life is celebration

life is celebration

21.9.12

विशेष राज्य के अभियान का सच

विशेष राज्य के अभियान का सच

संजय मिश्र
----------

जो भौगोलिक क्षेत्र अदौ से ( सदा से ) ख़ास रहा हो वो विशेष राज्य बनने की लालसा दिखाए ये सुनने में अटपटा सा लगता है। पर यहाँ सन्दर्भ दूसरा है। विशेष राज्य की पैरोकारी करने वाले बताते हैं कि अपने बूते बिहार को जितना बढ़ना था वो चरम बिंदु छू लिया गया है। आगे की तरक्की के लिए और विकसित राज्य की कतार में आने के लिए जो सफ़र है उसमें विशेष राज्य के दर्जे का साथ चाहिए। इसके लिए नीतीश की पार्टी जे डी यू बाकायदा राज्यव्यापी अभियान चला रही है। दिलचस्प है कि ठीक इसी समय बिहार में सर्वाधिक पाठक संख्या का दावा करने वाला एक अखबार समूह विशेष राज्य के लिए जनमत जुटाने में लगा है।

आगे की  पड़ताल से पहले बिहार के तीन लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों के बयान को याद करें। राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कहा था कि बिहार के डूबने से बंगाल का भला हो तो वे ऐसा ही होने देंगे। लालू प्रसाद की वो मशहूर हुंकार तो आपको याद ही होगी कि --- बिहार मेरी लाश पर बंटेगा। और अब परिदृश्य पर नीतीश कुमार हैं जो मानते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा तो बिहार का हक़ है और इसे छीन लिया जाएगा और ये कि इसके लिए किसी हद तक जाया जा सकता है। यहाँ तक कि जो विशेष राज्य का दर्जा देगा केंद्र में उस दल की सरकार बनाने में वो सहयोग करेंगे।

राजनीति की महीनी को नहीं तार पाने वाले कहेंगे कि अच्छा है कांग्रेसी श्रीबाबू बिहार हित साधन के प्रति उदासीन रहे---जबकि लालू और उससे भी आगे बढ़ कर नीतीश इस राज्य का भला चाहते। इसे ही भांप कर जे डी यू का अभियान चलाने वाले आम जन को समझाने कि कोशिश में लगे हैं कि कांग्रेस(केंद्र) बिहार की हकमारी कर रही है। यानि केंद्र पर दबाव बनाए रखना उचित है--और ये कि विशेष दर्जा तो बस अब मिलने ही वाला है। इनकी रणनीति के विविध आयामों के खुलासे से पहले तीनो मुख्यमंत्रियों के बयानों को समझने की कोशिश करें।

सूबे के पहले सीएम के बयान का संबंध कोसी परियोजना से था . . . वो परियोजना जो लॉर्ड वेभेल का ब्रेन चाइल्ड थी। पहले आम चुनाव का ये प्रमुख मुद्दा बनी . . .  ख़ास कर मिथिला में। समाजवादी लक्स्मन झा और कांग्रेसी जानकीनंदन सिंह इस मुद्दे पर आंदोलनरत थे। घबराई कांग्रेस (पटना) की सरकार वेभेल प्लान के बदले नित नई कमजोर वैकल्पिक योजनाएं सुझा रही थी। उस समय के दस्तावेजों को खंगालें तो साफ़ पता चलता है की पटना का सत्ता प्रतिष्ठान मिथिला के विकास का आग्रही तो बिलकुल ही नहीं था। जबकि वेभेल की योजना मिथिला(बिहार) का काया-पलट करने की क्षमता रखनेवाली।

विकसित मिथिला की कल्पना से इर्ष्या करने वाला पटना का सत्ता प्रतिष्ठान इससे होने वाली बिहार की प्रगति के अवसर को हाथ से जाने दिया। पटना के हुक्मरानों और कलकत्ता(बी सी रॉय) के बीच सांठ-गाँठ हुई और डी वी सी परियोजना को आगे किया गया। श्रीबाबू के बयान का मतलब था कि बिहार(मिथिला) बाढ़ से डूबती रहे और डी वी सी के बूते बंगाल के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बच जाएँ। यहाँ तक कि डी वी सी के समझौते को बंगाल फ्रेंडली बनाया गया।

नेहरू को कोसी की वेभेल परियोजना से शुरू में अनुराग था। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री ने उनसे ये बहाने बनाए कि वेभेल परियोजना की डैम (बारह-क्षेत्र) सिस्मिक जोन में पड़ता है और ये बिहार(मिथिला) के लिए जानलेबा  साबित होगा। नेहरू को ये भी कहा गया कि इस परियोजना से निकलने वाली बिजली का उपयोग करने में बिहार सक्षम नहीं है। इन्होने ये संकेत दिए कि नेहरू चाहें तो भाखड़ा-नांगल परियोजना शुरू कर लें। यानि वेभेल परियोजना लटका दी गई और इन पैसों से भाखड़ा-नांगल (पंजाब का काया-कल्प ), डी वी सी (बंगाल का भला हुआ) का रास्ता  साफ़ हुआ।

अब लालू के बयान को परखें। देस-दुनिया में बड़ा नाम था लालू का। समर्थक उनकी तुलना कृष्ण भगवान् से करने लगे थे। ऐसे में अखंड बिहार पर एक-छत्र राज की चाहत परबान पर थी। लेकिन इस अकबाल के बावजूद प्रचंड बहुमत नसीब न था। सलाहकारों ने समझाया कि अपने बयान को किनारा करें और बंटबारे के लिए तैयार हो जाएं। उन्हें ये बताया गया कि झारखण्ड बन जाएगा तो जे एम एम की जरूरत नहीं रह जाएगी। बचे बिहार में अपना ही बहुमत रहेगा। आखिरकार बंटवारे के लिए वे तैयार हो गए।

लालू युग में विशेष दर्जे का मामला जोर-शोर से उठा। अनिवासी भारतीय पटना बुलाए गए। केंद्र-राज्य संबंधों के जानकार और अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी भी बाद में पटना आए। यहाँ लोगों को वो समझा गए कि आज़ादी के बाद से सामान्य स्थिति में केंद्र को बिहार को जो राशि देनी चाहिए उससे चालीस हज़ार करोड़ कम मिले। बिहार का आर्थिक अवरोधन नामक उनकी पुस्तिका बिहार की हकमारी की कहानी कहती है। बावजूद इसके लालू अपनी ही दुनिया में रमे रहे और बिहार की उन्नति की चाहत अधूरी रही।

बिहार में जे डी यू का संगठन कमजोर है। विशेष राज्य के अभियान के दौरान अधिक माथा पच्ची  इसी बात को लेकर है। ये महसूस किया जा रहा है कि नीतीश की बेहतर छवि कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ोत्तरी में तब्दील नहीं हुई। इस बात पर भी ध्यान है कि छवि निर्माण में जितना लंबा वक्त गुजरा उस अनुपात में कार्यकर्ता बढाने पर लापरवाही रही। अब इसकी भरपाई को प्राथमिकता दी जा रही है।

नीतीश के चाणक्य संजय झा इन दिनों अभियान की कमान संभाले हुए हैं। कार्यकर्ताओं को वे समझा रहे हैं कि केंद्र की राजनीति के बड़े कैनवास में नीतीश की अहम् भूमिका है। कार्यकर्ताओं को संगठन शक्ति पुख्ता करने की नसीहत देते कहा जा रहा है कि नीतीश को पी एम बनाना है तो चार नवम्बर की रैली को ऐतिहासिक बनाएं। संजय झा ये बताने से नहीं चूक रहे कि पटना में उस दिन होने वाली अधिकार रैली में दस लाख समर्थक जुटेंगे और ये रैली मौजूदा राजनीति के रुख को दिशा देने वाला साबित होगा।

मकसद साफ़ है। विशेष राज्य के अभियान के बहाने नजर संगठन की मजबूती और दिल्ली की गद्दी पर है। अब तक लालू विरोध के नाम पर और बीजेपी के संगठन के आसरे सत्ता मिलती रही। बीजेपी से पल्ला झाड़ने के लिए संगठन चाहिए तभी दिल्ली में हैसियत बढ़ेगी। जे डी यू को ये अनुमान है कि लालू विरोध वाले वोट बैंक की सहूलियत के कारण बीजेपी भी अपने संगठन विस्तार के प्रति लापरवाह है। यानि इस छिजन (खाली पोलिटिकल स्पेस) पर नजर गड़ा ली गई है। यही कारण है कि बीजेपी से जे डी यू में आए संजय झा को इस काम में लगाया गया है। अपने पुराने संबंधों के बूते वे बीजेपी समर्थकों में थोड़ी सेंधमारी में कामयाब हुए है।

कम समय में कार्यकर्ता संख्या का अधिक विस्तार हो इसके लिए सन्देश के प्रसार की जरूरत है। लिहाजा अभियान को धारदार बनाने के लिए एक बड़े अखबार समूह का सहारा लिया गया है। ये अखबार समूह विशेष राज्य के लिए मुहिम चला रहा है। जानकार बता रहे हैं कि अखबार की ये अदा पचास दिनों तक दिखेगी। अखबार के जरिये विशेष राज्य के मुद्दे को गावों तक ले जाया जा रहा है। इससे जे डी यू के सदस्यता अभियान में भी सहूलियत मिल रही है। ये मुहिम जब थमेगी तब जे डी यू की तरफ से पार्टी अभियान को आख़री स्ट्रोक मारा जाएगा . . .  4 नवम्बर के लिए। आम धारणा बनी है कि अखबार समूह ने नीतीश को बड़ी राहत दी है। नीतीश और बिहार के हिन्दी प्रिंट मीडिया के संबंधों को देखते हुए ये जानना बेमानी है कि अखबार समूह को नीतीश से कितनी राहत मिली होगी। उन्नति की दिशा में लम्बी छलांग का मंसूबा पालने वाले लोग गुण-धुन में होंगे कि राज्य के शीर्ष नेतृत्व(नीतीश) को बड़ी बड़ी गद्दी मिलना ही बिहार वासियों का कल्याण है क्या?


  

1.9.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 4

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 4
-------------------------------------------------------
संजय मिश्र
----------------
किसी राह चलते व्यक्ति से पूछिए कि सेक्यूलरिज्म क्या है तो वो एकबारगी चौंक उठेगा? दिमाग पर जोर देगा और कहेगा कि कांग्रेस सेक्यूलर है . . . लालू का पार्टी भी और हाँ वामपंथी लोग भी . . . आखिर में थोड़ा झल्लाते हुए कहेगा कि बी जे पी को छोड़ कर सभी। थोड़ा और कुरेदिए तब पूछिए कि जे डी यू क्या है? . . . इस बार झट से जबाव आएगा कि . . . हाँ वो भी क्योंकि मोदी का विरोध करता है . . .  गुजरात में दंगा हुआ था न। अब याद दिलाइये कि सिखों के कत्लेआम की वजह से कांग्रेस भी सेक्यूलर नहीं हुआ . . तो वो अकबका जाएगा।

अब किसी और राही से बात करिए। उससे सवाल करिए कि सामंतवाद क्या होता है? वो कहेगा फॉरवर्ड कास्ट के लोग सामंत होते हैं। कहने का मतलब ये कि आम लोग नहीं जान पाए हैं कि स्टेट के शासन करने का प्राकृतिक स्वभाव ही सेक्यूलर यानि गैर-धार्मिक होता है . . .  और ये कि सेक्यूलर नहीं होने का अर्थ धार्मिक होने से है न कि कम्यूनल होने से है . . . और ये भी कि आम जन(वोटर)  धार्मिक बने रह सकते। वे जान नहीं पाए हैं कि सामंतवाद अर्थव्यवस्था की एक स्टेज थी न कि
इसका जाति से कोई मतलब है। राजनीतिक क्रियाकलापों और संचार माध्यमों के जरिये इन शब्दों के संबंध
में दरअसल सच बताया ही नहीं गया।

विषय बदलते हैं . . .
टू इच एकोर्डिंग टू हिज नीड्स . . . एंड फ्रॉम इच एकोर्डिंग टू हिज कैपसिटी . . .
आप सोच रहे होंगे कि ये क्या माजरा समझाया जा रहा है? आप से कहा जाए कि ये मार्क्सवाद का एसेंस
है तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे। ये विचार सुन वामपंथी बिद्केंगे-- मुंह चुराएंगे और इस सच
को नकारेंगे। आम वामपंथी इससे अवगत नहीं और विषद समझ रखने वाले भारतीय मार्क्सवादी
इन्हें बताते नहीं। ये उस देश का हाल है जहाँ सोशल मीडिया के आने से पहले की तीन पीढी वाम
विचारों से लैस रही है . . तब जवान होने का मतलब होता था वामपंथी होना।

सनातन धर्म के उस दर्शन पर गौर करें जिसमें कहा गया कि उनका भी भला हो जो सबल हैं और उनका भी जो समर्थ नहीं  ---------- यानि सबके उन्नति की निश्छल कामना। अब मार्क्सवाद के ऊपर कहे विचार और सनातन जीवन शैली के इस सोच का मिलान करें---साफ़ है दोनों नजरिये में समानता झलकती है। अमेरिकी दर्शन के --- सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट --- वाले सोच के ठीक उलट। तो क्या अमेरिका विरोधी इंडियन मार्क्सवादी कभी सनातन सोच के साथ अपनी कन्वर्जेन्स को एक्सप्लोर करना चाहेंगे। अभी तक इन्होने ऐसा नहीं किया है।

इन्होने किया क्या है? इंडियन राजनीति की उस बड़ी समझ का साथ दिया है जो कहता है आमजनों को भ्रम में रखो और राज करो। दरअसल ऐसी नौबत आई कैसे? कई कारण खोजे जा सकते। संभव है इंडियन राष्ट्र की कांग्रेसी अवधारणा में भी इसके संकेत मिलें। चलिए इसे ही टटोलते है। ये अवधारणा कहती है--- एक दिशा से हिन्दू आए ..... दूसरी तरफ से मुसलमान . . . तीसरी दिशा से सिख। इसी तरह क्रिस्टियन आये--- और सबने कहा चलो एक राष्ट्र बनाते। कांग्रेस की अगुवाई में चलती मुहिम में इसे -- मोजाइक -- कहा जाता। अब मोजाइक भी तो किसिम किसिम के हो सकते जिस पर कोई विमर्श न हुआ।

मकसद दिख ही जाता है। भारत के इतिहास और जीवन शैली को जितना संभव हो झुठलाते जाओ। तभी तो बड़े फक्र के साथ वे कहते कि ये देश तो 65 साल का जवान है--- यानि इसका अतीत नहीं बल्कि महज वर्तमान और भविष्य है। तो क्या इंडिया हवा में बनी है? रूट-लेसनेस का आरोप न लगे इसलिए कांग्रेस और इसके हितैषी बताएँगे कि हिन्दू धर्म में जड़ता है और ये प्रगतिशील बनने में बाधक। ख़म ठोक कर बताएँगे कि सनातन जीवन प्रवाह ( कनटिनियूटी) का उत्कर्ष नहीं है इंडिया। लेकिन बड़ी ही चालाकी और ढिठाई से संवैधानिक इंडिया की समस्याओं और ना-समझ क़दमों का ठीकरा हिन्दू व्यवस्था पर जरूर फोर देते।

हिन्दू तौर-तरीकों के प्रगतिशील नहीं होने की बात पर वामपंथी भी हरकत में आ जाते। वे हिन्दुओं को याद दिलाते कि धर्म तो -- अफीम-- होता सो इससे विरत रहें। तो क्या सिर्फ हिन्दू धर्म ही अफीम होता? क्या इस्लाम और क्रिस्टियन धर्म अफीम जैसा असर नहीं डाल सकते? इस पर वे चुप्पी साध लेते। साझा हित कि बात है न तभी तो असम में भी अवैध बांग्लादेशी राशन कार्ड और वोटर कार्ड बनबा लेते और ज्योति बासु के बंगाल में भी।

ऐसा कहने वाले मिल जाएंगे कि नेहरु की सोच सिंथेटिक थी। मान लिया पर उन्होंने जतन से भारत को खोजने की कोशिश की। राहुल गांधी भी कभी-कभार ऐसा ही करते। वे ऐसा क्यों करते जिनके सलाहकार 65 साल के इंडिया का जुमला गढ़ते? इसी उधेड़बुन में हैं राहुल। इसलिए कि नेहरु के समय लोग नागरिक हुआ करते जबकि आज वोट-बैंक बना दिए गए है। सेक्यूलर वोट--- कम्यूनल वोट--- और न जाने कितने तरह के वोट हो गए आज। रहस्य यहाँ है। भूल वश राष्ट्र हित पर चिंता जता कर देखें ---पकिस्तान के साथ ट्रैक-2 पालिसी में लगे कांग्रेसी हितैषी लाल-पीले हो जाएंगे। कह दीजिये कि क्या एक दब्बू राष्ट्र की नीव रखी जा रही--तो वे फुफकार उठेंगे।

Website Protected By Copy Space Do Not copy

Protected by Copyscape Online Copyright Infringement Tool