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30.7.14

नीतीश के ब्रांड बिहार का आलाप- चिंता या चाल

नोट—ये पोस्ट जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के बिहार में बने गठबंधन की ३० जुलाई को हुई घोषणा से कुछ घंटे पहले लिखी गई ... गौर करने वाली बात है कि इस प्रेस कंफरेंस में लालू और नीतीश नहीं आए...
नीतीश के ब्रांड बिहार का आलाप- चिंता या चाल
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संजय मिश्र
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अभी मिलन की कामना हिलोरें ले रही....साथ में उलझन है....  और आगे के संबंध की दुश्चिंता.... जिसकी अतरी में ७२ दांत है और जो कि बबूल का पेड़ है, वो अब सुहाना है... संबंधों के इस उठान के बीच २५ जुलाई को लालू ने आत्मीयता से सराबोर हो कहा कि – नीतीश अच्छे आदमी हैं। उधर लालू के राजनीतिक मन की हलचल से बेफिक्र नीतीश कुमार को ब्रांड बिहार की चिंता सताए जा रही है।
उलझन उधर भी है... वोटरों के बीच... इस बात की नहीं कि जिस नीतीश को लालू दग्ध कहते नहीं अघाते थे उस बात को आरजेडी सुप्रीमो की समझ का फेर बताया गया ... बल्कि उधेरबुन इस बात की है कि नीतीश सीएम नहीं हैं फिर भी ब्रांड बिहार का राग अलापे जा रहे। नीतीश कहते हैं कि बिहार बीजेपी के लोग ब्रांड बिहार की इमेज को बरबाद कर रहे हैं।
यही कोई ११ दिन पहले कहा उन्होंने। आपने, हमने... हम सबने कहां ध्यान दिया नीतीश की इस गोल्डन पीड़ा पर? अभी तक पहले वाले गोल्डेन वर्ड्स ( दिल्ली में दिए उद्गार) पर ही चिपके रहते हम सब... याद है न वो बयान कि.... टोपी भी पहननी पड़ती है... और.... टीका भी लगाना पड़ता है। क्या नीतीश की यूएसपी में बदलाव आ रहा है? क्या ब्रांड बिहार उनके लिए आने वाले विधानसभा आम चुनाव का मुद्दा रहेगा जैसे कि २०१४ तक गोल्डेन वर्ड्स के साथ विशेष दर्जा का मुद्दा रहा।

ये ब्रांड बिहार है क्या जो कि भहरा रहा है? जिस छवि की अकुलाहट में नीतीश बिहार के एडिटर इन चीफ कहलाए... उसे इस दफा...यानि १९ जुलाई को यहां के उनके अखबारी एडिटर समझने में नाकाम क्यों रहे? न कोई सरगर्मी... न ही कोई अभियान... बुझा-बुझा सा प्रेजेंटेशन... जैसे-तैसे पहले पन्ने पर जगह बनाई। क्या अखबारों की रूचि कम हुई या इसे राजनीतिक चाल ही समझी गई?

नीतीश के ब्रांड बिहार का सफर कथित जंगल राज के अवसान के बाद शुरू हुआ। अराजक शैली के माहौल से आजिज बिहार के निवासियों में तब अपराधियों को चौक-चौराहों पर टांग देने की विशफुल थिंकिंग परबान पर थीं। पर नीतीश ने अपराध नियंत्रण के संस्थागत उपाय की तरफ रूख किया। स्पीडी ट्रायल को अहमियत मिली। इसका असर हुआ और डर का अहसास धीरे-धीरे कम होने लगा। न्याय के साथ विकास को बढ़ावा दिया गया... कृषि केबिनेट का शानदार कंसेप्ट आया... पूंजी निवेश की सूरत बनने लगी। ग्रोथ रेट में इजाफा हुआ।
ये सब ब्रांड बिहार के तत्व रहे। लेकिन नीतीश के राज-काज के दिनों में ही कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति मुंह चिढ़ाने लगी... उनकी नजर छवि चमकाने पर जमी रही उधर फारबिसगंज की घटना, खगड़िया में नीतीश पर जानलेवा हमले की कोशिश, मिड डे मील खाने से बच्चों की मौत सुर्खियां बनती रही ... और ऐसी घटनाओं पर नीतीश के घमंड से भरे बयान आते रहे। विधायक फंड चलता कर दिया गया...अफसर की मनमानी चरम पर पहुंच गई...जनप्रतिनिधि तिलमिला गए। न पलायन रूका और न ही पूंजी निवेश में आस जगी।
दलित-महादलित विभाजन ने राजनीतिक निराशा को बढ़ा दिया। ब्राड बिहार तो उस समय ही छिजने लगा था... पर नीतीश के अखबारनवीस चीन से आगे बढ़ने की दास्तान गढ़ते रहे। फिर आया २०१४ के चुनाव अभियान का वक्त... मेनिफेस्टो जारी हुई जेडीयू की... उसकी सबसे अहम बात थी मंडलवाद की ओर वापसी का संदेश...... वायदा किया गया कि आरक्षण का दायरा निजी क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा। ये तो ब्रांड बिहार का तत्व नहीं था ... ? ... और अब तो मंडलवादी लालू से भरत-मिलाप के क्षण करीब आ गए हैं।
बिहार में जीतन राम मांझी की सरकार है। राज्य की कमान जैसे-तैसे संभाला जा रहा उनसे। तिस पर मांझी कह रहे कि २०१५ के विधानसभा चुनावों के समय दलितों के हितों को कोई दबा नहीं पाएगा। तो क्या नीतीश कुमार ब्रांड बिहार के दरकते आलाप के जरिए महत्वाकाक्षी मांझी को आगाह कर रहे? क्या लालू को भी संदेश दिया जा रहा है?
लालू से बन रहे रिश्तों की फुटेज में चेहरों पर भीनी मुस्कान दिखेगी... लेकिन उस खनक से अलग परदे के पीछे गठबंधन का हिसाब-किताब लगाया जा रहा है। नेता कौन बनेगा इस पर चुप्पी है? क्या नीतीश कुमार ब्रांड बिहार के अपने पेटेंट के मार्फत जता रहे कि नेता तो छवि वाला ही चलेगा? मजबूरी की कोख से निकले इस अवसर में नीतीश को अहसास है कि बिहार के विशेष दर्जे के अभियान के बावजूद जेडीयू का मजबूत संगठन खड़ा करने में वो नाकाम रहे.... लिहाजा उनकी चाहत है कि नेता उन्हें माना जाए और आरजेडी का संगठन गठबंधन का अबलंब बने... ये आजमाया फार्मूला है नीतीश के लिए... पहले भी संगठन का आसरा बीजेपी का था और कमान नीतीश की। ये फार्मूला हिट रहा था बिहार में।


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