हर खेत को पानी, हर हाथ को काम......
जी हाँ ! ये नारा है बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग का। विभाग के इरादों पर शक करना मुनासिब नहीं लेकिन परबत्ता और गई जोरी जैसे इलाकों के हालात सरकार के पैगाम की कलई खोलते हैं। इन गांवों के खेत जल -जमाव से सालो भर डूबे रहते हैं। जबकि यहाँ के अधिकतर कमाऊ हाथ दूसरे प्रदेशों में जीवन बचा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो उत्पादक हाथ बाहर नहीं जा सके उनमें से कईयों ने माओ वादियों का दामन थाम लिया। यहाँ का आवागमन नाव पर टिका है। ये दशा महज परबत्ता और गैजोरी की नहीं है .... राज्य के सैकड़ो गावों की यही नियति है।
बाढ़ग्रस्त इलाकों में जल-जमाव विकराल समस्या बन गया है। इसे आंकड़ों से समझें तो सहूलियत होगी। मोटे अनुमान के मुताबिक़ दस लाख हेक्टेयर जमीन जल-जमाव से ग्रस्त है जबकि इससे प्रभावित जनसंख्या पोने एक करोड़ के आस-पास है। अकेले कोसी परियोजना के पूर्वी नहर प्रणाली के दायरे में जल जमाव वाले एक लाख २६ हजार हेक्टेयर से जल निस्सरण की योजना सरकार को बनानी पडी। इसी तरह गंडक से निकली तिरहुत नहर प्रणाली के तहत जल- जमाव वाली दो लाख हेक्टेयर को खरीफ की फसल लायक बनाने की योजना बनाई गई। आंकड़ों पर असहमति हो सकती है क्योंकि जल-जमाव को समझने और मान ने के अपने अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि १९५४ में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र २५ लाख हेक्टेयर था जो कि आज तीन गुना हो गया है। जाहिर है जल-जमाव क्षेत्र भी साल-दर-साल बढ़ता ही गया।
दर असल , जल-जमाव प्राकृतिक और मानवीय प्रयासों के प्रतिफल के रूप में सामने आता है। मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही अधिसंख्य जल-जमाव वाले इलाके बन गए जिनके साथ लोगों ने ताल-मेल बिठा लिया। लेकिन जबसे बाढ़ से सुरक्षा के उपाय करने में तेजी आई नए जल-जमाव वाले क्षेत्र आकार लेने लगे। इसने कई क्षेत्रों का भूगोल ही बदल दिया।
पहले प्राकृतिक प्रक्रिया को समझें। नदियों में बाढ़ आने के बाद इसका पानी नदी के तट से दूर तक फैलता है। नदी में पानी का दबाव कम होने पर बाहरी पानी वापस नदी में आना चाहता है। ये पानी बड़े इलाके में फैला हो तो ये आगे जाकर नदी में मिलने की कोशिश करता है। दोनों ही स्थितियों में आबादी वाले क्षेतों के अवरोध और जगह जगह जमीन की नीची सतह के कारण सारा पानी नदी में नहीं लौट पाता है। नतीजतन कई जगहों पर पानी का स्थाई जमाव हो जाता है। स्थानीय भाषा में इसे " चौर" कहते हैं।
नदियों में सिल्ट अधिक रहने पर बाढ़ के समय कई उप धाराएं फूट पड़ती हैं। ये वैज्ञानिक भाषा में " उमड़ धाराएं " कहलाती हैं। उमड़ धाराएं नदी के समानांतर बहती हुई आगे जा कर फिर से नदी में मिल जाती है। नदी के निचले हिस्सों में जमीन का ढाल कम रहने के कारण जल प्रवाह की रफ़्तार धीमी हो जाती है। जिस वजह से सिल्ट को जमने का मौक़ा मिल जाता है। अधिक मात्रा में पसरा ये सिल्ट कभी- कभी संगम से पहले ही उमड़ धारा का मुहाना बंद कर देता है। उमड़ धाराओं का अवरुद्ध पानी आखिरकार बड़े चौरों का निर्माण करता है। चंपारण में झीलों और चौरों की श्रुंखला इस प्रक्रिया की याद दिलाते हैं।
अधिक सिल्ट वाली नदियों का ये स्वाभाव होता है कि कुछ सालों के अंतराल पर ये उमड़ धारा को ही मुख्या धारा बना लेती हैं। छोडी गई मुख्या धारा को स्थानीय भाषा में " छाडन धारा" कहते हैं। बाढ़ के समय में तो छाडन धारा में खूब पानी रहता है लेकिन अन्य समय में इनमे कई जगह जमीन की सतह जग जाती है। इस तरह कई झीलों की श्रुंखला का रूप ये अख तियार करती हैं। कोसी इलाके में इसके अनेको उदाहरण आपको मिल जाएंगे।
तटबंधों के निर्माण ने नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बेतरह प्रभावित किया है। असल में इसके कारण उमड़ धाराओं का उद्गम और संगम दोनों बाधित हो जाता है। नतीजा ये हुआ कि कई उमड़ धाराएं तट बंधों के कारण जल-लमाव वाले क्षेत्रों में तब्दील हो गए हैं। इसके अलावा कई सहायक नदियों का संगम बाधित हो गया। कोसी पश्चिमी तट बांध के बनने की वजह से भूतही बालन नदी का इस नदी में मिलन बाधित हो गया। अब ये दूर का साफर तय कर कोसी में मिलती है। जिस कारण भेजा से कुशेश्वर स्थान के बीच का अवादी वाला हिस्सा जल-जमाव से ग्रस्त रहता है।
तट बंधों के कच्चे अस्तर और रख-रखाव में कोताही के कारण तट बांध के बाहर स्थाई तौर पर पानी का जमाव हो जाता है। ये रिसाव के कारण भी होता है साथ ही जमीन के अन्दर पानी के तल को मिलने वाले दबाव के कारण भी । तट बांध के भीतर पानी का दबाव बढ़ने से तट बांध के बाहर जमीन के अन्दर के पानी का तल ऊपर उठ जाता है। कई बार ये जमीन के ऊपर भी आ जता है। ये जमा हुआ पानी तट बांध के बाहरी ढलान को कमजोर बनता है जिस कारण तट बांध टूट भी जाते हैं। कोसी पूर्वी तटबंध के बाहर भाप्तियाही से कोपडिया के बीच ३७००० एकड़ में जल-जमाव इसका अनूठा उदहारण है।
जल-जमाव वाले क्षेत्रों के दुःख का अनुमान लगाना हो तो कुशेश्वर स्थान, घनश्यामपुर, किरतपुर, बिरौल, हायाघाट, सिघिया, महिषी, नौहट्टा, सिमरी बख्तियारपुर, सलखुआ , महनार, बैर्गेनिया, पिपराही, कतरा, खगरिया, चौथम, परबत्ता, गोगरी, काढ़ा-कोला , प्राण-पुर, आजम नगर, नौगछिया, बीहपुर, गोपालपुर जैसी जगहों पर हो आयें। कुशेश्वर स्थान और खगडिया इलाके में कई नदियाँ कोसी से संगम करती हैं। इन्ही इलाकों में कई तटबंधों समाप्त हो जाते हैं। जिससे इन नदियों का पानी संगम से पहले ही पसर जाता है। विस्तृत जल-राशि की ये तस्वीर आपको विचलित कर सकती है। लोगों की पीड़ा को धैर्य से महसूसना हो तो कोसी तटबंधों के बीच के दो लाख ६० हजार एकड़ जल-जमाव वाले इलाके में जाने का साहस करें। इन इलाकों में नहीं आ सके तो टाल क्षेत्र में ही जाकर इस दुःख का ट्रेलर देख लें।
ये सोचने वाली बात है की एक तरफ सिंचाई प्रणाली का विस्तार किया जा रहा है तो दूसरी और जल-जमाव वाले इलाके से पानी निकालने की कवायद की जा रही है। ये दोनों ही उल्टी प्रक्रिया हैं। और एक ही नदी बेसिन में चालू हैं। नदियों के पानी का ड्रेनेज कितना कारगर रह पाया है ये सोचना भी अबूह लगता है।
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