मीडिया पर हो रहे चौतरफा हमले
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संजय मिश्र
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मीडिया में साख की कमी है ये तो जानी हुई बात है.. लेकिन पिछले कई दिनों से मीडिया(खासकर टीवी चैनल्स) पर जिस तरह आरोपों के हमले हो रहे हैं वो असहजता पैदा करने वाले हैं... ... शनिवार को भी राज ठाकरे और उसके बाद आजम खान ने जिस अंदाज में भड़ास निकाले वो ध्यान खींचने के लिए काफी है..... राज के बयान में उदंडता का भाव है वहीं आजम ने लगातार नरेन्द्र मोदी से पैसे खाने का आरोप मीडिया पर लगाया है... एबीपी न्यूज के एक कार्यक्रम में आजम ने बदमिजाज लहजे में एंकर अभिसार को मोदी से पैसे मिलने का जिक्र किया... इस चैनल ने कोई प्रतिकार नहीं किया... बेशक पत्रकारिता की परिपाटी है कि सवाल पूछने के बाद पत्रकार को जवाब सुनना होता है चाहे जवाब कितना भी उत्तेजना पैदा करने वाला क्यों न हो... लेकिन केजरीवाल की तरफ से पत्रकारों को जेल भेजने वाली धमकी के बाद से ये सिलसिला सा बन गया है... ऐसा लगता है एक एजेंडे के तहत मीडिया पर मोदी से पैसे पाने के आरोप लगाए जा रहे हैं ... राजनीतिक मकसद ये कि पत्रकार सेक्यूलर-कम्यूनल चुनावी अभियान में सेक्यूलरिस्टों का गुलाम की तरह साथ दें... मकसद जो भी हो कई सवाल उभरते हैं...मीडिया आरोपों को नकारता क्यों नहीं है? मीडिया ये क्यों नहीं पूछता कि आरोप लगाने वाले पुष्ट तथ्य पेश करें ? मीडिया आरोप लगाने वालों को मानहानि के मुकदमें की चेतावनी क्यों नहीं देता? पीसीआई और एनबीए चुप क्यों है? मान लें कि सभी हिन्दी टीवी चैनल बिकाउ हैं तो सभी ने इकट्ठे मोदी से ही पैसे क्यों खाए? चैनलों ने कांग्रेस से पैसे क्यों नहीं लिए? बिन पैसे के तो समाजवादी पार्टी भी एक दिन नहीं चल सकती... तो आजम की पार्टी ने पत्रकारों को क्यों नहीं खरीद लिया? क्या पिछले ६५ सालों में राजनीतिक दलों ने पत्रकारों या चैनलों को कभी भी प्रभावित नहीं किया है... सत्ता या पैसों के जरिए? मान लें कि पैसों का खेल पहले भी हुआ तो उन चुनावों के समय मीडिया पर आरोप क्यों नहीं लगे? क्या बीजेपी को छोड़ बाकि सभी राजनीतिक दल राजा हरिश्चंद्र की तरह जीने का दावा कर सकने की हिम्मत रखते हैं? असल में साल २००९ से पत्रकारों ने जिस तरीके का व्यवहार किया है उसने कांग्रेस और अन्य कथित सेक्यूलर राजनीति वाले दलों को उन्हें गुलाम की तरह इस्तेमाल करने योग्य हथियार मानने के लिए लुभाया है। पहले भी इंडिया का मीडिया विचारधाराओं की प्रतिबद्धता में उलझने की भूल करता रहा है... और इस चक्कर में बेईमानी भी करता रहा है। आजादी के आंदोलन में लगे लोगों को मीडिया का सहयोग कुछ हद तक मिलता रहा। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए इसे जायज भी माना जा सकता था। लेकिन आजादी के बाद मीडिया को अपने रूख में जो तब्दीली करनी चाहिए थी वो चाहत नहीं दिखी। सुनियोजित तरीके से वाम कार्ड होल्डरों और लोहियावादियों का मीडिया में प्रवेश और इन विचारधाराओं के हिसाब से जनमत को प्रभावित करने का खेल चलता रहा। फिर भी कुछ मर्यादाएं रख छोड़ी गई... न्यूज सेंस से खिलवाड़ नहीं किया गया। लेकिन हाल के समय में न्यूज सेंस से भी छेड़छाड़ की गई है... ... एंटी इस्टैबलिस्मेंट मोड में होने की मनोवृति को भुलाकर सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष को लताड़ने की परिपाटी को पुष्ट किया गया.... मुजफ्फरनगर दंगों की रिपोर्टिंग दिलचस्प तथ्य पेश करने योग्य हैं..... भड़काउ भाषण देने वाले नेताओं की फेहरिस्त से कांग्रेसी नेता का नाम एबीपी न्यूज के पैकेज से गायब होना नतमस्तक होने की पराकाष्ठा थी... बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुए लाठीचार्ज के विजुअल केन्द्र की सत्ता की धमकी पर उपयोग नहीं करने जैसे पत्रकारिए अपराध किए गए... जाहिर है सत्ताधीशों का मन चढ़ेगा ही... आरोपों की बौछार के बीच मीडिया को अपने अंदर झांकने का वक्त आ गया है... साख पर बट्टा न लगे इसके लिए वे फौरी तौर पर आरोप लगाने वालों को जवाब दें साथ ही पत्रकारों को पानी में डूब कर नहीं भींगने की कला की ओर रूख करने के बारे में सोचना चाहिए ..
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संजय मिश्र
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मीडिया में साख की कमी है ये तो जानी हुई बात है.. लेकिन पिछले कई दिनों से मीडिया(खासकर टीवी चैनल्स) पर जिस तरह आरोपों के हमले हो रहे हैं वो असहजता पैदा करने वाले हैं... ... शनिवार को भी राज ठाकरे और उसके बाद आजम खान ने जिस अंदाज में भड़ास निकाले वो ध्यान खींचने के लिए काफी है..... राज के बयान में उदंडता का भाव है वहीं आजम ने लगातार नरेन्द्र मोदी से पैसे खाने का आरोप मीडिया पर लगाया है... एबीपी न्यूज के एक कार्यक्रम में आजम ने बदमिजाज लहजे में एंकर अभिसार को मोदी से पैसे मिलने का जिक्र किया... इस चैनल ने कोई प्रतिकार नहीं किया... बेशक पत्रकारिता की परिपाटी है कि सवाल पूछने के बाद पत्रकार को जवाब सुनना होता है चाहे जवाब कितना भी उत्तेजना पैदा करने वाला क्यों न हो... लेकिन केजरीवाल की तरफ से पत्रकारों को जेल भेजने वाली धमकी के बाद से ये सिलसिला सा बन गया है... ऐसा लगता है एक एजेंडे के तहत मीडिया पर मोदी से पैसे पाने के आरोप लगाए जा रहे हैं ... राजनीतिक मकसद ये कि पत्रकार सेक्यूलर-कम्यूनल चुनावी अभियान में सेक्यूलरिस्टों का गुलाम की तरह साथ दें... मकसद जो भी हो कई सवाल उभरते हैं...मीडिया आरोपों को नकारता क्यों नहीं है? मीडिया ये क्यों नहीं पूछता कि आरोप लगाने वाले पुष्ट तथ्य पेश करें ? मीडिया आरोप लगाने वालों को मानहानि के मुकदमें की चेतावनी क्यों नहीं देता? पीसीआई और एनबीए चुप क्यों है? मान लें कि सभी हिन्दी टीवी चैनल बिकाउ हैं तो सभी ने इकट्ठे मोदी से ही पैसे क्यों खाए? चैनलों ने कांग्रेस से पैसे क्यों नहीं लिए? बिन पैसे के तो समाजवादी पार्टी भी एक दिन नहीं चल सकती... तो आजम की पार्टी ने पत्रकारों को क्यों नहीं खरीद लिया? क्या पिछले ६५ सालों में राजनीतिक दलों ने पत्रकारों या चैनलों को कभी भी प्रभावित नहीं किया है... सत्ता या पैसों के जरिए? मान लें कि पैसों का खेल पहले भी हुआ तो उन चुनावों के समय मीडिया पर आरोप क्यों नहीं लगे? क्या बीजेपी को छोड़ बाकि सभी राजनीतिक दल राजा हरिश्चंद्र की तरह जीने का दावा कर सकने की हिम्मत रखते हैं? असल में साल २००९ से पत्रकारों ने जिस तरीके का व्यवहार किया है उसने कांग्रेस और अन्य कथित सेक्यूलर राजनीति वाले दलों को उन्हें गुलाम की तरह इस्तेमाल करने योग्य हथियार मानने के लिए लुभाया है। पहले भी इंडिया का मीडिया विचारधाराओं की प्रतिबद्धता में उलझने की भूल करता रहा है... और इस चक्कर में बेईमानी भी करता रहा है। आजादी के आंदोलन में लगे लोगों को मीडिया का सहयोग कुछ हद तक मिलता रहा। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए इसे जायज भी माना जा सकता था। लेकिन आजादी के बाद मीडिया को अपने रूख में जो तब्दीली करनी चाहिए थी वो चाहत नहीं दिखी। सुनियोजित तरीके से वाम कार्ड होल्डरों और लोहियावादियों का मीडिया में प्रवेश और इन विचारधाराओं के हिसाब से जनमत को प्रभावित करने का खेल चलता रहा। फिर भी कुछ मर्यादाएं रख छोड़ी गई... न्यूज सेंस से खिलवाड़ नहीं किया गया। लेकिन हाल के समय में न्यूज सेंस से भी छेड़छाड़ की गई है... ... एंटी इस्टैबलिस्मेंट मोड में होने की मनोवृति को भुलाकर सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष को लताड़ने की परिपाटी को पुष्ट किया गया.... मुजफ्फरनगर दंगों की रिपोर्टिंग दिलचस्प तथ्य पेश करने योग्य हैं..... भड़काउ भाषण देने वाले नेताओं की फेहरिस्त से कांग्रेसी नेता का नाम एबीपी न्यूज के पैकेज से गायब होना नतमस्तक होने की पराकाष्ठा थी... बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुए लाठीचार्ज के विजुअल केन्द्र की सत्ता की धमकी पर उपयोग नहीं करने जैसे पत्रकारिए अपराध किए गए... जाहिर है सत्ताधीशों का मन चढ़ेगा ही... आरोपों की बौछार के बीच मीडिया को अपने अंदर झांकने का वक्त आ गया है... साख पर बट्टा न लगे इसके लिए वे फौरी तौर पर आरोप लगाने वालों को जवाब दें साथ ही पत्रकारों को पानी में डूब कर नहीं भींगने की कला की ओर रूख करने के बारे में सोचना चाहिए ..
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