरान मिशन के नाम पर न्यूज़ वेलू की बलि नहीं ली गई । ये नहीं भुलाया गया की कुत्ता काटे तो न्यूज़ नहीं और कुत्ते को काट लें तो न्यूज़ ...
कहते हैं विचारधारा की महिमा अब मलिन हो गई है और विचार हावी हो गया है । ग्लोबल विलएज के सपनो के बीच विचार को सर पर रखा गया । इस बीच टीवी पत्रकारिता फलने फूलने लगी । अख़बारों के कलेवर बदले ...रेडियो का सुर बदला । संपादकों की जगह न्यूज़ मैनेजरों ने ले ली । ये सब तेज गति से हुआ । मीडिया में और भी चीजें तेज गति से घटित हुई हैं । समाज में पत्रकारों की साख गिरी है । यहाँ तक की संपादकों के धाक अब बीते दिनों की बात लगती । कहाँ है वो ओज ।
आए दिन पत्रकारों के भ्रस्त आचरण सुर्खियाँ बन रही हैं । फर्जी कामों में लिप्तता ..महिला सहकर्मियों के शारीरिक शोषण ..मालिकों के लिए राजनितिक गलियारों में दलाली ..जुनिअरों की क्षमता तराशने की जगह गिरोहबाजी में दीक्षित करने से लेकर रिपोर्टरों के न्यूज़ लगवाने के एवज में वसूली अब आम है । नतीजा सामने है । कई पत्रकार जहाँ करोरों के मालिक बन बैठे हैं। वहीँ अधिकाँश के सामने रोजीरोटी का संकट पैदा हो गया है।
दरअसल girohbaajon ने मालिकों की नब्ज टटोली और मालिकों ने इनकी अहमियत समझी । कम खर्चे में संस्थान चला देने और दलाली में ये फिट होते । फक्कर और अख्खर पत्रकार हाशिये पर दाल दिए गए । गिरोह के बाहर की दुनिया मुश्किलों से भरी । अखबार हो या टीवी की चौबीस घंटे की जिम्मेदारी । काम का बोझ और छोटी सी गलती पर नौकरी खोने की दहशत। हताशा इतनी की सीखने ki ललक नहीं। सीखेंगे भी किस्से ..असरदार पदों पर काबिज उन पत्रकारों की कमी नहीं जिन्हें न्यूज़ की मामूली समझ भी नहीं ।
टीवी की दुनिया चमकदार लगती। है भी ...कंगाली दूर करने लायक salary , खूबसूरत चेहरे, कमरे के कमाल, देस दुनिया को चेहरा दिखने का मौका ... और इस सबसे बढ़कर ख़बर तत्काल फ्लैश करने का रोमांच । पहले ख़बर परोसी जाती ... अब बेचीं जाने लगी । तरह तरह के प्रयोग होने लगे । इसके साथ ही trp का खेल सामने आया। ख़बरों के नाम पर ऐसी चीजें दिखाई जाने लगी जिसमे आप न्यूज़ एलेमेन्ट खोजते रह जायेंगे। भूत प्रेत से लेकर स्टिंग ऑपरेशन के दुरूपयोग को झेलने की मजबूरी से लोग कराह उठे। इनके लिए एक ही सछ है --एनी थिंग उनुसुअल इस न्यूज़ --...न्यूज़ सेंस की इन्हें परवाह कहाँ।

शहर डर शहर टीवी चैनल ऐसे खुल रहे हैं जैसे पान और गुटके की दूकान खोली जाती । वे जानते हैं की चैनल खर्चीला मध्यम है फिर भी इनके कुकर्मों पर परदा डालने और काली कमाई को सफेदपोश बनने के लिए चैनल खोले ही जा रहे हैं । इन्हें अहसास है की गिरोहबाज उन्हें संभाल लेंगे। कम पैसों में सपने देखने वाले पत्रकाr भी मिल जायेंगे। और वसूली के लिए चुनाव जैसा मौसम तो आता ही रहेगा।
अब वेब जर्नालिस्म दस्तक दे रही है । कल्पना करें इसके आम होने पर पत्रकारिता का स्वरुप कैसा होगा । अभी तो टीवी पत्रकारिता में ही बहाव नही आ पाया है । न तो इसकी भासा स्थिर हो paai है और न ही इसकी अपील में दृढ़ता । विसुअल का सहारा है सो ये भारतीय समाज का अब्लाम्ब बन सकता है लेकिन ...
चौथे खम्भे पर आंसू बहने का अ़ब समय नही ...पत्रकारों को अन्दर झांकना होगा । उन्हें अपनी बिरादरी की कराह सुन्नी ही होगी । मुद्दे बहूत हैं ...आखिरकार कितनी फजीहत झेलेगी पत्रकारिता ।

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