life is celebration

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27.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६ 
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संजय मिश्र
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लालू छुटपन में जब गांव के अपने आंगन में मिट्टी में लोटते होंगे...मुलायम तरूणाई में जब गांव के गाछी में पहलवानों के दांव देख अखाड़े में एन्ट्री मिलने के सपने देख रहे होंगे... कम से कम उस समय तक... मिथिला के गांवों की हिन्दू ललनाओं का अपनी देहरी के सामने से गुजरते मुसलमानों के मुहर्रम पर्व के दाहे (तजिया) का आरती उतारना आम दृष्य रहे..... खुदा-न-खास्ता देहरी के सामने किसी पेड़ की डाल दाहा की राह में अवरोध बनता तो उसी घर के पुरूष कुल्हाड़ी से उसे छांटने को तत्पर रहते... जुलूस से निकल कर किसी मुसलमान को डाल नहीं काटना पड़ता ... इन नजारों के दर्शन आज भी उतने कम नहीं हुए हैं।  

पर आरती उतारने वाली वही महिला मुसलमान के हाथ का बना खाना कुबूल करने को तैयार नहीं होती थी... ये हकीकत रही ... अंतर्संबंधों का ये जाल सैकड़ो सालों में बुना गया होगा... उस समय से जब मुसलमान राजा रहे होंगे और हिन्दू प्रजा... समय के साथ वर्केबल रिलेशन आकार ले चुका होगा... गंगा-जमुनी तहजीब के इस तरह के अंकुर सालों की व्यवहारिकता से फूटते आ रहे होंगे...और तब न तो जहां के किसी हिस्से में समाजवादी होते थे और न ही वाममार्गी... जमीनी सच्चाई ने इस भाव को सिंचित होने दिया होगा।

बेशक संबंधों के इस सिलसिले को आर्थिक गतिविधियों से संबल मिलता रहा... और जब एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता हो तो धार्मिक प्राथमिकताओं की सीमा टूटना असामान्य नहीं है। इंडिया के दो बड़े समुदाय जब इस तरह जीवन यात्रा को बढ़ा रहे हों तब हाल के कुछ प्रसंग आपको चकित करेंगे... खासकर बहुसंख्यकों का दुराग्रह कि मुसलमान युवक डांडिया उत्सवों में न आएं... जाहिर है ये बहुसंख्यक दरियादिली से इतर जाने वाले लक्षण हैं... इसमें अपनी दुनिया में सिमटने की पीड़ा के तत्व झांक रहे हैं जो कि नकारात्मक ओवरटोन दिखाते हैं।

ऐसा क्या हुआ कि हिन्दू इस तरह की सोच की ओर मुड़ा... समझदार तबके को इसके कारणों पर चिंता जतानी चाहिए थी... पर इस देश ने ऐसा नैतिक साहस नहीं दिखाया... इसी बीच लव जिहाद के मामले आए और सुर्खियां बने... चर्चा चरम पर रही जब कई राज्यों में उपचुनाव होने वाले थे... पर ये व्यग्रता उस दिशा में नहीं गई जिधर उसे जाना चाहिए था... दक्षिणपंथी संगठनों की निगाहें चुनाव में फायदा उठाने पर टिकी रही जबकि गैर-दक्षिणपंथी तबके का रूख न तो लव जिहाद के पीछे की मानसिकता की ओर गया और न ही चुनावी लाभ लेने की प्रवृति को उघार करने में रत रहा।

जाहिर है लव जिहाद में नकारात्मक मनोवृति के एलीमेंट हैं... यहां प्रेम की पवित्रता पर धर्मांतरण का स्वार्थ हावी होता है... जिसे प्रेम कर लाए... इस खातिर ... उसकी प्रताड़ना की ओर प्रवृत होने में संकोच तक नहीं है...लड़की के धर्म के लिए नफरत भाव और बदले की विशफुल इच्छा...मीडिया में आई खबरें लव जिहाद के लिए सचेत प्रयास के पैटर्न को उजागर कर रही थीं...मेरठ की घटना ने पहले चौंकाया... कांग्रेस के प्रवक्ता मीम अफजल ने निज जानकारी के आधार पर धर्म परिवर्तन के लिए प्रताड़ना की बात को स्वीकार किया। घटना की निंदा की और दोषियों को सजा देने की बात कही... रांची की निशानेबाज तारा का मामला तो आंखें खोलने वाला था।

लेकिन गैर-दक्षिणपंथी तबके का नजरिया तंग तो रहा ही साथ ही चिढ़ाने वाला भी... तीन पहलू सामने आए... लव जिहाद के अस्तित्व को नकारना, लव जिहाद की तुलना गोपी-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम के उच्च शिखर तक से कर देना... और लव जिहाद जैसे नकारात्मक मनोवृति को डिफेंड करने के लिए सकारात्मक भावों वाली गंगा जमुनी तहजीब को झौंक देना...गंगा जमुनी तहजीब को ढाल बनाने वाले इस संस्कृति को पुष्ट कैसे कर पाएंगे?

इस बीच सोशल मीडिया में एक शब्द – आमीन ( जिसका अर्थ है ..ईश्वर करे ऐसा ही हो) - चलन में है... अधिकतर वाममार्गी हिन्दू अपने आलेख के आखिर में जानबूझ कर इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं... इस उम्मीद में कि इससे गंगा-जमुनी तहजीब की काया मजबूत होगी... संभव है उन्हें पता हो कि देश के कई हिस्सों में मुसलमान स्त्रियां सिंदूर लगाती हैं...और अब ऐसी महिलाओं की तादाद में हौले-हौले कमी आ रही है...क्या इंडिया में सिंदूर लगाने की स्त्रियोचित लालसा से मुसलमान स्त्रियों के भाव-विभोर हो जाने में गंगा-जमुनी संस्कृति के तत्व नहीं खोजे जा सकते?

क्या ताजिया के जुलूस की आरती उतारने वाले दृष्य नहीं सहेजे जाने चाहिए? क्या आपको दिलचस्पी है ये जानने में कि कोसी इलाके के कई ब्राम्हण – खान – सरनेम रखते हैं? ... कभी आपने रामकथा पाठ.. भगवत कथा पाठ वाले प्रवचन सुने हैं... अभी तक नहीं तो थोड़ा समय निकालिए... सबके न सही मोरारी बापू और चिन्मयानंद बापू को ही सुन लीजिए... मुसलिम जीवन के कई प्रेरक प्रसंग वो सुनाते हुए मिल जाएंगे ... कबीर तो घुमड़-घुमड़ कर आ जाते हैं उनकी वाणी में।

गंगा-जमुनी संस्कृति के अक्श को जब देखना चाहेंगे समाज में तब तो दिखेगा उन्हें... कला, संगीत और आर्किटेक्चर की विरासत से आगे भी है दुनिया... चौक-चौराहों के लोक में भी ये जीवंतता के साथ दिखेगा... छठ, दुर्गा पूजा और गणेश पूजा की व्यवस्था संभालने वाले मुसलमानों का हौसला भी बढ़ाएं कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट।

हिन्दू-मुसलिम डिवाइड से दुबले हुए जा रहे लोगों को बहादुरशाह जफर के पोते के आखिरी दिनों की तह में जाना चाहिए... साल १८५७ की क्रांति से अंग्रेज आजिज आ चुके थे... वे बहादुरशाह जफर के परिजनों के खून के प्यासे हो गए थे... दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास बहादुरशाह के पांच बेटों को उन्होंने बेरहमी से मार दिया... १८५८ में बहादुरशाह जफर के पोते और सल्तनत के वारिस जुबैरूद्दीन गुडगाणी दिल्ली से भाग निकलने में कामयाब हो गए... छुपते रहे... आखिर में १८८१ में बिहार के दरभंगा महाराज ने जुबैरूद्दीन को शरण दी साथ ही सुरक्षा के बंदोवस्त किए...इस तरह के रिश्तों की याद किसे है? डिवाइड की चिंता जताने वालों को नहीं पता कि जुबैरूद्दीन का मजार किस हाल में है?

उन्हें साई बाबा की याद तो आ जाती है पर दारा शिकोह का नाम लेने में संकोच होता है...टोबा-टेक सिंह जैसे पात्र बिसरा दिए जाते... राम-रहीम जैसे नामकरण में उनकी रूचि नहीं है... वे बेपरवाह हैं उस ममत्व से जिसके वशीभूत हो मांएं मन्नत के कारण बच्चों के दूसरे धर्म वाले नाम रखती हैं...वे लाउडस्पीकर विवादों में तो पक्षकार बनने को तरजीह देते पर कोई अभियान नहीं चलाते ताकि सभी धर्मों के धार्मिक स्थल लाउडस्पीकर मुक्त हों...ये कहने में कैसा संकोच कि भक्तों की पुकार राम या अल्लाह बिना कानफारू लाउडस्पीकर के भी सुनेंगे?

वे दंगों से उद्वेलित नहीं होते... उनका मन दंगा बेनिफिसियरी थ्योरी पर टंग जाता है...उनका चित वोट को भी सेक्यूलर और कम्यूनल खांचे में विभाजित करने को बेकरार हो जाता है... सुलगते माहौल में सुलह नहीं कर सकते तो कम से कम हिन्दुस्तानी (भाषा) और शायरी में दिल लगाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें... पर मुसलमानों की तरक्कीपसंद मेनस्ट्रीम सोच की राह में बाधा खड़ी न करें... उन्हें याद रखना चाहिए कि नेहरू को राज-काज चलाने के लिए संविधान में सेक्यूलर शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी।

समाप्त -------------------



23.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५
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संजय मिश्र
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साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तब से इसकी तरह- तरह से व्याख्या की जा रही है... एक तबका (वाममार्गी) इसे हिन्दू रिवाइवलिज्म की आहट करार दे रहा है ...तो कोई इसे बहुसंख्यकवाद का करवट बदलना बता रहा है... वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी इस राय के हुए कि पार्टी की छवि एक समुदाय (मुसलमान) की हितैषी बन कर रह गई जिसका खामियाजा इसे भुगतना पड़ा... तो क्या ये हिन्दुओं का कोई दबा हुआ गुस्सा है जिसके उबाल मारने में कांग्रेस के अहंकार, महंगाई और घोटालों ने केटलिस्ट की भूमिका अदा की?

अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे फिर से बीजेपी के पक्ष में आए हैं तो क्या ये इसी हिन्दू अभिव्यक्ति की दुबारा तस्दीक कर रही है? माना तो यही जाता कि किसी भी देश का बहुसंख्यक आम तौर पर नाराजगी नहीं दिखाता ... फिर ऐसा क्या हुआ कि वे खास तरह की राजनीति को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं?... क्या कांग्रेस को अहसास था कि – देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, ओसामा जी, आतंकवाद के आरोपियों के लिए पीएम मनमोहन को रात भर नींद नहीं आई, आजमगढ़ के इनकाउंटरपीड़ियों के लिए सोनिया जी फूट-फूट कर रोई......- जैसे उद्गार हिन्दुओं पर इतना गहरा असर छोड़ेंगे?    

लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के बीच के काल में बिहार में महागठबंधन बना है... लालू प्रसाद ने हुंकार भरते हुए कहा कि मोदी के रथ को मंडल से रोका जाएगा... लालू जब ये कह रहे थे तो पिछड़ों और दलितों के लिए किसी अनुकंपा भाव से द्रवित हो कर नहीं बोल रहे थे...मंडल से उनका इशारा यही था कि मोदी के कारण जिस बहुसंख्यक उभार की बात कही जा रही उससे उन्मादी जातीए राजनीति के जरिए हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के बीच दरार चौड़ी करके मुकाबला किया जाएगा...लालू राज को याद करें तो उनके इरादों की सरल व्याख्या जातियों के बीच नफरत फैलाने में ही खोजा जा सकता है। 

मुसलमानों के बरक्स हिन्दू मानस को समझने के लिए बीते समय में गोता लगाना लाजिमी है...नेहरू ने जब हिन्दू कोड बिल पर जिद की तो सनातनियों में खासा आक्रोश पनपा... बिल के विरोधी आजादी मिलने से खुश थे... नव जीवन की उम्मीदों से उत्साहित ... वे मान कर चल रहे थे कि सभी भारतवासी की खातिर नया सवेरा अवसर बन कर आया है... लिहाजा नए सार्वजनिक व्यवहार के लिए मन को दिलासा दे रहे थे... उनको अहसास था कि सभी नागरिकों के लिए समान सिविल कोड आएगा और उन्हें भी कुर्बानी देनी होंगी... लेकिन नेहरू ने अपनी लोकप्रियता का उपयोग कर बिल को रास्ता दिखा ही दिया।

विभाजन के बाद हिन्दुओं के लिए ये पहला झटका था.... बेमन से बिल विरोधी इस पर राजी हुए... नेहरू ने भी इस टीस को महसूस किया लेकिन पहले पीएम का भरोसा था कि हिन्दू के जीवन में इससे जो बदलाव आएगा वो मुसलमानों को भी उकसाएगा और समय के साथ वे सिविल कोड की ओर रूख कर लेंगे... छह दशक बीत चुके हैं इस देश के जीवन के... लेकिन नेहरू के उस भरोसे का कहीं अता-पता नहीं है।

शाह बानो प्रकरण के समय आरिफ मुहम्मद खां का ऐतिहासिक विरोध नजीर तो बना लेकिन राजीव के कांग्रेस से हिन्दू खूब निराश हुए... आज भी मुसलमान इस मामले में किसी दखल पर सोच-विचार करना भी चाहें तो मुसलमानपरस्ती वाला राजनीतिक और बौद्धिक जमात उसकी ढाल बनने को आतुर हो जाता है। कहा जाता है कि सिविल कोड की बात जुबां पर लाना भी कम्यूनल सोच है... ये जमात कहने लगता है कि यूनिफार्म सिविल कोड का मसला संवैधानिक है ही नहीं... इंडिया के लोग इन दलीलों को सुनते आए हैं... पर कोई भी विदेशी संविधान विशेषज्ञ ऐसी सोच पर हैरान हुए बिना नहीं रहेगा।

ऐसा ही एक मसला वंदे मातरम गान से जुड़े सन्यासी विद्रोह का है..पलासी युद्ध के बाद का समय है जब बिहार की पूर्वी सीमावर्ती जिलों से लेकर आज के बांग्लादेश के पश्चिमी जिलों तक सन्यासियों ने इस्ट इंडिया कंपनी और उनके समर्थक जमींदारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूके रखा... स्थानीय जमींदारों की लूट-खसोट और आतंक से लोगों में दहशत थी... वारेन हेस्टिंग्स की हाउस आफ लार्ड्स में हो रही इम्पीचमेंट के दौरान लोगों की प्रताड़ना के संबंध में बताते हुए एडमंड बुर्के बेहोश हो गए थे... लोगों की इस तकलीफ की पृष्ठभूमि में ही सन्यासियों ने विद्रोह किया था...विद्रोह के निशाने पर मुसलमान जमींदार भी रहे नतीजतन इंडिया के हुक्मरान इसे आजादी की पहली लड़ाई का सम्मान देने को तैयार नहीं हैं।  

चीन, यूरोप और अमेरिका में गौ-मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है... वहां इस मांस के स्वाद की व्याख्या वेजिटारियन मूवमेंट वालों को चिढ़ाने के लिए उतना नहीं किया जाता जितना कि गौ-मांस मीमांसा इंडिया के वाम, सोशलिस्ट और मध्यमार्गी कांग्रेस के मिजाज वाले लोग करते हैं... बहुसंख्यक मानते हैं कि इसका सीधा मकसद मुसलमानों को खुश करना और हिन्दुओं को चिढ़ाना, सिहाना और अपमानित करना होता है।  

गौ-मांस के लिए लार टपकाने वाले वाममार्गी जानते हैं कि सनातन धर्म के लोग गौ को पूजते हैं... हकीकत है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी... लेकिन वाममार्गी इतिहास की सरकारी किताबों में लिखते हैं--- लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सूअर का मांस अधिक नहीं खाते थे---... इस अंश से ही कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के वोट बैंक मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है... यही कारण है कि कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेसी सिद्धारमैया गौ-हत्या पर राज्य में लगा प्रतिबंध हटा लेते हैं... बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय होता है... हिन्दू क्लेश में रहता है कि वो गौ-भक्षण नहीं करेगा तो ये तबका उसे प्रगतिशील नहीं मानेगा।

संविधान बड़ा आसरा है इस देश के लिए... सार्वजनिन हित के लिए... संबल की खोज बहुसंख्यकों को हो तो हैरानी कैसी... पर ये तबका उस वक्त हैरान होता है जब प्रगतिशील और वाममार्गी इतिहासकार सरकारी इतिहास की किताबों में इन्द्र को ऐतिहासिक मानते हुए सिंधु सभ्यता को नष्ट करने वाला मान बैठते हैं... उनके लिए राम और कृष्ण काल्पनिक हैं पर कृष्ण के भाई इन्द्र ऐतिहासिक हो जाते... आपको भूलभुलैया में घुमाने के बदले सीधे बता दें कि इसका मकसद आर्यों को विदेशी आक्रांता साबित करना है... मुसलमानों की तरह... चलिए आर्य बाहरी हुए और मुसलमान भी ... इसका मतलब ये तो नहीं कि कश्मीर के पंडितों की एथनिक क्लिनजिंग पर राजनेता, बुद्धिजीवी और मीडिया स्तब्धकारी चुप्पी साध ले।

इस देश के अधिकांश कर्ता-धर्ता यहूदियों के दुख पर विलाप करते हुए हिटलर को कोसते रहते हैं पर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर उन्हें सांप सूंघ जाता है। आरएसएस के सदस्यों पर आतंक के आरोप के नाम पर हिन्दुओं को लपेटने से इन्हें गुरेज नहीं रह जाता... यहां तक कि इंडिया के झंडे के केसरिया रंग का खयाल न रखते हुए सैफ्रन टेररिज्म जैसे जुमले इस्तेमाल करता है ये वर्ग... हिन्दुओं को इस बात की तकलीफ रहती है कि उनकी धार्मिकता से जुड़ा रंग है सैफ्रन... दिलचस्प है कि इसकी खेती का केन्द्र है कश्मीर।  

आप सोच रहे होंगे कि यहां पर मसलों की फेहरिस्त लम्बी क्यों होती जा रही? चलिए बस करते हैं ... मूल पाठ यही है कि हिन्दुओं के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं जिस रास्ते वे मुसलमानों के साथ वर्केबल संबंध रखते हैं... पर ६५ साल के जवान देश बताने की सनक रखने वाले पैरोकारों का पुरातन सभ्यता से अपमानजनक वर्ताव अखरता है हिन्दुओं को... कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की छतरी के नीचे इन कोशिशों का वीभत्स रूप सामने आ चुका है... मुसलमान अब दंगों के दाग वाले परसेप्शन से मुक्त कर दिए गए हैं और हिन्दुओं का मानना है कि इस दाग को बहुसंख्यकों पर थोपा जा रहा है...ये बताने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की अगुवाई वाले जमात का क्या मकसद होगा? पर क्या कोई देश बहुसंख्यकों पर दंगों के दाग के बावजूद प्रगति की राह पकड़ने का ख्वाब देख सकता है?


जारी है-----  

18.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४  
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संजय मिश्र
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१३-१०-२०१२...बिहार के दरभंगा नगर के पोलो ग्राउंड में करीब २० हजार लोग जमा हुए... वे काफी रोष में थे... ... यूएसए गो टू हेल, ओबामा अब बस करो.. जैसे नारे फिजा में गूंज रहे थे... ये लोग अमेरिका में बनी फिल्म इनोसेंस आफ मुस्लिम्स का विरोध कर रहे थे... वे इस बात से आहत थे कि फिल्म में इस्लाम के प्रतीकों से खिलवाड़ किया गया है... अंजुमन कारवां ए मिल्लत की अगुवाई में हुई इस सभा के बाद लौटती भीड़ ने डीएम कार्यालय के दरवाजे के पास तोड़-फोड़ कर दी।

खबर ये है कि ०४-१०-२०१२ को जब इस विरोध मार्च का निर्णय हो रहा था तो मुसलमान समाज के बड़े बुजुर्ग सौ लोगों के साथ प्रतिवाद मार्च निकालने के पक्ष में थे... जबकि युवा मुसलमानों के पक्षधर इसके लिए तैयार नहीं हुए... पत्रकारों के सामने ही समाज के दो खेमों के बीच तल्खी साफ नजर आ रही थी... आखिरकार डेढ़ सौ लोगों के साथ पैदल मार्च की योजना बनी... बुजुर्ग मुसलमान लगातार याद दिलाते रहे कि फिल्म का इंडिया से लेना-देना नहीं है लिहाजा देश के हुक्मरानों के खिलाफ नारेबाजी नहीं हो...लेकिन जब सभा हुई तो २०००० प्रदर्शनकारियों को संभालने में पुलिस के पसीने छूटते रहे।

अब जरा रूख मुंबई का करें ...११-०८-२०१२ को बर्मा की घटनाओं के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान में पुलिस बंदोवस्त अचानक उमड़ आई बेकाबू भीड़ के लिए नाकाफी साबित हुआ... भीड़ ने कई महिला पुलिसकर्मियों को घेर लिया और उससे छेड़खानी हुई... कपड़े नोचे गए ... पास खड़े मीडिया के ओवी वैन जला दिए गए... शहीद स्तंभ को तोड़ दिया गया...ये दृष्य देश के लोगों ने देखे... २५-०७-२०१४ को सहारनपुर दंगों के दौरान भी अचानक आ गई भीड़ की संख्या सबों को चौंकाती रही... ऐसी घटनाएं देश के कई हिस्सों में जब-तब घट रही हैं।

इसमें एक पैटर्न है... उधम मचाने वाली भीड़ में अनुमान से बहुत अधिक तादाद में लोगों का जुटान... मुस्लिम समाज के समझदार तबके का सीमा तोड़ने वाले इन युवा मुसलमानों पर नियंत्रण नहीं... देश और विदेश की घटनाओं पर इन युवकों का अतिवादी, तंग और जुनून से भरा रवैया.... ये पैटर्न इंडिया के मुसलमानों की मेनस्ट्रीम सोच से जुदा हकीकत पेश करता है...इसमें बहुत ही कम तत्व माइनोरिटिज्म के खोजे जा सकते...

इस्लामिक दुनिया की उथल-पुथल... उन जगहों से अलग अलग मकसदों से आर्थिक मदद के नाम पर आ रहे पैसे, सोशल मीडिया का बेलगाम स्वभाव जैसा मंच और हेट मोदी अभियान का असर भी है उनपर... मोदी विरोध का मकसद भले वोट से जुड़ा हो... पर ये भटका हुआ तबका २४ इंटू ७ मोदी विरोध से इतना उद्वेलित हो जाता है कि वो गुजरात की घटनाओं को हिन्दू बैकलैस ही मान कर चलता है... उपर से गैर-बीजेपी दलों की मुसलमानपरस्ती उन्हें हौसला देती रहती है...बाबरी डेमोलिशन उन्हें लगातार याद दिलाया जा रहा है।  

उन्हें पता है कि मौजूद राजनीतिक जमात में नैतिक साहस का घोर अभाव है। उसे पता है कि उसके गुनाहों के मामले वापस लिए जाएंगे... उसे इल्म है कि कई राज्य सरकारें सुरक्षित शरणस्थली देने के लिए बेकरार है... यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और बंगाल के माहौल उन्हें आश्वस्त करते हैं...ममता बनर्जी की पार्टी के लोगों का जो स्नेह इन तत्वों को मिला है उस पर कौन इतराना नहीं चाहेगा... वहां तो अरसा से उन्हें सहूलियत रही है...  वाम सरकारों के समय से फर्जी काम के लिए असली दस्तावेज बनाने में सरकारी सहयोग मिलते रहे हैं।  

जिन्हें फिक्रमंद होना चाहिए वे हकीकत को बेपर्दा करने की जगह दबाते हैं ...ताजा उदाहरण कश्मीर का है जहां आइएसआइएस के झंडे लहराए गए हैं... मीडिया मौन है...खबर को दबा रहा है... राजनेता इसकी मुखालफत करने से डर रहे हैं...यकीनन भटके हुए तत्व की सोच में तब्दीली में उनकी रूचि नहीं है... यही हाल दक्षिणपंथी राजनीतिक तबके का है जो मुसलमान युवकों के मानस की व्यग्रता को रेखांकित तो करते हैं पर मुसलिम समाज के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व से इस व्याकुलता को शांत करने की अपील नहीं करते... हस्तक्षेप करने के लिए उत्साहित नहीं करते.... हाथ मजबूत नहीं करते...उनसे संवाद नहीं करते।

मुसलिम समाज में आंतरिक संवाद को गति देने पर किसी का ध्यान नहीं है... यहां तक कि युवा मुसलमानों के भटकाव को इमानदारी से कुबूल करने का साहस नहीं दिखा रहा ये देश... क्या वाकई इंडिया के लोग हिन्दू-मुसलिम डिवाईड से चिंतित हैं? या फिर जो कोलाहल दिखता रहता है वो महज सियासी चाल है?


जारी है.......... 

16.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३
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संजय मिश्र
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इंडिया के करीब सौ मुसलमान युवकों के फरार होने की खबर सार्वजनिक हुई तो देश के समझदार तबकों में सनसनी फैल गई... दबे स्वर में उन्होंने चिंता जताई... खबर खुफिया स्रोतों की तरफ से आई थी... आशंका है कि ये युवक इराक और सीरिया में आईएसआईएस के चंगुल में हैं... जिहाद करने निकले हैं... और इसलाम के नाम पर आहूति देने गए हैं। इधर इन युवकों के परिजनों का हाल बेहाल है... वे मदद की गुहार लगा रहे हैं।

ये मुसलमानों के पश्चिम की तरफ ताकने का पीड़ा देने वाला पहलू है... मक्का-मदीना पश्चिम में है सो स्वाभाविक चार्म है उस दिशा का... ये चार्म पश्चिम के विकसित देशों के लिए रूझान से अलग है... ये धार्मिक है... इसका प्रकटीकरण बीसवीं सदी के शुरूआत से ही इंडिया के राजनीतिक-सामाजिक विमर्श में असहजता घोलने का पोटेंशियल रखता आया है।

ओटोमन अम्पायर (तुर्क) में ब्रिटिश मनमानी के मुद्दे पर इंडिया में १९१९-२२ में जो खिलाफत आंदोलन चला उसमें तुर्की के सुल्तान के धार्मिक अधिकारों के सवाल भी शामिल थे.... इंडिया के मुसलमानों के इस हलचल को लेकर गांधी विशेष आग्रही हुए ... उन्होंने इसे अवसर के रूप में देखा और खुल कर समर्थन दिया... इस देश के आज के लोग जो दिन-रात सेक्यूलरिज्म की बात सुनते हैं... उन्हें ये अटपटा जरूर लग सकता है।

पाकिस्तान भी पश्चिम में है... और इसकी बुनियाद भी इसलाम के आसरे पड़ी ... जिन्ना और इकबाल ने जिस पाकिस्तान का तान छेड़ा वो इस सबकंटिनेंट को पार्टिशन की तरफ धकेलने में सफल हुआ... जिस मुसलमान आबादी ने इंडिया में ही बसर करने का मन बनाया.. उसके लिए न तो पश्चिम के धार्मिक प्रतीकों का मोह कम हुआ और न ही नए बने पाकिस्तान के लिए आसक्ति... साल १९७१ के युद्ध और पाकिस्तान के टूटने का गहरा असर पड़ा उनपर।

वे इस बात पर एकमत हुए कि पाकिस्तान में बसने के किसी सपने से ज्यादा मुफीद इंडिया में रहना ही है... इससे भी बड़ा सबक था बांग्लादेश का आकार लेना... इसने जता दिया था कि भाषा(यहां बांग्ला पढ़े) की ललक धर्म के आकर्षण से पार पा सकता है... टू-नेशन थ्योरी ध्वस्त हो चुकी थी... बांग्लादेश में फंसे बिहारी मुसलमानों को लेने से पाकिस्तान के इनकार ने रही सही कसर पूरी कर दी... पाकिस्तान रूपी पश्चिम का मोह मोटा-मोटी अब वहां रहने वाले उनके संबंधियों और सांस्कृतिक आह्लादों तक सिमट कर रह गई।

इधर एक नया तबका उभरा है इस देश में जो मुसलमानों के पश्चिम प्रेम को भड़काने के नाम पर सशक्त हुआ है... इसका आधार मुसलमान के मानस का दोहन करना है... वे कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के फोकल प्वाइंट यानि मुसलमानपरस्ती की खातिर ऐसा करते हैं... इसके दर्शन हाल में इस देश को खूब हुए हैं... मसलन इराक में आईएसआईएस की बर्बरता, बोको हरम से जुड़ी अमानुषिक हरकतों पर तो चुप्पी साध जाता है ये तबका पर गजा पट्टी के हमास के लिए इंडिया की सड़कों को उद्वेलित करने से नहीं चूकता... पश्चिम भाव के दोहन और जायज नजरियों के बीच से गुजरते हुए इंडिया के मुसलमानों का बड़ा तबका अपने नए पीएम की उत्साह बढ़ाने वाली उस स्वीकारोक्ति को परखने में लगा है जिसमें कहा गया है कि इंडिया के मुसलमान देशभक्त हैं और अलकायदा जैसे संगठनों के मंसूबों को सफल नहीं होने देंगे।  


7.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-२

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-२ 
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संजय मिश्र
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इंडिया में भूख से मरने की खबर अक्सर आती रहती है.. पत्रकार इसे जतन से आपके पास पहुंचाते हैं... इस कोशिश में वे अफसरों की नाराजगी मोल लेते हैं... उनसे पूछिए या फिर अखबारों के पन्ने पलटिए... आप पाएंगे कि मरने वालों में मुसलमान नहीं के बराबर होते... कह सकते कि मुसलमान कर्मठ होते साथ ही हूनर वाले पेशे अपनाने के कारण भुखमरी टाल जाते... दिलचस्प है कि इसी देश के हुक्मरान कहते फिरते हैं कि मुसलमानों की माली हालत दलितों से भी खराब है।

वे सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का हवाला देते हैं ... तो क्या ये रिपोर्ट डाक्टर्ड है? राजनीति करने में सहूलियत का इसमें ध्यान रखा गया है? रोचक है कि इस रिपोर्ट की महिमा का बखान कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट सिद्दत से करते... सार्वजनिक मंचों पर इसको लेकर आंसू बहाए जाते... केन्द्र की सत्ताधारी दल बीजेपी को भी ये रिपोर्ट खूब सुहाती है... कांग्रेस की दशकों की उपलब्धि को भोथरा साबित करने में उन्हें ये हथियार नजर आता।  

इस डिस्कोर्स में शामिल होने वाले मुसलमान करीने से हुक्मरानों से हिसाब मांगते हैं... इस अल्पसंख्यक समाज की हैसियत बढ़ाने वाले कदम उठाने की चुनौती देते...मुसलमानों की बदहाली के कई कारण होंगे... पर आप ध्यान देंगे तो विशेष राजकीय सहयोग पाने की उनकी अर्जुन दृष्टि आपको नजर आ जाएगी.. मौजूदा समय में संघ परिवार के नेताओं के गैर-जरूरी बोल के बीच भी मुसलमानों की नजर बीजेपी के उस विजन डाक्यूमेंट पर टिकी है जो मुसलमानों के हितों के लिए तैयार हुए हैं।

संभव है पूर्व आम आदमी पार्टी नेत्री शाजिया इल्मी का बयान याद आया होगा आपको... साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के समय दिए गए उस बयान को विवादित करार दिया गया... शाजिया ने गुहार लगाई थी कि मुसलमान बहुत सेक्यूलर हो लिए... अब उन्हें अपने हितों की ओर देखना चाहिए... इसमें अनकही बात ये थी कि मुसलमान आम आदमी पार्टी पर भरोसा दिखाएं तो उनके हितों का विशेष खयाल रखा जाएगा।

इंडिया के राजनीतिक सफर में डुबकी लगाएं तो इस तरह के फिकर की बानगी आपको बिहार में जगन्नाथ मिश्र के राजकाज के दौरान दिखेगी...सहरसा के रहने वाले पंडित सीएम मुहम्मद जगन्नाथ तक कहलाए... मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक उम्मीदों पर वे खासे मेहरबान हुए। पर साल २००० का विधानसभा चुनाव... झंझारपुर क्षेत्र से जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र उम्मीदवार थे... पिता ने मुसलमानों से बेटे को जिताने की गुहार लगाई पर नाकामी हाथ लगी.. नीतीश मिश्र हार गए.. ये लालू का दौर था।

मुसलमानों को लालू से खूब स्नेह मिल रहा था... पटना से लेकर ब्लाक तक में मुसलमानों की अपेक्षाओं का खयाल रखा जा रहा था... यूपी में मुलायम को मुल्ला मुलायम ऐसे ही नहीं कहा गया... उन पर मुसलमानों की सदिच्छा और मुसलमानों पर सपा का प्रेम जगजाहिर है... मायावती तक की विशेष कृपा बनी रही है मुसलमानों पर।

यानि नेहरू के समय से आर्थिक और इमोशनल सहयोग का जो सिलसिला चला वो किसी न किसी रूप में जारी है... यानि जहां सहूलियत उधर झुकाव... गैर-बीजेपी खेमों की बेचैनी मुसलमानों की उसी तरल सोच की उपज तो नहीं? क्या ये विकलता स्मार्ट वोटर कौम को अपने पाले में बनाए रखने की है? आखिर संकट किस बात का है? ये मुसलमान का संकट है... या कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म का... सनातनियों का या फिर ६५ साला इंडिया का संकट है?


जारी है........... 

6.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-१
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संजय मिश्र
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इंडिया का राजनीतिक और सामाजिक विमर्श यही मान कर चल रहा है कि आबादी के बड़े हिस्से ने जीने का सलीका तो बदला है लेकिन मुसलमान औरंगजेब और ब्राम्हण मनु के दौर में बने हुए हैं... हकीकत इससे अलग है ... जाहिर है समरसता की चाहत के बावजूद सार्वजनिक डिस्कोर्स हांफ रहा है...पहरुए न तो ब्राम्हण के मानस में आए बदलाव को स्वीकार कर रहे और न ही मुसलमानों के मिजाज की दस्तक सुनना चाहते।

ब्राम्हण की कथा फिर कभी... फिलहाल मुसलमानों के रूख में परिवर्तन को पहचानने की कोशिश करें... ... इस देश की आम समझ है कि दो बड़े कौम की सहभागिता का पहला आधुनिक पड़ाव साल १८५७ ने देखा... अंग्रेजों से छुटकारा पाने की अकुलाहट के छिट-पुट दर्शन इससे पहले भी हुए...लेकिन १८५७ में ये व्यापक आयाम के साथ उभरा... फिर भी बहादुरशाह जफर की कामना हिन्दू प्रजा के सहयोग... हिन्दू जमींदारों के सहयोग से मुगल सल्तनत की वापसी पर टिकी रही ... बेशक अंग्रेजों को परास्त करना पहली जरूरत थी।

आपसी सहयोग की मिसाल कायम हुई पर ये प्रयास विफल रहे... असफलता ने मुसलमानों को तोड़ दिया... शासक वर्ग होने के दिन लद चुके थे... जख्म थोड़े भरे तो अंग्रेजों से दोस्ताना रिश्ते पर उन्होंने गौर फरमाया...सर सैयद अहमद के समय में इस दोस्ताना रिश्ते के साथ आधुनिक शिक्षा का सूरज उगा... इस समझ को काफी बाद झटका लगा जब बंग-भंग आंदोलन के समय वे राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजों की सहृदयता के बीच जूझते रहे।

किस्मत बदलने की तमन्ना हावी हुई... खिलाफत आंदोलन में गांधी के सहयोग के बावजूद पश्चिम की तरफ ताकने और प्रोपोर्सनल रिप्रजेंटेशन की दिशा की तरफ वे बढ़ चले .... आजादी के आंदोलन की तीव्रता ने उन्हें अहसास करा दिया कि लोकतंत्र आएगा और उन्हें प्रजा वाला मिजाज विकसित करना पड़ेगा... मन की हलचल के बीच अलग देश के तत्व हावी हो गए... देश का बटवारा हो गया... मुसलमानों के लिए अलग देश बन गया।

जो भारत में रह गए उनके सामने धर्मसंकट था... आजादी की बेला क्रूरता की हदें पार करने का गवाह बनी थी... भीषण दंगों से हिन्दुओं के मन पर पड़ने वाले असर से भी वे वाकिफ थे...हिन्दू राष्ट्र की तमन्ना के स्वर भी उन्हें सुनाई दे रहे थे...फिर भी नेहरू ने उन्हें भरोसा दिया...अब वे जनता बन चुके थे... चुनावी राजनीति में बहुसंख्यकों के वर्चस्व की धारणा के बोझ को वे उतारने लगे...फ्री इंडिया में उनके मनोभावों को एक आसान से उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है।

फिल्म की दुनिया में दिलीप कुमार को हिन्दू नाम के सहारे खूब सफलता मिली... अपने नाम से सफल होने में उस समय के मुसलमान कलाकारों को हिचक थी... ये दौर बीता...  तब फिरोज खान और संजय खान का समय आया... ये मुसलमानों के आत्मविश्वास का संकेत कर रहा था... अपनी पहचान से ही उन्होंने सफलता के झंडे गाड़े...आज शाहरूख, आमीर और सलमान आत्मविश्वास के साथ आक्रामकता की नुमाइश कर रहे हैं।

शासक से जनता बनने के मुसलमानों के इस सफर में न तो औरंगजेब की महिमा है और न ही दबे-कुचले होने का दंश ...मुफलिसी से उबरते रहने की आकांक्षा इन भावों पर भारी है।

जारी है............ 

5.10.14

क्लीन इंडिया ड्राइव में राजनीति भी है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर

क्लीन इंडिया ड्राइव में राजनीति भी है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर
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संजय मिश्र
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हाल के समय में कई कांग्रेसी नेता अलग अलग मौकों पर इंडियन पीएम की प्रशंसा करते देखे गए हैं... १५ अगस्त के मौके पर अपने संबोधन में जब पिछली केन्द्र सरकारों के अच्छे काम को मोदी ने स्वीकार करने वाली बात कही तो माना गया कि ये कोई रणनीतिक मूव हो सकती है... लेकिन २ अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के शुरूआत के मौके पर उन्होंने विस्तार से उसे दुहराया... कांग्रेस का नाम तक लिया... कहा कि ये नेक अभियान है लिहाजा इसमें राजनीति न हो... मोदी समर्थकों के अलावा आम जनों को भी अनुमान था कि कांग्रेसी नेता मोदी के इस रूख का स्वागत करेंगे और उल्टी नहीं करेंगे... शाम होते होते कांग्रेसियों की खीझ छुपाए नहीं छुप रही थी...हे इंडिया के लोग... ये अभियान जरूर सुहाने वाला है... थाने में जाकर नरेन्द्र मोदी का मन लगाकर सफाई करना कैच विजुअल आफ द डे बना... पर कांग्रेस को आज के दिन भला-बुरा न कहें... मोदी ने उनके साथ राजनीति की है... लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कांग्रेस से सरदार पटेल को छीन लिया... और अब उनसे गांधी की विरासत को छीन लेने की जुगत में लग गए हैं... मोदी के काम करने का तरीका ही ऐसा है कि वो दिखने लायक नतीजे दे ही देते हैं... इस अभियान को भी वो संतोष लायक मुकाम तक पहुंचा ही देंगे...फिर क्या बचेगा कांग्रेस के लिए? दलितों के बीच मोदी का संदेश जाएगा सो अलग... ये अकारण नहीं कि कांग्रेस की प्रतिक्रिया बार-बार गांधी के मुस्लिम प्रेम वाले विचारों की ओर घूम रही थी...

गुहा...भागवत और डीडी

गुहा...भागवत और डीडी
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संजय मिश्र 
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उम्मीद नहीं थी कि इतिहासकार राम चन्द्र गुहा आरएसएस की खिलाफत के लिए इतना कमजोर दांव खेलेंगे.... उन्हें दूरदर्शन पर मोहन भागवत के भाषण दिखाने पर आपत्ति है... वो कहते कि आरएसएस कम्यूनल है... लगे हाथ मोहन भागवत की तुलना इमामों और पादरियों से कर बैठे.... तो क्या वे कहना चाहते कि इस देश के इमाम और पादरी कम्यूनल होते हैं...?


साल १९८७... डीडी पर रामानंद सागर की रामायण सीरियल प्रसारित हुई थी... प्रबुद्ध लोगों को हैरानी तो हुई पर उसे देखने की होड़ सी मच गई... उधर वामपंथियों ने देश भर में इस प्रसारण की खिलाफत की थी...तल्ख विरोध चाणक्य सीरियल के प्रसारण पर भी किया इन्होंने .. साल भर पहले ही शाहबानो प्रकरण हुआ था.. सहम कर विरोध जता पाए थे वे ... रामायण सीरियल ने मौका दिया और पिल पड़े डीडी पर...उस दौर में टीवी चैनलों के नाम पर डीडी ही सब कुछ था...लिहाजा विरोध के लिए वजहें थी... 
अब जबकि निजी चैनलों की बाढ़ है और गला-काट प्रतिस्पर्धा है... डीडी के लिए प्रतिस्पर्धा में बने रहना मुश्किल हुआ जा रहा है... ऐसे में डीडी का इस पैमाने पर विरोध उसे बांध कर नहीं रख देगा? ... दूरदर्शन के लिए दोहरी आफत है... सरकारें नहीं चाहती कि ये संस्था प्रोफेशनल तरीके से काम करे... और अब विरोधी दलों के अलावा इतिहासकार, मीडिया पंडित और बुद्धिजीवी यही मंशा दिखा रहे...
चलिए इन विरोधियों की बात मान ली जाए... और फिर याद किया जाए मोहन भागवत का हिन्दू थ्योरी वाला भाषण ... निजी चैनलों ने इसकी आलोचना को प्रमुखता से दिखाया.... क्या डीडी के दर्शकों को इस तरह के डिस्कोर्स को देखने का हक नहीं देना चाहते ये विरोधी... क्या डीडी के दर्शकों को इसके लिए निजी चैनलों की ओर रूख करने के लिए मजबूर करना चाहते वे.... फर्ज करिए भागवत का वो भाषण डीडी का एक्सेक्लूसिव होता तो क्या विरोध करने वाले मोहन भागवत के उस भाषण पर कोई बवाल नहीं करते... क्या तब वो खबर नहीं होती? ... क्या मान लिया जाए कि विरोध करने वाले आगे से डीडी की स्वायतता की चर्चा नहीं करेंगे...और न ही प्रोफेशनल होने के लिए कहेंगे ? रामचन्द्र गुहा को याद रखना चाहिए कि उन जैसों की वजह से ही मोहन भागवत पहले भी खबर थे और आगे भी बने रहेंगे...

12.8.14

मोहन भागवत का बयान एसिमिलेशन की चाहत तो नहीं?


मोहन भागवत का बयान एसिमिलेशन की चाहत तो नहीं?
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संजय मिश्र
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उन लोगों को भी भारत, भारतीय और भारतीयता शब्द की याद सताने लगी है जो इंडिया और इंडियन शब्द से बांए-दांए होना कबूल नहीं करते ... मोहन भागवत ने हिन्दू शब्द की आरएसएस वाली व्याख्या को महज दुहरा दिया है...ये अहम नहीं कि इन बातों को वे पहले कहते थे तो काना-फूसी भी नहीं होती थी... अभी इस शब्द पर विमर्श चल पड़ा है... संविधान याद आने लगा है इंडिया शब्द के पैरोकारों को... ऐसा लगता है अब वे भारतीय शब्द को रियायत देने के मूड में हैं... ये रियायत टैक्टिकल मूव हो सकता है पर आप इस बदलाव को अच्छा मान लें तो ऐतराज नहीं....

जो ६५ साल के युवा इंडिया में यकीन करते .. और मानते कि इसका पांच हजार साल के भारत से डिस्कनेक्ट है... उनमें ये बदलाव दिख रहा है... पेंच हिन्दू शब्द के सोर्स में छिपा है... हिन्दू शब्द मुसलिम संस्कृति के मूल पश्चिमी गढ़ से आया है... और वहां इसे कलेक्टिव नाउन के रूप में ही लिया जाता रहा है...भारतीय शब्द को रियायत देने वाले हिन्दुस्तान या हिन्दू के पक्ष में नहीं जाना चाहते...पर यहां भी दिक्कत है उन्हें... असल में हिन्दुस्तान और हिन्दू शब्द के इस्तेमाल का रिवाज मुसलमानों में ही अधिक है... क्या इंडिया के पैरोकारों के चाहने से इंडिया के मुसलमान हिन्दुस्तान और हिन्दू शब्द का इस्तेमाल छोड़ देंगे?

ये हैरानी की बात है कि मोहन भागवत के इस प्रसंग के मकसद पर विमर्श बड़ा ही ढ़ीला-ढाला है... वे जोर लगा कर इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि ये सेफ्रोनाइजेशन का आग्रह है... दरअसल आरएसएस की नजर उस ऐतिहासिक बहाव को रास्ता देना लगता है जिसके कारण विदेश से आने वाले हर आक्रांता इस देश की संस्कृति में रच-बस जाया करते थे... मुसलमान का एसिमिलेशन अधूरा और छिटपुट ही रह गया...आरएसएस इसी अधूरेपन को पूर्णता देना चाहता है... वो भी महज एक शब्द- हिन्दू-  के जरिए... वो मुसलमानों की धार्मिक पहचान को नहीं छेड़ने की बात भी करता है ...

ये विकलता है... कि मुसलमान बस हिन्दू शब्द से विशेषित हो जाएं ...यानि कि जो हिन्दू शब्द जीवन शैली है ... उसे अपना कह दें... अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान बनाए रखते हुए... आरएसएस वाले कह सकते हैं कि ये आसान.. पर व्यापक रास्ता है इस देश को आगे ले जाने का .. वो मानता रहा है कि मुगलों और राजपूतों के बीच शादी-ब्याह के रिश्ते एकांगी रहे जिस कारण एसिमिलेशन का काम पूरा नहीं हो पाया...

राजपूत की बेटी और मुगल के बेटे का रिश्ता होता रहा... मुगल की बेटी और राजपूतों के बेटे के बीच रिश्ते नहीं हुए... ये टू-वे ट्रैफिक की तरह होते तो दारा शिकोह वाले दूसरे मौके की जरूरत नहीं पड़ती... दारा शिकोह सत्ता संघर्ष में खुद कमजोर पड़ गए लिहाजा एसिमिलेशन का दूसरा मौका भी हाथ से निकल गया ... कई मुसलमान समय समय पर इस बात को स्वीकार करते रहे हैं कि जब इस देश की हवा, मिट्टी, जंगल और पानी पर उनका हक है तो फिर ताज के साथ वेद, पुराण, खजुराहो भी उनकी विरासत क्यों नहीं हो सकती है?...

एसिमिलेशन का अनजाने में एक रास्ता कांग्रेस का भी है... आरक्षण के जरिए मुसलमान आखिरकार समय के साथ जाति के खांचे में फिट हो जाएंगे... इसका असर गहरा होगा...पर कांग्रेस इसे सचेत कदम के रूप में नहीं ले पाएगी... इसके लिए उसे अपने नजरिए में व्यापक बदलाव जो करना पड़ेगा... फिलहाल मुसलमानों के आरक्षण के सहारे कांग्रेस की रूचि सत्ता पाने की आकुलता तक सिमटी हुई है...
     

पिछड़ों के हाथ में रहेगी कुंजी..

पिछड़ों के हाथ में रहेगी कुंजी...
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संजय मिश्र
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खबर ये नहीं है कि नीतीश की पुकार को सुनकर लालू प्रसाद गले मिल गए... खबर ये है कि ११ अगस्त को जहां वे मिले वहां लोगों का जुटान नहीं हुआ... खबरनवीसों के लिए हाजीपुर उपचुनाव के सभामंच की वो तस्वीरें भले ऐतिहासिक फोटो की तरह सहेज कर रखने वाली चीज बन गई हों... पर बिहार की राजनीति में इस गठबंधन की राह उस सभामंच के नीचे की तस्वीरें तय करेंगी... ये तस्वीरें आने वाली अड़चनों के संकेत कर रही थीं... लालू की अभी भी इतनी हैसियत है कि वो बिहार के किसी कोने में सभा करने जाएं तो बीस-पच्चीस हजार लोग पहुंच ही जाते... नीतीश भी दस-पंद्रह हजार लोग कहीं भी जुटा लेते हैं... कायदे से हाजीपुर के उस भरत-मिलान की सभा में चालीस से पचास हजार लोग होने चाहिए थे... पर महज तीन-चार हजार की मौजूदगी चीख-चीख कर कह रही कि नेताओं के गले तो मिल गए पर उनके समर्थकों के दिल नहीं... मान लें कि लालू प्रसाद के समर्थक यहां से जेडीयू के कोटे के उम्मीदवार राजेन्द्र राय के कारण रणनीति के तौर पर कन्नी काट गए हों... तो भी मौजूद लोगों की तादाद पन्द्रह हजार होनी चाहिए थी... मतलब ये कि जेडीयू समर्थकों में इस महागठबंधन के लिए प्यार नहीं उमड़ा है... नीतीश की इस दयनीय शो का तेज दिमाग वाले लालू बेजा इस्तेमाल भी कर सकते... खबर ये भी है कि गठबंधन की राह आगे ठीक-ठाक चल पड़ी तो दो वोटर तबकों का धर्मसंकट समाप्त हुो जाएगा... जो मुसलमान २०१४ लोकसभा चुनाव के समय व्याकुल थे और अर्धचेतन मन से किसनगंज और कोसी इलाके में पोलराइज हो गए ... अब उन्हें विकल्पों के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ेगा और वे थोक भाव से इस गठबंधन को राहत दे देंगे... इसी तरह उन सवर्णों वोटरों का धर्मसंकट भी दूर हो गया जो नीतीश की छवि के कारण लोकसभा चुनाव में तो नही पर २०१५ के विधानसभा चुनाव में नीतीश के लिए दिल में जगह रखे रहना चाहते थे... असल चुनावी जंग अब पिछड़ों के बीच छिड़ेगी... जो इनका ज्यादा हिस्सा अपने साथ ले जाएगा वो निर्णायक स्थिति में होगा...

30.7.14

नीतीश के ब्रांड बिहार का आलाप- चिंता या चाल

नोट—ये पोस्ट जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के बिहार में बने गठबंधन की ३० जुलाई को हुई घोषणा से कुछ घंटे पहले लिखी गई ... गौर करने वाली बात है कि इस प्रेस कंफरेंस में लालू और नीतीश नहीं आए...
नीतीश के ब्रांड बिहार का आलाप- चिंता या चाल
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संजय मिश्र
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अभी मिलन की कामना हिलोरें ले रही....साथ में उलझन है....  और आगे के संबंध की दुश्चिंता.... जिसकी अतरी में ७२ दांत है और जो कि बबूल का पेड़ है, वो अब सुहाना है... संबंधों के इस उठान के बीच २५ जुलाई को लालू ने आत्मीयता से सराबोर हो कहा कि – नीतीश अच्छे आदमी हैं। उधर लालू के राजनीतिक मन की हलचल से बेफिक्र नीतीश कुमार को ब्रांड बिहार की चिंता सताए जा रही है।
उलझन उधर भी है... वोटरों के बीच... इस बात की नहीं कि जिस नीतीश को लालू दग्ध कहते नहीं अघाते थे उस बात को आरजेडी सुप्रीमो की समझ का फेर बताया गया ... बल्कि उधेरबुन इस बात की है कि नीतीश सीएम नहीं हैं फिर भी ब्रांड बिहार का राग अलापे जा रहे। नीतीश कहते हैं कि बिहार बीजेपी के लोग ब्रांड बिहार की इमेज को बरबाद कर रहे हैं।
यही कोई ११ दिन पहले कहा उन्होंने। आपने, हमने... हम सबने कहां ध्यान दिया नीतीश की इस गोल्डन पीड़ा पर? अभी तक पहले वाले गोल्डेन वर्ड्स ( दिल्ली में दिए उद्गार) पर ही चिपके रहते हम सब... याद है न वो बयान कि.... टोपी भी पहननी पड़ती है... और.... टीका भी लगाना पड़ता है। क्या नीतीश की यूएसपी में बदलाव आ रहा है? क्या ब्रांड बिहार उनके लिए आने वाले विधानसभा आम चुनाव का मुद्दा रहेगा जैसे कि २०१४ तक गोल्डेन वर्ड्स के साथ विशेष दर्जा का मुद्दा रहा।

ये ब्रांड बिहार है क्या जो कि भहरा रहा है? जिस छवि की अकुलाहट में नीतीश बिहार के एडिटर इन चीफ कहलाए... उसे इस दफा...यानि १९ जुलाई को यहां के उनके अखबारी एडिटर समझने में नाकाम क्यों रहे? न कोई सरगर्मी... न ही कोई अभियान... बुझा-बुझा सा प्रेजेंटेशन... जैसे-तैसे पहले पन्ने पर जगह बनाई। क्या अखबारों की रूचि कम हुई या इसे राजनीतिक चाल ही समझी गई?

नीतीश के ब्रांड बिहार का सफर कथित जंगल राज के अवसान के बाद शुरू हुआ। अराजक शैली के माहौल से आजिज बिहार के निवासियों में तब अपराधियों को चौक-चौराहों पर टांग देने की विशफुल थिंकिंग परबान पर थीं। पर नीतीश ने अपराध नियंत्रण के संस्थागत उपाय की तरफ रूख किया। स्पीडी ट्रायल को अहमियत मिली। इसका असर हुआ और डर का अहसास धीरे-धीरे कम होने लगा। न्याय के साथ विकास को बढ़ावा दिया गया... कृषि केबिनेट का शानदार कंसेप्ट आया... पूंजी निवेश की सूरत बनने लगी। ग्रोथ रेट में इजाफा हुआ।
ये सब ब्रांड बिहार के तत्व रहे। लेकिन नीतीश के राज-काज के दिनों में ही कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति मुंह चिढ़ाने लगी... उनकी नजर छवि चमकाने पर जमी रही उधर फारबिसगंज की घटना, खगड़िया में नीतीश पर जानलेवा हमले की कोशिश, मिड डे मील खाने से बच्चों की मौत सुर्खियां बनती रही ... और ऐसी घटनाओं पर नीतीश के घमंड से भरे बयान आते रहे। विधायक फंड चलता कर दिया गया...अफसर की मनमानी चरम पर पहुंच गई...जनप्रतिनिधि तिलमिला गए। न पलायन रूका और न ही पूंजी निवेश में आस जगी।
दलित-महादलित विभाजन ने राजनीतिक निराशा को बढ़ा दिया। ब्राड बिहार तो उस समय ही छिजने लगा था... पर नीतीश के अखबारनवीस चीन से आगे बढ़ने की दास्तान गढ़ते रहे। फिर आया २०१४ के चुनाव अभियान का वक्त... मेनिफेस्टो जारी हुई जेडीयू की... उसकी सबसे अहम बात थी मंडलवाद की ओर वापसी का संदेश...... वायदा किया गया कि आरक्षण का दायरा निजी क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा। ये तो ब्रांड बिहार का तत्व नहीं था ... ? ... और अब तो मंडलवादी लालू से भरत-मिलाप के क्षण करीब आ गए हैं।
बिहार में जीतन राम मांझी की सरकार है। राज्य की कमान जैसे-तैसे संभाला जा रहा उनसे। तिस पर मांझी कह रहे कि २०१५ के विधानसभा चुनावों के समय दलितों के हितों को कोई दबा नहीं पाएगा। तो क्या नीतीश कुमार ब्रांड बिहार के दरकते आलाप के जरिए महत्वाकाक्षी मांझी को आगाह कर रहे? क्या लालू को भी संदेश दिया जा रहा है?
लालू से बन रहे रिश्तों की फुटेज में चेहरों पर भीनी मुस्कान दिखेगी... लेकिन उस खनक से अलग परदे के पीछे गठबंधन का हिसाब-किताब लगाया जा रहा है। नेता कौन बनेगा इस पर चुप्पी है? क्या नीतीश कुमार ब्रांड बिहार के अपने पेटेंट के मार्फत जता रहे कि नेता तो छवि वाला ही चलेगा? मजबूरी की कोख से निकले इस अवसर में नीतीश को अहसास है कि बिहार के विशेष दर्जे के अभियान के बावजूद जेडीयू का मजबूत संगठन खड़ा करने में वो नाकाम रहे.... लिहाजा उनकी चाहत है कि नेता उन्हें माना जाए और आरजेडी का संगठन गठबंधन का अबलंब बने... ये आजमाया फार्मूला है नीतीश के लिए... पहले भी संगठन का आसरा बीजेपी का था और कमान नीतीश की। ये फार्मूला हिट रहा था बिहार में।


23.5.14

बिहार के बहादुरशाह जफर बन गए नीतीश कुमार!

बिहार के बहादुरशाह जफर बन गए नीतीश कुमार!
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संजय मिश्र
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लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद नीतीश ने जब सीएम पद छोड़ने की घोषणा की तो एकबारगी लोग चौंक गए... नौटंकी है... हार पर मंथन नहीं करना चाहते... वगैरह, वगैरह... उस वक्त धूंध घनी थी... कहीं से मास्टर स्ट्रोक की अनुगूंज तो किसी तरफ से रमई राम की पिटाई पर शोक के स्वर ... तिसपर शरद यादव की बेईज्जती की कराह ...बावजूद इसके शरद ठसक से बयान देते रहे... अचरज के बीच खबर ये है कि जेंटलमैन का तगमा पहनने वाले नीतीश कुमार ने जंगल राज वाले लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया है........आरजेडी ने जीतन राम मांझी की सरकार को समर्थन दे दिया है।

बुद्ध मुस्करा रहे होंगे... शरद यादव यही कहेंगे.... वे इस बात के आग्रही रहे हैं कि जनता नामधारी पार्टियों को एक हो जाना चाहिए... शरद इसलिए भी मुस्करा रहे होंगे कि नीतीश से उनके रिश्ते की खटास के बीच उन्होंने वो कर दिखाया जो बिहारवासियों के लिए दो ध्रुव के मिलने के समान है... राजनीतिक नजरिए से देखें तो ये नीतीश की घर वापसी मतलब मंडल राजनीति की तरफ वापसी है... लेकिन बिहार की मांझी सरकार को मिला कांग्रेसी समर्थन इसे खिचड़ी बनाती है... तो क्या नीतीश राजनीतिक रूप से इतने कमजोर हुए कि राह बदल ली?

इतिहास में झांकें तो दिल्ली की तख्त पर बैठे आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर एक समय इतने कमजोर हुए कि उनके राज की सीमा दिल्ली से महरौली तक सिमटने की बात कही गई... सिद्धांत की लड़ाई उन्होंने भी लड़ी थी ...१८५७ में... तब क्या हिन्दू...क्या मुसलमां... सब एक वेवलेंथ पर आ गए थे... लेकिन क्या नीतीश उस तरह की गौरव गाथा के हकदार हैं... उनके साथ जुड़े परसेप्सन और उनकी कार्यशैली की हकीकत की पड़ताल करेंगे तो जानेंगे कि वे उस तरह की फसल काटने के हकदार कभी नहीं रहे।

हर समाजवादी की तरह नीतीश भी लोकतंत्र में विश्वास की बात करते... लोहिया का नाम लेते... लेकिन नीतीश के आदर्श साम्राज्यवादी मौर्य शासक रहे... चंद्रगुप्त का नाम लेना उनका शगल रहा... बड़ी ही चतुराई से वे चाणक्य भी बनते रहे...खासकर तब जब गठबंधन के खेबनहार होने की बात पर जोर देने की बारी आती थी... अहंकारी पर डेमोक्रैटिक होने की छवि...बिहार के एडिटर इन चीफ भी कहलाए...  परसेप्सन का कमाल देखिए... जंगल राज के बरक्स महज पटरी पर बिहार को लाने के कौशल के बूते चीन से अधिक विकास करने की छवि पसारने में कामयाब हुए।    

वोटरों से रूठ तो ऐसे रहे हैं कि मानो लोगों ने अपने दुलारे नेता के साथ अन्याय किया हो... रूठ कर बदला लेने से मन नहीं भरा तो लालू से हाथ मिला कर जंगल राज की याद दिला-दिलाकर मानसिक यातना देने की कोशिश कर रहे... जनादेश को कबूल करने में इतना कष्ट?...  ... बावजूद इस बेरूखे हठ के चाहत यही कि दुनिया डेमोक्रैटिक कहती फिरे ...दिल में झांक कर देखें कि बिहार के वोटरों ने किस बुनियाद पर उन्हें सर पर चढ़ाया था... नीतीश ने उसे भुलाकर दिल्ली की आबोहवा के मुताबिक चुनावी एजेंडा नहीं बदला था क्या?

नीतीश गमजदा हैं ...ब्लोअर की हवा में उड़ जाने के अहसास से भींगे हुए और मर्सिया गाने को मजबूर... भले वो कुछ भी कहें गठबंधन तोड़ने की गलती का अहसास उन्हें चुनाव से पहले ही हो गया था... लिहाजा नतीजा उन्हें मालूम था... जिस आस में मंसूबे बांध रखे थे नीतीश ने...वो पूरे नहीं हुए... मजे खिलाड़ी की तरह बाल नोच नहीं सकते... पर मजे खिलाड़ी की तरह नैतिकता के नाम पर अपनी कमी को शक्ति के रूप में दिखाने की कवायद तो कर ही सकते। और वो वही कर भी रहे। उन्हें मान लेना चाहिए कि वो उतने महान नहीं जितना वो लोगों से मनवाना चाहते।

वो चंद्रगुप्त जितना महान होते तो अपना राज पटना से राजगीर तक सिमटा कर नहीं रख देते... बहुत खुश हुए तो मगध की सीमा तक पहुंच जाते... आप सोच रहे होंगे कि ये कैसी पहेली है? ...दिल्ली से महरौली और फिर ये पटना से राजगीर... पर ये सच है... यकीन न हो तो कुछ आंकड़े देख लें... साल २०१२ की ही बात है... १९ जनवरी को मधुबनी के लिए करीब ४.३ अरब की योजनाओं के शिलान्यास किए गए... नीतीश के चारण पत्रकारों ने हेडलाइन दी—मधुबनी की भर गई झोली--- वहीं नालंदा जिले के लिए इससे भी अधिक खर्च की राज्य सरकार की योजनाओं के अलावा इसी जिले में स्थाई महत्व की करीब ७५० अरब की योजनाओं पर काम चल रहा है...दिल पर हाथ थाम कर नीतीश और उनके लगुए पत्रकार कहें कि नालंदा के लिए उन्होंने कभी मधुबनी जैसी हेडलाइन दी है?

चलिए आंकड़ों को समझने में दिक्कत आ रही हो तो कुछ देश स्तरीय संस्थानों के नाम ही सुन लें.......आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, आईआईटी, एम्स, महिला विश्वविद्यालय(वीमेंस कॉलेज परिसर), आईटी सिटी, नालंदा विश्वविद्यालय, परमाणु परियोजना, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का शूटिंग रेंज.... आप नाम लेते चले जाएं और पता चलेगा कि ये सारे नाम पटना से लेकर राजगीर के बीच पसरे हैं या पसरने वाले हैं... इतना ही नहीं पटना एयरपोर्ट भी नालंदा ही शिफ्ट होगा... चंपारण में बनने वाले सेंट्रल यूनिवर्सिटी पर ऐसा पेंच फसाया कि कपिल सिब्बल गया में भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी का जुगाड़ कर गए। मधुबनी में मिथिला पेंटिंग संस्थान की स्थापना की बात जरूर कही पर वो अधर में ही लटका हुआ है। चुनाव से ऐन पहले किराए के मकान में संस्थान का ऑफिस खोलने की घोषणा की गई।  

ये वही नीतीश हैं जो कहते कि देश में क्षेत्रीय असमानता न हो। थिंक इंडिया डायलॉग में उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय असंतुलन से देश में रोष है। बिहार के अंदर फैले क्षेत्रीय असंतुलन पर उन्हें कोई रोष है? जिस आरजेडी से उन्होंने समर्थन का जुगाड़ किया है उसके वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने नीतीश के नालंदा प्रेम पर झल्लाते हुए कह दिया था कि--- बिहार की राजधानी फिर से राजगीर में स्थापित कर दी जाए तो उन्हें हैरानी नहीं होगी.....

बहुत कम लोगों को पता है कि नालंदा पहले से ही विकसित जिला रहा है... नीतीश के राजनीतिक पटल पर उभरने से पहले से... यानि विकसित को विकसित बनाने का स्वार्थ... याद होगा आपको कि नीतीश कुमार जब-तब विकसित गुजरात के विकास की गाथा को नकारने की कोशिश में बयान देते रहते हैं... पर यही काम वो बिहार में करते हैं... लोकसभा चुनाव में मिली पराजय से खार खाए नीतीश ने अपना जो उत्तराधिकारी चुना है वो भी मगध से ही हैं... जी हैं गया जिले के जीतन राम मांझी उनकी पसंद बने हैं।

चाणक्य के प्रेमी नीतीश गंगा के उस तट पर कुछ समय बैठें जिसे वो मरीन ड्राइव की शक्ल देने की चाहत रखते... गंगा नदी के थपेरों की कौंध के बीच मंथन करें कि वोटरों ने उन्हें सचेत ही किया है...राह दिखाई है... वो खूब आत्मालाप करें... गंगा की लहरों के संगीत उनसे यही कहेंगे कि पूरे बिहार का होकर जीने की ख्वाहिश पालें... सही अर्थ वाले समावेशी चिंतन की ओर मुड़ें...।
 


17.5.14

ये इंडिया का भारत से कनेक्ट है...

ये इंडिया का भारत से कनेक्ट है...
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संजय मिश्र
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मोदी, मोदी.... मोदी, मोदी.... की चांटिंग..... जी हां, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम... हर तरफ यही गूंज... गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद नरेन्द्र मोदी की धन्यवाद सभा से जो ये ध्वनि इंडिया के लोगों तक पहुंची तो ...फिर इसे देश के लोगों के मानस के साथ शिंक ( sync… ) होने में देर नहीं लगा... मोदी के पीएम उम्मीदवार बनने के बाद ये कदमताल आकार लेता गया... लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाली राजनीतिक जमात इसे पढ़ने और कबूल करने को तैयार न हुई... लिहाजा ... १६ मई २०१४ को जब नतीजे आए तो इस देश की सबसे बूढ़ी राजनीतिक पार्टी यानि कांग्रेस लीडर आफ अपोजिशन के लायक भी न बची... नरेन्द्र मोदी के नायकत्व में बीजेपी ने अपने बूते मेजोरिटी हासिल कर इतिहास रच दिया है...
देश चलाने की खातिर एनडीए की ही सरकार बनेगी.. सत्ता में आने वालों के इस संदेश पर समर्थक विहुंसि रहे हैं और वो भी संतोष कर रहे होंगे जो मोदी को रोकने के लिए हर जायज और निर्लज्ज कदम उठाते रहे... जनता के इस फैसले के संकेत स्पष्ट हैं... क्षत्रपों खासकर हिन्दी क्षेत्रों के जातीए नेताओं की ब्लैकमेल की राजनीति के दिन अब लदने वाले हैं... उन लोगों को भी झटका लगा है जो विशफुल थिंकिंग के आसरे पारंपरिक राजनीति को बनाए रखना चाहते थे... मुसलमानपरस्ती के जवाब में धर्म से भींगी राजनीति ( यहां बीजेपी पढ़ें) और इसे कम्यूनल बताकर और उसे चेक करने के चलते जातीए राजनीति को बढ़ावा देने की हरसंभव कोशिश... हिन्दू धर्म में यकीन रखने वालों को बांटने की इस मंशा पर वोटरों ने खींज उतारा है..
ये नतीजे कांग्रेस की उस कोशिश को करारा जवाब है जिसके तहत सेक्यूलरिज्म को चुनावी मुद्दा बनाने का दांव खेला गया। देश दुखी होता रहा कि वोट पाने की खातिर शासन चलाने के मिजाज(यानि सेक्यूलरिज्म ) को ही बलि क्यों बनाया जा रहा... लेकिन सत्ता पाने के स्वार्थ में अंधी हो चली कांग्रेस और उनके वामपंथी, प्रगतिवादी और समाजवादी समर्थकों को ये चिंता नजर न आई.. सोनिया ने जब शाही इमाम से अपील कर सेक्यूलर वोट बिखड़ने से रोकने की गुहार लगाई तो संजीदा लोगों को सर पीटने के अलावा कोई चारा न बचा। संदेश ये गया कि मुसलमान सेक्यूलर हुए और बाकि आबादी पर चुप्पी... इस बची आबादी को लगा उसे कम्यूनल ही माना गया।
शाजिया इल्मी जी हां आम आदमी पार्टी की नेता ने फरमाया कि मुसलमान बहुत सेक्यूलर हुए और उसके सांसारिक हितों की रक्षा के लिए उसे कम्यूनल होना होगा... मतलब ये कि उसे मुसलमान होकर वोट करना होगा... बेशक जीवन की जद्दोजहद से परेशान लोग बुनियादी सुविधाए चाहें तो इसमें हर्ज नहीं... बतौर शाजिया इन बुनियादी हकों के चलते वो धार्मिक ब्लॉक की तरह व्यवहार करे ... इस चाहत में न तो नफरत की जगह है और न ही हिंसा... जब इस मासूम सी अभिलाषा को शाजिया कम्यूनल कह सकती हैं तो फिर इस महीन परिभाषा से इतर पीएम मनमोहन सिंह के पाकिस्तान की शह पर काम करने वाले एक आतंकवादी के लिए रात भर सो नहीं सकने की वेदना को किस श्रेणी के कम्यूनलिज्म का दर्जा देती इस देश की जनता...
एक अल्पसंख्यक की पीड़ा मीडिया के लिए न्यूज सेंस के हिसाब से बड़ी खबर हो सकती है... पर शासन चलाने वाले के लिए देश के हर व्यक्ति का दुख चिंता का कारण होता है... उसे नफरत फैला कर या डराकर न्याय नहीं करना चाहिए...मनमोहन और दिग्विजय सिंह के कई बयान बहुसंख्यकों को उद्वेलित और अपमानित करने वाले रहे... आरएसएस के विरोध की अंधी दौर में ये होश न रहा कि बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने की चूक हो रही। सैफ्रोन टेररिज्म यानि केसरिया आतंकवाद यानि इंडिया के झंडे में उपयोग किए जाने वाले केसरिया रंग का अपमान कर बैठे।
बीजेपी के लिए खुश होने का समय रहा जब ये शाब्दिक हमले होते रहे...चुनाव प्रचार के दौरान इस पार्टी के नेता को पाशविक साबित करने की होड़ मची रही... बीजेपी के लिए वोट में इजाफा होने की सूरत बन रही थी... उसे ये भी अहसास रहा कि बीजेपी के हिन्दुत्व को निशाना बनाने के चक्कर में हिन्दू हित और हिन्दू चेतना पर भी कांग्रेसी निशाना साध रहे ... फायदा बीजेपी को ही मिलना था... कांग्रेस भूलती रही कि आजादी के आंदोलन के दिनों में उसकी कोख में ये हिन्दू चेतना भी समाहित रही... विभाजन के बाद वो इसे धीरे-धारे अच्छी तरह भूल बैठी... इंदिरा के समय वाम सोच के साथ मिल कर ऐसे इंडिया के कंसेप्ट को पल्लवित करने में सफल हुई जिसमें भारत के साथ कंटिनुइटी नहीं रहे... उसी इरादे का इजहार कांग्रेसी करते रहते जब वे कहते हैं कि इंडिया महज ६५ साल का नौजवान देश है... नरेन्द्र मोदी का उभार उसी भारत और इंडिया के बीच पुल बनाने की दस्तक है।
मोदी विरोधी नादान नहीं है ... वे इस मर्म को समझ रहे। यही कारण है कि कांग्रेस का बौद्धिक समर्थक वर्ग बहुसंख्यक उभार के खतरे की तरफ ध्यान खींचने लगा है... उसे अहसास है कि ६५ साला देश की विशफुल थिंकिंग दरकने वाली है... कांग्रेस के कई नेता चुनाव अभियान के दौर में बहुसंख्यक कम्यूनलिज्म के खतरे से यूं ही आगाह नहीं कर रहे थे... ये आत्ममंथन का भाव नहीं था बल्कि इस नाम पर अपने वैचारिक पाप को ढकने की कोशिश ज्यादा प्रबल थी... हां कांग्रेस इस बात से खुश हो सकती है कि मेनस्ट्रीम पार्टी के शासन के चलते रहने की जो आकांक्षा उसने भी पाली थी उसे बीजेपी ने साकार कर दिखाया...क्षत्रपों के कमजोर होने से कांग्रेस अपने पारंपरिक जनाधार फिर से हासिल करने की हसरत पाल सकती है।

मुसलमानों के वोट कमोबेश कांग्रेस के पाले में आ गए हैं... आम जनता बने रहने की मानसिकता विकसित करने के लिए कांग्रेस मुसलमानों को समय दे दे यही वक्त की मांग है...मुसलमानपरस्ती से तौबा करने से रूटलेस इंडिया की जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी... कुछ सालों तक शानदार विपक्ष की भूमिका निभाए कांग्रेस ताकि लोकतांत्रिक फिजा में योगदान हो। इससे उसके उस अहंकार का भी नाश होगा कि इंडिया को सिर्फ वही चला सकती है। नरेन्द्र मोदी कुछ सालों तक देश को ढंग से चला गए तो इस देश को पुनर्जीवित कांग्रेस भी मिल सकता है।          

21.4.14

मराठियों को भी समझने की जरूरत है

मराठियों को भी समझने की जरूरत है
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संजय मिश्र
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कई टीवी चैनलों में एक के बाद एक राज ठाकरे के साक्षात्कार विस्मयकारी थे ... इसके पीछे की राजनीति और मंसूबों पर किसी तरह की टिप्पणी इस पोस्ट का लक्ष्य नहीं... इससे पहले तक मीडिया में राज की एकरंग छवि छाई रही है... उम्मीद है राज के जो विचार सामने आए उससे एकरंग छवि बदले... 
क्या ये सच नहीं है कि अन्य राज्यों में बिहार से पलायन कर जाने वाले लोगों के साथ हुई नाइंसाफी पर मीडिया और बिहार के राजनेता कमोवेश चुप्पी साध लेते... महाराष्ट्र या बम्बई का नाम आते ही बिहार-यूपी के तमाम नेता और दिल्ली के हिन्दी पत्रकार मोर्चा संभाल लेते?
क्या ये सच नहीं है कि बिहार या यूपी के हुक्मरानों की नाकामी के कारण पलायन की भीषण रफ्तार बनी हुई है?
क्या ये सच नहीं है कि पलायनकर्ता इंडिया के संविधान की रक्षा करने महाराष्ट्र नहीं जाते बल्कि मजबूर होकर रोजी-रोटी की तलाश में वहां या कहीं पर भी जाते? 
इंडिया के लोग बिहार की भावनाओं को जितना समझें उतना ही महाराष्ट्र को जानना भी उनका फर्ज है... मराठियों को राज के बगैर भी समझा जा सकता....
आपने गौर किया होगा कि बिहार सहित देश के तमाम राज्यों के लोग दूसरे राज्यों में काम की तलाश कर पेट की आग बुझा लेते.... लेकिन आपने ये भी गौर किया होगा कि महाराष्ट्र और मराठी संस्कृति के असर वाले सीमावर्ती राज्यों जैसे एमपी आदि के किसान विपत्ति आते ही आत्महत्या कर लेते... विदर्भ(महाराष्ट्र) में तो लाखो किसानों ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली है.... वे दूसरे राज्यों में जाकर अपना पेट पाल सकते थे.. पर मराठियों की मानसिकता थोड़ी अलग है... बड़ी नौकरियों में मराठी आपको देश के किसी कोने में मिल जाएं लेकिन आम तौर पर वहां के लोग कष्ट काटकर भी अपने सांस्कृतिक क्षेत्र में ही जीवन जीना पसंद करते... यही कारण है कि उनके लिए अपने ही राज्य में रोजगार मिलने की आकांक्षा पालना बड़ा मुद्दा है..... इस सोच को ही राज ठाकरे जैसे लोग आवाज देते हैं ... बिहार जैसे राज्य के लोग कह सकते कि हे मराठी लोगों जान गंवाने से अच्छा है अपने ही देश के अन्य हिस्सों में रोजगार खोजने में संकोच न करें... पर क्या आपने कभी प्रभावकारी राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने ही देश के मराठियों को महाराष्ट्र में ही रहने के मोह को विशेष परिस्थिति में त्यागने के लिए मलहम लगाते सुना है? लालू, नीतीश, मुलायम, शरद .. या फिर कांग्रेस, बीजेपी के लाट साहबों के मुंह से?..

19.4.14

मीडिया पर हो रहे चौतरफा हमले

मीडिया पर हो रहे चौतरफा हमले
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संजय मिश्र
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मीडिया में साख की कमी है ये तो जानी हुई बात है.. लेकिन पिछले कई दिनों से मीडिया(खासकर टीवी चैनल्स) पर जिस तरह आरोपों के हमले हो रहे हैं वो असहजता पैदा करने वाले हैं... ... शनिवार को भी राज ठाकरे और उसके बाद आजम खान ने जिस अंदाज में भड़ास निकाले वो ध्यान खींचने के लिए काफी है..... राज के बयान में उदंडता का भाव है वहीं आजम ने लगातार नरेन्द्र मोदी से पैसे खाने का आरोप मीडिया पर लगाया है... एबीपी न्यूज के एक कार्यक्रम में आजम ने बदमिजाज लहजे में एंकर अभिसार को मोदी से पैसे मिलने का जिक्र किया... इस चैनल ने कोई प्रतिकार नहीं किया... बेशक पत्रकारिता की परिपाटी है कि सवाल पूछने के बाद पत्रकार को जवाब सुनना होता है चाहे जवाब कितना भी उत्तेजना पैदा करने वाला क्यों न हो... लेकिन केजरीवाल की तरफ से पत्रकारों को जेल भेजने वाली धमकी के बाद से ये सिलसिला सा बन गया है... ऐसा लगता है एक एजेंडे के तहत मीडिया पर मोदी से पैसे पाने के आरोप लगाए जा रहे हैं ... राजनीतिक मकसद ये कि पत्रकार सेक्यूलर-कम्यूनल चुनावी अभियान में सेक्यूलरिस्टों का गुलाम की तरह साथ दें... मकसद जो भी हो कई सवाल उभरते हैं...मीडिया आरोपों को नकारता क्यों नहीं है? मीडिया ये क्यों नहीं पूछता कि आरोप लगाने वाले पुष्ट तथ्य पेश करें ? मीडिया आरोप लगाने वालों को मानहानि के मुकदमें की चेतावनी क्यों नहीं देता? पीसीआई और एनबीए चुप क्यों है? मान लें कि सभी हिन्दी टीवी चैनल बिकाउ हैं तो सभी ने इकट्ठे मोदी से ही पैसे क्यों खाए? चैनलों ने कांग्रेस से पैसे क्यों नहीं लिए? बिन पैसे के तो समाजवादी पार्टी भी एक दिन नहीं चल सकती... तो आजम की पार्टी ने पत्रकारों को क्यों नहीं खरीद लिया? क्या पिछले ६५ सालों में राजनीतिक दलों ने पत्रकारों या चैनलों को कभी भी प्रभावित नहीं किया है... सत्ता या पैसों के जरिए? मान लें कि पैसों का खेल पहले भी हुआ तो उन चुनावों के समय मीडिया पर आरोप क्यों नहीं लगे? क्या बीजेपी को छोड़ बाकि सभी राजनीतिक दल राजा हरिश्चंद्र की तरह जीने का दावा कर सकने की हिम्मत रखते हैं? असल में साल २००९ से पत्रकारों ने जिस तरीके का व्यवहार किया है उसने कांग्रेस और अन्य कथित सेक्यूलर राजनीति वाले दलों को उन्हें गुलाम की तरह इस्तेमाल करने योग्य हथियार मानने के लिए लुभाया है। पहले भी इंडिया का मीडिया विचारधाराओं की प्रतिबद्धता में उलझने की भूल करता रहा है... और इस चक्कर में बेईमानी भी करता रहा है। आजादी के आंदोलन में लगे लोगों को मीडिया का सहयोग कुछ हद तक मिलता रहा। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए इसे जायज भी माना जा सकता था। लेकिन आजादी के बाद मीडिया को अपने रूख में जो तब्दीली करनी चाहिए थी वो चाहत नहीं दिखी। सुनियोजित तरीके से वाम कार्ड होल्डरों और लोहियावादियों का मीडिया में प्रवेश और इन विचारधाराओं के हिसाब से जनमत को प्रभावित करने का खेल चलता रहा। फिर भी कुछ मर्यादाएं रख छोड़ी गई... न्यूज सेंस से खिलवाड़ नहीं किया गया। लेकिन हाल के समय में न्यूज सेंस से भी छेड़छाड़ की गई है... ... एंटी इस्टैबलिस्मेंट मोड में होने की मनोवृति को भुलाकर सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष को लताड़ने की परिपाटी को पुष्ट किया गया.... मुजफ्फरनगर दंगों की रिपोर्टिंग दिलचस्प तथ्य पेश करने योग्य हैं..... भड़काउ भाषण देने वाले नेताओं की फेहरिस्त से कांग्रेसी नेता का नाम एबीपी न्यूज के पैकेज से गायब होना नतमस्तक होने की पराकाष्ठा थी... बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुए लाठीचार्ज के विजुअल केन्द्र की सत्ता की धमकी पर उपयोग नहीं करने जैसे पत्रकारिए अपराध किए गए... जाहिर है सत्ताधीशों का मन चढ़ेगा ही...  आरोपों की बौछार के बीच मीडिया को अपने अंदर झांकने का वक्त आ गया है... साख पर बट्टा न लगे इसके लिए वे फौरी तौर पर आरोप लगाने वालों को जवाब दें साथ ही पत्रकारों को पानी में डूब कर नहीं भींगने की कला की ओर रूख करने के बारे में सोचना चाहिए .. 

5.4.14

विकास पुरूष लौटे मंडल राजनीति की गोद में

विकास पुरूष लौटे मंडल राजनीति की गोद में 
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संजय मिश्र
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५ अप्रैल को नीतीश कुमार को सुनना उन लोगों के लिए कसैला स्वाद वाला मेनू साबित हुआ होगा जो उन्हें खांटी विकास पुरूष के रूप में देखना पसंद करते... मौका था जेडीयू घोषणा पत्र के जारी होने का... पार्टी सुप्रीमो नीतीश ने ठसक से ऐलान किया कि निजी क्षेत्र में देश भर में आरक्षण की व्यवस्था की वे पैरोकारी करेंगे... ये आफिसियल है...घोषणापत्र का वादा है... यानि ये नहीं कह सकते कि चुनावी फिजा के बीच कोई बात यूं ही कह दी गई... नीतीश अब अपने मूल राजनीतिक प्रस्थान बिंदू की तरफ लौट रहे हैं...यानि मंडल राजनीति की आगोश में फिर से समा जाना चाहते.. उनके विरोधी अरसे से कहते आ रहे हैं कि जेडीयू का आरजेडीकरण हो रहा है... लेकिन अब ये पक्की बात है... राजनीतिक परिदृष्य पर गौर करें... निजी क्षेत्र में आरक्षण के सबसे बड़े पैरोकार एलजेपी सुप्रीमो राम विलास पासवान एनडीए में जा चुके हैं और माना जा सकता कि इस स्पेस को नीतीश भरना चाहते... उधर नरेन्द्र मोदी लगातार कह रहे कि अगला दशक पिछड़ों और दलितों के उत्कर्ष का समय होगा... तो क्या इस राजनीतिक चुनौती को देख नीतीश सर्वाइवल के लिए मंडल राजनीति की ओर मुड़ने को बाध्य हुए हैं? ... राजनीतिक समीक्षक कह सकते कि हाल के चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों से नीतीश हिल चुके हैं लिहाजा ऐसे कदम उठाना हैरान नहीं करना चाहिए... पर याद करने की जरूरत है कि इन्हीं सर्वेक्षणों में नीतीश बिहार में सबसे पसंद किए जाने वाले व्यक्ति हैं... पसंद करने वालों की फेहरिस्त में बीजेपी समर्थक बड़ी तादाद में हैं... तो क्या ये माना जाए कि गठबंधन तोड़ने के निर्णय के समय पसंद करने वाले इस तबके की इच्छा की अनदेखी करनेवाले नीतीश अब फिर से इनकी अनदेखी कर रहे और लालू शैली की ओर मुड़ रहे? ...दरअसल नीतीश विरोधाभासी व्यक्तित्व के दर्शन करा रहे हैं जो कि राजनीति में अनयुजुवल नहीं है... ... एक तरफ वे कहते कि उन्होंने सिद्धांत की कीमत चुकाई है... दूसरी तरफ जनाधार खिसकने की आशंका की व्याकुलता भी दिखा रहे... सत्ता के खेल का चरित्र निर्मोही होता है... इसे समझने में बिहार के मौजूदा राजनीति के इस चाणक्य से भूल हुई होगी ...ऐसा बिहार के बाहर के राजनीतिक पंडित मान रहे होंगे... वे ये भी सोच रहे होंगे कि नीतीश के लिए रास्ता बदलना आसान नहीं होगा... पर नीतीश ने पहले से ही गुंजाइश रख छोड़ी है... उनके कई पसंदीदा शब्द हैं जिनमें - इनक्लूसिव ग्रोथ- सबसे अहम है... नीतीश के इंक्लूसिव ग्रोथ में आरक्षण का तड़का ज्यादा घनीभूत है जो कि कांग्रेस के इंक्लूसिव ग्रोथ से अलग है .... नीतीश ने महादलित कार्ड को अपने इनक्लूसिव ग्रोथ के दायरे में अक्सर भुनाया है... लिहाजा जातीए राजनीति की ओर सरकना उनके लिए उतना भी मुश्किल नहीं होगा...

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