life is celebration

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15.4.10

पलायन का सच --- भाग ४

-------------संजय मिश्र -------------
ये उस समय की बात है जब " कालाहांडी " की मानवीय विपदा ने दुनिया भर में चिंतनशील मानस को झकझोर दिया। इस त्रासदी को "कवर " करने गए पत्रकार याद कर सकते हैं उन लम्हों को जब संवेदनशील लोगों का वहाँ जाना मक्का जाने के समान था। कुर्सी पर बैठे लोग भी तब हरकत में आये थे। वहाँ एक स्त्री इसलिए बेच दी गई थी ताकि उन पैसों से अपनों का पेट भरा जाता। उड़ीसा में भूख मिटा नहीं पाने की बेबसी आज भी है। हार कर लोगों ने पलायन का रूख किया है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई आदिवासी महिलाएं ब्याह के नाम पर हरियाणा में बेच दी जाती हैं। उड़ीसा की ही सीमा से लगे छतीसगढ़ की एक आदिवासी महिला को पिछले साल इसी तरीके से बेचा गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि छतीसगढ़ सरकार को हस्तक्षेप करना पडा।
बिहार के कई पत्रकार भी उस दौर में कालाहांडी हो आए थे। वे हैरान हैं कि बिहार से होने वाले पलायन पर राज्य के हुक्म रानो का दिल क्यों नहीं पसीजता ? कुछ महीने पहले लुधियाना में हुई पुलिस फायरिंग में कई बिहारी मजदूर मारे गए। कहीं कोई हलचल नहीं ....... सब कुछ रूटीन सा। मरनेवालों के परिजन यहाँ बिलखते रहे...नेताओं के बयान आते रहे। इन मजदूरों को पता है कि उनकी पीड़ा से राज-काज वाले बिदकते हैं। यही कारण है कि इनकी प्राथमिकता अपनी काया को ज़िंदा रखने की है ... चाहे कहीं भी जाकर कमाना पड़े। पेट की आग के सामने सामाजिक दुराग्रह- पूर्वाग्रह टूटते गए हैं।
पलायन पहिले भी होता था। मोरंग, धरान, और ढाका जैसी जगहों पर इनके जाने का वर्णन आपको मिल जाएगा। शुरूआती खेप में उन लोगों ने बाहर का रास्ता पकड़ा जो स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे और मझोले किसानों के मजदूर थे। इन्हें हम इतिहास में बंधुआ मजदूर कहते हैं। ये खेती-बाडी में किसान के सहयोग में दत्त-चित रहते। इनकी स्त्रियाँ किसान के घरों की महिलाओं की सहायता करती। बदले में किसान अपनी जमीन पर ही इन्हें घर बना देते और इनके गुजर-बसर की चिंता करते। इन मजदूरों को दूसरे किसान के खेत में काम करने की इजाजत नहीं होती। मुक्ति की कामना , सांस लेने लायक आर्थिक साधन जुटाने, अकाल, रौदी, और बाढ़ जैसी मुसीबतों के चलते वे गाँव त्यागने को मजबूर होते। बिहार के साहित्यिक स्रोतों में " कल्लर खाना " और " खैरात " जैसे शब्द इन कारणों पर बहुत कुछ बता जाते हैं।
बाद के समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी इनके साथ हो लिए। इनके साथ समस्या हुई कि किसानी से होने वाली आमदनी साल भर का सरंजाम जुटाने में नाकाफी होती। कष्ट के समय में बंधुआ मजदूरों को अपने किसान से जो आस रहती वो भूमिहीन मजदूरों को नसीब नहीं । आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास की हवा बही। इसमें गाँव को आर्थिक इकाई के रूप में देखने पर कोई विचार नहीं हुआ। नतीजतन स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। जातिगत पेशों से जुड़े लोगों पर इसका मारक असर हुआ। हर परिवार के कुछ सदस्य परदेस जाने लगे। प्राकृतिक मार से भी जिन्दगी तबाह हुई.... गृहस्थी चलानी मुश्किल। इस दौर में ब्राह्मण भी बाहर जाने लगे। पुरनियां ( पुर्णियां ) , कलकत्ता, और असम के चाय बागानों में इनकी उपस्थिति दर्ज हुई। फूल बेचने , पंडिताई करने, भनसिया ( खाना बनाने का काम ) बनने से ले कर हर तरह के अनस्किल्ड काम वे करने लगे ।
कलकत्ता, ढाका और असम जैसी जगहों पर इन्होने आधुनिक आर्थिक गतिविधियों के गुर सीखे। इसके अलावा एक वर्ग बाल मजदूरों का उभरा जो भदोही के कालीन उद्योग में भेजे जाने लगे। समय के साथ इस फेहरिस्त में कई जाति के बच्चे शामिल हो गए। वे अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने में संबल बने।
बिहार की सत्ता में लालू का आधिपत्य यहाँ के जन-जीवन में अनेक तरह के बदलाव लेकर आया। इसी दौर ने पलायन की पराकाष्ठा देखी। आम-जन से संवाद की देसज शैली के कारण लालू राजनीति में नए तेवर कायम करने में सफल हुए। लीक से हट कर सोसल इंजीनियरिंग को आजमाया। पिछड़ों के उभार में जबरदस्त कामयाबी मिली....और उनका डंका बजने लगा। लेकिन स्पष्ट ध्रुवीकरण ने गाँवों में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बटाईदारों को बटाई वाली जमीन दे देने की सरकारी प्रतिबद्धता से किसान भयभीत हुए। नतीजतन अधिकतर किसानो ने बटाई वापस ले ली। खेत " परती " जमीन में तब्दील होते गए। किसानी चौपट हो गई। आखिरकार बटाई से विमुख हुए खेतिहर मजदूर पलायन को बाध्य हुए। खेती के अभाव में किसानो की माली हालत खराब होती गई। कुछ साल संकोच में बीता । बाद में वे भी पलायन करने लगे।

लालू युग " किसान के मजदूर " बन जाने की गाथा ही नहीं कहता ....इसी समय ने " विकास नहीं करेंगे " की ठसक भी देखी। सरकारी उदासीनता के कारण एक-एक कर चीनी, जूट, और कागज़ की मिलें बंद होती गई। कामगार विकल हुए। ये उद्योग नकदी फसलों पर टिके थे । लिहाजा किसानो ने इन फसलों से मुंह फेर लिया। समय के साथ उद्योगों से जुड़े कामगारों और किसानों की अच्छी खासी तादात दिल्ली .... बम्बई जाने वालों की टोली में शामिल हो गई। निम्न मध्य वर्ग के अप्रत्याशित पलायन ने गाँव की उमंग छीन ली है। वहां बच्चे, बूढ़े, और महिलाएं तो हैं लेकिन खेत काबिल हाथों के लिए तरस रहा है।
पहले तीन फसल आसानी से हो जाता था । अब दुनिया दारी एक फसल पर आश्रित है। पलायन करने वालों ने भी सुना है कि बिहार का विकास हुआ है...और ये कि अगले पांच सालों में ये विकसित राज्य बन जाएगा। वे बस ...बिहुंस उठते हैं। वे जानते हैं कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव के समय उनसे गाँव लौट आने की आरजू की जाएगी। अभी तक ये आरजू अनसूनी की गई हैं । पलायन करने वालों को नेताओं का अनुदार चेहरा याद है। उजड़ने का दुःख ....संभलने की चुनौती ...और ठौर जमाने की जद्दोजहद को वे कहाँ भूलना चाहते ।
------------------जारी है................

2 टिप्‍पणियां:

Jandunia ने कहा…

अच्छी पोस्ट डाली है आपने।

Jandunia ने कहा…

अच्छी पोस्ट डाली है आपने।

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