बिहार में इस साल इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हैं। मौसम विभाग का अनुमान भी गलत साबित हो रहा है। राज्य के सभी जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं जबकि बड़ी आबादी बाढ़ से जूझ रही है। लोग समझ नहीं पा रहे की औसत से कम बारिश के बावजूद बाढ़ तांडव क्यों मचा रही है? आम लोगों को बताया जा रहा है कि नेपाल ने पानी छोड़ दिया .... इसलिए ऐसी नौबत आई है। इसी समझ के सहारे चंपारण के लोग बाल्मिकीनगर बराज को " विलेन " मान कोस रहे होंगे। फर्ज करिए ये सही हो ...फिर बागमती बेसिन में मची तबाही के लिए किसे दोष देंगे .....बागमती पर तो बराज नहीं है। इतना ही क्यों... कुशेश्वर स्थान और खगडिया की दुर्दशा के लिए किसे कसूरवार ठहराएंगे?
दर असल , बिहार का भूगोल ही ऐसा है कि हर क्षेत्र के लोग बाढ़ की प्रक्रिया को अच्छे तरीके से समझ नहीं पाते। पहाडी इलाके के लोगों की इस संबंध में जो सोच है उससे अलग समझ गंगा के दक्षिण के मैदानी इलाके के लोगों की है। गंगा के उत्तर के लोग कमोवेश पूर्णता के साथ बाढ़ के चक्रव्यूह में फंसते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो प्रकृति से जो पानी हमें मिलता हैकुछ हिस्सा रिसकर जमीन के अन्दर चला जाता है जबकि अधिकाँश हिस्सा बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इन्हें हम नदियाँ कहते हैं। यानि ये पानी के ' ड्रेनेज" का जरिया हैं। जमीन का ढाल नदियों के प्रवाह का " डा इनेमिक्स " तय करता है। ज्यादातर नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं जिनके पानी का स्रोत वर्षा, वर्फ और बड़े झील होते हैं। मैदानी इलाकों में कई नदियाँ बड़े चौरों से निकलती हैं। इसका बड़ा उदाहरण है बूढ़ी गंडक, जो कि पश्चिम चंपारण के चौतरवा चौर से निकलती है।
पहाड़ों और मैदानी भागों में जब मूसलाधार बारिश होती है तो पानी नदी के किनारों को पार कर जाता है। ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से भी नदियाँ इस दशा में आती हैं। ये पानी बढ़ते हुए ख़ास दूरी तक जाता है जिसे नदी का " कैचमेंट एरिया " यानि डूब क्षेत्र कहते हैं। ये भौगोलिक प्रक्रिया है...जिसे वैज्ञानिक भाषा में " बाढ़" कहते हैं। लेकिन जब डूब क्षेत्र की सीमा को भी नदी का पानी पार कर लेता है तो ये तबाही का कारण बनता है। जब हम कहते हैं कि बाढ़ से राज्य तबाह है तो हम इसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे होते हैं.... यानि पानी का डूब क्षेत्र को भी पार कर जाने वाली स्थिति। अमूमन डूब क्षेत्र के बाहर आबादी अधिक रहती है। हर साल ये आबादी इस नौबत से गुजरती है।
गंगा के दक्षिण की नदियाँ हिम पोषित नहीं हैं। भारी बारिश से ही इनमे सैलाब आता है। जबकि गंगा के उत्तर की अधिकाँश नदियाँ हिम पोषित हैं। हिम पोषित रहने के कारण ये " पेरेनियल रिवर " कहलाती हैं यानि ऐसी नदी जिसमे सालो भर पानी आता हो। यही कारण है कि मानसून की दस्तक से पहले भी इनमे बाढ़ आती है। कभी-कभार ये पानी डूब क्षेत्र को भी पार कर जाता है। ऐसा अक्सर मई के दुसरे और जून के पहले पखवाड़े में देखने में आता है। कमला- बलान नदी के किनारे रहने वाले हर साल इस स्थिति से दो-चार होते रहते हैं।
नदियों के अत्यधिक फैलाव के अन्य कारण भी हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की अंधा-धुन कटाई के कारण नदियों के पानी का बहाव तेज हो जाता है। तेज गति " सिल्ट" की अधिक मात्रा मैदानों तक पहुंचता है। नदी का ताल उठाता जाता है .... जिससे बाढ़ का पानी बड़े इलाके में फ़ैल जाता है।
बाढ़ के विस्तार की बड़ी वजह सिंचाई परियोजनाएं भी हैं। इन परियोजनाओं के तहत बराज या डैम और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तट बंध बनाए जाते हैं। तट बंधों के बीच की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती। नदी का पानी इन्हीं तट बंधों के बीच सिमटने को बाध्य रहता है। पानी के साथ जो सिल्ट आता है वो साल-दर-साल जमा होता रहता है। नतीजतन , तट बंधों के अन्दर जमीन का तल उठता रहता है। उधर तट बंध के बाहर की जमीन पहले की तरह रहती है यानि तट बंध के अन्दर की जमीन की अपेक्षा नीची । यही कारण है कि तट बांध के अन्दर पानी का दबाव बढ़ने पर तट बंध टूट जाता है.... और पानी नीची जमीन की तरफ भागता है। इस पानी का बेग इतना अधिक होता है कि लोगों को सुरक्षित स्थानों तक जाने का मौक़ा तक नहीं मिलता . इस साल भी सिकरहना, लखन्देइ, जमींदारी, त्रिवेणी नहर और दोन नहरों के तट बंध जब टूटे तो लोगों को भारी दुःख झेलना पड़ा।
सिंचाई परियोजनाएं जब पूरी हो जाती हैं तब लाभ के साथ साथ जो कष्ट भोगना पर सकता है उसकी बानगी की ओर इशारा किया हमने। अब हम बताते हैं आधी-अधूरी परियोजनाओं के खतरनाक परिदृश्य के संबंध में। अब बागमती परियोजना को ही लीजीये। ये बहु-उद्देशीये परियोजना अभी शुरू भी नहीं हुई है लेकिन इस नदी पर कई जगह तट बंध बना दिए गए हैं। ढ़ंग से रूनी सैदपुर तक नदी का पानी तट बंधों के बीच कैद रहता है जिसे रूनी सैदपुर से आगे खुला छोड़ दिया गया है। लिहाजा कट रा इलाका पूरी तरह जलमग्न हो जाता है। इससे भी विकत स्थिति कुशेश्वर स्थान और खगडिया की है। ये बताना दिलचस्प होगा कि २३ अगस्त को जिस समय कुशेश्वर स्थान में सूखे की स्थिति पर सरकारी अधिकारियों की बैठक चल रही थी उसी समय इस प्रखंड का सड़क संपर्क अनुमंडल मुख्यालय बिरौल से भंग हो गया। बाढ़ के पानी में सड़क डूब चुकी थी।
ना तो नेपाल में वर्षा ऋतू अलोपित हो जाएगी और ना ही हिमालय पर बर्फ पिघलना बंद होगा... ये भी अपेक्षा नहीं राखी जा सकती कि नेपाल भगवान् शिव की तरह ये सारा पानी जटाओं में कैद कर ले। समस्या के निपटारे के लिए नेपाल की सहभागिता को बल देना ही पडेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें