life is celebration

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17.4.13


राजनीतिक दलों के लिए बोझ बनती जा रही है सेक्यूलरिज्म
संजय मिश्र
अनजाने ही नीतीश ने वो तान छेड़ दिया जिसके लिए बीजेपी अरसे से लालायित रही...और कांग्रेस जिसके लिए कतई तैयार न थी ... यानि सेक्यूलरिज्म पर बहस। बीजेपी की आस तब अधूरी रह गई थी जब मोदी ने सेक्यूलरिज्म माने इंडिया फर्स्ट का राग अलापा था। इस स्लोगन पर थोड़ी हलचल हुई पर मेनस्ट्रीम मीडिया ने बड़ी चालाकी से उस विमर्श से अपने को अलग कर लिया। लेकिन जैसे ही नीतीश ने टोपी और तिलक वाले राजनीतिक बिम्ब को आगे बढ़ाया, व्याकुलता बढ़ गई।
मोदी पर अप्रत्याशित हमले के कारण देश की नजर टिकी सो मीडिया ने नीतीश के अलाप को हाथो-हाथ लिया। पहली बार ऐसा लगा कि इंडिया के सफर में सेक्यूलरिज्म पर थोड़ी-बहुत चर्चा हुई। तरह तरह के विचार सामने आने लगे और अब भी गाहे-बगाहे आ ही रहे हैं। खास बात ये है कि उन तबकों से भी विचार आ रहे हैं जो दक्षिणपंथ के आग्रही नहीं हैं। पानी में मारे गए ढेले से उठी तरंग के समान ये अकुलाहट सतह पर आई। लोग तज-बीज करने पर मजबूर हुए कि ये --- मेरा सेक्यूलरिज्म... तेरा सेक्यूलरिज्म का --- का कैसा खेल चल रहा है ? मीडिया चेतती तब तक देर हो चली थी। सोशल मीडिया में ये अब भी जगह बनाए हुए है।
कांग्रेस नीतीश की बातों के मायने भांप गई। लिहाजा पार्टी ने मोदी पर हमले के अंश पर चुटकी लेकर किनारा कर लिया। वो भूली नहीं है कमल हासन के उस उद्गार को जिसमें मुस्लिम कट्टरपंथियों से खार खाए फिल्मी सितारे ने किसी सेक्यूलर देश जाकर बसने की चेतावनी दे दी थी। यानि ये कहकर उसने इंडिया के सेक्यूलर होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। नीतीश भी मोदी को समझाना चाह रहे थे कि राजनीति के सामने टोपी और तिलक धारण करने जैसी मजबूरी का निरंतर निर्वाह करना होता है।
                                                                   
वोट की उम्मीद में ही नीतीश क्यों न कह रहे हों... ये सवाल तो उठता ही है कि क्या इंडिया में सेक्यूलर(शुद्ध आचरण वाला) नहीं रहा जा सकता है ? क्या इसी मजबूरी के तहत सरकारी योजनाओं के शिलान्यास के वक्त नारियल फोड़ी जाती ? क्या इसी खातिर इफ्तार पार्टियों में शरीक होकर मुस्लिम टोपी पहनकर फोटो सेशन करवाया जाता है ? क्या इंडो-पाक क्रिकेट मैच देखने के लिए नेताओं और पत्रकारों के बड़े वर्ग का ड्यूटी से समय निकालना और गौरवांन्वित होने की आतुरता का इजहार करना इसी श्रेणी में आता है ? पंजाब के एक सिख मुख्यमंत्री का गुरूद्वारे में जूते साफ करने पर मचे बवाल की याद है इन्हें ?
बीजेपी के लिए राहत की बात है कि टोपी और तिलक के जरिए नीतीश सर्व धर्म समभाव की वकालत भी कर बैठे। इरादा तो था मुसलमानों को खुश करना और मोदी के टोपी नहीं पहनने वाले प्रकरण की खबर लेना। पर ऐसा करते हुए वो संविधान की मूल भावना के विपरीत भी चले गए। संविधान का मर्म है कि राज सत्ता से जुड़े लोग निजी जिन्दगी में कुछ भी हों... लेकिन सार्वजनिक और सरकारी कामों के समय सेक्यूलर यानि गैर-धार्मिक आचरण का प्रदर्शन करेंगे। टोपी पहनने और तिलक लगाने जैसे धार्मिक व्यवहार से दूर रहेंगे।
असल में राजकाज के निर्वहन का स्वभाव ही सेक्यूलर होता है। मसलन सड़कें बनेंगी तो उस पर सब चलेंगे.... अस्पताल बनेगा तो सभी धर्मों के लोग वहां इलाज कराएंगे। इतना ही नहीं सड़क बननी है और सामने धार्मिक ढांचा है तो उसे व्यापक हित में हटा दिया जाता है। इसी तरह स्कूलों और अस्पतालों के पास लाउड-स्पीकर के इस्तेमाल की मनाही होती है भले ही वो मंदिर और मस्जिद की ही क्यों न हो ? गौर करने की बात है कि सेक्यूलरिज्म शब्द का जुड़ाव मौजूदा स्थिति से है... सांसारिकता से है, दुनियादारी से है। इसका आध्यात्मिकता से लेना-देना नहीं है। पिछला जन्म हुआ था या नहीं, अगला जन्म होगा या नहीं.... स्वर्ग है या नहीं... सेक्यूलरिज्म में इस तरह के विमर्श की गुंजाइश नहीं। यही कारण है कि इंडिया के संविधान के अनुसार जनता तो धार्मिक रहे पर शासन से जुड़े लोग सेक्यूलर आचरण वाले रहें।
पर इंडिया के राजनेता इस लाइन पर चलना नहीं चाहते। यही कारण है कि इस देश में सबसे अधिक दुष्कर्म सेक्यूलरिज्म शब्द के साथ हुआ है। मोदी के सेक्यूलरिज्म यानि इंडिया फर्स्ट में राष्ट्रवाद की धमक है। उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है कि इस राष्ट्रवाद(राष्ट्रहित) के लिए सेक्यूलर मिजाज ही रास्ता है। कांग्रेस समेत सभी गैर-बीजेपी दलों का दुराग्रह है कि जो दल मुसलमानपरस्त नहीं वो कम्यूनल( गैर-सेक्यूलर शब्द का इस्तेमाल नहीं करते वे) हैं। यानि जो सेक्यूलर नहीं वो कम्यूनल ही हो सकता है। यानि सेक्यूलर शब्द का एंटोनिम गैर सेक्यूलर न होकर कम्यूनल कर दिया इन्होंने। भाषाविद ध्यान दें इस पर। यदि सेक्यूलर माने गैर-धार्मिक तो फिर गैर-सेक्यूलर मतलब धार्मिक आचरण वाला हुआ। पर कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के अनुसार धार्मिक आचरण वाले कम्यूनल ही होंगे।
जरा दंगा वाली थ्योरी पर भी ध्यान दें। सेक्यूलर जमात कहता कि गुजरात में दंगे हुए तो वहां के सीएम मोदी कम्यूनल हुए। इस थ्योरी के नजरिए से देखें तो सिख दंगे के कारण पूर्व पीएम राजीव गांधी भी कम्यूनल हुए। देश का कौन सा राज्य ऐसा छूटा हो जहां दंगे न हुए हों ? यानि इन राज्यों की सरकारें कम्यूनल हुई। यहां आकर कांग्रेस और उनके चारण पत्रकार फस जाते हैं। नीतीश के प्रवचन ने सेक्युलरिज्म के मौजूदा स्वरूप की सीमाएं उघार दी हैं।  

13.4.13

मिथिला चित्रकला पार्ट- 6

मिथिला चित्रकला पार्ट- 6
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संजय मिश्र
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मोर माने प्रणयलीला, उर्वरता दिखाते बांस और कमल माने योनि... यानि सृजन के समवेत गान को आकार देने का अनुराग दर्शाते प्रतीक ... . मानो ईश्वर की उस अभिलाषा के निर्वाह का आभास कराते ...जो सृष्टि, पालन और संहार की लीला में निहित है ...ऐसा आस्थावान लोग कहेंगे। ब्रम्हयोनि से जुड़े प्रतीक पीपल के पत्ते पर सृजन का सोपान गढ़ने वाले गंगा झा भी कुछ ऐसा ही कह रहे होते हैं जब उनकी कूची जीवन के उहापोहों को मिथिला चित्र शैली में उकेरती रहती। मिथिला स्कूल ऑफ पेंटिंग के इस आयाम से अधिकांश लोग अनजान हैं।
दरभंगा के एक निजी स्कूल में शिक्षक गंगा झा के लिए ये महज संयोग हुआ कि वे पीपल के पत्ते पर पेंटिंग करने लगे। वे बताते हैं कि पीपल के पत्ते पर बनी पूर्व रूसी राष्ट्रपति गोर्वाचोव की पोर्ट्रेट किसी मैगजीन में देखने के बाद उन्हें ये खयाल आया। लेकिन मुश्किल सामने खड़ी थी। आखिर पत्ते को रेशे सहित कहां से लाया जाए। हरे पत्ते को पानी में कई दिनों तक रखने के बाद और फिर पानी में सोडा डाल कर उसमें भिगोए रखने के बाद उन्हें सफलता मिली।
साफ और रेशेदार पत्ते पर उन्होंने पेंटिंग की तो दूसरी समस्या आ गई। रेशों के बीच के छिद्र से रंग का दूसरी तरफ निकल जाना। गंगा झा का कहना है कि तीन तीन बार कलर करते रहने पर मनमाफिक नतीजा सामने आता है। लिहाजा करीब सौ घंटे एक चित्र बनाने में लग जाते हैं। अन्य कलाकारों की तरह वे भी बाजारू रंग का ही इस्तेमाल करते हैं। इस कलाकार ने शुरूआत नेताओं के चित्र बना कर की। बाद में इसका दायरा बढ़ाया। खजुराहो और एमएफ हुसैन के चित्र भी उन्होंने उकेरे।
मनोबल बढ़ा तो फिर मुड़ गए पत्ते पर मिथिला चित्रकला को नया आयाम देने की तरफ। काले कागज पर चिपकाए गए पीपल के पत्ते पर जब चित्र बन जाता तब करीने से उसे सफेद कागज पर माउंट करते हैं। पत्ते पर कचनी की गुजाईश नहीं रहती तो पत्ते के बाहर काले कागज पर ही उसे पेंट किया जाता है। इसके अलावा वे कागज पर भी मिथिला चित्र बनाते हैं।
दरभंगा जिले के पड़री गांव के रहने वाले गंगा प्रसाद झा ने कला की आरंभिक शिक्षा पटना आर्ट कॉलेज के पूर्व प्राचार्य राधा मोहन प्रसाद से ली। बाद में दरभंगा के ब्रम्हानंद कला महाविद्यालय और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय से कला की शिक्षा पाई। देश के विभिन्न शहरों में इनके सोलो एक्जीबीसन लग चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम इनकी पीपल कला के मुरीद हैं और इन्हें प्रशस्ति पत्र दे चुके हैं। वे उम्मीद जताते हैं कि पीपल कला प्रसार जरूर पाएगी।

गंगा प्रसाद झा – चित्रकार
पीपल के पत्ते पर बनाए चित्र से मुझे ख्याति मिली... लेकिन कागज पर बनी मेरी मिथिला पेंटिंग की खासियत है कि इनमें एनाटोमी का खयाल रखा गया है। यानि बैकग्राउंड को देखते हुए पात्र और प्रतीकों की लंबाई और चौड़ाई सही अनुपात में रखी गई हैं। दरअसल मिथिला चित्र शेली में एनाटॉमिक सेंस का अभाव रहा है।
 


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