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23.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 3

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत - 3
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संजय मिश्र
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किसी देश की सेहत का अंदाजा लगाना हो तो उस देश की मीडिया के हालात पर नजर दौराएं . . . ख़ास कर उस देश में जो प्रजातांत्रिक होने का दंभ भरे। अब जरा भारत की मौजूदा परिस्थिति पर निगाह डालें। मुंबई से लेकर लखनऊ तक उत्पाती भीड़ ने पत्रकारों की जमकर धुनाई की है . . . ये आरोप लगाते हुए कि असम और म्यांमार में रहने वाले अवैध घुसपैठी बांग्लादेशी मुसलमानों के दर्द को मीडिया ने नहीं दिखाया।

दिल्ली के चुनिंदा साधन-संपन्न टी वी चैनलों के एंकर और रिपोर्टर सप्ताह भर सकते में रहे . . . उनके चेहरों के भाव अहसास कराते रहे कि सदमा मारक है . . . यकीन करना मुश्किल कि जिस कौम की तीमारदारी का आरोप इन पर लगता रहा वही भष्मासुर बन कर टूट पड़ेंगे पत्रकार बिरादरी पर। न जाने राजदीप इस दौर में क्या सोच रहे होंगे . . . वो बयान कि असम दंगों में एक हज़ार हिंदू मारे जाएंगे तो भी वहां की खबर नहीं दिखाएंगे . . . बरबस चैन चुराता होगा उनका। पता नहीं इशरत जेहां मामले में मीडिया की तरफ से माफी मांगने वाले पुण्यप्रसून इस पेशे के वर्तमान हालात पर किस उधेड़बुन में हों।

थोड़ा ठहर कर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को याद कर लें। संसद में नेताओं को लताड़ते हुए एक बार उन्होंने आगाह किया था कि छूत - अछूत ( बी जे पी के प्रति ) की राजनीति छोड़ें . . . सिख दंगों जैसे संवेदनशील मसलों को बार बार न उछालें . . . इससे देश का माहौल बिगड़ता है . . . रंजिशें उभर आती हैं। बीते दस साल से इस सलाह को ठेंगा दिखाया जा रहा है। दिन रात गुजरात दंगों की याद दिलाई जा रही है। कांग्रेस के इशारे पर चल रही इस मुहिम में दिल्ली के
पत्रकारों का एक जमात ग्राउंड जीरो पर तैनात रहने वाले फ़ौजी दस्ते जैसी भूमिका अदा कर रहा है। इस बात को जानते हुए कि इससे मुसलमानों की दुखती रग भड़क उठेगी। और हुआ भी ऐसा --- एक चिन्गारी भर चाहिए थी।

क्या ये काम भारत में कार्यरत देसी या विदेशी पत्रकारों का हो सकता है कि वे इस देश की कांग्रेसी ब्रांड सेक्यूलरिज्म का झंडा फहराते फिरें? क्या विचारधाराओं का गुलाम बनना पत्रकारिता के दायरे में आता है? विचारधाराएं तो हुक्मरानों के लिए होती और उनके लिए प्रेरणा का काम करती हैं। इत्तेफाक से विचारधारा अतिवादी रुख अख्तियार करे तो एक बड़ा वर्ग पीड़ा झेलने को मजबूर होता है। पत्रकार इस दर्द को संभालकर खबर बनाते।

गुजरात के दंगों में मुसलमान ज्यादा मरे, हिंदू कम मरे। असम में मुसलमान कम मरे और हिंदू (बोडो) ज्यादा मारे गए। एक हिंदू या एक मुसलमान अपनी भावनाओं के अनुरूप दोनों जगहों की ख़बरों को कम या ज्यादा दिखाए जाने पर मीडिया से सवाल करता है। पत्रकार कह सकता है कि ऐसे सवाल भावुकतावश किये जा रहे। लेकिन पत्रकारिता के नजरिये पर इन सवालों को कसें तो मीडिया का असली रंग दिख जाएगा। तब पता चलेगा कि दरअसल वे राजनीतिक हथियार के तौर पर काम कर रहे।

जीवन अमूल्य है और पूरा जीवन जी लेना प्राकृतिक अधिकार। इसमें जब बाधा आती है यानि जब किसी की इहलीला जबरदस्ती समाप्त की जाए तो वो न्यूज़ के दायरे में आता है . . . चाहे वो गुजरात में हो, असम में हो, मुंबई, दिल्ली या फिर और कहीं। पत्रकारिता ये इजाजत पत्रकार को नहीं देता कि इसकी रिपोर्टिंग या इसे पेश करने में भेद-भाव बरती जाए। पर भारत में हो क्या रहा है? राजदीप के बयान पत्रकारिता के दायरे में आते या फिर अंध राजनीतिक कार्यकर्ता की सोच की श्रेणी में? सामाजिक सदभाव चाहने वाले कहेंगे जो हो रहा है वो खतरनाक ट्रेंड है।

पत्रकार की एक ही विचारधारा हो सकती है और वो है मानववाद। इसमें स्थानीय पहलू को ध्यान में रहकर न्यूज़ सेन्स खोजने की भी जरूरत नहीं पड़ती। म्यान्मार में मुसलमान, कश्मीर में कश्मीरी पंडित एथनिक क्लिंजिंग के शिकार हुए। गुजरात 2002 दंगों में कुछ हद तक ऐसी नौबत आ गई थी। असम में कुछ पोकेट्स में बोडो एथनिक क्लींजिंग के शिकार हुए हैं। पत्रकार का धर्म है कि ऐसे मंसूबों से आगाह करते हुए खबर पेश करे। पत्रकारिता सवाल पूछती है कि
सिर्फ गुजरात की ही चर्चा क्यों?

 पर ये पत्रकार हवाला देंगे कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं इसलिए उनकी पीड़ा दिखाते।  अब उनसे सवाल पूछिए की कश्मीर में कश्मीरी पंडित भी अल्पसंख्यक ही हैं और इसी तरह बिहार के किशनगंज जिले में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। आपको ये कह कर टरका दिया जाएगा कि कश्मीरी पंडितों पर भी कार्यक्रम हुए है। क्या दिल्ली के नामी चैनलों में इतनी हिम्मत है कि वे बता सकें कि गुजरात के मुकाबले कितने मिनट या कितने सेकेण्ड उन्होंने कश्मीरी पंडितों के दर्द को आवाज दी है?

इंडिया में न्यूज़ सेन्स का एक बड़ा आधार है संविधान। यानि चीजें संविधान के अनुरूप न चले तो वो खबर का हिस्सा बनती है। कई संवैधानिक सवाल अनसुलझे रह गए हैं। क्या इन चैनलों में आपको धारा 374 पर बहस दिखाई देता है? बड़ी ही सफाई से ऐसे संवैधानिक सवालों को बी जे पी का सवाल बता कर मुंह मोड़ लिया जाता है। सी ए जी संवैधानिक संस्था है पर जब कांग्रेसी उसकी वीभत्स आलोचना करते तो ये पत्रकार इस खबर को एक दो बार चलाने के बाद डंप कर देते हैं।

इंडिया में काम कर रहा एक पत्रकार जब ड्यूटी पर होता है तो वो सिर्फ पत्रकार होता है। उस वक्त इस देश के लिए खुद की देशभक्ति का इजहार करना उसका काम नहीं होता है। न्यूज़ लिखते समय न तो वो इंडियन होता, न ही हिन्दू या मुसलमान। ड्यूटी के बाद घर जाकर वो देशभक्ति दिखा सकता है अगर वो इंडियन है। पर याद कीजिये जब जब पाकिस्तानी स्पोंसोर्ड आतंकी घटनाएं देश में होती है ये पत्रकार देशभक्ति दिखाने में लग जाते है। मकसद होता है बी जे पी ब्रांड देशभक्ति वाले बयान को प्री-एम्प्ट करना।

चलिए अब विस्फोटक यथार्थों से अपेक्षाकृत मुलायम लेकिन तल्ख़ सच्चाई की ओर। भ्रष्टाचार के खिलाफ हाल के समय में हुए सात्विक आंदोलनों से खार खाए पत्रकारों की कुछ चर्चा करें। पत्रकारों का धर्म होता है कि वो पीड़ितों के साथ खड़ा हो। स्टेट पावर के सामने आम लोगों का वो पक्षकार बने। जिस वक्त साल 2011 के 4 जून की रात रामदेव और उनके समर्थकों की निर्दयतापूर्वक पिटाई  हुई उस वक्त हमला झेल रहे लोग पीड़ितों की श्रेणी में थे। लेकिन अगले पंद्रह दिनों तक ये टीवी पत्रकार रामदेव पर हमलावर रहे, उन पर बहादुरी दिखाते रहे। स्टेट की शक्तियों से तीखे सवाल करने से बचते रहे, इन शक्तियों के इशारे पर लाठी चार्ज के विजुअल गायब करते रहे साथ ही आन्दोलनकारियों का मजाक उड़ाते रहे। राजबाला की दर्दनाक मौत पर इनकी चुप्पी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा करता रहा।

इंडिया में एक शब्द आजकल फैशन में है और ये शब्द है - अकबाल। शरद यादव इसके बड़े
पैरोकार हैं। सरकार, राजनेता, अन्ना (16 अगस्त, 2011)---सबका अकबाल देखा है देश ने। पत्रकारों का भी अकबाल होता और ये पीपल्स मैंडेट के कारण होता है। आज वही पीपुल उससे चुभने वाले सवाल कर रहा है। क्या पत्रकारिता को ये अधिकार है कि वो उसी पीपुल(आन्दोलनकारियों) का मजाक उडाए जिसकी बदौलत उसे शक्ति मिलती है।

वो कहेंगे कि चिदंबरम की एडवाइजरी का खौफ था। 14 अगस्त 2012 को रामदेव ने कहा कि यूपीए हुक्मरानों ने दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकारों को बुलाकर उनके आन्दोलन को डाउन प्ले करने के निर्देश दिए। मान लिया कि पत्रकारों के एंटी इस्टाबलिशमेंट मोड के उनके प्राकृतिक व्यवहार से बचने के बावजूद सरकार इन्हें धमकाती है। बेशक सरकारी नेता चाहते हैं कि ये पत्रकार उनके चरणों में लोटें। बावजूद इस लालसा के, सरकार इनकी हर धड़कन पर अंकुश नहीं लगा सकती। अन्ना के हाल के आन्दोलन के पहले तीन दिनों तक सरकार ने इन्हें नहीं कहा होगा कि दिन-रात भीड़ की गिनती करो। ये भी नहीं कहा होगा कि जब भीड़ जुट आए तो उसे वीक एंड करार दो। आन्दोलन वीक एंड की बदौलत नहीं चला करते इतनी समझ तो पत्रकारों को दिखानी ही चाहिए थी।

जरा याद करिए . . . देश के विभिन्न प्रांतों में किसी घटना या अहम् मसले पर सीबीआई जांच की मांग के लिए महीनों तक लोग सड़कों पर जोड़-आजमाइस करते हैं तब जाकर उस मसले पर सीबीआई जांच के आदेश दिए जाते हैं। पर गौर करें-- किसी गुमनाम व्यक्ति के एक आवेदन पर झट-पट में बालकृष्ण के खिलाफ सीबीआई जांच शुरू हो जाती है। संभव है बालकृष्ण ने कोई गलती की हो पर इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिज्म के पैरोकार ये पत्रकार क्या देश को बता सकेंगे कि विच हंट के इस खेल का वो आवेदनकर्ता कौन है?

ये मत भूलिए कि इनमें से कई पत्रकारों को पत्रकारिता की बारीकियों की खूब समझ है। दरअसल ये सयाने हैं। बाजार और विचारधारा के बीच ताल-मेल बिठाना खूब आता है इन्हें। सोच समझ कर ही न्यूज़ सेन्स की बलि लेते हैं ये। ए बी पी न्यूज़ के बहाने एक दिलचस्प दृश्य देखें। स्टूडियो में बहस के दौरान यदि चार लोग पैनल में हैं तो उनमें कांग्रेस के प्रतिनिधि सहित तीन गेस्ट कांग्रसी मानसिकता के हो जाते हैं। चौथा गेस्ट इस असंतुलित बहस का पूरे कार्क्रम के दौरान भार ढोने को मजबूर रहता है। इस बीच कपिल सिब्बल या दिग्विजय सिंह की बाईट आ जाए तो इनके एक एंकर चहक उठते हैं। पैनल में मौजूद संजय झा नाम के शख्स का चेहरा खिल उठता है। ये शख्स प्रजातंत्र की भी बात करता है साथ ही अगले चालीस सालों तक लगातार कांग्रेसी शासन की वकालत करने लगता है। न जाने क्यों, ये चैनल दो सालों से संजय झा को हर मर्ज की दवा और इंडिया का सबसे बड़ा विद्वान साबित करने पर तुला है?

अन्ना आन्दोलन के ठहराव के बाद आशंका बनी कि उनके युवा समर्थकों की ऊर्जा किसी भी दिशा में जा सकती है। बेहतरी में यकीन रखने वाले कह सकते हैं कि मुंबई की हिंसा इस उर्जा के गलत दिशा में जाने का संकेत है। लेकिन इस एंगल पर सार्थक बहस न हुई। बेनी प्रसाद के वचन और राज ठाकरे ने इन पत्रकारों को राहत दी है। टीवी स्टूडियो फिर से गुलजार हो गए हैं अपने पसंदीदा शगल की ओर। सेक्यूलरिज्म और कम्यूनलिज्म पर बहस पटरी पर लौट आई है . . . साथ में है आरक्षण का तड़का। भारत की आत्मा पत्रकारों की इस जमात से सवाल कर रही है कि किस साल और किस तारीख को इंडिया के कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की रक्षा हो जाएगी? क्या उस तारीख के बाद देश के बुनियादी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करेंगे वे? क्या तारीख जानने की भारत की आस पूरी होगी?

16.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 2

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 2
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संजय मिश्र
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4 जून 2011 के बहशियाना हमला झेलने के बाद रामदेव ने कहा था कि मरकर शहीद होने की सलाह को एक न एक दिन पीछे छोड़ दूंगा। 14 अगस्त 2012 को जीवित रह गए रामदेव के मुस्कराने का दिन था। एक आध दलों को छोड़ अधिकाँश गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल काला धन के मुद्दे पर उन्हें समर्थन देते नजर आए। हाथ धो कर उनकी आलोचना करने वाले पत्रकार और टीवी स्टूडियो में बैठे विश्लेषक 13 और 14 अगस्त को जे पी आन्दोलन के दौर के गैर कांग्रेसवाद को याद करने का लोभ कर रहे थे। बेशक जे पी की शख्सियत बहुत ऊँची थी और वे खालिस राजनेता थे। ऊपर से सिक्सटीज का गैर कांग्रेसवाद 74 के आन्दोलन में अपने चरम पर था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो लोग जे पी आन्दोलन से तुलना करने को मजबूर हुए? आज कांग्रेसी रवैये पर देश भर में प्रचंड नाराजगी व्याप्त है जिसे रामदेव अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब हुए हैं। लिहाजा अन्ना आन्दोलन के ठहराव से मायूस हुए कई लोग रामदेव के आन्दोलन में  छाँव की तलाश कर रहे थे।  रामदेव के व्यापक समर्थक आधार को विपक्षी दलों के अलावा कांग्रेस की शरण में रहने वाले दल भी अवसर के रूप में देख रहे थे। ऐसा लगता है कि कोई अकेला गैर कांग्रेसी मोर्चा तो नहीं बन  पाए पर रामदेव के मुद्दे का समर्थन करने आए लोग विभिन्न राज्यों में चुनाव के दौरान उनसे समर्थन की आस रखे। रामदेव ने संकेत दिया है कि समर्थन करनेवाले दलों ने उन दलों के अन्दर भ्रष्ट तत्वों को ठीक करने का वायदा किया है। संभव है ये दल अत्यधिक विवादित उम्मीदवारों से परहेज कर रामदेव का समर्थन ले लें। 

अन्ना और रामदेव के आन्दोलन में तात्विक फर्क दिखता है। अन्ना के प्रयास संविधानिक इंडिया के शुद्ध देसीकरण की तरफ है। जबकि रामदेव के आन्दोलन में गांधी के देशज विचार, मालवीय की सोच, संविधान को ग्राम सभा केन्द्रित करने वाले आह्लाद, रामदेव की खुद की देसज सोच, बीजेपी के गोविन्दाचार्य ब्रांड विचार और इन तरह के तमाम आग्रह एक साथ अपनी झलक दिखाते हैं। याद करें कांग्रेस विभिन्न विचारों को आत्मसात करने की क्षमता रखती थी। अब कांग्रेस को उसी की पुरानी शैली में जबाव मिल रहा है।

यकीन करिए अंदरखाने इस पार्टी में चिंता तैर रही है। इस बीच राष्ट्रवाद की भी बात होती रही। अन्ना आन्दोलन का राष्ट्रवाद देश हित की चरम चिंता में प्रस्फुटित हुआ है जबकि रामदेव राष्ट्रवाद के विभिन्न विचारों को एक साथ ढोने की कोशिश में लगे हैं। ये संविधानिक इंडिया की राष्ट चिंता को भी बुलावा देना चाहता। यहाँ भी कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है। जे पी के आन्दोलन की परिणति को याद करें तो सत्ता परिवर्तन तो हो गया लेकिन उनके चेले सत्तासीन होते ही खुद जे पी के विचारों को भूल गए। जातीय और धार्मिक उन्माद की राजनीति, घोटालों में संलिप्तता और इन सबके बीच अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की निर्लज कोशिश अभी तक परवान है। ऐसे दल रामदेव से समर्थन ले लेने के बाद राजनीतिक शुद्धीकरण की दिशा में कितनी दूर तक साथ निभा पाएंगे ये अंदाजा रामदेव को भी नहीं होगा। भारत के लोग ठहर कर देख लेना चाहते हैं।






14.8.12

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत-- 1

भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत -- 1
संजय मिश्र -- 07 अगस्त
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अन्ना आंदोलन नेपथ्य में जा चुका है।  राजनीतिक वर्ग का बड़ा तबका कुटिल मुस्कान बिखेड़ने में मगन है। आम जन कुछ खोजते से नजर आ रहे हैं। उनका संबल कितना टूटा कहा नहीं जा सकता। मीडिया ये चीत्कार सुनता पर डेढ़ साल से सरकारी आकाओं की खुशामद में लगे दिल्ली के अधिकाँश पत्रकार चारण भाट की तरह अपने इस अनुभव का विस्तार करते आंदोलनी नेताओं के विच हंट में रमा है। जन-चेतना के ऐतिहासिक उभार से उबर चुके नेताओं ने जता दिया है कि सिविल सोसाइटी की मौजूदगी उसे बर्दाश्त नहीं। इंडिया में यकीन रखने वाला ये राजनीतिक जमात इतना भर चाहता कि सोसाइटी से जुड़े लोग नरेगा और इसी तरह की योजनाओं को चमत्कारिक बताता फिरे और भूल से भी ग्रीन-पीस जैसा दबाव समूह बनने की हिमाकत ना करे। ये भी तय हो गया है कि सत्ता की उद्दंडता और मीडिया के बीच गठ-जोड़ अभी चलेगा।

उस दिन यानि 3 अगस्त ... जब अन्ना के मंच से आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा हुई तो रंग-बिरंगी पोशाक में डटे लोग जंतर-मंतर के यंत्रों की तजबीज करना चाह रहे थे कि कहीं धूप और छाया का अनुपात तो नहीं गड़बड़ाया। ? निराशा और विषाद के बीच पैरों की चहलकदमी कबूल कर रहे थे कि भारत की उम्मीद एक  बार फिर पश्त हुई है। सपने संजोए आँखों को पेड़ों की झुरमुट के बीच से दूर खड़े सत्ता  केन्द्रों के विशाल खम्भे अट्टहास करते नजर आ रहे थे। मनो प्रजा पर जीत हासिल कर तंत्र खिलखिला रही हो। तंत्र की तरफ से सन्देश आने की उम्मीद ख़त्म हो गई थी।

टीवी स्टूडियो गुलजार हैं उन लोगों से जो अन्ना आन्दोलन की खामियां उजागर करने में लगे हैं। उन्हें अहसास है कि साल 2011 के 16 अगस्त के जन-सैलाब की याद भर से कांपने वाले नेता फिर से रुतबे में आए हैं। लिहाजा अन्ना आन्दोलन को कमतर बताने के लिए जे पी आन्दोलन को याद किया जा रहा है। इस आलेख में परिपाटी के विपरीत कुछ लोगों के नाम लिए जा रहे हैं ... मकसद उनके बहाने चीजों को सिर्फ स्पष्ट करना है।

मसलन उर्मिलेश नाम के पत्रकार जे पी मूवमेंट और प्रजातंत्र को अमृत वचन की तरह पेश करते। बेशक जे पी लोकतंत्र वापसी करवाने में सफल रहे और देश उनका शुक्रगुजार रहेगा। लेकिन उर्मिलेश आज की पीढी को ये नहीं बताते कि 74 के आन्दोलन में जे पी ने सेना को उकसाते हुए दिल्ली का तख्ता पलट देने के लिए कहा था। उसी आन्दोलन के दौरान देश में कुछ जगहों पर उनके समर्थकों द्वारा हिंसक वारदातों को अंजाम दिया गया। उर्मिलेश ये बताना क्यों भूलते कि जे पी आन्दोलनकारियों ने देश के कुछ हिस्सों में जगह-जगह मकानों की दीवारें इंदिरा गांधी के संबंध में गंदी गालियों से पाट दी थी। बेशक प्रशासन के लोगों ने उसे मिटाया था। चौक-चौराहों पर इंदिरा सहित वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के सांकेतिक श्राद्ध कर्म किये गए।

अन्ना आन्दोलन के लोगों ने अभी तक इस दर्जे की नीचता नहीं दिखाई है। बल्कि जन-चेतना के नैतिक पक्ष का अवतार आजादी के बाद अन्ना के ही लोगों ने विराट रूप में पहली बार दिखाया। दग्ध नेताओं की ओर से साम, दाम, दंड, और भेद की तमाम कोशिशें आजमाई गई बावजूद इसके नई पीढी में प्रेरणा जगाने में आन्दोलनकारी लगे रहे। उर्मिलेश को मलाल है कि अन्ना आन्दोलन ने दम तोड़ा। संभव है उन्हें अपने आन्दोलन की याद हो आई हो। पटना में उनके द्वारा पत्रकारों के लिए किया गया आन्दोलन इस मायने में असफल रहा कि नव भारत टाइम्स का पटना संस्करण बंद कर दिया गया। इस संस्करण के तमाम पत्रकार सड़कों पर आ गए।

कहा जा रहा है कि अन्ना के लोग भारत में यूरोप की तर्ज पर एक दबाव समूह के तौर पर बने रहेंगे। इसका अंदाजा  अनशन को समाप्त करवाने में लगे लोगों की फेहरिस्त देख कर लगाया जा सकता है।  कुलदीप नैयर जैसे लोग भी थे इसमें। वे लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर सवाल उठा सकते पर इसी मुद्दे पर कांग्रेस से सवाल करने से बचते हैं। अन्ना टीम के लोगों की अनशन करने की रणनीतिक भूल इस फेहरिस्त में शामिल विभिन्न विचारधाराओं और सरकार से पंगा नहीं लेने वाले ऐसे नामी-गिरामी लोगों के लिए सुनहरा मौका बनकर आया। केजरीवाल जैसों को समझा-बुझा कर सत्ता की राजनीति करने वालों की राह आसान कर दी गई। अनशन पर सिर्फ अन्ना होते तो दृश्य कुछ दूसरा होता।

ये अकारण नहीं है कि जे एन यू के वामपंथी शिक्षक भी अपने मार्क्सवादी छात्रों के इस आन्दोलन में शामिल रहने की बात कबूलने लगे हैं। पिछले साल अप्रैल में भी इन्होने ये बात स्वीकारी थी। लेकिन बीच के डेढ़ साल में जब कांग्रेस की तरफ से इसे आर एस एस प्रायोजित आन्दोलन करार दिया जा रहा था तो ये वामपंथी चुप रहे ... बल्कि कांग्रेस की मुहिम को शह देते रहे। यही रवैया समाजवाद के नाम पर राजनीति करने वाले रिजनल क्षत्रपों का रहा जो विभिन्न घोटालों की जद  में रहे हैं। इन नेताओं ने राहत की सांस ली है कि बेहतर लोकपाल अब दूर की कौड़ी है।

बावजूद इसके लोकपाल के लिए यश लेने की होड़ में तमाम पार्टियां कलाबाजी दिखाएंगे। इतना तो तय है कि अन्ना के साथ युवा वर्ग की जो केमिस्ट्री बनी उन युवाओं को कांग्रेस अपने पाले में लाना चाहेगी। राहुल गांधी जो कि अन्ना के कारण युवाओं के लिए तरस गए थे अब अपना सूखा मिटाने की कोशिश करेंगे। लोकपाल पर हलचल दिखा कर कांग्रेस इस मकसद को साकार करना चाहेगी। उधर अन्ना के लोगों की हताशा को भुनाने की कोशिश बीजेपी की ओर से होगी। इन दलों को अहसास है कि ये वर्ग किसी भी तरफ सरक सकता है। अन्ना आन्दोलन के ठहराव की इस से बेहतर टाइमिंग की लालसा बीजेपी ने नहीं की होगी। लोकसभा चुनाव तक के लिए उसे फोकस में रहने का वक्त मिल जाएगा। कांग्रेस के इशारे पर चली मीडिया की उस मुहिम का अंत भी होगा जिसके तहत विपक्ष की स्पेस अन्ना द्वारा ले लेने का लगातार प्रचार किया गया।

अब टीवी मीडिया में इन्डियन राजनीति के तिलिस्म दिखलाए जाएंगे। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म - कम्युनलिज्म पर गरमागरम बहस होगी, कांग्रेस की तानाशाही मानसिकता को एरोगेंस कह कर छुपाया जाएगा। जातीय राजनीति करने वालों के लिए आरक्षण के मुद्दे उठाए जाएँगे। तिस पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाएगी। प्रगतिशीलता दिखाने के लिए खाप पंचायतों से इनपुट मिल ही जाएगा। विदर्भ के किसान आत्महत्या करेंगे तो शाहरुख़ खान को दस-दस दिनों तक दिखा देंगे ... देस में भूख से मौत होगी तो मोहाली वन डे को सात दिनों तक थोप दिया जाएगा। एन के सिंह अन्ना टीम से पत्रकारों के लिए माफी मंगवा लेंगे पर मुंबई की हिंसा के शिकार पत्रकारों के लिए चुपी साध लेंगे। राजदीप के असम दंगों पर उस खतरनाक बयान की चर्चा नहीं चलाएंगे। अगले चुनाव तक भारत की चीत्कार पर इनकी तरफ से विमर्श अब भूल जाएं।

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