life is celebration

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28.3.12

अन्ना आन्दोलन की दिशा

संजय मिश्र


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जंतर-मंतर पर हुए एक-दिनी उपवास ने फिर साबित कर दिया कि लोगों पर अन्ना हजारे की पकड़ बरकरार है। आन्दोलन के इस सांकेतिक चरण ने जहां कई मिथक तोड़े वहीं रणनीतिक कौशल की नुमाइश भी हुई। दिन ढलने के साथ आन्दोलनकारियों में संतोष का भाव था। पहले की तरह इस बार भी तनातनी का माहौल बना। विश्लेषक नए सिरे से आन्दोलन पर विमर्श करते नजर आये। उधर, टीवी सेटों पर नजर गडाए आम-जन मीडिया के रंग बदलने को बड़ी उत्सुकता से देखते रहे।


२५ मार्च ....कई मायनों में नई हकीकत बयां कर गया। ये साफ़ हो गया कि मीडिया का बड़ा तबका टीम अन्ना पर पूरी तरह हमलावर रहने वाला है। इस वर्ग को पता चल गया है कि उनकी बेरुखी के बावजूद लोगों का इस आन्दोलन से अनुराग है। राजनीतिक जमात को भी अहसास हुआ कि टीवी चैनलों में कम कवरेज से बेपरवाह लोग चिलचिलाती धूप में जंतर मंतर पर डटे रह सकते हैं। ये अकारण नहीं कि बयानों की तल्खी के बीच राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया सावधान रही।


बेशक, उपवास के दौरान इस्तेमाल हुए एक कहावत (मुहावरे) पर संसद में हंगामा हुआ। क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि सदन में बैठने वालों को ये मालूम न हो कि ' चोर की दाढी में तिनका ' एक कहावत है ...... और ये कि इसका अर्थ है---दोषी का चौकन्ना रहना --- ? फिर ये हंगामा क्यों ? असल में टीम अन्ना का निशाना इस बार व्यापक था। -एन डी ए - के संयोजक शरद यादव मुहावरा प्रकरण से जुड़ गए। देश के लोक जानते हैं कि साफ़ छवि वाले शरद भाषणों के दौरान अक्सर बहक जाते हैं ..... संसद में भी और संसद के बाहर भी। राहुल गांधी पर उनके अमर्यादित बयान से कांग्रेसी नेता बेहद नाराज हुए थे। बावजूद इसके २६ मार्च को संसद में टीम अन्ना पर तिलमिलाए शरद यादव का वही कांग्रेसी मेज थपथपा कर साथ दे रहे थे।

कांग्रेसी, दरअसल उस मकसद को कामयाब होता देख रहे थे जिसके तहत महीनो पहले बड़े जतन से यू पी ए सरकार के कुछ मंत्रियों ने आन्दोलन को टीम अन्ना वर्सेस संसद में तब्दील करने की कोशिश की थी। कांग्रेस की सधी प्रतिक्रिया से संकेत मिलने लगा है कि पार्टी अब आन्दोलन के प्रति आक्रामक नीति का त्याग करने के मूड में है। सुषमा स्वराज का संसद में अन्ना के साथियों पर बरसना इस बात को दर्शा गया कि २०१४ चुनाव से पहले का डेढ़ साल बीजेपी अपने पाले में रखना चाहती है। यानि अन्ना का फोकस में रहना अब बीजेपी नेताओं को रास नहीं।
सांसदों के लिए तय करना मुश्किल हो रहा था कि आन्दोलनकारियों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव कौन लाए ? आखिरकार स्पीकर की तरफ से टीम अन्ना के विवादित बयानों को अनुचित और अस्वीकार्य बताया गया। दिलचस्प है कि इस कार्यवाही के दौरान तीन सांसदों ने अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर दिया। एक मौके पर तो स्पीकर को याद दिलाना पड़ा कि सदस्य संसद की गरिमा पर बात कर रहे हैं। भले ही सांसदों के अभद्र शब्दों को एक्सपंज कर दिया गया लेकिन कार्यवाही को टीवी पर देखने वाले से सांसदों का आचरण छुप नहीं सका।

टीम अन्ना से जुड़े विशेषाधिकार हनन का मामला अभी लंबित है। जाहिर है इसे अमल में लाने पर टकराव की नौबत बनेगी । यह सन्देश जाएगा कि टकराव संसद और जनता के बीच है । साथ ही अवमानना के लपेटे में आने वाले याद दिलाएंगे कि करीब पाने दो सौ दागी व्यक्ति संसद में हैं। क्या कोई सांसद कह पाएगा कि संसद में सभी पाक-साफ़ हैं ? जिस जल्दबाजी में निंदा प्रस्ताव पास हुआ उससे स्पष्ट है कि समझदार सांसद टकराव से बचना चाहते हैं। उन्हें पता है कि उनके विशेषाधिकार और कोर्ट के अवमानना के अधिकार के कोडिफिकेसन की मांग उठने लगी है। टीम अन्ना के रणनीतिक बदलाव से भी वे सचेत हैं।
टीम अन्ना में समझ बनी है कि राजनीतिक वर्ग के आचरण का जनता से सीधा सामना कराया जाए। इसी के तहत सांसदों के संसद में दिए गए भाषणों की फिल्म जंतर-मंतर पर जनता को दिखाई गई। ये जताया गया कि नेताओं की कथनी और करनी में फर्क कितना गहरा है। जाहिर है इस तरीके से एक्सपोज होना कोई नेता नहीं चाहेगा। वो तो इस सिधांत पर चलता है कि पब्लिक मेमोरी बेहद अल्प होती है । इसके आलावा भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मारे गए व्हिसल ब्लोअर्स के परिजनों को भी उपवास स्थल पर लाने में टीम अन्ना सफल हुई। फिल्म के जरिये उनकी साहसिक कहानिया बताई गई। ये प्रभावित परिवार देश के अनेक राज्यों से आए थे और उन राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें हैं और रही हैं। ये बताया गया कि पीड़ितों के साथ इन सरकारों ने न्याय नहीं किया है।
मीडिया सन्न रह गया। बेगुसराय के शशिधर मिश्र जैसे अनेक आर टी आई कार्यकर्ताओं की सहादत से दिल्ली के पत्रकार बिलकुल अनजान थे। मीडिया अब ये आरोप लगाने की सूरत में नहीं था कि टीम अन्ना की नजर राज्यों के भ्रष्टाचार पर नहीं है। कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के पैरोकार जो पत्रकार रामदेव को सांप्रदायिक साबित करने पर तुले हैं उन्हें अन्ना और रामदेव का हाथ मिलाना पसंद नहीं आ रहा। मीडिया का अकबकाना साफ़ दिख रहा था। लिहाजा एक मुहावरे के बहाने गंभीर मुद्दों को स्काई-जैक कर लिया गया। कांग्रेस की --बी - टीम-- का अक्स दिखाने वाला एक राष्ट्रीय टीवी चैनल तो दो दिनों तक डिस्क्लेमर ही दिखाता रह गया। इस चैनल को समझ नहीं आ रहा था कि लालू यादव द्वारा कहे गए मुहावरे ---धान के रोटी तवा में , अन्ना उड़ गए हवा में ---- के लिए कैसा डिस्क्लेमर दिखाएँ।
अन्ना ने अपने भाषण में कहा कि सरकार २०१४ तक जन लोकपाल पारित करा दे। इतना लम्बा समय देने पर बहस छिड़ी हुई है। लेकिन पोलिटिकल क्लास के लिए ये समय काफी होगा ....अपने स्याह पक्ष पर गौर करने के लिए। टकराव से बेहतर है कि नेता इस दौरान चुनाव सुधार की दिशा में सकारात्मक पहल करें। ये कदम उनके वोटर का उन पर भरोसा कायम करने में मददगार होगा। ये देश के हित में होगा। मीडिया भी इसे समझे तो बेहतर है।
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23.3.12

राजनीति में नई आहट.....

संजय मिश्र
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भारी विरोध के बीच अंशुमन मिश्र नाम के शख्स ने झारखंड से राज्यसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन वापस कर लिया है। इसके साथ ही बीजेपी के वरिष्ट नेताओं ने राहत की सांस ली है। कहा जा रहा है कि अंशुमन को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी का आशीर्वाद है और उन्ही के बूते वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखारे में कूद परे थेसार्वजानिक जीवन में अनजान इस व्यक्ति के बहाने राज्यसभा चुनावो में पैसो की माया पर फिर से फोकस है । वही दूसरी ओर गडकरी के मनमाने फैसले के खिलाफ पार्टीजनो की जीत अलग तरह के संकेत दे रही है।
कई दिन चले इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बीच 'पापुलर परसेप्सन ' में श्रीहीन नहीं दिखने की बीजेपी नेताओ की चाहत बार -बार झाकती रही । जिस दिन नामांकन वापसी की अंशुमन की घोषणा हुई ठीक उसी दिन दिल्ली में पुस्तक विमोचन के एक कार्यक्रम में बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी ने ये कहकर चौका दिया कि भारतीय राजनीति के मौजूदा तेवर को ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता । बाबू सिह कुशवाहा और अंशुमन प्रकरण के दौरान शीर्ष पार्टी नेतृत्व के तुगलकी फैसलों की खिलाफत क्या इस चक्रव्यूह से निकलने की अकुलाहट है। दिलचस्प है कि पुस्तक विमोचन कार्यकरम में अन्ना हजारे भी मौजूद थे।
इस सुगबुगाहट को बीते संसद सत्र में शरद यादव के उस उदगार से जोड़ कर देखें तो उम्मीद जगती है। शरद यादव ने ठसक से कहा था कि राजनेता तो सनातनी दुसरे को टोपी पहनाते आये हैं। उन्हें मलाल था कि नेताओं के इस जन्म सिद्ध अधिकार को अन्ना का आन्दोलन चुनौती दे रहा है। अब हाल के समय में देश की राजनीति को जिन अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पडा है उन पर नजर दौराएं। यहाँ रेडार पर कांग्रेस और तृणमूल आ गई। आम समझ है कि कांग्रेसी संस्कृति में हाई कमांड को चुनौती देना पार्टी नेताओं के लिए लगभग नामुमकिन सा होता है। लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ हरीश रावत के बागी तेवर ने सोनिया और राहुल की सलाहकार मंडली को सकते में डाल दिया। जनप्रिय नेता की अबहेलना और ऊपर से मुख्यमंत्री थोपने की प्रवृति का वे विरोध कर रहे थे।
नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। बावजूद इसके , क्या राजनेता अपने दलों के भीतर जड़ जमा चुकी संवादहीनता पर मुखर हो रहे हैं? क्या वे पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र को जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं? आम तौर पर देश के क्षेत्रीय दलों की आभा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है....और ये नेतृत्व सवालों से ऊपर माना जाता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने रेल मंत्री रहते हुए पार्टी नेतृत्व से भिड़ने की हिमाकत की। उन्होंने जता दिया कि वे हाई कमांड द्वारा पशुओं की तरह हांके जाने को तैयार नहीं। त्रिवेदी ने पालिटिकल सिस्टम से सवालों की झाड़ी लगा दी।
देश बड़ा या पार्टी का हित बड़ा....या फिर क्या पार्टी का हित देश हित से लयबद्ध नहीं हो? इन चुभते सवालों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि राजनेताओं में स्वीकार्यता छिजने को रोकने की कोई कोशिश आकार ले रही है। पर इस इच्छा-पूर्ति के लिए उनका अंतस दवाब में जरूर दिखता है। ये दवाब जन-आंदोलनों का प्रतिफल है। १६ अगस्त २०११ के जन सैलाब का असर राजनीति पर हुआ है। राजनेताओं से पूछा जा रहा है कि उनके सरोकार सत्ता में जाते ही क्यों बदल जा रहे हैं?
ऐसा नहीं कि बेचैनी सिर्फ तंत्र में है....ये लोक में भी है। लोकतंत्र में लोक का यशोगान करने वाले विश्लेषक अक्सर इसे नजर अंदाज करते पाए जाते हैं कि चुनावों में जनता के फैसले क्या जनता की आकांक्षा पूरी करने में समर्थ होते हैं? नई सरकार बनने के बाद यूपी के हालात क्या वोटरों की दूरदर्शिता दिखाते .......अन्ना आन्दोलन में लगे लोगों में इसको लेकर सकून नहीं है? क्या आन्दोलनकारियों का सन्देश उस मुकाम तक पहुंचा है जहाँ तक इसे वे ले जाना चाहते? अन्ना आन्दोलन के तीसरे चरण की तैयारी इन्हीं सवालों से जूझ रही है। राजनीतिक वर्ग तभी तो चौकन्ना है।
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3.3.12

नदी जोड़ो योजना -- तल्ख़ सच्चाई

संजय मिश्र
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नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है । इसके साथ ही बहस का नया पिटारा खुल गया है। विरोध के स्वर को देखते हुए अब तक ये माना जा रहा था कि ये योजना देश-व्यापी नहीं रह जाएगी और ख़ास-ख़ास जगहों पर ही इसे आजमाना ज्यादा मुफीद रहेगा । ये उम्मीद की जा रही थी कि इस दौरान किसी विवाद में योजना विरोधियों की ओर से कोर्ट का दखल लिया जाएगा। ये विकल्प अब भी खुला है लेकिन कोर्ट के रूख ने साफ़ कर दिया है कि सरकारें अब तेजी दिखाएं । सरकारी कार्यप्रणाली समझने वाले मान रहे हैं कि ऐसे मेगा प्रोजेक्ल्ट्स के लिए फंड का रोना देखने को नहीं मिलेगा । खर्च जुटा ही लिया जाएगा। योजना के अमल में कमीशन की माया की पूजा होगी और अगले कई सालों तक राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए पैसा आड़े नहीं आएगा।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना ---बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।

क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है ? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते ? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे ? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी ? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा ? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा । जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का --राईस बवेल--कहलाता रहेगा ? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे ? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी --क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर --डिस्जोर्ज--होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें ---निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है।पहले ये इलाका तीन फसली था ---अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में --डॉल्फिन--बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी --आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा।? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्या काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।

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