life is celebration

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25.3.10

पलायन का अर्थशास्त्र ----भाग-1

संजय मिश्र
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जहाँ से निकले वहाँ दिक्कत ..... जिनके चमन में पहुंचे उन्हें तकलीफ। आखिरकार मन में आशंकाओं के उफान को थामे ही कोई घर-बार छोड़ता है। चित बेजान करने वाला शब्द - पलायन --यानी किसी जन-समूह की वो तस्वीर जिसके हर पिक्सेल में भयावह दर्द तो है लेकिन आज के दौर के राजनीतिक स्पेस में मुद्दा बनने की तपिश से महरूम ....यानी निरीह। लिहाजा ये झांकता है पर देखने वाले को बेदम नहीं करता। पिछले लोक सभा चुनाव के समय से अब तक पलायन की चर्चा गाहे-बगाहे हो रही है। नरेगा को महिमा-मंडित करने , उसे क्रांतिकारी कदम साबित करने के मंसूबों की वजह से भी ऐसा हो रहा है। लुधियाना, बम्बई, और दिल्ली में पलायनकर्ताओं के मौन चीत्कार समय-समय पर इस त्रासदी की याद दिलाते। निश्चित तौर पर कुछ महीनो बाद बिहार में होने वाले विधान-सभा चुनाव तक अखबार के पन्नो में इस शब्द को जगह मिलती रहेगी।
कहा जा रहा है कि नरेगा वो जादुई छडी है जिसने पलायन को ना सिर्फ रोका है बल्कि उसका खात्मा करने वाला है। पलायन पर सालो काम कर चुके तमाम पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, और पोलिटिकल एक्टिविस्ट भौचक हो अपने अनुभवजन्य राय को फिर से टटोलने में मशगूल हैं। हाल ही दिल्ली से बिहार जाना हुआ तो ये सारे सवाल जेहन में घुमड़ रहे थे। नई दिल्ली स्टेशन पर अलग ही तरह की अफरा-तफरी का माहौल था....रिजर्वेशन टिकेट के बावजूद यात्रियों में निरहट बिहारी हडबडाहट के दर्शन हो रहे थे। खैर जैसे-तैसे अपनी बर्थ पर पहुंचा ही था कि कोई जोर से चिल्लाया....अबे हट यहाँ से...
कुछ सोच पाटा तब तक सामान से भरा प्लास्टिक का बोरा मेरे पैर से टकराया। जब तक चोट को सहलाता ....बोरा मेरी बर्थ के नीचे ' एडजस्ट' कर दिया गया था। कुछ ही देर में सामान चढाने वाले ओझल हो चुके थे और रह गए एक सज्जन ..पलथी मार मेरे सामने वाले बर्थ पर आसन जमा चुके थे। चेहरे पर पतली सी मुस्कान...बीच-बीच में मोबाइल पर दबती उनकी अंगुली।
उनके हाव-भाव से इतना तो समझ आ ही गया था कि गाँव-घर छोड़कर पहली बार दिल्ली आने वालों की फेहरिस्त में शामिल नहीं हैं वे। बेतहासा पलायन के शुरूआती दौर में ही दिल्ली आ गए होंगे। अब तजुर्बा हो गया है...सो सफ़र के दौरान सावधान और ' कांफिडेंट' दिखने की हरचंद कोशिश। खैर ...कुछ ही घंटों में बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया। पता चला ...नाम जगदीश साहू है और दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान के नजदीक किसी गाँव के रहने वाले हैं। दिल्ली के आजादपुर इलाके में कई सालों से खीरा बेच रहे हैं। ' रेडी' पर नहीं... आजादपुर मंडी में बजाप्ता एक पटरी मिल गई है। जगदीश बड़े गर्व से कहते हैं---गद्दी है...खीरा का हौल सेल करते हैं।
पांच किलों से कम माल वे जोखते ही नहीं हैं। आमदनी का सवाल सुनते ही हिसाब लगाने लगते हैं...वही नौ-दस हजार हो जाता है। उनके गाँव के तीन और यात्री ट्रेन में सफ़र कर रहे थे। थोड़ी ही देर में ये आभास हो चला कि जगदीश साहू ' मेठ' की भूमिका में थे। अनायास ही उसने कहा- चार-पांच सौ रूपया ही साथ लेकर चलते हैं। ट्रेन में टीटीई की छीना-झपटी , और दरभंगा स्टेशन पर पाकिटमार गिरोहों के खतरे से वाकिफ ..जगदीश ने काफी रूपये पहले ही घर भेज दिए थे।
मैं गुण-धुन में पडा रहा। कुशेश्वर स्थान तो कालाजार, मलेरिया, और बाढ़ के लिए जाना जाता है। उस इलाके में एटीम काम करता होगा सहसा विश्वास करना मुश्किल। मनी आर्डर का भरोसा नहीं क्योंकि पोस्ट मास्टर की जेब से कितने महीनो बाद ये जरूरतमंदों को मिलता होगा कहना कठिन । मेरी उत्सुकता का निराकरण जगदीश ने ही किया। दरअसल उसके गाँव में एक ही ब्राह्मण परिवार है जिसके मुखिया हैं...बिलट झा। बिलट भी अब दिल्ली में ही रहते हैं। पहले कुछ काम-धंधा किया पर फ़ायदा नहीं हुआ। जैसे तैसे पैसे जोड़कर मोटर साईकिल खरीदी। गाँव में बिलट का छोटा भाई रहता है। जिसके पास कुछ ' रनिंग मनी ' का इंतेजाम बिलट ने कर दिया हुआ है। बिलट का काम है दिल्ली में रह रहे उसके गाँव -जबार के लोगों से संपर्क करना। जिसे भी रूपये गाँव भेजने होते हैं वो बिलट को रकम दे देता है। तत्काल बिलट के भाई को इसकी सूचना दी जाती है। औसतन दो घंटे के भीतर संबंधित व्यक्ति को रूपया ' पे ' कर दिया जाता है। जगदीश के मुताबिक़ रूपये-पैसे भेजने का इस तरह का इंतजाम दिल्ली के हर उस इलाके में जड़ जमा चुका है जहां प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में रह रहे हैं।
यानि बिहार के हर बड़े गाँव के जो लोग ' दिल्ली कमाते हैं '..उनके बीच का कोई एक सदस्य बिलट की भूमिका में है। बिलट होने के लिए कोई बंधन नहीं...महज गाँव में उसके परिजन के पास ' रनिंग मनी ' हो...साथ ही गाँव वालों का उस पर भरोसा हो। जात-पात-धर्म ...का कोई बंधन नहीं। फिलहाल इस व्यवस्था को कोई नाम नहीं दिया गया है। कमीशनखोरी कह लें...निजी बैंकिंग सेवा कह लें...या फिर हवाला कारोवार का देसी संस्करण। अब थोड़ी बात लेन-देन के इस सरोकार के पीछे के फायदे की। जगदीश साहू जैसों को ६ रूपये प्रति सैकड़ा अदा करना पड़ता है। यानि एक हजार के लिए ६० रूपये....ऐसे ही दस हजार रूपये घर भेजने के लिए ६०० रूपये लगेंगे। कमीशन की रकम ...संभव है...बहुतों को अधिक जान पड़े। लेकिन जगदीश साहू समय पर और सुरक्षित सेवा को ज्यादा अहमियत देते हैं। ये भी संभव है की दिल्ली के अन्य इलाकों में ये ' रेट ' कम-ज्यादा हो। वैसे भी दिल्ली में २५ फीसदी मजदूर ही परिवार के संग रह रहे हैं। शेष ७५ फीसदी के लिए तो कमाई का अधिकाँश हिस्सा गाँव भेजना प्राथमिक मकसद है। पंजाब, गुजरात, बम्बई कमाने वालों के बीच भी लेन देन का ये चलन जोर पकड़ रहा है। पलायन के मुद्दे पर काम करने वालों को इस आर्थिक पहलू पर गहन पड़ताल करनी चाहिए।
.......जारी है............

2 टिप्‍पणियां:

कृष्ण मुरारी प्रसाद ने कहा…

सार्थक चिंतन.......
.....
....
यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....

Jandunia ने कहा…

पलायन को लेकर सार्थक आलेख।

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