life is celebration

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27.10.13

धमाकों के साए में हुंकार रैली

धमाकों के साए में हुंकार रैली .... 
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संजय मिश्र
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पटना का गांधी मैदान २७ अक्टूबर को राजनीति के एक और ऐतिहासिक पल का गवाह बना...नरेन्द्र मोदी की रैली में जुटे हुजूम के बीच एक के बाद एक बम धमाके होते रहे... ये पल इतिहास में इसलिए दर्ज होंगे कि बीजेपी समर्थकों ने धमाका स्थलों को छोड़ बाकि किसी जगह से हिलना गवारा नहीं समझा... मौत के साए में अपने प्रिय नेता का भाषण सुनने की ऐसी मिसाल शायद ही दिखे... और राज्य के आला अधिकारियों की ओर से रैली स्थल न जाने की सलाह के बावजूद नरेन्द्र मोदी का गांधी मैदान जाकर तकरीर करना...ये रैली इसलिए भी ऐतिहासिक कही जाएगी कि इसे रोकने की कोशिशों का सिलसिला देश में संभवतह इतना लंबा कभी नहीं खिंचा होगा....
संख्या के लिहाज से हुंकार रैली जेपी और लालू की रैली की श्रेणी में आती है... विषम माहौल में मोदी का भाषण कई कारणों से स्पष्टता लिए हुए था... ये तय हो गया कि बिहार और देश के लिए बीजेपी की सोशल इंजिनीयरिंग का कैसा रूप होगा... जहां बिहार और यूपी में मोदी की नजर पिछड़ों के वोट में सेंध लगाने पर है वहीं मुसलमानों के संबंध में बीजेपी के पीएम उम्मीदवार ने अपना नजरिया बेहतर तरीके से खोला... उन्होंने साफ कर दिया कि सबका साथ और सबका विकास की उनकी तमन्ना में हिन्दू-मुसलिम सहभागिता की गुंजाइश है... गरीबी के खिलाफ लड़ाई में इस एकता की वकालत... राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद से मोदी की तरफ से पांच मौकों पर गुजरात दंगों के लिए अफसोस जताने की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए..
दिलचस्प है कि बीजेपी नेता ने सरदार पटेल की मूर्त्ति प्रकरण पर जोर नहीं दिया... उम्मीद थी कि इसके बहाने वो कोइरी-कुर्मी वोट बैंक में एंग्जाइटी पैदा करेंगे... रैली के दौरान हुए सीरियल बम ब्लास्ट के संबंध में बड़े ही रोचक पहलू सामने आ रहे हैं... नीतीश कहते हैं कि इस तरह का वाकया बिहार में नहीं हुआ था लिहाजा कोई चूक नहीं मानी जानी चाहिए... बेशक दुनिया की हर घटना अपने आप में अनूठी ही होती पर उन्हें याद रखना चाहिए कि बिहार के ही समस्तीपुर जंक्शन पर लोगों को संबोधित करने के दौरान राज्य के पहले विकास पुरूष एल एन मिश्र को बम ब्लास्ट में उड़ा दिया गया था... सात धमाके रिकार्ड हुए और चूक न हुई ये हजम करने वाली थ्योरी नहीं हो सकती..
ये कहना मुनासिब न भी हो कि राजनीतिक विरोधी की ये चाल है ... पर जिस तरीके से पिछले कई महीनों से रैली को नहीं होने देने की नीचता दिखाई जा रही थी उसका नाजायज फायदा अवांछित तत्वों ने उठाया होगा इससे नीतीश कैसे इनकार कर सकते....? वैसे भी इस राज्य में राजनीतिक पटखनी देने के लिए असामाजिक तत्वों का सहयोग लेने की परंपरा रही है... नीतीश कुमार को मलाल हो रहा होगा कि इतने लोगों को जुटा लेने की हैसियत उनकी नहीं बन पाई है...वे रिजनल क्षत्रप ही बने रह गए.. ये भी चिंता सता रही होगी कि पीएम की रेस में वो कोसों पीछे हो गए हैं... पर उनकी असल चिंता इस बात में निहित होनी चाहिए कि चापलूसों के कारण जिस राजनीतिक नीचता की संस्कृति को ढो रहे हैं उसके कारण उनकी जेंटलमैन पॉलिटिशियन की यूएसपी पूरी तरह छिजती जा रही है...


7.10.13

मोदी से बेचैन क्यों है कांग्रेस?

मोदी से बेचैन क्यों है कांग्रेस?
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संजय मिश्र
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आंध्र-प्रदेश जल रहा है और इसकी आंच दिल्ली तक आ गई है। इससे बेफिक्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी राग अलाप रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी के पीएम उम्मीदवार बनने से सेक्यूलर वोट के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा न कि इसके विरोध में। मुजफ्फरनगर के हृदयविदारक दंगों के बाद का कांग्रेसी मंशे का ये गंभीर इजहार है। ये सत्तारूढ़ दल के जेहन को उघारता है। ये उस समय के बयानों की कंटिनियुटी है जब नरेन्द्र मोदी को बीजेपी की तरफ से सेंटरस्टेज पर लाने की खबरें छन कर निकली थी। तब दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल सरीखे कांग्रेसी नेता जश्न की मुद्रा में कहते फिर रहे थे कि कांग्रेस की २०१४ की आधी चुनावी फतह इसी से हो जाएगी। देशवासी हैरान हुए थे।

सतह पर आई उस खबर से बीजेपी में जो तल्खी बेपर्द हुई वो अब जाकर थमी है। पार्टी को - समय आने पर सब साफ होगा - जैसे जुमलों का सहारा लेना पड़ा था तब। मोदी आज बीजेपी के विधिवत पीएम उम्मीदवार के तौर पर सभाएं कर रहे हैं। कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार की घोषणा टाल दी है। जश्न की उसकी मुद्रा खो सी गई है। मोदी के एक बयान पर औसतन आधे दर्जन कांग्रेसी नेता मैदान में कूद पड़ते हैं। वे भाषाई मर्यादा भूलने लगे हैं। कभी उज्जड शैली में मोदी पर भड़ास निकाल लेते तो कभी आडवाणी से दरियादिली दिखा बैठते। मुसलमान वोटों की आस पूरी होने की कल्पना के बावजूद बेचैनी किस बात की है? गाहे-वगाहे बीजेपी को शिष्ट राजनीति की नसीहत क्यों दी जा रही है? 

लंदन की वेस्ट-मिंस्टर शैली की राजनीति के चाहने वाले इंडिया में धकियाए हुए हैं... यहां रोबस्ट और राजा-महराजा के दरबार की मानिंद साम, दाम, दंड, भेद वाली रीति-नीति का ही जोर है... ये खुरदरा है... और नफासत वाली संसदीय परिपाटी के पैरोकारों को चिढ़ाने के लिए काफी है... सुविधा के हिसाब से कांग्रेस इस सुसंस्कृत डिबेटिंग परिपाटी की बीजेपी को अक्सर याद दिलाती रहती है। जब चिदंबरम बीजेपी के जसवंत सिंह को पत्रकारों के सामने जेंटलमैन पॉलिटिसियन कह कर पुकारते हैं तो वहां एक मकसद होता है। भले जसवंत इस कांग्रेसी उद्गार से फूले नहीं समाते हों।

लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सांसद जब सदन में उसी वेस्टमिंस्टर शैली में कांग्रेस की बखिया उघेरते हैं तो सोनिया के एक इशारे पर कांग्रेसी विशुद्ध भारतीय शैली में उधम मचाने को आमादा हो जाते। तो फिर बीजेपी में आडवाणी को हाशिए पर धकेले जाने और इस बुजुर्ग नेता के बीजेपी अध्यक्ष को लिखे पत्रों पर आंसू बहाने वाले कांग्रेसी नेताओं का इरादा सवाल खड़े करता है। ये महज मजा लेने के लिए नहीं होता। और न ही ऐसे मौकों पर मीडिया की दिलचस्पी सिर्फ चिकोटी काटने तक सीमित रहती है।

दरअसल कांग्रेस राजनीतिक दाव-पेंच में इतनी माहिर है कि बीजेपी के इन शालीन कहे जाने वाले सितारों का मनमर्जी सहयोग ले लेती है। और फिर कुछ ही समय में ऐसे पछाड़ती है कि बीजेपी को कड़वा घूंट पीने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता है। ये सदन का जाना पहचाना नजारा होता है। बीजेपी भी मानती है कि उससे भद्रलोक राजनीति की कांग्रेसी अपेक्षा एक चाल होती है। और इसी चाल से संदेश पाकर देश के सार्वजनिक जीवन में फैले कांग्रेस के मोहरे मोर्चा संभाल लेते हैं। बीजेपी के लिए ये जाल में फसने जैसा होता है। अब जबकि बीजेपी ने आक्रामक तेवर वाले नरेन्द्र मोदी को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस की सांस फूली हुई है।

कांग्रेस उन नेताओं से खार खाती है जो अक्खर और रूखड़े छवि वाले होते हैं। नरेन्द्र मोदी ऐसे ही राजनेता हैं। बड़बोले लालू प्रसाद भी इसी तरह के नेता रहे हैं। याद करिए लालू युग को जब बिहार में कांग्रेस की हैसियत आरजेडी की पिछलग्गू की तरह थी। लालू तय करते थे कि कांग्रेस की तरफ से चुनाव में किसको टिकट मिलेगा। लालू के रूतबे का असर तो सीपीआई पर भी था। आरजेडी सुप्रीमो के कहने पर ही लोकसभा चुनाव में भोगेन्द्र झा की टिकट कटी और चतुरानंद मिश्र उम्मीदवार बनाए गए... साथ ही लालू के सहयोग से जिताए भी गए।

नरेन्द्र मोदी की खासियत है कि वो कांग्रेस को चौंकाते हैं... छकाते भी हैं... और बार-बार ऐसा करते हैं। ये अदा आडवाणी-सुषमा ब्रांड राजनीति से अलग होती है। कांग्रेस की रणनीति धरी की धरी रह जाती है। वे अनुमान नहीं लगा पाते कि मोदी की अगली चाल क्या होगी? पारंपरिक राजनीति के हिसाब से रणनीति बनाने वाली कांग्रेस को सपने में भी अहसास नहीं था कि मोदी की सभा में उनके समर्थक टिकट खरीदकर आएंगे। कांग्रेस का बुद्धिजीवी और मेनस्ट्रीम मीडिया वाला मोर्चा फासीवाद की परिभाषा के हिसाब से मोदी के भाषण के शब्दों की पोस्टमार्टम करता रह जाता है।


पर कांग्रेस को अपनी उस लोच पर यकीन है जिससे वो पिछलग्गू भी बन जाती और मौका आने पर विरोधी को पैरों में भी झुकाती है। लालू, मुलायम और मायावती इसके क्लासिक उदाहरण हैं। इससे कांग्रेस को सहयोगी मिल जाएंगे। कांग्रेस इस ताक में भी है कि बीजेपी के उमंग में खूब इजाफा हो ताकि वो गलतियां करे। उसकी उम्मीद मोदी के पिछड़ा कार्ड पर भी टिकी है जो रिजनल क्षत्रपों को कमजोर बना सकता है। कांग्रेस को अहसास है कि मोदी फैक्टर स्थापित समीकरणों को बेपहचान बना रहा है। फिलहाल नरेन्द्र मोदी के चलते चुनावी फिजा अभी से रोमांचक हो गई है।              

3.10.13

सजा नहीं... नीतीश का प्रदर्शन लिखेगा लालू एरा के खात्मे की पटकथा

सजा नहीं... नीतीश का प्रदर्शन लिखेगा लालू एरा के खात्मे की पटकथा
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संजय मिश्र
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लालू एरा अब ढलान पर सरकने लगा है.... ११ साल तक चुनाव नहीं लड़ पाने की सजा मास्टर स्ट्रोक है... पर इस युग की कहानी का अंत सबसे ज्यादा नीतीश पर निर्भर है...नीतीश जिस तेजी से लोगों का आह्लाद खो रहे वो लालू के आभामंडल के सरकने की गति को थाम भी सकती है...बिहार के सीएम ने बड़ी राजनीतिक-प्रशासनिक गल्तियां की तो संभव है २०१४ के चुनाव तक आरजेडी के प्रभाव में कोई कमी न आए... इसलिए कि लालू की मुश्किलों के वक्त यादव जाति के लोग चट्टानी एकता दिखाते हैं... ये देखना दिलचस्प होगा कि मुसलमान क्या करते हैं..?   मुसलमान बड़े ही रणनीतिक अंदाज में वोटिंग पैटर्न दिखाते हैं... इन्हें अहसास होगा कि अब लालू का साथ छोड़ दूसरों का दामन थामने में भलाई है तो वे लालू का साथ छोड़ देंगे.... यहां याद दिलाना उचित होगा कि जगन्नाथ मिश्र कभी मुसलमानों के सबसे चहेते हुआ करते थे.... देश भर में...इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री को मुहम्मद जगन्नाथ तक कहा जाने लगा था.... लेकिन बाद में मुसलमानों ने उनका साथ छोड़ दिया ... वो दौर भी दिखा जब जगन्नाथ मिश्र अपने बेटे की चुनावी जीत के लिए मुसलमानों की चिरौरी करते पाए गए.... ये देखना दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यक समाज लालू का साथ किस गति से छोड़ना चाहता है... भरोसा तोड़ने की उनकी रफ्तार धीमी हुई तो फिर लालू के पुत्रों को अनुभव हासिल करने और एक तिरस्कृत नहीं किए जा सकने वाले राजनीतिक शक्ति बना लेने का मौका मिल जाएगा... ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आरजेडी के बड़े नाता बगावत कर पार्टी को न तोड़ें...जो लोग लालू की लोकप्रियता के कायल रहे हैं वे भूल जाते हैं कि लालू को कभी थंपिंग मेजोरिटी हासिल नहीं हुई... कभी जेएमएम तो कभी कांग्रेस का साथ लेना पड़ा सरकार बनाने में... ऐसा क्यों हुआ..? उन्होंने अपने समर्थकों को बेकाबू हद तक जगाया... जातीए वैमनस्य पैदा कर... पर उनकी ताजपोशी किसी आंदोलन का प्रतिफल नहीं थी... रघुनाथ झा के मैदान में कूद पड़ने के कारण वो सीएम बन गए थे... और रामसुंदर दास हार गए... कर्पूरी ठाकुर की तरह जमीनी स्तर पर काम करते-करते उंचाई पर नहीं पहुंचे थे वे... क्राति की उपज(जेपी आंदोलन की विरासक का श्रेय लालू या नीतीश को नहीं दिया जाना चाहिए)  नहीं थे सो पराभव संभव है... कोई पारदर्शी विजन नहीं था... और न ही उसके अनुरूप कार्यनीति...प्रशासन को हड़काया... पर उसके डेलिवरी सिस्टम को असरदार बनाने के लिए नहीं... उल्टे उनके राज में यही प्रशासन लूटखसोट में नेताओं का खूंखार साझीदार बन बैठा.....  करिश्मा और देसी अंदाज के बल पर चमके ... लिहाजा सीएम बनने के बाद जिन पिछड़ों को जगाया वो अपना हिस्सा लेने किसी भी सोशल इंजीनियारिंग का हिस्सा बन सकते थे और ऐसा हुआ भी... लालू कहते कि राजनीति में कोई मरता नहीं... पर उन्हें पता है कि हाशिए पर जरूर धकेल दिया जाता है... खुद उन जैसों ने वीपी सिंह को धकेला था... ये तो सत्ता का निष्ठुर चरित्र है... लालू जितना जल्द इसे समझ अपनी वागडोर सौंपें उतना ही अच्छा रहेगा उनकी राजनीतिक विरासत के लिए...बिहार की राजनीति में तीसरा कोन बने रहने के लिए...पर एक क्रेडिट लालू प्रसाद को जरूर मिलना चाहिए... अन्ना के आंदोलन के बाद से जो माहौल बना... लालू के जेल जाने के कारण हुक्मरानों को सबक जरूर मिलेगा...  

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