life is celebration

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22.2.15

बड़ी लकीर का विप्लव

             बड़ी लकीर का विप्लव
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             संजय मिश्र
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बीजेपी के इशारे पर मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को मझधार में फसा दिया--- कुछ इसी तरह की हेडलाइन टीवी चैनलों पर चले तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे... बिहार में जो राजनीतिक विप्लव आया और आगे जो कुछ होगा उसकी ऐसी ही नादान व्याख्या कर टरकाया नहीं जा सकता.... गहरे में उतरें तो समझ आ जाएगा कि मामला मंडल राजनीति पर वर्चस्व के लिए दो दावेदारों की महत्वाकांक्षा के टकराव का है।  

धूंध इसलिए छाई है कि दिल्ली की सियासत की अपनी जरूरत है जबकि पटना की चाल थोड़ी अलग है। दिल्ली की उम्मीद यानि कथित सेक्यूलर राजनीति की खातिर चहेते नीतीश की जरूरत ..मीडिया के खांचे में भी बिहार के लिए यही चेहरा चाहिए... सो इस राज्य के राजनीतिक बखेरे के पीछे एकमात्र कारण बीजेपी की साजिश को बताया गया... लेकिन पटने की हलचल बिन मंडल राजनीति के संभव कहां... यहां का राग तो मंडल और विकास के बीच कशमकश के आसरे है।

बिहार में मंडल राजनीति के कई पिता हुए ... लालू हैं... और अब नीतीश भी हैं...बीच-बीच में दलित आकांक्षा हुलकी मारा करती... लालू के युग में दलित उफान के लिए अपेक्षित खाद-पानी नहीं मिला...  जब पिछड़ावाद इस उभार पर हमलावर हुई तो सीपीआई (एमएल) का अबलंब जरूर मिला... पर दलित चेतना को ये नाकाफी ही लगा... नीतीश आए तो उनकी मुराद कुलाचें मारने लगी...वे उम्मीद से तर हो गए।

दलित-महादलित राजनीति से शंका के कुछ बादल उमड़ पड़े... न्याय के साथ विकास और सुशासन की सख्ती में मंडल के दौर वाली बेसब्री की गुजाइश कम थी... बीजेपी से अलग होने के निर्णय के बाद जेडीयू के अन्दर जो असंतोष पनपा उसे थामने के लिए नीतीश ने दिल्ली की सेक्यूलर राजनीति के शोर का सहारा लिया.. न्याय के साथ विकास पीठ पीछे रहा और साल २०१४ की फरवरी में आरजेडी के १३ विधायकों को तोड़ने की कवायद हुई ... उसी साल लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने जो घोषणापत्र जारी किया वो मंडलवाद की ओर लौटने का शंखनाद था।

उन्होंने मान लिया कि उनकी नैया पार लगने के लिए मंडल की पतवाड़ जरूरी है..... चीजें उसी दिशा में जा रही थी... जीतन राम मांझी भी उसी शतरंज के मोहरे बनाए गए... महत्वाकांक्षी मांझी शुरू में तो सावधान रहे...पर धीरे-धीरे वे पैर पसारने लगे... बतौर सीएम उनके सरकारी निर्णय तो संकेत दे ही रहे थे उनके सोचे समझे बयान ने नीतीश के कान खड़े कर दिए। बेशक मौजूदा संकट में बीजेपी और आरजेडी की रणनीति – फिशिंग इन द ट्रबल्ड वाटर – वाली रही... और ये – ट्रबल – मांझी के बयानों ने पैदा किए थे... नीतीश के मंसूबे चकनाचूर हो रहे थे और उनकी यूएसपी तार-तार हो रही थी...मांझी एक तरफ मंडल मसीहा का दावेदार बनने की ओर अग्रसर हो गए तो दूसरी ओर वे नीतीश की छवि ध्वस्त करने लगे।

नीतीश की कोशिश मंडल अवतार के साथ ही गैर भ्रष्ट और सुशासन वाली छवि को एक साथ पिरोने की रही... उनके मंडलवाद में कोलाहल नहीं... हाहाकार नहीं... बदला लेने वाली उग्रता नहीं...बस.. शांति से...धीरे-धीरे मकसद पूरा कर लेने की आतुरता.... वहीं जीतन राम मांझी ने लालू शैली को अपनाया ही नहीं उसे विस्तार भी दिया...दलितों को पढ़ने-लिखने, शराब छोड़ने, परिवार के लिए सजग रहने का जितना आग्रह मांझी ने दिखाया उतना किसी मंडल नेता ने आज तक नहीं किया...मांझी के बयानों की पड़ताल करें तो नीतीश खेमे में मची खलबली समझ में आ जाएगी।

राजनीति हाथ लगे अवसर का लाभ उठाने का नाम है...इसे मांझी ने बखूबी इस्तेमाल किया... शुरूआत १८ अगस्त से करें...उस दिन मधुबनी के ठाढ़ी में वे परमेश्वरी देवी मंदिर के दर्शन को गए... लेकिन महीने भर बाद २८ सितंबर को पटने में आरोप लगा दिया कि उनके लौटने के बाद उस मंदिर को धोया गया... मौका था भोला पासवान शास्त्री की १०० वीं जयंती के कार्यक्रम का... उनकी ही पार्टी के कई नेताओं ने इसे मनगढंत प्रकरण करार दिया।

लेकिन लालू शैली में संदेश जा चुका था... लालू कहा करते थे कि नाथ पकड़कर वे भैंस पर चढ़ते थे... तो मांझी ने चूहे खाने की बात उठाई... १७ अक्टूबर को डाक्टरों का हाथ काट लेने की बात कही तो अगले ही दिन गरीबों का काम नहीं होने पर अधिकारियों का हाथ काट लेने की धमकी दे दी...११ नवंबर को कह दिया कि सवर्ण विदेशी हैं... मूल निवासी हम... राजा के हक हमरा तो राज दूसरे कैसे करेंगे..  लगे हाथ कहा कि जिसके पेट में दर्द हो रहा वे अंतरी निकलवा लें।

मांझी के ये बयान लालू के भूराबाल साफ करो के नारे से भी वीभत्स संदेश दे रहे थे... गठबंधन तोड़ने के बाद जेडीयू के रैंक एंड फाइल में बढ़ते असंतोष को दबाने के लिए नीतीश का मांझी के रूप में जो मास्टर स्ट्रोक था वो अब भारी पड़ रहा था... इतना ही नहीं नीतीश की शो-केस करने वाली योजनाओं को मांझी ने जो विस्तार दिया वो दलितों के बीच उनका कद बढ़ा रहा था... मांझी का बार-बार ये कहना कि नीतीश से बड़ी लकीर खींच दी है... जाहिर है - बड़ी लकीर – नामक शब्द नीतीश को शूल की तरह चुभता होगा।

मांझी इतने पर नहीं रूके... सीएम हूं पर डिसिजन लेने में डर लगता है (२६ अक्टूबर)... मुझे तो लाचारी में सीएम बनाया गया है (२४ अक्टूबर) जैसे बयान रिमोट से सरकार चलने के आरोप को हवा दे रहे थे... उधर स्वास्थ्य मंत्री रामधनी सिंह का --- मैं लेटर बाक्स हूं- वाला बयान इसे पुष्ट कर रहा था... आखिरकार २५ नवंबर को नीतीश को जहानाबाद में झेंपते हुए कहना पड़ा कि आज की राजनीति में रिमोट से सरकार चलाने जैसी बात नहीं होती।

नीतीश इतराते थे कि उनके राज में भ्रष्टाचार नहीं हुआ। मांझी इसकी पोल खोलने को बेताव रहे... बिजली बिल में खुद घूस देने की बात कह दी.... ठीकेदार ठनठना देता है तभी बनता है एस्टीमेट (२७ दिसंबर) ... टीकाकरण के फर्जी आंकड़े बनाए जाते हैं (२० दिसंबर)...इन बयानों से मन नहीं भरा तो कह दिया कि मुझे भी कमीशन का हिस्सा आता है... इस बात से सजग कि इन बयानों से नीतीश की इमानदार वाली यूएसपी ध्वस्त हो रही।

महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ चली कि जीतन राम मांझी दलित पीएम बनने के सपने देखने लगे...अगला सीएम दलित होगा...लोग कह हथी अगलो सीएम जीतन होतई....ठोकर खाते-खाते सीएम बन गए.. एही ठोकर में कहीं हम पीएम न बन जाएं (१९ नवंबर) ....और फिर ०३ दिसंबर को दुहरा दिया कि ठुकराते ठुकराते सीएम बन गया तो एक दिन पीएम भी बन जाउंगा।

महत्वाकांक्षा का दवाब इतना पड़ा कि मांझी सीधे-सीधे नीतीश को चुनौती देने लगे... नसीहत देते रहिए, हम नहीं झुकेंगे (२३ नवंबर) ....बूढ़ा तोता पोस नहीं मानता (१३ दिसंबर) जैसे बयान सियासी तौर पर नीतीश के लिए झेलना मुश्किल हो रहा था... चुनौती देने की मनोदशा में मांझी कैसे पहुंच गए? असल में उन्होंने बिहार में अपना कद बड़ा कर लिया और कथित २२ फीसदी वोट-बैंक का मसीहा होने के नाम पर विधानसभा चुनाव में जेडीयू का सीएम उम्मीदवार बनना चाहते थे।

लेकिन जनता परिवार के विलय की स्थिति में उनकी दावेदारी संभव नहीं होती...यहां नीतीश की दावेदारी बड़ी थी... यही कारण है कि मांझी विलय के विरोध में थे और विलय के विरोधी विधायकों की धूरी बन गए... राजनीतिक तौर पर नीतीश को हासिए पर नहीं धकेल पाए मांझी... लेकिन हैसियत ऐसी बना ली है कि चुनावों तक प्रासंगिक बने रहेंगे।    


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