life is celebration

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24.12.12

आम आदमी पार्टी से क्यों मची है हलचल?
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संजय मिश्र
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पिछला साल अन्ना का रहा तो साल 2012 पर अरविन्द केजरीवाल छाए रहे। लोकपाल बिल पास नहीं होने और केजरीवाल के चुनावी राजनीति में कूद पड़ने के बाद माना जाने लगा की पारंपरिक राजनीति पर आन्दोलनों का संकट टल गया है। पर घाघ राजनेताओं का अमर्यादित सार्वजनिक व्यवहार चीख-चीख कर कह रहा कि संकट टला नहीं है उलटे इसका असर पड़ा है। मणि शंकर अय्यर का सांसदों को जानवर कहना पोलिटिकल क्लास के मन की हलचल बयां करता है। पेश है बीत रहे साल में केजरीवाल की यात्रा पर एक नजर --

साधारण कद-काठी, हाफ शर्ट और पैंट पहना एक व्यक्ति जब दिल्ली के गैर-संभ्रांत इलाके की गलियों में हाथ में पिलास लिए बिजली कनेक्शन जोड़ने आ धमकता है तो लोग-बाग़ खिंचे चले आते हैं ... कानून टूटने के डर से निर्विकार। दिलासा देने की जरूरत कहाँ रह जाती है सहट कर आ जाती इस औसत भीड़ को ... न कोई उत्पात और न ही हिंसा ... बस लोगों के मानस पटल पर फ़ैल जाती राहत की प्रखरता। ये राजनीति का नया स्वाद है ... सुखद आश्चर्य बिखेरती ... सुच्चा देसी ग्रामर। इस दस्तक से इंडिया की एलीट हो चली राजनीति असहज है।

अब तक आप समझ गए होंगे कि बात केजरीवाल की ही हो रही है। घनी मूंछों के नीचे से झांकती निश्छल मुस्कान और पैर में साधारण सा चप्पल। मोटी - मोटी फ़ाइल कांख में दबाए यही व्यक्ति जब प्रेस कांफ्रेंस करने पहुँचता है तो उसी एलीट राजनीतिक वर्ग को इसकी धमक सुनाई देती है ... न जाने इस बार किसकी बारी हो। रिपोर्टरों को उनके संपादक नसीहतें दे कर भेजते, निरंतर उनसे संपर्क में रहते कि कब कौन से सवाल करने हैं? होम-वर्क कर आए रिपोर्टर के जेहन में ये बात घुमड़ती रहती कि वो ऐतिहासिक पलों को कवर करने आए हैं। लिहाजा दिल और दिमाग ... दोनों से सवालों की बौछार निकलती ... और अगले कई घंटों तक टीवी स्टूडियो इन बातों पर रणनीति बदल- बदल कर विमर्श करने को मजबूर होते।

केजरीवाल और उसकी टोली से न चाहते हुए देश के नियंता व्याकुल हो चले हैं। बौखलाहट इतनी कि उन नेताओं, संयमी भाषा बोलने के आदी बुजुर्ग पत्रकारों और विशफुल दुनिया में रहने वाले बुद्धिजीवियों की जुबान  फिसलने लगी हैं। कभी कोई माखौल उडाता तो कभी नसीहतें देता। दिलचस्प है कि 65 साल के कथित इंडिया में किसी राजनीतिक शख्स को इतनी नसीहतें नहीं दी गई जितनी केजरीवाल की झोली में गई हैं। सवाल उठता है कि ये देश सुहाना क्यों नहीं बन पाया जहां सलाह देने वालों की इतनी बड़ी तादाद है? क्या वे अन्दर से हिल गए हैं?

पारंपरिक राजनीति वाले तो पहले ही खौफजदा हुए ... 16 अगस्त 2011 को ही। आन्दोलन का संकट इतना भारी पड़ा कि लग गए चक्रव्यूह में। सत्ता की माया से जुड़े बाकि के मशविरा देने वाले लोग दरअसल उसी व्यूह के बाहरी फ्रंट हैं जो केजरीवाल को आफत मानते उसकी यात्रा को थाम लेना चाहते। व्यूह रचने वाली कोर जमात को भरोसा है अपने निर्लज्ज राजनीतिक कौशल पर। वे चाहते कि जैसे-तैसे केजरीवाल पारंपरिक राजनीति की चाल में उलझें ... जो नए राजनीतिक बिंब केजरीवाल ने गढ़े हैं वो ध्वस्त हों। फिर तो राह आसान हो जाए।

ये बिंब क्या हैं जो आसानी से लोगों के दिमाग में घुस जाते? एक उदाहरण काफी होगा -- जनता मालिक है, नेता उसके नौकर (सेवक) -- इस नारे की मारक क्षमता से तिलमिला जाते राजनेता। याद करें कैसे वे कहते कि - सड़क के लोगों को बड़े लोगों ( मंत्रियों ) के साथ लोकपाल के लिए वार्ता की मेज पर बिठाया। खैर जमीनी सच ये है कि आम आदमी का नारा देने वाले पुराने राजनीतिक ध्रुव  को आम आदमी के नए पैरोकार से चुनौती मिल रही है। आम आदमी पार्टी ये समझाने में कामयाब हो रही कि देश में चल रही कल्याणकारी योजनाएं जनता पर उपकार नहीं बल्कि ये तो सरकारों की मौलिक जिम्मेदारी है।

देश में ये संदेश खुलकर जा रहा कि केजरीवाल ने राजनीति को हिम्मत दी है। इसने मौजूदा राजनीति की उस आपसी समझ को तोड़ा है जो ये मान कर चलता कि राष्ट्रपति, सोनिया और उसके परिजन, बाजपेयी और उसके परिजन, अंबानी और टाटा जैसों को सार्वजनिक तौर पर चुनौती नहीं दी जाए। मीडिया भी हैरान हुआ कि जिसे छूने से वो डरता रहा उस पर लगे केजरीवाल के आरोपों की कवरेज का उसे मौका मिलने लगा।

हम राजा, हम महराजा की मानसिकता की कलई खोलने तक बात सीमित नहीं है। ग्राम स्वराज को सुदृढ़ आकार देने पर फोकस है इन नए खिलाड़ियों का। गाँव भारत की संरचना का मूल आधार है। गाँव में सभी जाति और वर्ग के लोगों के बीच सामूहिकता के भाव को पारंपरिक राजनीति ने क्षत-विक्षत कर दिया। स्थानीय योजनाएं ग्राम-सभा से बनें और इसी के संरक्षण में कार्यान्वित हों साथ ही अहम् मसलों पर पंचायत स्तर पर रेफरें-डॉम की व्यवस्था की केजरीवाल की मांग से सहम गया है घाघ नेताओं का वर्ग। उसे भय है कि इस रास्ते चीजें चली तो विभिन्न वर्गों के बीच साझेदारी का अहसास बढेगा जो बांटने और राज करने की प्रवृति पर अंकुश लगाएगा। दिल्ली और राज्य की राजधानियों के हुक्मरान सकते में हैं कि इस तरह के विकेन्द्रीकृत सत्ता केंद्र से क्षेत्रीय विषमता का दंश भी कुछ हद तक कम होगा। और तब न नरेगा और न ही विशेष पैकेज जैसे मुद्दे जादुई छडी रह जाएंगे।

किसी राजनीतिक प्रयास को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अनुकूल माहौल ( जनमत) के अलावा कम से कम चार प्रमुख तत्वों की दरकार होती है। ये हैं--दर्शन (यानि वैचारिक आधार ), संगठन ( यानि उस वैचारिक आधार का वाहक ), कार्यक्रम (जिसमें कि दर्शन झांकते रहते ) और जनसहभागिता (यानि जिनके लिए आंदोलन किया जा रहा उनकी भागीदारी)। इसके इतर नेतृत्व क्षमता की परख तो होती ही रहती है हर पल ... सरकारी दाव-पेंच से पार पाने में।

केजरीवाल ने ये कहा है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष जैसा कोई पद नहीं होगा। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उससे लगता है कि वाम दलों की केंद्रीय कमिटी जैसा ही समझदार लोगों का ग्रुप होगा जो किसी मसले पर पंचायत स्तर से छन कर आए रुझानो पर आख़िरी राय रखेगा। बीजेपी और वाम दलों को छोड़ कर देश के तमाम राजनीतिक दल व्यक्तिवादी (प्रजातांत्रिक तानाशाही ) नेतृत्व के आसरे चल रहे हैं। पब्लिक का माय-बाप होने वाली संस्कृति के वे पोषक हैं।

केजरीवाल ने जो पासा फेका है वो अलग नजरिया पेश करता है। उनकी नेतृत्व शैली में लोगों को प्रभावित करने और लोगों की समझ और परिवेश से खुद प्रभावित होने की ललक है। इसकी गूँज फ़ैल रही तभी तो घबराए पारंपरिक नेताओं का ख़ास तबका केजरीवाल पर ही तानाशाह होने का आरोप मढ़ रहे। इस तरह के आरोप जान-बूझ कर लगाए जा रहे ताकि केजरीवाल के चाहनेवाले भ्रम की स्थिति में रहें। इन हमलों से बेफिक्र आम आदमी पार्टी उन क्रियाकलापों में लगा है जहाँ लोगों को स्वेछा से सामूहिक लक्ष्य की दिशा में प्रयास के लिए मनाया जाए।

अरविन्द करिश्माई लीडरों से अलग दिखना चाहते। पर उनकी सादगी ( ममता बनर्जी की तरह) लोगों को उस हद तक मोहती है जो करिश्मा का डर पैदा करती। लाल बत्ती जैसे श्रेष्ठता ज़माने वाले सरकारी लाभ से तौबा साथ ही ये कहना कि धंधे या लाभ के लिए उनकी पार्टी से न जुड़ें लोग ... शहरी मध्य वर्ग और ग्रामीण आबादी को एक जैसा आकर्षित करते हैं। समस्याओं को उठाना और हल सुझाना पॉलिटिकल क्लास और उनके चहेतों की वेदना बढाता है।

ये अकारण नहीं है कि आम आदमी पार्टी से विचारधारा और आरक्षण जैसे मसलों पर स्टैंड साफ़ करने वाले सवालों की झरी लगाई जाती है। मकसद ये कि या तो केजरीवाल मौजूदा खांचे वाली राजनीति की कुटिल चाल में फांस लिए जाएं या फिर स्टैंड साफ़ नहीं करने पर एक्सपोज किये जाएं। इस देश में माइनिंग नीति की खामियों पर माओवादियों के बाद सबसे ज्यादा मुखरता केजरीवाल के लोगों ने दिखाई है। इसके अलावा अलग-अलग मुद्दों पर जो स्टैंड लिया गया है उससे साफ़ है कि राजनीति के ये नए खिलाड़ी जातिवादी और धर्म की राजनीति के पचरे से दूर जनवादी राष्ट्रवाद की ओर चल पड़े हैं।

केजरीवाल की राजनीति को तरह-तरह से देखा जा रहा है। कहा जा रहा कि वो मीडिया का काम आसान कर रहे ... ये कि वो वोटरों की सोच समृद्ध कर रहे, ये भी कि वो मेधा पाटकर और अरुंधती की जन हस्तक्षेप वाली रीति-नीति को व्यापकता दे रहे ... वो प्रोजेक्ट वर्क की तर्ज पर चलते .. वगैरह-वगैरह। पर गौर करें तो हिट एंड रन से आगे का सफ़र तय हो चुका है। जन हितैषी राजनीति का अजेंडा अब सामने है।

देश के तमाम दल गठबंधन की मजबूरी के नाम पर मुद्दा आधारित राजनीति ही तो कर रहे। ऐसे में मुद्दों पर आधारित केजरीवाल की राजनीति कुछ सालों तक प्रासंगिक रह ही सकती है। पारंपरिक राजनीति और देश के मानस के बीच एक तल्खी है। देश का बड़ा वर्ग विचारधारा की जगह विचारों के युग में जी रहा है। पारंपरिक राजनीति उपरी तौर पर तो विचारधारा के आग्रही दिखने में लगे रहते हैं पर हर दिन गवाह बनता है इनके मोल-भाव और लेन -देन की राजनीति का। ऐसा जब तक चलेगा आम आदमी पार्टी इनकी चिंता बढाती रहेगी।

ये कितना सफल होगा फिलहाल आंकना कठिन है। सात्विक आंदोलनों की कोख से जन्मी है ये। लिहाजा दाव-पेंच और चुनावी अखाड़े में कितनी ही बार फिसलने का खतरा बना रहेगा। दिल्ली विधान सभा चुनाव इसके लिए परीक्षा की घड़ी होगी। आम आदमी मेंगो पीपुल वाले डकार से आहत तो है पर वो सकते में है ... क्योकि असल परीक्षा की घड़ी उसकी आई है ... वो भद्र छवि वाली मीरा कुमार को भी चुन लेता है ... साथ ही शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जैसों को भी जिता देता है। यानि फर्क करने का समय आ गया है ....केजरीवाल आम आदमी के मन में मची ऐसी हलचल से थोड़ा मुस्करा सकते हैं।

3.12.12

दम तोड़ने की कगार पर खड़ा है खादी उद्योग

बिहार में खादी की दुर्दशा पीड़ादायक है। केंद्र सरकार के खादी कमीशन और बिहार सरकार के खादी बोर्ड से जुड़े कई संस्थाएं हैं जो उपेक्षा के कारण नाम के लिए चल रहे हैं। बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ की इकाइयाँ खादी कमीशन से संबद्ध हैं। पर कमीशन की तरफ से रिबेट मिलना बंद हो गया है। ले देकर बिहार सरकार की ओर से दस फीसदी का रिबेट मिलता है। लेकिन रिबेट का पैसा भी कई सालों का बकाया है। आय के साधन नहीं ... समस्याओं के मकडजाल से निजात दुरूह है। संघ की दरभंगा इकाई के बहाने खादी की दुर्दशा की पड़ताल करती ये रिपोर्ट .....

दम तोड़ने की कगार पर खड़ा है खादी उद्योग
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संजय मिश्र
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.... सूत का हर धागा जो मैं कातता हूँ उसमें मुझे ईश्वर दिखाई देते हैं .... खादी व्यावसायिक युद्ध की जगह व्यावसायिक शांति का प्रतीक है .... ये भारत की आर्थिक आज़ादी का बाहक है ....
महात्मा गांधी ने जब ये बातें कही होगी तो उन्हें रत्ती भर अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनके सपनों के भारत में
खादी बदहाली की दास्तान लिखने को मजबूर होगी। गांधी की इन उत्कट आस्था से बेखबर और  अनमन-यस्क दरभंगा जिला खादी ग्रामोद्योग संघ परिसर में आज सन्नाटा पसरा है। न तो चरखे की घर्र- घर्र और न ही उत्पादन से जुडी कोई चहलकदमी।  माहौल में सताती भविष्य की दुश्चिंता और थम कर निकलते निःश्वास के बीच एक इंतजार कि कहीं से सहायता के कोई हाथ उठ जाएं।

खादी भंडार नाम से मशहूर बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ की दरभंगा इकाई ने इतनी विकलता कभी न देखी। हाल में यहाँ के कर्मी धरने पर बैठे। इनकी वेदना ख़बरें बनी तो आस जगी पर जिन्दगी फिर उसी पटरी पर। बाईस कठ्ठे के परिसर में फैले इस परिसर में कभी ढाई सौ कर्मी अपना कौशल दिखाते थे। नील टीनोपाल में धुले झक झक करते खादी के कपडे पहने लोगों की अलग ही दुनिया बसती थी। विपत्ति की मारी महिलाओं का आँखों में उम्मीद लिए यहाँ चरखा कातने के अवसर की तलाश में आना, ट्रकों से अनलोड होता कच्चा माल, फिनिश्ड उत्पादों को खादी के शो रूम ले जाने की गहमा-गहमी और उत्कंठा बढ़ाते स्वाधीनता सेनानियों की आवा-जाही। सादगी के बीच भव्यता के भाव का ये अहसास एम एल अकेडमी चौक ने सालों तक महसूस किया। चौक पर उठने-बैठने वाले लोग आज खादी भण्डार की दुर्दशा का गवाह हैं।

कांति -विहीन हो चुके इस परिसर में विवशता की टीस झेलते 7-8 परिवार ही रह गए हैं। मेस बंद, चरखे गोदाम में, उत्पादन लगभग ठप। एक मात्र आसरा बिक्री केन्द्रों का। बिक्री प्रभारी शिवेश्वर झा कहते हैं कि शहर में स्थित चार में से दो बिक्री केन्द्रों को दूकान का किराया नहीं चुका पाने के कारण बंद कर देना पड़ा। केंद्र सरकार के खादी ग्रामोद्योग कमीशन से संबद्ध इस संघ की जिले में 32 इकाई थी। अब ये संख्या 24 पर सिमट आई है। संघ के संयुक्त मंत्री नन्द किशोर लाल दास के मुताबिक इनमें से दस केंद्र ऐसे हैं जहाँ एक भी स्टाफ नहीं है। पूरे जिले की संघ की गतिविधि 28 स्टाफ के आसरे जैसे-तैसे चल रही है। स्टाफ विहीन होने के कारण कई केंद्र लैंड माफिया के चंगुल में आ गए हैं।

ये नौबत क्यों है? आंकड़ों के सहारे समझने की कोशिश करें। खादी कमीशन के अंतर्गत ऊनी और सिल्क के देशव्यापी उत्पादन की ग्रोथ रेट छह फीसदी के आस-पास रही। ये आंकड़े साल 2009 से 2012 के बीच के हैं। जबकि इसी अवधि में कमीशन को केंद्र सरकार की सहायता राशि में पचास फीसदी से भी ज्यादा का इजाफा हुआ। यानि इन पैसों का सही दिशा में उपयोग नहीं हो रहा। दरभंगा का खादी संघ कमीशन से पैसों की सहायता के लिए तरस रहा है। अब यहाँ के आंकड़े देखें। साल 2000 के मुकाबले साल 2011 के बीच उत्पादन, बिक्री और रोजगार सृजन साल दर साल घटता ही रहा।

टेबल -
                                             दरभंगा खादी संघ
                                             साल - 2000                                साल - 2011
उत्पादन                                65.66 लाख रूपये                         9.03 लाख रूपये
बिक्री                                     78.34 लाख रूपये                         20.40 लाख रूपये
रोजगार सृजन (स्टाफ)          112                                              28

                                              खादी कमीशन (मुंबई)
                                              साल - 2000                                साल - 2005
उत्पादन                                 431.5 करोड़ रूपये                        461.5 करोड़ रूपये
बिक्री                                      570.5 करोड़ रूपये                        617.8 करोड़ रूपये
रोजगार सृजन                        9.5 करोड़                                     8.6 करोड़


ऊपर से केंद्र सरकार ने रिबेट देना बंद कर दिया है। फाइलों को खंगालते खादी भण्डार के अका-उन-टेंट राज कुमार बताते हैं कि अभी 35 लाख की देनदारी है। इसके अलावा वेतन और ई पी एफ के लिए पैसे जुटाने पड़ते हैं। उत्पादन के लिए कच्चा माल चाहिए और उसके लिए चाहिए पैसे। कमीशन का मोहम्मदपुर और सकरी में रुई का गोदाम था जहाँ से रियायत में कच्चा माल मिल जाता था। साल 1998 में ये गोदाम बंद कर दिए गए। फिलहाल कमीशन के ही हाजीपुर स्थित टेप पूनी प्लांट से नकद में पूनी की खरीद हो रही है।  टेप पूनी के जरिये संघ के दोघरा, सिंह-वाड़ा  और मोहम्मदपुर यूनिट में कपडे का उत्पादन  होता है। इसके अलावा बिरौल केंद्र में सूत कटाई होता है। बाकि जगहें उत्पादन पूरी तरह ठप है। 

पहले उत्पादन अधिक था तो देश भर में यहाँ का माल जाता था। उस कमाई का एक हिस्सा  बाहर से ऊनी कंबल मंगवाने के काम आता था जो यहाँ के बिक्री केन्द्रों पर बेचे जाते। अभी कंबल की खरीदारी नहीं के बराबर है। तेलघनी, बढईगिरी और अन्य उद्योग भी बंद हो गए हैं। समस्याएँ और भी हैं। खादी कमीशन ने 1972 में रोजगार सृजन के लिए संघ की जिले भर की अचल संपत्ति के एवज में 2 करोड़ का लोन दिया था। अब इस कर्ज की राशि लौटाने का दबाव बनाया जा रहा है। अपग्रेडेड चरखे की कमी और स्किल्ड लेबर का अभाव तो झेलना ही पड़ रहा है। खादी भण्डार के कर्मी सुनील राय बताते हैं कि यहाँ के काम की समझ के बावजूद स्टाफ के बच्चे इस पेशे में नहीं आना चाहते।

निरंजन कुमार मिश्र - मंत्री , बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ , दरभंगा
- पैसे की कमी आड़े आ रही है। केंद्र ने साल 2010-11 से रिबेट देना बंद कर दिया है। जबकि बिहार सरकार ने रिबेट 20 फीसदी से घटा कर 10 फीसदी कर दिया है। केंद्र की करीब 22 लाख और बिहार की करीब 18 लाख रूपये रिबेट की राशि का भुगतान हमें नहीं हुआ है। बावजूद इसके उत्पादन की रुग्णावस्था से पार पाने की हम कोशिश कर रहे हैं।



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