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27.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६ 
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संजय मिश्र
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लालू छुटपन में जब गांव के अपने आंगन में मिट्टी में लोटते होंगे...मुलायम तरूणाई में जब गांव के गाछी में पहलवानों के दांव देख अखाड़े में एन्ट्री मिलने के सपने देख रहे होंगे... कम से कम उस समय तक... मिथिला के गांवों की हिन्दू ललनाओं का अपनी देहरी के सामने से गुजरते मुसलमानों के मुहर्रम पर्व के दाहे (तजिया) का आरती उतारना आम दृष्य रहे..... खुदा-न-खास्ता देहरी के सामने किसी पेड़ की डाल दाहा की राह में अवरोध बनता तो उसी घर के पुरूष कुल्हाड़ी से उसे छांटने को तत्पर रहते... जुलूस से निकल कर किसी मुसलमान को डाल नहीं काटना पड़ता ... इन नजारों के दर्शन आज भी उतने कम नहीं हुए हैं।  

पर आरती उतारने वाली वही महिला मुसलमान के हाथ का बना खाना कुबूल करने को तैयार नहीं होती थी... ये हकीकत रही ... अंतर्संबंधों का ये जाल सैकड़ो सालों में बुना गया होगा... उस समय से जब मुसलमान राजा रहे होंगे और हिन्दू प्रजा... समय के साथ वर्केबल रिलेशन आकार ले चुका होगा... गंगा-जमुनी तहजीब के इस तरह के अंकुर सालों की व्यवहारिकता से फूटते आ रहे होंगे...और तब न तो जहां के किसी हिस्से में समाजवादी होते थे और न ही वाममार्गी... जमीनी सच्चाई ने इस भाव को सिंचित होने दिया होगा।

बेशक संबंधों के इस सिलसिले को आर्थिक गतिविधियों से संबल मिलता रहा... और जब एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता हो तो धार्मिक प्राथमिकताओं की सीमा टूटना असामान्य नहीं है। इंडिया के दो बड़े समुदाय जब इस तरह जीवन यात्रा को बढ़ा रहे हों तब हाल के कुछ प्रसंग आपको चकित करेंगे... खासकर बहुसंख्यकों का दुराग्रह कि मुसलमान युवक डांडिया उत्सवों में न आएं... जाहिर है ये बहुसंख्यक दरियादिली से इतर जाने वाले लक्षण हैं... इसमें अपनी दुनिया में सिमटने की पीड़ा के तत्व झांक रहे हैं जो कि नकारात्मक ओवरटोन दिखाते हैं।

ऐसा क्या हुआ कि हिन्दू इस तरह की सोच की ओर मुड़ा... समझदार तबके को इसके कारणों पर चिंता जतानी चाहिए थी... पर इस देश ने ऐसा नैतिक साहस नहीं दिखाया... इसी बीच लव जिहाद के मामले आए और सुर्खियां बने... चर्चा चरम पर रही जब कई राज्यों में उपचुनाव होने वाले थे... पर ये व्यग्रता उस दिशा में नहीं गई जिधर उसे जाना चाहिए था... दक्षिणपंथी संगठनों की निगाहें चुनाव में फायदा उठाने पर टिकी रही जबकि गैर-दक्षिणपंथी तबके का रूख न तो लव जिहाद के पीछे की मानसिकता की ओर गया और न ही चुनावी लाभ लेने की प्रवृति को उघार करने में रत रहा।

जाहिर है लव जिहाद में नकारात्मक मनोवृति के एलीमेंट हैं... यहां प्रेम की पवित्रता पर धर्मांतरण का स्वार्थ हावी होता है... जिसे प्रेम कर लाए... इस खातिर ... उसकी प्रताड़ना की ओर प्रवृत होने में संकोच तक नहीं है...लड़की के धर्म के लिए नफरत भाव और बदले की विशफुल इच्छा...मीडिया में आई खबरें लव जिहाद के लिए सचेत प्रयास के पैटर्न को उजागर कर रही थीं...मेरठ की घटना ने पहले चौंकाया... कांग्रेस के प्रवक्ता मीम अफजल ने निज जानकारी के आधार पर धर्म परिवर्तन के लिए प्रताड़ना की बात को स्वीकार किया। घटना की निंदा की और दोषियों को सजा देने की बात कही... रांची की निशानेबाज तारा का मामला तो आंखें खोलने वाला था।

लेकिन गैर-दक्षिणपंथी तबके का नजरिया तंग तो रहा ही साथ ही चिढ़ाने वाला भी... तीन पहलू सामने आए... लव जिहाद के अस्तित्व को नकारना, लव जिहाद की तुलना गोपी-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम के उच्च शिखर तक से कर देना... और लव जिहाद जैसे नकारात्मक मनोवृति को डिफेंड करने के लिए सकारात्मक भावों वाली गंगा जमुनी तहजीब को झौंक देना...गंगा जमुनी तहजीब को ढाल बनाने वाले इस संस्कृति को पुष्ट कैसे कर पाएंगे?

इस बीच सोशल मीडिया में एक शब्द – आमीन ( जिसका अर्थ है ..ईश्वर करे ऐसा ही हो) - चलन में है... अधिकतर वाममार्गी हिन्दू अपने आलेख के आखिर में जानबूझ कर इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं... इस उम्मीद में कि इससे गंगा-जमुनी तहजीब की काया मजबूत होगी... संभव है उन्हें पता हो कि देश के कई हिस्सों में मुसलमान स्त्रियां सिंदूर लगाती हैं...और अब ऐसी महिलाओं की तादाद में हौले-हौले कमी आ रही है...क्या इंडिया में सिंदूर लगाने की स्त्रियोचित लालसा से मुसलमान स्त्रियों के भाव-विभोर हो जाने में गंगा-जमुनी संस्कृति के तत्व नहीं खोजे जा सकते?

क्या ताजिया के जुलूस की आरती उतारने वाले दृष्य नहीं सहेजे जाने चाहिए? क्या आपको दिलचस्पी है ये जानने में कि कोसी इलाके के कई ब्राम्हण – खान – सरनेम रखते हैं? ... कभी आपने रामकथा पाठ.. भगवत कथा पाठ वाले प्रवचन सुने हैं... अभी तक नहीं तो थोड़ा समय निकालिए... सबके न सही मोरारी बापू और चिन्मयानंद बापू को ही सुन लीजिए... मुसलिम जीवन के कई प्रेरक प्रसंग वो सुनाते हुए मिल जाएंगे ... कबीर तो घुमड़-घुमड़ कर आ जाते हैं उनकी वाणी में।

गंगा-जमुनी संस्कृति के अक्श को जब देखना चाहेंगे समाज में तब तो दिखेगा उन्हें... कला, संगीत और आर्किटेक्चर की विरासत से आगे भी है दुनिया... चौक-चौराहों के लोक में भी ये जीवंतता के साथ दिखेगा... छठ, दुर्गा पूजा और गणेश पूजा की व्यवस्था संभालने वाले मुसलमानों का हौसला भी बढ़ाएं कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट।

हिन्दू-मुसलिम डिवाइड से दुबले हुए जा रहे लोगों को बहादुरशाह जफर के पोते के आखिरी दिनों की तह में जाना चाहिए... साल १८५७ की क्रांति से अंग्रेज आजिज आ चुके थे... वे बहादुरशाह जफर के परिजनों के खून के प्यासे हो गए थे... दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास बहादुरशाह के पांच बेटों को उन्होंने बेरहमी से मार दिया... १८५८ में बहादुरशाह जफर के पोते और सल्तनत के वारिस जुबैरूद्दीन गुडगाणी दिल्ली से भाग निकलने में कामयाब हो गए... छुपते रहे... आखिर में १८८१ में बिहार के दरभंगा महाराज ने जुबैरूद्दीन को शरण दी साथ ही सुरक्षा के बंदोवस्त किए...इस तरह के रिश्तों की याद किसे है? डिवाइड की चिंता जताने वालों को नहीं पता कि जुबैरूद्दीन का मजार किस हाल में है?

उन्हें साई बाबा की याद तो आ जाती है पर दारा शिकोह का नाम लेने में संकोच होता है...टोबा-टेक सिंह जैसे पात्र बिसरा दिए जाते... राम-रहीम जैसे नामकरण में उनकी रूचि नहीं है... वे बेपरवाह हैं उस ममत्व से जिसके वशीभूत हो मांएं मन्नत के कारण बच्चों के दूसरे धर्म वाले नाम रखती हैं...वे लाउडस्पीकर विवादों में तो पक्षकार बनने को तरजीह देते पर कोई अभियान नहीं चलाते ताकि सभी धर्मों के धार्मिक स्थल लाउडस्पीकर मुक्त हों...ये कहने में कैसा संकोच कि भक्तों की पुकार राम या अल्लाह बिना कानफारू लाउडस्पीकर के भी सुनेंगे?

वे दंगों से उद्वेलित नहीं होते... उनका मन दंगा बेनिफिसियरी थ्योरी पर टंग जाता है...उनका चित वोट को भी सेक्यूलर और कम्यूनल खांचे में विभाजित करने को बेकरार हो जाता है... सुलगते माहौल में सुलह नहीं कर सकते तो कम से कम हिन्दुस्तानी (भाषा) और शायरी में दिल लगाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें... पर मुसलमानों की तरक्कीपसंद मेनस्ट्रीम सोच की राह में बाधा खड़ी न करें... उन्हें याद रखना चाहिए कि नेहरू को राज-काज चलाने के लिए संविधान में सेक्यूलर शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी।

समाप्त -------------------



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