life is celebration

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31.7.10

आल गर्ल गेटअवे....

....संजय मिश्र...
पहाड़ों की वादियाँ.... कल कल करते झड़ने .... और पास ही छोटा सा घर। लोगों से दूर.... उस आबोहवा से दूर जहां बीते सालों की करवट मद्धम पद जाए....और इस घर में हो साजन का साथ....... ऐसे ही सपने देख तरुणाई बड़ी जिम्मेदारी ओढ़ लेती है... साथ साथ होने का ये अहसास आखिर दम तक फीका नहीं पड़ता...
लेकिन अमेरिका औए कनाडा की " लिबरेटेड " नारी इससे आगे देखने की आदी हो रही हैं। शादी से इनकार नहीं है ....प्रकृति - पुरूष मिलन से भी तौबा नहीं... पर महिला संगिनी का साथ इन्हें रास आने लगा है। जिन्दगी की भाग-दौर से फुर्सत मिली नहीं कि निकल पड़ती हैं देश- दुनिया की सैर पर...महिला मित्रों के साथ। --- आल गर्ल गेट अवे ---- का ये चलन पर्यटन उद्योग को नया आयाम दे रहा है।
सफल महिलाओं में बढ़ रही इस प्रवृति पर कई सर्वे हुए हैं। इनके मुताबिक़ घुमक्कड़ी के दौरान परिवार की महिलाऐं और संगिनी का साथ होने से सकून मिलता है और स्ट्रेस से निजात मिलती है। ये चलन हर तरह की आउटिंग में देखने को मिल रहा है। इस अनुभूति से वे इतनी रोमांचित हैं कि पर्यटन गाइड के तौर पर महिलाओं की ही मांग करने लगी हैं। ख़ास बात ये है कि हर उम्र की महिलाओं का रुझान इस तरफ बढ़ा है।
विशेषज्ञों की माने तो इससे -- सोसिअलाइजेसन -- की भावना मजबूत हो रही है। बड़ी बात ये है कि इन मौकों पर वो अपने बारे में सोच पाती हैं ....पति और बच्चों से दूर रह कर।। ये अहसास कि वो एक व्यक्ति हैं .... उन्हें बन्धनों से मुक्त होकर सोचने का अवसर मिलता है।
पर्यटन व्यवसाए के सर्वे के अनुसार करीब तीस फीसदी महिलाओं ने पिछले पांच सालों में इसका लुत्फ़ उठाया है। ये आंकडा चालीस फीसदी तक जाने का अनुमान है। आनंददायक पहलू ये है कि पुरूष इस ट्रेंड को उत्सुकता से देख रहे हैं।
भारत में " लिबरेटेड " और सफल महिलाओं की संख्या अच्छी- खासी है। जानकारों के अनुसार इनमे भी इस चलन का साझीदार होने का उताबलापन है। पर्यटन उद्योग को इस तरफ देखना चाहिए।

5.7.10

पलायन -----------भाग ७

करिके गवनमा भवनमा में छोरि के
अपने पड़इले पूरबवा बलमुआ
अंखिया से दिन भर गीरे लोर ठर ठर
बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआ......
पलायन के आगोश में दुखों का अंबार रहता है। ये किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है........ फिर कवि ह्रदय क्यों न चीत्कार करे। बिहार के साहित्य में पलायन का दर्द रह रह कर झांकता रहा है। इसमें मुरझाए चेहरों के पोर पोर से उभरते दर्द हैं....विरह की वेदना है....साथ ही जिम्मेदारिओं के बोझ से जूझते अफ़साने हैं। जब कोई व्यक्ति घर-बार छोर कमाने निकलता है तो भावनात्मक उफान और गृहस्थी चलाने की विवशता का असर सबसे ज्यादा उसकी पत्नी पर पड़ता है। आज की कवितायेँ हों या पुराने कवियों के पद....परदेस जाने की कसक फूट पड़े हैं। भिखारी ठाकुर और विद्यापति के पदों में पलायन की पीड़ा के सूक्ष्म आयाम आज भी विचलित करने की क्षमता रखते हैं।
सुखल सर सरसिज भेल झाल
तरुण तरनि तरु न रहल हाल
देखि दरनि दरसाव पताल.........
विद्यापति के इस पद में अकाल का वर्णन है। रौदी की वजह से तालाब सूख रहे हैं.... पल्लव सूख गए हैं.....खेतों में दरार आ गया है। ऐसे में गृहस्थी कैसे चले....परदेस तो जाना ही पडेगा। पत्नी घबराती है कि सुख तो जाएगा ही साथ ही परदेस जाकर पति कहीं उसे भूल न जाए। विद्यापति के एक पद में ये दुविधा है....
माधव तोंहे जनु जाह विदेसे
हमरो रंग- रभस लय जैबह लैबह कोण सनेसे .........
एक और पद देखें----
हीरा मनि मानिक एको नहि मांगब
फेरि मांगब पहु तोरा .......
बावजूद इसके जब पति पत्नी से विदेस जाने की अनुमति माँगता है तो पत्नी मूर्छित हो जाती है। ये पद देखें...
कानु मुख हेरइते भावनि रमनि
फूकरइ रोअत झर झर नयनी
अनुमति मंगिते वर विधु वदनी
हर हर शबदे मुरछि पडु धरनी ........
भाव-विह्वल पति जब रात में सोई हुई पत्नी को जगा कर विदेस जाने की सूचना देता है तो पत्नी घबरा कर उठती है..... लेकिन अपना गम पीकर पति की यात्रा मंगलमय बनाने के लिए विधान में लग जाती है । देखें ये पद --
उठु उठु सुन्दरि हम जाईछी विदेस
सपनहु रूप नहि मिळत उदेश
से सुनि सुन्दरि उठल चेहाई
पहुक बचन सुनि बैसलि झमाई
उठैत उठलि बैसलि मन मारि......
लेकिन पत्नी इतनी विकल है कि पति के लिए मंगल तिलक लाने की जगह एक हाथ में उबटन और दूसरे हाथ में तेल ( जो कि यात्रा के समय अशुभ माना जाता है ) ले आती है। देखें ये पद -----
एक हाथ उबटन एक हाथ तेल
पिय के नमनाओ सुन्दरि चलि भेलि ........
पति जा चुका है....पत्नी व्यथित है... भिखारी ठाकुर के पद में इस मनोभाव को महसूसें----
पिया मोर गईले परदेस ए बटोही भैया
रात नहि नींद दिन तुनीना चैन बा
चाहतानी बहुत कलेश ए बटोही भैया .......
पत्नी चाहती है कि वो सारे सुख त्याग दे लेकिन उसका पति लौट आये । कवि रवींद्र का ए गीतल देखें---
हम गुदरी पहीरि रहि जेबै
हमरा चाही ने रेशम के नुआ
हमर सासु जी के बेटा दुलरूआ
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे
आम मजरल मजरि गेलै महुआ
हे यौ सपने मे बीति गेलै फगुआ
हमर बाबूजी के कीनल जमैया
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे ......
रोना धोना छोड़ पत्नी घर की जिम्मेदारिओं मे रत हो जाती है। समस्याएँ फुफकारती हैं। भिखारी ठाकुर का ए पद बड़ा ही मार्मिक है -----
गंगा जी के भरली अररिया
नगरिया दहात बाटे हो
गंगा मैया , पनिया में जुनिया रोअत बानी
कंट विदेस मोर हो .....
घरेलू समस्याएँ सुलझाते सुलझाते वो न जाने कब पति की जिम्मेदारी ओढ़ लेती है .... इस काम मे वो इतनी मग्न है कि अपने आप को पति समझने लगती । अचानक से उसे भान होता कि वो तो नारी स्वभाव ही भूल गई। विद्यापति का इस अहसास का वर्णन दुनिया भर में अन्यतम माना जाता है-----
अनुखन माधव माधव सुमिरैत सुन्दरि भेल मधाई
ओ निज भाव स्वभावहि बिसरल अप्पन गुण लुब्धाई
अनुखन राधा राधा रटतहि आधा आधा वानि
राधा सौं जब पुन तहि माधव माधव सों जब राधा
दारुण प्रेम तबहु नहि टूटत बाढ़त विरहक बाधा .......
विपत्ति कम होने का नाम नहीं लेती ...उसके ह्रदय का हाहाकार विद्यापति के इस पद मे देखें---
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
ए भर बादर माह भादर
शून्य मंदिर ओर .....
अब वो मरना चाहती है ...... सखि से कहती है कि उसमे व्याप्त पति के गुण निधि किसे सौप कर जाए ----
मरिब मरिब सखि निश्चय मरिब
कानु हेन गुण निधि कारे दिए जाब .....
...........समाप्त......
नोट-- संबंधित मगही पद नहीं जुटा पाया .... इस ब्लॉग को सर्फ़ करने वाले ऐसे पद भेज कर मुझे अनुगृहित करें....
संजय मिश्र ।

4.7.10

पलायन का दर्द - भाग 6

बिहार के मजदूरों को पंजाब के किसान सेल फोन सहित अन्य सुविधाएँ देंगे ...... इस खबर की चहुँ ओर चर्चा हो रही है। इस शोर में केरल की सरकार की ओर से बाहरी मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाने की खबर दब सी गई। केरल ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्य सरकारें समय समय पर इन मजदूरों के हित के लिए चिंता जताती रहती हैं। इनके कल्याण के कई कदम उठाए भी गए हैं।
दरअसल , पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एन जी ओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए " दाग " नहीं हैं बल्कि इनका " असिस्टिंग रोल " उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे....ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में " ल्यूटिन दिल्ली " के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एन सी आर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को " स्लामिश लुक " से लगभग मुक्त कर दिया गया।

मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी " प्राडक्ट " बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब "स्किल्ड " हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं....उलटे मजदूरों के " पेशेवर " बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ..... सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि " पलायन थम गया " की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।
दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम २०० रूपए मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है। विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली " मायावी " भी है और उसकी " क्रूरता " का इतिहास भी पुराना है। यहाँ इनकी आबादी चालीस लाख के करीब है फिर भी " बिहारी" कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो " हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को " हिन्दू" कह कर चिढाया जाता .... गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।

पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है...जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिध्ह दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोद्नगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।
बे ढव जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं...उनकी आस अपनी अगली पीढी की सफलता पर टिकी है।

........ जारी है ....

2.7.10

पलायन --भाग 5

पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उनके राज्य में कृषि कार्य के लिए मजदूरों की कमी हो गयी है। इतना कहना था कि बिहार के सत्ताधारी नेताओं की बाछें खिल उठी। बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री ने दावा किया कि राज्य से खेतिहर मजदूरों का पलायन कम हो रहा है। बादल के बयान के एक दिन बाद यानि ५ मई को बिहार के प्रमुख हिन्दी अखबार में लीड खबर आई --- " बिहार से थमा पलायन "। बिहार के मुखिया ने तो इतना तक कह दिया कि राज्य के पुनर्निर्माण में इन मजदूरों का सहयोग मिल रहा है। बादल के बयान पर जिस अंदाज में नेताओं ने प्रतिक्रिया दी उसमे आपाधापी तो थी लेकिन उसका स्वर सहमा हुआ था।
बीते अगहन की ही बात है जब दरभंगा के हायाघाट इलाके से मजदूरों का एक जत्था पंजाब गया। लगभग दो महीने तक ये मजदूर फसल काटने की आस में वहाँ जमे रहे....लेकिन उन्हें काम नहीं मिला। साथ में जो जमा-पूंजी थी ..... खोरिस में चली गई। हताश....बेहाल ये मजदूर अपने गाँव लौट आये। आपको ये जान कर ताज्जुब होगा कि इन मजदूरों की आप-बीती उसी अखबार में प्रमुखता से छपी थी .......जिसने पलायन थम जाने की खबर दी। इन दोनों ख़बरों के बीच तीन महीने का फासला। तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि पलायन की समस्या हल होने के दावे होने लगे ? दरअसल , पलायन की चर्चा होते ही दावे किये जाते हैं लेकिन उसके पीछे की दृढ़ता का साहस कोई नहीं दिखा रहा। इस तरह का दावा तभी किया जाता है जब कहीं से कोई " फेवरेबल " बयान आ जाए। क्या बिहार सरकार के पास पलायन करने वाले मजदूरों का सही-सही आंकड़ा है ?
बादल को बिहार से होने वाले पलायन की कितनी समझ है ये कहना मुश्किल । हर सीजन में ... ये संभव है कि पंजाब के किसी इलाके में बिहारी मजदूर अधिक संख्या में पहुच जाते हैं तो दूसरे इलाके में इनकी संख्या कम पड़ जाती है। इनके पंजाब जाने का सिलसिला सालों से जारी है। इस दौरान नियमित पंजाब जाने वालों को दिल्ली में अवसर दिखा और इनकी अच्छी-खासी तादाद पंजाब की बजे दिल्ली में अटकने लगी। खेतिहर मजदूर...मजदूर बनते गए। पंजाब के किसानो की चिंता बढी। नतीजतन कृषि मजदूरों को लाने के लिए पगडीधारी सिख सीधे बिहार के गाँव पहुँचने लगे। ये सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब दिल्ली में बिहारियों की इतनी भीड़ नहीं हुई थी। बाद के समय में बिहार के अधिकाश गाँव में मजदूरों को पंजाब और अन्य जगह ले जाने वाले एक नए वर्ग का उदय हुआ जिन्हें " ठेकेदार" या " दलाल " कहा जाता है।
जब दिल्ली में भी अवसर " सेचुरेट " होने लगे तो इन मजदूरों ने गुजरात में ठौर ली। पंजाब और बम्बई की हिंसक वारदातों ने इस प्रक्रिया को गति दी है। अब पंजाब और दिल्ली का अधिकाँश " लोड " गुजरात उठाने लगी। इस राज्य में शहर-दर-शहर बिहारी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती है। नए अवसर की तलाश ने इन मजदूरों की प्राथमिकता यहीं तक सीमित नहीं रहने दी।
शुरू-शुरू में दक्षिन भारत में इनका जाना नहीं हो पाया। भाषा की समझ नहीं होना आड़े आया। लेकिन देश के इस हिस्से में भी इन मजदूरों ने पैठ बना ली है। हैदराबाद - विजयवाड़ा हाइवे पर पहाड़ की गोद में बसे रामोजी फिल्म सिटी में बिहारी मजदूर मिल जाएं तो आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए। आंध्र-प्रदेश के निर्माण उद्योग में इनकी अच्छी-खासी संख्या लगी है। कर्णाटक और केरल के प्लान्टेशन उद्योग में भी इनकी पहुँच बनी है। मजदूरों के ठेकेदार भाषा की समस्या से इन्हें निजात दिलाते। धीरे-धीरे बिहारी मजदूर तमिलनाडू में भी दस्तक दे रहे हैं।
.............जारी है..............

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