........... संजय मिश्र ..........
उत्तर - प्रदेश की पूर्वी सीमा से लगा एक रेलवे स्टेशन है - सुरेमनपुर । एक तरफ बिहार का प्रमुख शहर छपरा तो दूसरी ओर यू पी का बलिया । संपूर्ण क्रान्ति के अगुवा जेपी और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के इलाकों के बीच बसा है सुरेमनपुर । दिल्ली से बनारस होते हुए किसी सुपर-फास्ट ट्रेन से जब आप बिहार जाएं तो ग्रामीण आवरण समेटे इस स्टेशन पर ट्रेन का ठहराव आपको हैरान करेगा । बिना विस्मय में डाले आपको बता दें कि इस छोटे से स्टेशन पर दिल्ली के लिए टिकट की बिक्री छपरा से ज्यादा होती है। इसी आधार पर सुपर फास्ट ट्रेनों का ठहराव यहाँ दिया गया।
स्थानीय यात्री बिना लाग- लपेट आपको बताएंगे कि इस क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन होता है। इनकी बातें ख़त्म होंगी भी नहीं कि सरयू नदी आपको यूपी की सीमा से विदा कर रही होगी। कुछ ही देर में आप छपरा में होंगे..... जी हाँ पलायन करने वालों का एक प्रमुख जिला । आपको याद हो आएगा ..... वो पुराना छपरा जिला जिसके सपूत बिहार के नीति- नियंता बनते रहे हैं। इन्होने राज्य की "डेस्टिनी " तो जरूर निर्धारित की लेकिन बिहार की निज समस्याओं से कन्नी काटते रहने का दुराग्रह भी दर्शाया। छपरा से निकलें तो पांच- सात घंटे के बाद ट्रेन आपको दरभंगा स्टेशन पर उतार चुकी होगी ..... एक बड़ा सा स्टेशन....अपेक्षाकृत बेहतर फेसलिफ्ट लिए एक नंबर प्लेटफार्म ..... काफी स्पेसियस । जिस रूट से आपकी ट्रेन आई है .... यकीनन आप बीच रात में पहुंचे होंगे। आपका सामना होगा एक नंबर प्लेटफार्म के फर्श पर लेटे हुए हजारों " लोगों " से। इन्हें इन्तजार है सुबह का ...जब वे अपने " गाम " की बस धरेंगे। व्यग्रता के बीच कमा कर लौटने का संतोष। पलायन....संघर्ष....रूदन...सब पर भारी पड़ती बेसब्री की धमक।
लेकिन " रूदन " से बेपरवाह यहाँ के रेल अधिकारी खुश हैं कि समस्तीपुर रेल मंडल में सबसे अधिक टिकट की बिक्री दरभंगा स्टेशन में ही होती है। इसी को आधार बना कर स्टेशन के विकास के लिए " फंड " की मांग भी की जाती है। टिकट काउंटरों पर यात्रियों की भीड़ को नियंत्रित करने क लिए नियमित पुलिस बंदोबस्त देखना हो तो यहाँ चले आइये ।
कमोबेश ऐसे दृश्य मुजफ्फरपुर, सहरसा, पटना और राजेंद्रनगर स्टेशनों पर आम हैं। ये दृश्य बिहार के हुक्मरानों , पत्रकारों, और अन्य सरोकारी लोगों को विचलित नहीं करते।
पलायन को समस्या मानने वालों के बीच अनेक धाराएं मौजूद हैं। मोटे तौर पर बिहार में तीन तरह का विमर्श दिखेगा। इसके अलावा दिल्ली में बैठे सुधीजन की समझ अलग ही सोच बनाती है। पहली धारा पलायन से जुडी निर्मम परिस्थितियों का आकलन करती है जो असीम दुखों का कारण बनती। ये असहाय लोगों के अथाह गम को रेखांकित करता है...साथ ही पलायन के कारण घर-परिवार और समाज की समस्त अभिव्यक्ति पर पड़ने वाले असर पर भी नजर डालता। इस मौलिक विमर्श ने जो चिंता जताई वो पलायन के दूरगामी नतीजों पर हाहाकार है। इस धारा का मानना है कि बिहार के कर्मठ हाथ दुसरे प्रदेशों की समृधि बढ़ा रहे। इनके अभाव में...फिर अपने प्रदेश का क्या होगा? इनका आग्रह है की पलायन को किसी भी तरह रोका जाना चाहिए। इस धारा के अध्येताओं में अरविन्द मोहन प्रमुख नाम हैं।
दूसरी धारा के प्रणेताओं में अग्रणी हैं हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत । इनके विश्लेषण में संदर्भित बदलाव देखा जा सकता है पर मूल स्वर अभी भी वही है। इस धारा का मर्म लालू युग के दौरान परवान चढ़ा। पलायन को समस्या तो माना गया लेकिन इस शब्द से इस धारा के लोगों का " असहज " होना जगजाहिर है। इनकी नजर में पिछड़ावाद का अलख जगाने वाले लालू को पलायन के " विकराल " रूप का आइना नहीं दिखाया जाना चाहिए। वे मानते रहे हैं कि लालू का वंचितों को जगाना पुनीत काम था लिहाजा पलायन के कारण किसानी चौपट होने और लालू राज में " अविकास " के सरकारी क़दमों को " माइनर एबेरेशन " माना जाना चाहिए। इस धारा के घनघोर समर्थक आपको याद दिलाएंगे कि पलायन तो पहले से होता आया है। श्रीकांत जोर देते हैं कि पलायन करने वालों में कुशलता बढी है।
बेशक उनकी कुशलता में निखार आया है। जो अनस्किल्ड थे वो स्किल्ड हुए। पर इसका फायदा किसे मिल रहा? योजना आयोग ने कुछ समय पहले बिहार टास्क फ़ोर्स का गठन किया। इसके सदस्यों ने जो रिपोर्ट सौंपी उसके मुताबिक़ बिहार में रह रहे " कमासूत " लोगों की कुशलता बढाए बिना राज्य का अपेक्षित विकास संभव नहीं। पलायन करने वाले इस मोर्चे पर वरदान साबित हो सकते हैं। पर उन्हें रोकेगा कौन ? निश्चय ही नीतीश और उनके सिपहसालारों को " पलायन " शब्द अरूचिकर लगता है। नीतीश ने सत्ता संभालते ही घोषणा की थी कि तीन महीने के भीतर पलायन रोक दिया जाएगा। ऐसा हुआ नहीं....घोषणा के पांचवें साल तक भी नहीं। नीतीश के कुनबे को डर सताता रहता है कि कोई इस घोषणा की याद न दिला दे।
ये तीसरी धारा के पैरोकार हैं जो मानते हैं कि पलायन पर अंकुश लगा है। इनका आवेस है की राज्य के सकारात्मक छवि निर्माण की राह में पलायन की सच्चाई " बाधक " न बने। राज्य के ग्रोथ रेट पर वे बाबले हुए जा रहे हैं। ग्रोथ की ये बयार आखिरकार पलायन पर समग्र लगाम कसने वाला साबित होगा... ऐसा भरोसा वे दिलाएंगे। वे बताएंगे कि सामाजिक न्याय के साथ विकास ज्यादा अहम् है इसलिए पलायन जैसी समस्याओं पर चिंता करने की जरूरत नहीं। नीतीश के रूतबे में आंच न आ जाए .... इसलिए ये खेमा मीडिया को छवि निर्माण के लिए राज्य का " पी आर " बन्ने की नसीहत भी दे रहा। पटना की हिन्दी मीडिया का बड़ा वर्ग इस " रोल " से आह्लादित भी है।
..............जारी है .......
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
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