life is celebration

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27.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६ 
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संजय मिश्र
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लालू छुटपन में जब गांव के अपने आंगन में मिट्टी में लोटते होंगे...मुलायम तरूणाई में जब गांव के गाछी में पहलवानों के दांव देख अखाड़े में एन्ट्री मिलने के सपने देख रहे होंगे... कम से कम उस समय तक... मिथिला के गांवों की हिन्दू ललनाओं का अपनी देहरी के सामने से गुजरते मुसलमानों के मुहर्रम पर्व के दाहे (तजिया) का आरती उतारना आम दृष्य रहे..... खुदा-न-खास्ता देहरी के सामने किसी पेड़ की डाल दाहा की राह में अवरोध बनता तो उसी घर के पुरूष कुल्हाड़ी से उसे छांटने को तत्पर रहते... जुलूस से निकल कर किसी मुसलमान को डाल नहीं काटना पड़ता ... इन नजारों के दर्शन आज भी उतने कम नहीं हुए हैं।  

पर आरती उतारने वाली वही महिला मुसलमान के हाथ का बना खाना कुबूल करने को तैयार नहीं होती थी... ये हकीकत रही ... अंतर्संबंधों का ये जाल सैकड़ो सालों में बुना गया होगा... उस समय से जब मुसलमान राजा रहे होंगे और हिन्दू प्रजा... समय के साथ वर्केबल रिलेशन आकार ले चुका होगा... गंगा-जमुनी तहजीब के इस तरह के अंकुर सालों की व्यवहारिकता से फूटते आ रहे होंगे...और तब न तो जहां के किसी हिस्से में समाजवादी होते थे और न ही वाममार्गी... जमीनी सच्चाई ने इस भाव को सिंचित होने दिया होगा।

बेशक संबंधों के इस सिलसिले को आर्थिक गतिविधियों से संबल मिलता रहा... और जब एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता हो तो धार्मिक प्राथमिकताओं की सीमा टूटना असामान्य नहीं है। इंडिया के दो बड़े समुदाय जब इस तरह जीवन यात्रा को बढ़ा रहे हों तब हाल के कुछ प्रसंग आपको चकित करेंगे... खासकर बहुसंख्यकों का दुराग्रह कि मुसलमान युवक डांडिया उत्सवों में न आएं... जाहिर है ये बहुसंख्यक दरियादिली से इतर जाने वाले लक्षण हैं... इसमें अपनी दुनिया में सिमटने की पीड़ा के तत्व झांक रहे हैं जो कि नकारात्मक ओवरटोन दिखाते हैं।

ऐसा क्या हुआ कि हिन्दू इस तरह की सोच की ओर मुड़ा... समझदार तबके को इसके कारणों पर चिंता जतानी चाहिए थी... पर इस देश ने ऐसा नैतिक साहस नहीं दिखाया... इसी बीच लव जिहाद के मामले आए और सुर्खियां बने... चर्चा चरम पर रही जब कई राज्यों में उपचुनाव होने वाले थे... पर ये व्यग्रता उस दिशा में नहीं गई जिधर उसे जाना चाहिए था... दक्षिणपंथी संगठनों की निगाहें चुनाव में फायदा उठाने पर टिकी रही जबकि गैर-दक्षिणपंथी तबके का रूख न तो लव जिहाद के पीछे की मानसिकता की ओर गया और न ही चुनावी लाभ लेने की प्रवृति को उघार करने में रत रहा।

जाहिर है लव जिहाद में नकारात्मक मनोवृति के एलीमेंट हैं... यहां प्रेम की पवित्रता पर धर्मांतरण का स्वार्थ हावी होता है... जिसे प्रेम कर लाए... इस खातिर ... उसकी प्रताड़ना की ओर प्रवृत होने में संकोच तक नहीं है...लड़की के धर्म के लिए नफरत भाव और बदले की विशफुल इच्छा...मीडिया में आई खबरें लव जिहाद के लिए सचेत प्रयास के पैटर्न को उजागर कर रही थीं...मेरठ की घटना ने पहले चौंकाया... कांग्रेस के प्रवक्ता मीम अफजल ने निज जानकारी के आधार पर धर्म परिवर्तन के लिए प्रताड़ना की बात को स्वीकार किया। घटना की निंदा की और दोषियों को सजा देने की बात कही... रांची की निशानेबाज तारा का मामला तो आंखें खोलने वाला था।

लेकिन गैर-दक्षिणपंथी तबके का नजरिया तंग तो रहा ही साथ ही चिढ़ाने वाला भी... तीन पहलू सामने आए... लव जिहाद के अस्तित्व को नकारना, लव जिहाद की तुलना गोपी-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम के उच्च शिखर तक से कर देना... और लव जिहाद जैसे नकारात्मक मनोवृति को डिफेंड करने के लिए सकारात्मक भावों वाली गंगा जमुनी तहजीब को झौंक देना...गंगा जमुनी तहजीब को ढाल बनाने वाले इस संस्कृति को पुष्ट कैसे कर पाएंगे?

इस बीच सोशल मीडिया में एक शब्द – आमीन ( जिसका अर्थ है ..ईश्वर करे ऐसा ही हो) - चलन में है... अधिकतर वाममार्गी हिन्दू अपने आलेख के आखिर में जानबूझ कर इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं... इस उम्मीद में कि इससे गंगा-जमुनी तहजीब की काया मजबूत होगी... संभव है उन्हें पता हो कि देश के कई हिस्सों में मुसलमान स्त्रियां सिंदूर लगाती हैं...और अब ऐसी महिलाओं की तादाद में हौले-हौले कमी आ रही है...क्या इंडिया में सिंदूर लगाने की स्त्रियोचित लालसा से मुसलमान स्त्रियों के भाव-विभोर हो जाने में गंगा-जमुनी संस्कृति के तत्व नहीं खोजे जा सकते?

क्या ताजिया के जुलूस की आरती उतारने वाले दृष्य नहीं सहेजे जाने चाहिए? क्या आपको दिलचस्पी है ये जानने में कि कोसी इलाके के कई ब्राम्हण – खान – सरनेम रखते हैं? ... कभी आपने रामकथा पाठ.. भगवत कथा पाठ वाले प्रवचन सुने हैं... अभी तक नहीं तो थोड़ा समय निकालिए... सबके न सही मोरारी बापू और चिन्मयानंद बापू को ही सुन लीजिए... मुसलिम जीवन के कई प्रेरक प्रसंग वो सुनाते हुए मिल जाएंगे ... कबीर तो घुमड़-घुमड़ कर आ जाते हैं उनकी वाणी में।

गंगा-जमुनी संस्कृति के अक्श को जब देखना चाहेंगे समाज में तब तो दिखेगा उन्हें... कला, संगीत और आर्किटेक्चर की विरासत से आगे भी है दुनिया... चौक-चौराहों के लोक में भी ये जीवंतता के साथ दिखेगा... छठ, दुर्गा पूजा और गणेश पूजा की व्यवस्था संभालने वाले मुसलमानों का हौसला भी बढ़ाएं कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट।

हिन्दू-मुसलिम डिवाइड से दुबले हुए जा रहे लोगों को बहादुरशाह जफर के पोते के आखिरी दिनों की तह में जाना चाहिए... साल १८५७ की क्रांति से अंग्रेज आजिज आ चुके थे... वे बहादुरशाह जफर के परिजनों के खून के प्यासे हो गए थे... दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास बहादुरशाह के पांच बेटों को उन्होंने बेरहमी से मार दिया... १८५८ में बहादुरशाह जफर के पोते और सल्तनत के वारिस जुबैरूद्दीन गुडगाणी दिल्ली से भाग निकलने में कामयाब हो गए... छुपते रहे... आखिर में १८८१ में बिहार के दरभंगा महाराज ने जुबैरूद्दीन को शरण दी साथ ही सुरक्षा के बंदोवस्त किए...इस तरह के रिश्तों की याद किसे है? डिवाइड की चिंता जताने वालों को नहीं पता कि जुबैरूद्दीन का मजार किस हाल में है?

उन्हें साई बाबा की याद तो आ जाती है पर दारा शिकोह का नाम लेने में संकोच होता है...टोबा-टेक सिंह जैसे पात्र बिसरा दिए जाते... राम-रहीम जैसे नामकरण में उनकी रूचि नहीं है... वे बेपरवाह हैं उस ममत्व से जिसके वशीभूत हो मांएं मन्नत के कारण बच्चों के दूसरे धर्म वाले नाम रखती हैं...वे लाउडस्पीकर विवादों में तो पक्षकार बनने को तरजीह देते पर कोई अभियान नहीं चलाते ताकि सभी धर्मों के धार्मिक स्थल लाउडस्पीकर मुक्त हों...ये कहने में कैसा संकोच कि भक्तों की पुकार राम या अल्लाह बिना कानफारू लाउडस्पीकर के भी सुनेंगे?

वे दंगों से उद्वेलित नहीं होते... उनका मन दंगा बेनिफिसियरी थ्योरी पर टंग जाता है...उनका चित वोट को भी सेक्यूलर और कम्यूनल खांचे में विभाजित करने को बेकरार हो जाता है... सुलगते माहौल में सुलह नहीं कर सकते तो कम से कम हिन्दुस्तानी (भाषा) और शायरी में दिल लगाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें... पर मुसलमानों की तरक्कीपसंद मेनस्ट्रीम सोच की राह में बाधा खड़ी न करें... उन्हें याद रखना चाहिए कि नेहरू को राज-काज चलाने के लिए संविधान में सेक्यूलर शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी।

समाप्त -------------------



23.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५
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संजय मिश्र
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साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तब से इसकी तरह- तरह से व्याख्या की जा रही है... एक तबका (वाममार्गी) इसे हिन्दू रिवाइवलिज्म की आहट करार दे रहा है ...तो कोई इसे बहुसंख्यकवाद का करवट बदलना बता रहा है... वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी इस राय के हुए कि पार्टी की छवि एक समुदाय (मुसलमान) की हितैषी बन कर रह गई जिसका खामियाजा इसे भुगतना पड़ा... तो क्या ये हिन्दुओं का कोई दबा हुआ गुस्सा है जिसके उबाल मारने में कांग्रेस के अहंकार, महंगाई और घोटालों ने केटलिस्ट की भूमिका अदा की?

अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे फिर से बीजेपी के पक्ष में आए हैं तो क्या ये इसी हिन्दू अभिव्यक्ति की दुबारा तस्दीक कर रही है? माना तो यही जाता कि किसी भी देश का बहुसंख्यक आम तौर पर नाराजगी नहीं दिखाता ... फिर ऐसा क्या हुआ कि वे खास तरह की राजनीति को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं?... क्या कांग्रेस को अहसास था कि – देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, ओसामा जी, आतंकवाद के आरोपियों के लिए पीएम मनमोहन को रात भर नींद नहीं आई, आजमगढ़ के इनकाउंटरपीड़ियों के लिए सोनिया जी फूट-फूट कर रोई......- जैसे उद्गार हिन्दुओं पर इतना गहरा असर छोड़ेंगे?    

लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के बीच के काल में बिहार में महागठबंधन बना है... लालू प्रसाद ने हुंकार भरते हुए कहा कि मोदी के रथ को मंडल से रोका जाएगा... लालू जब ये कह रहे थे तो पिछड़ों और दलितों के लिए किसी अनुकंपा भाव से द्रवित हो कर नहीं बोल रहे थे...मंडल से उनका इशारा यही था कि मोदी के कारण जिस बहुसंख्यक उभार की बात कही जा रही उससे उन्मादी जातीए राजनीति के जरिए हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के बीच दरार चौड़ी करके मुकाबला किया जाएगा...लालू राज को याद करें तो उनके इरादों की सरल व्याख्या जातियों के बीच नफरत फैलाने में ही खोजा जा सकता है। 

मुसलमानों के बरक्स हिन्दू मानस को समझने के लिए बीते समय में गोता लगाना लाजिमी है...नेहरू ने जब हिन्दू कोड बिल पर जिद की तो सनातनियों में खासा आक्रोश पनपा... बिल के विरोधी आजादी मिलने से खुश थे... नव जीवन की उम्मीदों से उत्साहित ... वे मान कर चल रहे थे कि सभी भारतवासी की खातिर नया सवेरा अवसर बन कर आया है... लिहाजा नए सार्वजनिक व्यवहार के लिए मन को दिलासा दे रहे थे... उनको अहसास था कि सभी नागरिकों के लिए समान सिविल कोड आएगा और उन्हें भी कुर्बानी देनी होंगी... लेकिन नेहरू ने अपनी लोकप्रियता का उपयोग कर बिल को रास्ता दिखा ही दिया।

विभाजन के बाद हिन्दुओं के लिए ये पहला झटका था.... बेमन से बिल विरोधी इस पर राजी हुए... नेहरू ने भी इस टीस को महसूस किया लेकिन पहले पीएम का भरोसा था कि हिन्दू के जीवन में इससे जो बदलाव आएगा वो मुसलमानों को भी उकसाएगा और समय के साथ वे सिविल कोड की ओर रूख कर लेंगे... छह दशक बीत चुके हैं इस देश के जीवन के... लेकिन नेहरू के उस भरोसे का कहीं अता-पता नहीं है।

शाह बानो प्रकरण के समय आरिफ मुहम्मद खां का ऐतिहासिक विरोध नजीर तो बना लेकिन राजीव के कांग्रेस से हिन्दू खूब निराश हुए... आज भी मुसलमान इस मामले में किसी दखल पर सोच-विचार करना भी चाहें तो मुसलमानपरस्ती वाला राजनीतिक और बौद्धिक जमात उसकी ढाल बनने को आतुर हो जाता है। कहा जाता है कि सिविल कोड की बात जुबां पर लाना भी कम्यूनल सोच है... ये जमात कहने लगता है कि यूनिफार्म सिविल कोड का मसला संवैधानिक है ही नहीं... इंडिया के लोग इन दलीलों को सुनते आए हैं... पर कोई भी विदेशी संविधान विशेषज्ञ ऐसी सोच पर हैरान हुए बिना नहीं रहेगा।

ऐसा ही एक मसला वंदे मातरम गान से जुड़े सन्यासी विद्रोह का है..पलासी युद्ध के बाद का समय है जब बिहार की पूर्वी सीमावर्ती जिलों से लेकर आज के बांग्लादेश के पश्चिमी जिलों तक सन्यासियों ने इस्ट इंडिया कंपनी और उनके समर्थक जमींदारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूके रखा... स्थानीय जमींदारों की लूट-खसोट और आतंक से लोगों में दहशत थी... वारेन हेस्टिंग्स की हाउस आफ लार्ड्स में हो रही इम्पीचमेंट के दौरान लोगों की प्रताड़ना के संबंध में बताते हुए एडमंड बुर्के बेहोश हो गए थे... लोगों की इस तकलीफ की पृष्ठभूमि में ही सन्यासियों ने विद्रोह किया था...विद्रोह के निशाने पर मुसलमान जमींदार भी रहे नतीजतन इंडिया के हुक्मरान इसे आजादी की पहली लड़ाई का सम्मान देने को तैयार नहीं हैं।  

चीन, यूरोप और अमेरिका में गौ-मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है... वहां इस मांस के स्वाद की व्याख्या वेजिटारियन मूवमेंट वालों को चिढ़ाने के लिए उतना नहीं किया जाता जितना कि गौ-मांस मीमांसा इंडिया के वाम, सोशलिस्ट और मध्यमार्गी कांग्रेस के मिजाज वाले लोग करते हैं... बहुसंख्यक मानते हैं कि इसका सीधा मकसद मुसलमानों को खुश करना और हिन्दुओं को चिढ़ाना, सिहाना और अपमानित करना होता है।  

गौ-मांस के लिए लार टपकाने वाले वाममार्गी जानते हैं कि सनातन धर्म के लोग गौ को पूजते हैं... हकीकत है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी... लेकिन वाममार्गी इतिहास की सरकारी किताबों में लिखते हैं--- लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सूअर का मांस अधिक नहीं खाते थे---... इस अंश से ही कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के वोट बैंक मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है... यही कारण है कि कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेसी सिद्धारमैया गौ-हत्या पर राज्य में लगा प्रतिबंध हटा लेते हैं... बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय होता है... हिन्दू क्लेश में रहता है कि वो गौ-भक्षण नहीं करेगा तो ये तबका उसे प्रगतिशील नहीं मानेगा।

संविधान बड़ा आसरा है इस देश के लिए... सार्वजनिन हित के लिए... संबल की खोज बहुसंख्यकों को हो तो हैरानी कैसी... पर ये तबका उस वक्त हैरान होता है जब प्रगतिशील और वाममार्गी इतिहासकार सरकारी इतिहास की किताबों में इन्द्र को ऐतिहासिक मानते हुए सिंधु सभ्यता को नष्ट करने वाला मान बैठते हैं... उनके लिए राम और कृष्ण काल्पनिक हैं पर कृष्ण के भाई इन्द्र ऐतिहासिक हो जाते... आपको भूलभुलैया में घुमाने के बदले सीधे बता दें कि इसका मकसद आर्यों को विदेशी आक्रांता साबित करना है... मुसलमानों की तरह... चलिए आर्य बाहरी हुए और मुसलमान भी ... इसका मतलब ये तो नहीं कि कश्मीर के पंडितों की एथनिक क्लिनजिंग पर राजनेता, बुद्धिजीवी और मीडिया स्तब्धकारी चुप्पी साध ले।

इस देश के अधिकांश कर्ता-धर्ता यहूदियों के दुख पर विलाप करते हुए हिटलर को कोसते रहते हैं पर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर उन्हें सांप सूंघ जाता है। आरएसएस के सदस्यों पर आतंक के आरोप के नाम पर हिन्दुओं को लपेटने से इन्हें गुरेज नहीं रह जाता... यहां तक कि इंडिया के झंडे के केसरिया रंग का खयाल न रखते हुए सैफ्रन टेररिज्म जैसे जुमले इस्तेमाल करता है ये वर्ग... हिन्दुओं को इस बात की तकलीफ रहती है कि उनकी धार्मिकता से जुड़ा रंग है सैफ्रन... दिलचस्प है कि इसकी खेती का केन्द्र है कश्मीर।  

आप सोच रहे होंगे कि यहां पर मसलों की फेहरिस्त लम्बी क्यों होती जा रही? चलिए बस करते हैं ... मूल पाठ यही है कि हिन्दुओं के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं जिस रास्ते वे मुसलमानों के साथ वर्केबल संबंध रखते हैं... पर ६५ साल के जवान देश बताने की सनक रखने वाले पैरोकारों का पुरातन सभ्यता से अपमानजनक वर्ताव अखरता है हिन्दुओं को... कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की छतरी के नीचे इन कोशिशों का वीभत्स रूप सामने आ चुका है... मुसलमान अब दंगों के दाग वाले परसेप्शन से मुक्त कर दिए गए हैं और हिन्दुओं का मानना है कि इस दाग को बहुसंख्यकों पर थोपा जा रहा है...ये बताने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की अगुवाई वाले जमात का क्या मकसद होगा? पर क्या कोई देश बहुसंख्यकों पर दंगों के दाग के बावजूद प्रगति की राह पकड़ने का ख्वाब देख सकता है?


जारी है-----  

18.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४  
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संजय मिश्र
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१३-१०-२०१२...बिहार के दरभंगा नगर के पोलो ग्राउंड में करीब २० हजार लोग जमा हुए... वे काफी रोष में थे... ... यूएसए गो टू हेल, ओबामा अब बस करो.. जैसे नारे फिजा में गूंज रहे थे... ये लोग अमेरिका में बनी फिल्म इनोसेंस आफ मुस्लिम्स का विरोध कर रहे थे... वे इस बात से आहत थे कि फिल्म में इस्लाम के प्रतीकों से खिलवाड़ किया गया है... अंजुमन कारवां ए मिल्लत की अगुवाई में हुई इस सभा के बाद लौटती भीड़ ने डीएम कार्यालय के दरवाजे के पास तोड़-फोड़ कर दी।

खबर ये है कि ०४-१०-२०१२ को जब इस विरोध मार्च का निर्णय हो रहा था तो मुसलमान समाज के बड़े बुजुर्ग सौ लोगों के साथ प्रतिवाद मार्च निकालने के पक्ष में थे... जबकि युवा मुसलमानों के पक्षधर इसके लिए तैयार नहीं हुए... पत्रकारों के सामने ही समाज के दो खेमों के बीच तल्खी साफ नजर आ रही थी... आखिरकार डेढ़ सौ लोगों के साथ पैदल मार्च की योजना बनी... बुजुर्ग मुसलमान लगातार याद दिलाते रहे कि फिल्म का इंडिया से लेना-देना नहीं है लिहाजा देश के हुक्मरानों के खिलाफ नारेबाजी नहीं हो...लेकिन जब सभा हुई तो २०००० प्रदर्शनकारियों को संभालने में पुलिस के पसीने छूटते रहे।

अब जरा रूख मुंबई का करें ...११-०८-२०१२ को बर्मा की घटनाओं के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान में पुलिस बंदोवस्त अचानक उमड़ आई बेकाबू भीड़ के लिए नाकाफी साबित हुआ... भीड़ ने कई महिला पुलिसकर्मियों को घेर लिया और उससे छेड़खानी हुई... कपड़े नोचे गए ... पास खड़े मीडिया के ओवी वैन जला दिए गए... शहीद स्तंभ को तोड़ दिया गया...ये दृष्य देश के लोगों ने देखे... २५-०७-२०१४ को सहारनपुर दंगों के दौरान भी अचानक आ गई भीड़ की संख्या सबों को चौंकाती रही... ऐसी घटनाएं देश के कई हिस्सों में जब-तब घट रही हैं।

इसमें एक पैटर्न है... उधम मचाने वाली भीड़ में अनुमान से बहुत अधिक तादाद में लोगों का जुटान... मुस्लिम समाज के समझदार तबके का सीमा तोड़ने वाले इन युवा मुसलमानों पर नियंत्रण नहीं... देश और विदेश की घटनाओं पर इन युवकों का अतिवादी, तंग और जुनून से भरा रवैया.... ये पैटर्न इंडिया के मुसलमानों की मेनस्ट्रीम सोच से जुदा हकीकत पेश करता है...इसमें बहुत ही कम तत्व माइनोरिटिज्म के खोजे जा सकते...

इस्लामिक दुनिया की उथल-पुथल... उन जगहों से अलग अलग मकसदों से आर्थिक मदद के नाम पर आ रहे पैसे, सोशल मीडिया का बेलगाम स्वभाव जैसा मंच और हेट मोदी अभियान का असर भी है उनपर... मोदी विरोध का मकसद भले वोट से जुड़ा हो... पर ये भटका हुआ तबका २४ इंटू ७ मोदी विरोध से इतना उद्वेलित हो जाता है कि वो गुजरात की घटनाओं को हिन्दू बैकलैस ही मान कर चलता है... उपर से गैर-बीजेपी दलों की मुसलमानपरस्ती उन्हें हौसला देती रहती है...बाबरी डेमोलिशन उन्हें लगातार याद दिलाया जा रहा है।  

उन्हें पता है कि मौजूद राजनीतिक जमात में नैतिक साहस का घोर अभाव है। उसे पता है कि उसके गुनाहों के मामले वापस लिए जाएंगे... उसे इल्म है कि कई राज्य सरकारें सुरक्षित शरणस्थली देने के लिए बेकरार है... यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और बंगाल के माहौल उन्हें आश्वस्त करते हैं...ममता बनर्जी की पार्टी के लोगों का जो स्नेह इन तत्वों को मिला है उस पर कौन इतराना नहीं चाहेगा... वहां तो अरसा से उन्हें सहूलियत रही है...  वाम सरकारों के समय से फर्जी काम के लिए असली दस्तावेज बनाने में सरकारी सहयोग मिलते रहे हैं।  

जिन्हें फिक्रमंद होना चाहिए वे हकीकत को बेपर्दा करने की जगह दबाते हैं ...ताजा उदाहरण कश्मीर का है जहां आइएसआइएस के झंडे लहराए गए हैं... मीडिया मौन है...खबर को दबा रहा है... राजनेता इसकी मुखालफत करने से डर रहे हैं...यकीनन भटके हुए तत्व की सोच में तब्दीली में उनकी रूचि नहीं है... यही हाल दक्षिणपंथी राजनीतिक तबके का है जो मुसलमान युवकों के मानस की व्यग्रता को रेखांकित तो करते हैं पर मुसलिम समाज के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व से इस व्याकुलता को शांत करने की अपील नहीं करते... हस्तक्षेप करने के लिए उत्साहित नहीं करते.... हाथ मजबूत नहीं करते...उनसे संवाद नहीं करते।

मुसलिम समाज में आंतरिक संवाद को गति देने पर किसी का ध्यान नहीं है... यहां तक कि युवा मुसलमानों के भटकाव को इमानदारी से कुबूल करने का साहस नहीं दिखा रहा ये देश... क्या वाकई इंडिया के लोग हिन्दू-मुसलिम डिवाईड से चिंतित हैं? या फिर जो कोलाहल दिखता रहता है वो महज सियासी चाल है?


जारी है.......... 

16.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३
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संजय मिश्र
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इंडिया के करीब सौ मुसलमान युवकों के फरार होने की खबर सार्वजनिक हुई तो देश के समझदार तबकों में सनसनी फैल गई... दबे स्वर में उन्होंने चिंता जताई... खबर खुफिया स्रोतों की तरफ से आई थी... आशंका है कि ये युवक इराक और सीरिया में आईएसआईएस के चंगुल में हैं... जिहाद करने निकले हैं... और इसलाम के नाम पर आहूति देने गए हैं। इधर इन युवकों के परिजनों का हाल बेहाल है... वे मदद की गुहार लगा रहे हैं।

ये मुसलमानों के पश्चिम की तरफ ताकने का पीड़ा देने वाला पहलू है... मक्का-मदीना पश्चिम में है सो स्वाभाविक चार्म है उस दिशा का... ये चार्म पश्चिम के विकसित देशों के लिए रूझान से अलग है... ये धार्मिक है... इसका प्रकटीकरण बीसवीं सदी के शुरूआत से ही इंडिया के राजनीतिक-सामाजिक विमर्श में असहजता घोलने का पोटेंशियल रखता आया है।

ओटोमन अम्पायर (तुर्क) में ब्रिटिश मनमानी के मुद्दे पर इंडिया में १९१९-२२ में जो खिलाफत आंदोलन चला उसमें तुर्की के सुल्तान के धार्मिक अधिकारों के सवाल भी शामिल थे.... इंडिया के मुसलमानों के इस हलचल को लेकर गांधी विशेष आग्रही हुए ... उन्होंने इसे अवसर के रूप में देखा और खुल कर समर्थन दिया... इस देश के आज के लोग जो दिन-रात सेक्यूलरिज्म की बात सुनते हैं... उन्हें ये अटपटा जरूर लग सकता है।

पाकिस्तान भी पश्चिम में है... और इसकी बुनियाद भी इसलाम के आसरे पड़ी ... जिन्ना और इकबाल ने जिस पाकिस्तान का तान छेड़ा वो इस सबकंटिनेंट को पार्टिशन की तरफ धकेलने में सफल हुआ... जिस मुसलमान आबादी ने इंडिया में ही बसर करने का मन बनाया.. उसके लिए न तो पश्चिम के धार्मिक प्रतीकों का मोह कम हुआ और न ही नए बने पाकिस्तान के लिए आसक्ति... साल १९७१ के युद्ध और पाकिस्तान के टूटने का गहरा असर पड़ा उनपर।

वे इस बात पर एकमत हुए कि पाकिस्तान में बसने के किसी सपने से ज्यादा मुफीद इंडिया में रहना ही है... इससे भी बड़ा सबक था बांग्लादेश का आकार लेना... इसने जता दिया था कि भाषा(यहां बांग्ला पढ़े) की ललक धर्म के आकर्षण से पार पा सकता है... टू-नेशन थ्योरी ध्वस्त हो चुकी थी... बांग्लादेश में फंसे बिहारी मुसलमानों को लेने से पाकिस्तान के इनकार ने रही सही कसर पूरी कर दी... पाकिस्तान रूपी पश्चिम का मोह मोटा-मोटी अब वहां रहने वाले उनके संबंधियों और सांस्कृतिक आह्लादों तक सिमट कर रह गई।

इधर एक नया तबका उभरा है इस देश में जो मुसलमानों के पश्चिम प्रेम को भड़काने के नाम पर सशक्त हुआ है... इसका आधार मुसलमान के मानस का दोहन करना है... वे कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के फोकल प्वाइंट यानि मुसलमानपरस्ती की खातिर ऐसा करते हैं... इसके दर्शन हाल में इस देश को खूब हुए हैं... मसलन इराक में आईएसआईएस की बर्बरता, बोको हरम से जुड़ी अमानुषिक हरकतों पर तो चुप्पी साध जाता है ये तबका पर गजा पट्टी के हमास के लिए इंडिया की सड़कों को उद्वेलित करने से नहीं चूकता... पश्चिम भाव के दोहन और जायज नजरियों के बीच से गुजरते हुए इंडिया के मुसलमानों का बड़ा तबका अपने नए पीएम की उत्साह बढ़ाने वाली उस स्वीकारोक्ति को परखने में लगा है जिसमें कहा गया है कि इंडिया के मुसलमान देशभक्त हैं और अलकायदा जैसे संगठनों के मंसूबों को सफल नहीं होने देंगे।  


7.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-२

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-२ 
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संजय मिश्र
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इंडिया में भूख से मरने की खबर अक्सर आती रहती है.. पत्रकार इसे जतन से आपके पास पहुंचाते हैं... इस कोशिश में वे अफसरों की नाराजगी मोल लेते हैं... उनसे पूछिए या फिर अखबारों के पन्ने पलटिए... आप पाएंगे कि मरने वालों में मुसलमान नहीं के बराबर होते... कह सकते कि मुसलमान कर्मठ होते साथ ही हूनर वाले पेशे अपनाने के कारण भुखमरी टाल जाते... दिलचस्प है कि इसी देश के हुक्मरान कहते फिरते हैं कि मुसलमानों की माली हालत दलितों से भी खराब है।

वे सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का हवाला देते हैं ... तो क्या ये रिपोर्ट डाक्टर्ड है? राजनीति करने में सहूलियत का इसमें ध्यान रखा गया है? रोचक है कि इस रिपोर्ट की महिमा का बखान कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट सिद्दत से करते... सार्वजनिक मंचों पर इसको लेकर आंसू बहाए जाते... केन्द्र की सत्ताधारी दल बीजेपी को भी ये रिपोर्ट खूब सुहाती है... कांग्रेस की दशकों की उपलब्धि को भोथरा साबित करने में उन्हें ये हथियार नजर आता।  

इस डिस्कोर्स में शामिल होने वाले मुसलमान करीने से हुक्मरानों से हिसाब मांगते हैं... इस अल्पसंख्यक समाज की हैसियत बढ़ाने वाले कदम उठाने की चुनौती देते...मुसलमानों की बदहाली के कई कारण होंगे... पर आप ध्यान देंगे तो विशेष राजकीय सहयोग पाने की उनकी अर्जुन दृष्टि आपको नजर आ जाएगी.. मौजूदा समय में संघ परिवार के नेताओं के गैर-जरूरी बोल के बीच भी मुसलमानों की नजर बीजेपी के उस विजन डाक्यूमेंट पर टिकी है जो मुसलमानों के हितों के लिए तैयार हुए हैं।

संभव है पूर्व आम आदमी पार्टी नेत्री शाजिया इल्मी का बयान याद आया होगा आपको... साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के समय दिए गए उस बयान को विवादित करार दिया गया... शाजिया ने गुहार लगाई थी कि मुसलमान बहुत सेक्यूलर हो लिए... अब उन्हें अपने हितों की ओर देखना चाहिए... इसमें अनकही बात ये थी कि मुसलमान आम आदमी पार्टी पर भरोसा दिखाएं तो उनके हितों का विशेष खयाल रखा जाएगा।

इंडिया के राजनीतिक सफर में डुबकी लगाएं तो इस तरह के फिकर की बानगी आपको बिहार में जगन्नाथ मिश्र के राजकाज के दौरान दिखेगी...सहरसा के रहने वाले पंडित सीएम मुहम्मद जगन्नाथ तक कहलाए... मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक उम्मीदों पर वे खासे मेहरबान हुए। पर साल २००० का विधानसभा चुनाव... झंझारपुर क्षेत्र से जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र उम्मीदवार थे... पिता ने मुसलमानों से बेटे को जिताने की गुहार लगाई पर नाकामी हाथ लगी.. नीतीश मिश्र हार गए.. ये लालू का दौर था।

मुसलमानों को लालू से खूब स्नेह मिल रहा था... पटना से लेकर ब्लाक तक में मुसलमानों की अपेक्षाओं का खयाल रखा जा रहा था... यूपी में मुलायम को मुल्ला मुलायम ऐसे ही नहीं कहा गया... उन पर मुसलमानों की सदिच्छा और मुसलमानों पर सपा का प्रेम जगजाहिर है... मायावती तक की विशेष कृपा बनी रही है मुसलमानों पर।

यानि नेहरू के समय से आर्थिक और इमोशनल सहयोग का जो सिलसिला चला वो किसी न किसी रूप में जारी है... यानि जहां सहूलियत उधर झुकाव... गैर-बीजेपी खेमों की बेचैनी मुसलमानों की उसी तरल सोच की उपज तो नहीं? क्या ये विकलता स्मार्ट वोटर कौम को अपने पाले में बनाए रखने की है? आखिर संकट किस बात का है? ये मुसलमान का संकट है... या कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म का... सनातनियों का या फिर ६५ साला इंडिया का संकट है?


जारी है........... 

6.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१
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संजय मिश्र
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इंडिया का राजनीतिक और सामाजिक विमर्श यही मान कर चल रहा है कि आबादी के बड़े हिस्से ने जीने का सलीका तो बदला है लेकिन मुसलमान औरंगजेब और ब्राम्हण मनु के दौर में बने हुए हैं... हकीकत इससे अलग है ... जाहिर है समरसता की चाहत के बावजूद सार्वजनिक डिस्कोर्स हांफ रहा है...पहरुए न तो ब्राम्हण के मानस में आए बदलाव को स्वीकार कर रहे और न ही मुसलमानों के मिजाज की दस्तक सुनना चाहते।

ब्राम्हण की कथा फिर कभी... फिलहाल मुसलमानों के रूख में परिवर्तन को पहचानने की कोशिश करें... ... इस देश की आम समझ है कि दो बड़े कौम की सहभागिता का पहला आधुनिक पड़ाव साल १८५७ ने देखा... अंग्रेजों से छुटकारा पाने की अकुलाहट के छिट-पुट दर्शन इससे पहले भी हुए...लेकिन १८५७ में ये व्यापक आयाम के साथ उभरा... फिर भी बहादुरशाह जफर की कामना हिन्दू प्रजा के सहयोग... हिन्दू जमींदारों के सहयोग से मुगल सल्तनत की वापसी पर टिकी रही ... बेशक अंग्रेजों को परास्त करना पहली जरूरत थी।

आपसी सहयोग की मिसाल कायम हुई पर ये प्रयास विफल रहे... असफलता ने मुसलमानों को तोड़ दिया... शासक वर्ग होने के दिन लद चुके थे... जख्म थोड़े भरे तो अंग्रेजों से दोस्ताना रिश्ते पर उन्होंने गौर फरमाया...सर सैयद अहमद के समय में इस दोस्ताना रिश्ते के साथ आधुनिक शिक्षा का सूरज उगा... इस समझ को काफी बाद झटका लगा जब बंग-भंग आंदोलन के समय वे राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजों की सहृदयता के बीच जूझते रहे।

किस्मत बदलने की तमन्ना हावी हुई... खिलाफत आंदोलन में गांधी के सहयोग के बावजूद पश्चिम की तरफ ताकने और प्रोपोर्सनल रिप्रजेंटेशन की दिशा की तरफ वे बढ़ चले .... आजादी के आंदोलन की तीव्रता ने उन्हें अहसास करा दिया कि लोकतंत्र आएगा और उन्हें प्रजा वाला मिजाज विकसित करना पड़ेगा... मन की हलचल के बीच अलग देश के तत्व हावी हो गए... देश का बटवारा हो गया... मुसलमानों के लिए अलग देश बन गया।

जो भारत में रह गए उनके सामने धर्मसंकट था... आजादी की बेला क्रूरता की हदें पार करने का गवाह बनी थी... भीषण दंगों से हिन्दुओं के मन पर पड़ने वाले असर से भी वे वाकिफ थे...हिन्दू राष्ट्र की तमन्ना के स्वर भी उन्हें सुनाई दे रहे थे...फिर भी नेहरू ने उन्हें भरोसा दिया...अब वे जनता बन चुके थे... चुनावी राजनीति में बहुसंख्यकों के वर्चस्व की धारणा के बोझ को वे उतारने लगे...फ्री इंडिया में उनके मनोभावों को एक आसान से उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है।

फिल्म की दुनिया में दिलीप कुमार को हिन्दू नाम के सहारे खूब सफलता मिली... अपने नाम से सफल होने में उस समय के मुसलमान कलाकारों को हिचक थी... ये दौर बीता...  तब फिरोज खान और संजय खान का समय आया... ये मुसलमानों के आत्मविश्वास का संकेत कर रहा था... अपनी पहचान से ही उन्होंने सफलता के झंडे गाड़े...आज शाहरूख, आमीर और सलमान आत्मविश्वास के साथ आक्रामकता की नुमाइश कर रहे हैं।

शासक से जनता बनने के मुसलमानों के इस सफर में न तो औरंगजेब की महिमा है और न ही दबे-कुचले होने का दंश ...मुफलिसी से उबरते रहने की आकांक्षा इन भावों पर भारी है।

जारी है............ 

5.10.14

क्लीन इंडिया ड्राइव में राजनीति भी है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर

क्लीन इंडिया ड्राइव में राजनीति भी है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर
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संजय मिश्र
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हाल के समय में कई कांग्रेसी नेता अलग अलग मौकों पर इंडियन पीएम की प्रशंसा करते देखे गए हैं... १५ अगस्त के मौके पर अपने संबोधन में जब पिछली केन्द्र सरकारों के अच्छे काम को मोदी ने स्वीकार करने वाली बात कही तो माना गया कि ये कोई रणनीतिक मूव हो सकती है... लेकिन २ अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के शुरूआत के मौके पर उन्होंने विस्तार से उसे दुहराया... कांग्रेस का नाम तक लिया... कहा कि ये नेक अभियान है लिहाजा इसमें राजनीति न हो... मोदी समर्थकों के अलावा आम जनों को भी अनुमान था कि कांग्रेसी नेता मोदी के इस रूख का स्वागत करेंगे और उल्टी नहीं करेंगे... शाम होते होते कांग्रेसियों की खीझ छुपाए नहीं छुप रही थी...हे इंडिया के लोग... ये अभियान जरूर सुहाने वाला है... थाने में जाकर नरेन्द्र मोदी का मन लगाकर सफाई करना कैच विजुअल आफ द डे बना... पर कांग्रेस को आज के दिन भला-बुरा न कहें... मोदी ने उनके साथ राजनीति की है... लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कांग्रेस से सरदार पटेल को छीन लिया... और अब उनसे गांधी की विरासत को छीन लेने की जुगत में लग गए हैं... मोदी के काम करने का तरीका ही ऐसा है कि वो दिखने लायक नतीजे दे ही देते हैं... इस अभियान को भी वो संतोष लायक मुकाम तक पहुंचा ही देंगे...फिर क्या बचेगा कांग्रेस के लिए? दलितों के बीच मोदी का संदेश जाएगा सो अलग... ये अकारण नहीं कि कांग्रेस की प्रतिक्रिया बार-बार गांधी के मुस्लिम प्रेम वाले विचारों की ओर घूम रही थी...

गुहा...भागवत और डीडी

गुहा...भागवत और डीडी
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संजय मिश्र 
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उम्मीद नहीं थी कि इतिहासकार राम चन्द्र गुहा आरएसएस की खिलाफत के लिए इतना कमजोर दांव खेलेंगे.... उन्हें दूरदर्शन पर मोहन भागवत के भाषण दिखाने पर आपत्ति है... वो कहते कि आरएसएस कम्यूनल है... लगे हाथ मोहन भागवत की तुलना इमामों और पादरियों से कर बैठे.... तो क्या वे कहना चाहते कि इस देश के इमाम और पादरी कम्यूनल होते हैं...?


साल १९८७... डीडी पर रामानंद सागर की रामायण सीरियल प्रसारित हुई थी... प्रबुद्ध लोगों को हैरानी तो हुई पर उसे देखने की होड़ सी मच गई... उधर वामपंथियों ने देश भर में इस प्रसारण की खिलाफत की थी...तल्ख विरोध चाणक्य सीरियल के प्रसारण पर भी किया इन्होंने .. साल भर पहले ही शाहबानो प्रकरण हुआ था.. सहम कर विरोध जता पाए थे वे ... रामायण सीरियल ने मौका दिया और पिल पड़े डीडी पर...उस दौर में टीवी चैनलों के नाम पर डीडी ही सब कुछ था...लिहाजा विरोध के लिए वजहें थी... 
अब जबकि निजी चैनलों की बाढ़ है और गला-काट प्रतिस्पर्धा है... डीडी के लिए प्रतिस्पर्धा में बने रहना मुश्किल हुआ जा रहा है... ऐसे में डीडी का इस पैमाने पर विरोध उसे बांध कर नहीं रख देगा? ... दूरदर्शन के लिए दोहरी आफत है... सरकारें नहीं चाहती कि ये संस्था प्रोफेशनल तरीके से काम करे... और अब विरोधी दलों के अलावा इतिहासकार, मीडिया पंडित और बुद्धिजीवी यही मंशा दिखा रहे...
चलिए इन विरोधियों की बात मान ली जाए... और फिर याद किया जाए मोहन भागवत का हिन्दू थ्योरी वाला भाषण ... निजी चैनलों ने इसकी आलोचना को प्रमुखता से दिखाया.... क्या डीडी के दर्शकों को इस तरह के डिस्कोर्स को देखने का हक नहीं देना चाहते ये विरोधी... क्या डीडी के दर्शकों को इसके लिए निजी चैनलों की ओर रूख करने के लिए मजबूर करना चाहते वे.... फर्ज करिए भागवत का वो भाषण डीडी का एक्सेक्लूसिव होता तो क्या विरोध करने वाले मोहन भागवत के उस भाषण पर कोई बवाल नहीं करते... क्या तब वो खबर नहीं होती? ... क्या मान लिया जाए कि विरोध करने वाले आगे से डीडी की स्वायतता की चर्चा नहीं करेंगे...और न ही प्रोफेशनल होने के लिए कहेंगे ? रामचन्द्र गुहा को याद रखना चाहिए कि उन जैसों की वजह से ही मोहन भागवत पहले भी खबर थे और आगे भी बने रहेंगे...

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