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3.10.12

नीतीश के विरोध के मायने

नीतीश के विरोध के मायने
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संजय मिश्र
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नीतीश का प्रभामंडल बिखरने लगा है . . . ऐसी सोच राजनीतिक विश्लेषकों को मथ रहे हैं। वे एकमत नहीं हुए हैं पर आम राय बनी है कि जो बवंडर आया था वो फिलहाल शांत हो चला है। नीतीश चाहते होंगे कि ये थमा रहे . . . आखिरकार सत्ता के परम सुख के बीच पहली दफा धरातल से लावा फूटा है। ये न तो उपेन्द्र कुशवाहा, ललन सिंह सरीखे नजदीकियों की चेतावनी है और न ही पटना के आर-ब्लाक के प्रदर्शनों की हुंकार। अभी की चुनौती ग्रोथ रेट के छलावे को उघार करते हुए सवालों की झड़ी लगाते हैं।

26 सितम्बर और तीन अक्टूबर के बीच के अंतराल में नीतीश ने दिखाया है कि वे अपने ही एजेंडे पर चलेंगे। 26 को दरभंगा से विरोध की जो चिंगारी निकली खगडिया जाते जाते धधक गई। इस दौरान जहाँ जहाँ विरोध और उपद्रव हुए वहां के शिक्षकों पर कठोर कार्रवाई हुई है। लोक लाज से बेपरवाह प्रशासन की नीतीश भक्ति देखिये कि सुपौल के कई स्कूली छात्रों से विरोध नहीं जताने का बोंड तक भरवा लिया। उधर बन्दूक लहराने वाले रणबीर यादव पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। दिल्ली के वे राजनीतिक विश्लेषक नीतीश के इन मनोभावों से भौचक हैं जो उन्हें पीएम पद का दावेदार बता रहे थे।

बिहार के सी एम जताना चाह रहे हैं कि राज्य के स्वयंभू गार्जियन अकेले वही हैं और उनकी अथोरिटी को कोई चुनौती कैसे दे सकता? और ये भी बताना चाहते कि बिहार की चिंता करने के कारण बात नहीं मानने वाली जनता को कनैठी देने का उन्हें प्राकृतिक हक़ है। आम सभाओं
में किसी के विरोध करने पर देश के पहले पी एम नेहरू की नाराजगी के किस्से मशहूर हैं। वे गुसैल थे और उनके नाराज होने पर विरोध करने वाले सम्मान देते हुए शांत हो जाते थे। लेकिन दरभंगा की अधिकार रैली के दौरान नीतीश नाराज हुए और मर्यादा भूल बैठे। सम्मान देने और  शांत होने के  बदले शिक्षकों ने चप्पल दिखा कर सीमा लांघी। नीतीश कुमार के लिए ये आत्म मंथन का वक्त आया है।

बिहार की हित कामना करने वाले लोग लालू के राज में विजन के अभाव की बात करते थे . . .
ख़ास कर राज्य के विकास के सन्दर्भ में। पर इनके जेहन में ये सवाल तब नहीं कौंधा होगा कि कल को कुर्सी में बैठा विजन वाला व्यक्ति भी अपनी महत्वाकांछा से वशीभूत हो राह से भटक सकता है। उस समय फौरी तौर पर कथित जंगल राज से मुक्ति की अकुलाहट इतनी तीव्र थी कि  नीतीश का आना उन्हें राहत दे गया।

ऐसी सोच वालों में वो तबका भी शामिल था जो प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्थानों के जरिये बदलाव का पक्षधर था। पर उन्हें भी तब अंदेशा था कि अपराध के खिलाफ प्रचंड जनमत के कारण अपराधियों से गैरकानूनी तरीके से निपटने की कोशिश होगी। लेकिन नीतीश ने फास्ट ट्रैक  कोर्ट को सक्रिय कर संस्थागत रास्ता अख्तियार किया। इस पहल ने उन तमाम अंदेशों को निराधार साबित किया। भय का माहौल दूर हुआ पर ये दीर्घजीवी कहाँ रहा? अपराधियों का मनोबल आज लालू युग  के दिनों की झलकी दिखाने पर आमादा है। एक तरफ महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रयास हो रहे वहीं उनपर अत्याचार का ग्राफ बढ़ रहा है। चूक कहाँ पर हो रही है? इस परिदृश्य पर चिंता जताने की जहमत नहीं उठाना नीतीश पर सवाल खड़े करता है।

नीतीश अपने आप को चाणक्य और चन्द्रगुप्त की दोहरी भूमिका में देखने के आदी हो चले हैं।
ऊपर से विपक्षी विधायकों की कम संख्या उन्हें अभय दान दे गई। कमजोर विपक्ष को और कमजोर करने के लिए जुनून इतना बढ़ा कि इन दलों से थोक के भाव जिन नेताओं का आयात किया गया उनकी पृष्ठभूमि तक नहीं देखी। जे डी यू में आतंरिक प्रजातंत्र को पुष्ट करने की जगह विधायक निधि समाप्त कर दी गई। विधायकों को अफसरों के रहमोकरम के हवाले कर दिया गया। शरद यादव को नीतीश के दबाव में कई बार अपने ही बयान को चबा कर निगलना पड़ा। उपेन्द्र कुशवाहा से लेकर ललन सिंह तक की बगावत की वजह नीतीश का निरंकुश व्यवहार रही। वे हाशिये पर चले जाने को मजबूर किये गए।

ऊपर से प्रिंट मीडिया अपने कब्जे में। यानि चेक एंड बैलेंस के तमाम रास्ते बंद। एक मात्र रास्ता जनता के फैसले का रख छोड़ा है नीतीश ने। अफसरों के साथ मिलकर आंकड़ों की कलाबाजी और छवि निर्माण की सनक अभी भी मौजूद है। वे, उनके अफसर और चारण पत्रकार बताते फिर रहे कि
चीन के ग्रोथ रेट से भी आगे निकल गया बिहार। हर तरफ जय जय कार है। इतना भी ध्यान नही कि
समस्याओं की अनदेखी घातक हो सकती है . . . ऐसे में जबकि समाधान की राह देख रही जनता की आँखें
पथरा रही हैं। समझदार लोग कहते हैं कि कुछ नहीं कमाने वाला एक साल में सौ रुपये कमाए तो उसका ग्रोथ रेट सौ फीसदी कहलाएगा जबकि हजार रूपए कमाने वाला एक साल में सौ रूपए कमाए तो उसका ग्रोथ रेट महज दस फीसदी होगा। बावजूद इसके दस फीसदी ग्रोथ रेट वाला व्यक्ति ही ज्यादा साधन संपन्न रहेगा। यही संबंध बिहार और देश के विकसित राज्यों के बीच है। यानि बिहार के
लोगों की माली हालत विकसित प्रदेशों के लोगों से बहुत खराब है।

राज्य सरकार इस सच को छुपाती रहती है और ग्रोथ रेट की डुगडुगी बजाने में रमी हुई है। आंकड़ों की फरेब
नहीं समझने वाली जनता ये जानना चाहती है कि जब राज्य चीन से आगे निकल गया तो विशेष राज्य की
भीख क्यों माँगी जा रही है? नीतीश की दुविधा यही है। ग्रोथ रेट से दिल्ली में डंका तो बज जाता पर राज्य की
जनता की बढी उम्मीदों का क्या करे? दरअसल बिहार की जरूरतों के हिसाब से विशेष राज्य के अभियान
का मुफीद समय तब था जब नीतीश दुबारा सत्ता में आए थे। उस समय जनता भी ये सोच कर साथ देती कि
इससे उनके कल्याण का रास्ता खुलेगा। लेकिन दिल्ली की सत्ता के मंसूबों के लिहाज से नीतीश इस मुद्दे को
अभी उठा रहे।

साल 2014 का अवसर इस अभियान पर इतना हावी है कि किसी मांग को लेकर किसी तबके का विरोध
नीतीश को विचलित कर रहा है। तभी वे उसी अंदाज में विरोधियों से बदला लेने पर उतारू हैं जिस अंदाज में
कांग्रेस विरोध करने वालों से निपटती है। जाहिर है निरंकुश राजनीतिक शैली के मामले में नीतीश और
कांग्रेस एक वेबलेंथ पर हैं। 03 अक्टूबर को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बिहार दौरे पर नीतीश विशेष राज्य की
मांग करते हैं। प्रणब भी बिहार के कृषि रोड मैप की तारीफ़ करते हैं साथ ही नीड एंड ग्रीड के फर्क को भी
समझाते हैं। लालू वैसे ही साकांक्ष नहीं हुए हैं। बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष के चालीसो लोक सभा सीट से पार्टी
उम्मीदवार उतारने के संकेत ने लालू को अतिरिक्त उर्जा से भर दिया है। 03 अक्टूबर से ही बिहार में
परिवर्तन यात्रा पर निकल गए हैं लालू।





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