life is celebration

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22.4.15

गजेन्द्र हंसा भी था ....

गजेन्द्र हंसा भी था .... 
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संजय मिश्र 
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मां जनती है... संतान के लिए उसकी ममता विवेक नहीं देखती... एक रिपोर्टर (पत्रकार) जब अपनी खबर फाइल कर देता है तो उसे प्रसव पीड़ा के बाद के संतोष जैसा ही महसूस होता है... किसान खेत में जब लहलहाती फसल देखता है तो वो उस मां की तरह खिल जाता है.. जो अपने उठे हुए पेट देख छुइ-मुइ सी रहती है... फसल पर कोई आफत आ जाए तो वह किसान मिसकैरेज वाली पीड़ा के आगोश में चला जाता है... 


इंडिया में ओले और पानी के कारण फसल बर्बाद होने पर लोगों का ध्यान कई दिनों से टंगा हुआ है... पर दर्द जतन से झांक नहीं पाया ... राजस्थान के गजेन्द्र ने जो लीला दिखाई... अपनी ईहलीला समाप्त कर... उसने किसान की पीड़ा के वीभत्स रूप से सामना करवा दिया... जो भी सार्वजनिक चेहरे इस मुद्दे पर स्टेकहोल्डर बनने को आतुर थे... सबका चेहरा उतर गया...
पीएम बस ट्वीट कर पाए... राहुल का मुंह लटक गया... केजरीवाल जीवन भर आंखों के सामने मौत को गले लगाने वाले उन दृष्यों को भुला नहीं पाएंगे... अपने वलंटियर की मौत रूपी अपने अभाग्य को कोसते रहेंगे...घुट-घुट कर... नीतीश भाग-भाग कर बिहार के विभिन्न इलाकों में ओले, आंधी, तूफान से हुई बर्बादी को देख रहे... सारे बयानवीर निस्तेज बने बैठे हैं... 


देश मदहोश था... जमीन बिल और फसल बर्बादी जैसे निहायत ही दो अलग अलग किस्म के मुद्दों के फेट-फांट पर... गजेन्द्र ने चेता दिया कि सुधीजन फसल बर्बादी पर धाती पीटने का अभिनय कर लें या फिर जमीन बिल पर... पेड़ पर चढे गजेन्द्र के विजुअल्स को याद करें... फिर-फिर से देखें... वो एक दो बार हंसा भी था... वो हंसी किसान के नाम पर रोने वालों के अभिनय देख निकल आए थे या फिर वो जीवन के मजाक बनने पर फूट निकला था... ? 


मोदी महीने भर से अपने नेताओं को कह रहे कि जनता को हकीकत बताई जाय... कब बताएंगे किसी को नहीं मालूम... जमीन बिल पर बताएंगे या फसल तबाही पर ये भी स्पष्ट नहीं ? ... पेड़ पर लटके किसान ने कह दिया है कि फसल की हालत देखकर किसान अधीर हो चला है... 


राहुल अवतरित हुए.... किसानों के दर्द पर संसद में बिना लिखा भाषण दिया... उंचे स्वर में बोले... नहीं मालूम कि इंडिया के किसानों ने उनके संबोधन में अपनी पीड़ा को छलकते देखा या नहीं... पर संसद से निकलने के बाद मीडिया के सवाल ने देश को चौंकाया होगा--- राहुलजी आपका भाषण कैसा था--- राहुल ने भी बिना समय गंवाए कहा--- भाषण अच्छा रहा-- तो क्या राहुल परीक्षा देने गए थे? ... और खुद अपनी परीक्षा का नतीजा भी बता दिया... 


भाषण से पहले राहुल के घर के सामने किसानों का जमावड़ा... किसान के पहनावे में खड़े कई लोगों के हाथों में तख्ती थी जिसमें राहुल के फोटो लगे थे... फसल चौपट होने से गमजदा किसान तख्ती लेकर घूमेगा क्या?.. संसद के भाषण के बाद सोनिया के आवास पर फोटो सेशन... मिसकैरेज से गुजरने वाले किसान के लिए फोटो सेशन?... संजीदगी का कौन सा ग्रामर लिख रहे थे कांग्रेसी? 


तबाही हुई तो मुआवजा मिलेगा...पहले भी ऐसा ही होता रहा... इस दफा भी... जाहिर है मुआवजा राज्य सरकारें बांटेंगी... पर किसानों के नाम पर पूरे राष्ट्रीय विमर्श में राज्य सरकारों पर कोई प्रहार नहीं... संसद में किसानों की आत्महत्या से जुड़े राज्यवार आंकड़े जब देश के कृषि मंत्री ने रखना शुरू किया तो राहुल अपने नेताओं को लेकर संसद से निकल गए... असल में अधिकांश राज्यों ने जो रिपोर्ट भेजी है उसमें आत्महत्या से इनकार किया गया है... यूपी की रिपोर्ट भी यही कह रही थी... पर मुलायम पत्रकारों से किसान की समस्या पर निर्लज्ज होकर प्रवचन झाड़ रहे थे... 


मुआवजा ब्लाक स्तर पर बंटेगा .... बंट रहा होगा... उस पर निगाहें घूमने में दिक्कत साफ देखी जा रही है... बिहार में नंगे होकर प्रदर्शन हुए... खेत में लगी गेंहूं की फसल को किसानों ने अपने हाथ से आग लगाई... स्त्रियों के भूगोल में रूचि रखने वाले शरद यादव मुखर नहीं हुए... नीतीश और लालू भी नहीं... न जाने पूर्व पीएम और किसी जमाने में किसान नेता रहे देवगौड़ा क्या कर रहे होंगे ... 


दिलचस्पी मुआवजे पर है या पीएम मोदी की लानत-मलानत पर? ... गजेन्द्र अपनी सिसकी को दबाकर शायद इसी राजनीतिक सोप-ओपेरा पर हंस रहा होगा... येचुरी भी उसे देखने अस्पताल हो आए... उसके ओठों में इसी सोप-ओपेरा पर निकले अट्टहास को लाज से पढने गए हों...

5.3.15

हे पार्थ.. मुझे मत संभालो

हे पार्थ.. मुझे मत संभालो  
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संजय मिश्र
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योगेन्द्र और प्रशांत को धकियाए जाने पर जितनी हलचल आआप में है उससे कहीं ज्यादा बेचैनी मीडिया और बौद्धिकों के एक हिस्से के बीच पसरी है... रूथलेस होकर देखें तो कह सकते कि इस प्रकरण को लेकर इस जमात में ही दरार सतह पर आ गई है...ये खलबली महानता थोपने की जिद पर अड़े पत्रकारों, पेशेवरों और प्रोफेसरों के कारण पनपी है... साथ ही उस लालसा के कारण भी जन्मी है कि केजरीवाल को मोदी विरोध की देशव्यापी धूरी बनाया जाए ... धूरी बनाने के लिए मफलर मैन पर आदर्शवादी राजनीति करने वाले का मुलम्मा चढ़ाया जाए।

जिस दिन योगेन्द्र और प्रशांत पीएसी से अपमानित करके निकाले गए उस दिन वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का चेहरा उड़ा हुआ था... ... इस पत्रकार के कहे एक-एक शब्द में केजरीवाल के लिए निराशा झांक रही थी... मीडिया के भीतर ..देशव्यापी विस्तार और मोदी विरोधी धूरी की मुहिम के एक चाणक्य पुण्य भी रहे हैं...पर मकसद के फिसलने के गम में डूबने वालों में वे अकेले नहीं हैं ... शपथ ग्रहण समारोह के दिन ही बिजली गिरी थी इनपर... जब केजरीवाल ने ऐलान कर दिया था कि फिलहाल वे दिल्ली से हिलेंगे नहीं... मतलब ये कि न तो वे वैकल्पिक और आदर्श वाली राजनीति का भार सह सकते और न ही इंडिया भर में विस्तार की तत्काल इच्छा रखते।

केजरीवाल ने साफ संकेत किया है कि प्रतीकों की राजनीति को जमीन पर उतारना संभव नही ... ऐसा करना व्यावहारिक नहीं... बावजूद इसके योगेन्द्र गुट के जरिए जाति और धर्म की राजनीति का इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करने वाले केजरीवाल पर दबाव बनाया गया... उस योगेन्द्र को अगुआ बनाया गया... वैकल्पिक राजनीति का पहरूआ बनाया गया... जी हां... उसी योगेन्द्र को जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी जीत सुनिश्चित करने के उमंग में जातिवादी कार्ड खेला था...उन्होंने खास जाति के वोटरों के बीच यादव होने का हवाला दिया था... अभी के प्रकरण में योगेन्द्र को लाभ हुआ है....इस संघर्ष ने उनका कद और बड़ा किया है।

गौर करने वाली बात है कि केजरीवाल की पार्टी के नेता निहायत ही मद्धम स्वर में नई राजनीति की बात करते...पार्टी के बाहर वाले उनके पैरोकार ही नई राजनीति को उच्च स्वर देते आए हैं... केजरीवाल के लोग पहले से ही वो सारे हथकंडे अपनाते रहे हैं जो पारंपरिक राजनीति के दायरे में आती है ... इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले भी अंदर वाले लोग इस हकीकत पर बेपर्द होने से बचने के लिए बाहर वालों का सहयोग लेते रहे...इसे ढकते हुए मीडिया ने केजरीवाल के विरोधियों की चाल को नकारात्मक राजनीति करार देकर पंक्चर कर दिया।

मौजूदा प्रकरण में वही शब्द सामने तैर रहे हैं जिन्हें नकारात्मक कहा गया था...आशुतोष धूंध साफ नहीं करते कि अल्ट्रा लेफ्ट की उनकी परिधि में प्रशांत ही हैं या केजरीवाल का – अराजक हूं- वाला उद्घोष भी... केजरीवाल के विरोधियों को नकारात्मक कहने वाले पत्रकार सन्न हैं...कांग्रेस का विकल्प बनाने के सपने, मोदी विरोध की धूरी ठोकने की चाहत और इस लक्ष्य की खातिर जिस केजरीवाल पर महानता थोपने की जद्दोजहद है वही नायक फिलहाल तैयार नहीं हो रहा...वैसे ही जैसे हल जोतने वाला बैल अचानक जुआ गिराकर बैठ जाए... केजरीवाल जानते हैं कि दिल्ली जीत के समय लालू और नीतीश सरीखे नेताओं की प्रशंसा लंबे समय के लिए नहीं है... उन्हें इत्मिनान नहीं है कि रिजनल क्षत्रप उनका नायकत्व स्वीकार कर ही लेंगे।  


आआप में दखल रखने वाले मीडिया के लोगों और बैद्धिकों में सपने बिखरने से मायूसी है... ... उनकी चाहत और केजरीवाल की रणनीति के बीच टकराव से वे आहत हैं... विचारों का घर्षण कह कर वे इस संकट से उबरने के संकेत भी दे रहे हैं... वे अभी योगेन्द्र गुट पर दांव लगाए रखेंगे ताकि केजरीवाल पर दबाव बनाए रखा जाए... सुलह हो जाए... इसमें नाकाम रहे तो वे आखिरकार केजरीवाल पर ही आस्था जताते पाए जाएंगे... मफलर मैन की शर्तों पर ही...पार्टी के कनविनर पद पर बने रहने वाले महत्वाकांक्षी केजरीवाल मुफीद वक्त का इंतजार करेंगे...पैर पसारने के लिए... और तब ये बाहरी लोग सुप्रीमो केजरीवाल को ही सेवियर करार देने से नहीं हिचकेंगे... इंडिया के इस तरह के कथित समझदार लोगों का ये शगल रहा है।   

22.2.15

बड़ी लकीर का विप्लव

             बड़ी लकीर का विप्लव
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             संजय मिश्र
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बीजेपी के इशारे पर मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को मझधार में फसा दिया--- कुछ इसी तरह की हेडलाइन टीवी चैनलों पर चले तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे... बिहार में जो राजनीतिक विप्लव आया और आगे जो कुछ होगा उसकी ऐसी ही नादान व्याख्या कर टरकाया नहीं जा सकता.... गहरे में उतरें तो समझ आ जाएगा कि मामला मंडल राजनीति पर वर्चस्व के लिए दो दावेदारों की महत्वाकांक्षा के टकराव का है।  

धूंध इसलिए छाई है कि दिल्ली की सियासत की अपनी जरूरत है जबकि पटना की चाल थोड़ी अलग है। दिल्ली की उम्मीद यानि कथित सेक्यूलर राजनीति की खातिर चहेते नीतीश की जरूरत ..मीडिया के खांचे में भी बिहार के लिए यही चेहरा चाहिए... सो इस राज्य के राजनीतिक बखेरे के पीछे एकमात्र कारण बीजेपी की साजिश को बताया गया... लेकिन पटने की हलचल बिन मंडल राजनीति के संभव कहां... यहां का राग तो मंडल और विकास के बीच कशमकश के आसरे है।

बिहार में मंडल राजनीति के कई पिता हुए ... लालू हैं... और अब नीतीश भी हैं...बीच-बीच में दलित आकांक्षा हुलकी मारा करती... लालू के युग में दलित उफान के लिए अपेक्षित खाद-पानी नहीं मिला...  जब पिछड़ावाद इस उभार पर हमलावर हुई तो सीपीआई (एमएल) का अबलंब जरूर मिला... पर दलित चेतना को ये नाकाफी ही लगा... नीतीश आए तो उनकी मुराद कुलाचें मारने लगी...वे उम्मीद से तर हो गए।

दलित-महादलित राजनीति से शंका के कुछ बादल उमड़ पड़े... न्याय के साथ विकास और सुशासन की सख्ती में मंडल के दौर वाली बेसब्री की गुजाइश कम थी... बीजेपी से अलग होने के निर्णय के बाद जेडीयू के अन्दर जो असंतोष पनपा उसे थामने के लिए नीतीश ने दिल्ली की सेक्यूलर राजनीति के शोर का सहारा लिया.. न्याय के साथ विकास पीठ पीछे रहा और साल २०१४ की फरवरी में आरजेडी के १३ विधायकों को तोड़ने की कवायद हुई ... उसी साल लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने जो घोषणापत्र जारी किया वो मंडलवाद की ओर लौटने का शंखनाद था।

उन्होंने मान लिया कि उनकी नैया पार लगने के लिए मंडल की पतवाड़ जरूरी है..... चीजें उसी दिशा में जा रही थी... जीतन राम मांझी भी उसी शतरंज के मोहरे बनाए गए... महत्वाकांक्षी मांझी शुरू में तो सावधान रहे...पर धीरे-धीरे वे पैर पसारने लगे... बतौर सीएम उनके सरकारी निर्णय तो संकेत दे ही रहे थे उनके सोचे समझे बयान ने नीतीश के कान खड़े कर दिए। बेशक मौजूदा संकट में बीजेपी और आरजेडी की रणनीति – फिशिंग इन द ट्रबल्ड वाटर – वाली रही... और ये – ट्रबल – मांझी के बयानों ने पैदा किए थे... नीतीश के मंसूबे चकनाचूर हो रहे थे और उनकी यूएसपी तार-तार हो रही थी...मांझी एक तरफ मंडल मसीहा का दावेदार बनने की ओर अग्रसर हो गए तो दूसरी ओर वे नीतीश की छवि ध्वस्त करने लगे।

नीतीश की कोशिश मंडल अवतार के साथ ही गैर भ्रष्ट और सुशासन वाली छवि को एक साथ पिरोने की रही... उनके मंडलवाद में कोलाहल नहीं... हाहाकार नहीं... बदला लेने वाली उग्रता नहीं...बस.. शांति से...धीरे-धीरे मकसद पूरा कर लेने की आतुरता.... वहीं जीतन राम मांझी ने लालू शैली को अपनाया ही नहीं उसे विस्तार भी दिया...दलितों को पढ़ने-लिखने, शराब छोड़ने, परिवार के लिए सजग रहने का जितना आग्रह मांझी ने दिखाया उतना किसी मंडल नेता ने आज तक नहीं किया...मांझी के बयानों की पड़ताल करें तो नीतीश खेमे में मची खलबली समझ में आ जाएगी।

राजनीति हाथ लगे अवसर का लाभ उठाने का नाम है...इसे मांझी ने बखूबी इस्तेमाल किया... शुरूआत १८ अगस्त से करें...उस दिन मधुबनी के ठाढ़ी में वे परमेश्वरी देवी मंदिर के दर्शन को गए... लेकिन महीने भर बाद २८ सितंबर को पटने में आरोप लगा दिया कि उनके लौटने के बाद उस मंदिर को धोया गया... मौका था भोला पासवान शास्त्री की १०० वीं जयंती के कार्यक्रम का... उनकी ही पार्टी के कई नेताओं ने इसे मनगढंत प्रकरण करार दिया।

लेकिन लालू शैली में संदेश जा चुका था... लालू कहा करते थे कि नाथ पकड़कर वे भैंस पर चढ़ते थे... तो मांझी ने चूहे खाने की बात उठाई... १७ अक्टूबर को डाक्टरों का हाथ काट लेने की बात कही तो अगले ही दिन गरीबों का काम नहीं होने पर अधिकारियों का हाथ काट लेने की धमकी दे दी...११ नवंबर को कह दिया कि सवर्ण विदेशी हैं... मूल निवासी हम... राजा के हक हमरा तो राज दूसरे कैसे करेंगे..  लगे हाथ कहा कि जिसके पेट में दर्द हो रहा वे अंतरी निकलवा लें।

मांझी के ये बयान लालू के भूराबाल साफ करो के नारे से भी वीभत्स संदेश दे रहे थे... गठबंधन तोड़ने के बाद जेडीयू के रैंक एंड फाइल में बढ़ते असंतोष को दबाने के लिए नीतीश का मांझी के रूप में जो मास्टर स्ट्रोक था वो अब भारी पड़ रहा था... इतना ही नहीं नीतीश की शो-केस करने वाली योजनाओं को मांझी ने जो विस्तार दिया वो दलितों के बीच उनका कद बढ़ा रहा था... मांझी का बार-बार ये कहना कि नीतीश से बड़ी लकीर खींच दी है... जाहिर है - बड़ी लकीर – नामक शब्द नीतीश को शूल की तरह चुभता होगा।

मांझी इतने पर नहीं रूके... सीएम हूं पर डिसिजन लेने में डर लगता है (२६ अक्टूबर)... मुझे तो लाचारी में सीएम बनाया गया है (२४ अक्टूबर) जैसे बयान रिमोट से सरकार चलने के आरोप को हवा दे रहे थे... उधर स्वास्थ्य मंत्री रामधनी सिंह का --- मैं लेटर बाक्स हूं- वाला बयान इसे पुष्ट कर रहा था... आखिरकार २५ नवंबर को नीतीश को जहानाबाद में झेंपते हुए कहना पड़ा कि आज की राजनीति में रिमोट से सरकार चलाने जैसी बात नहीं होती।

नीतीश इतराते थे कि उनके राज में भ्रष्टाचार नहीं हुआ। मांझी इसकी पोल खोलने को बेताव रहे... बिजली बिल में खुद घूस देने की बात कह दी.... ठीकेदार ठनठना देता है तभी बनता है एस्टीमेट (२७ दिसंबर) ... टीकाकरण के फर्जी आंकड़े बनाए जाते हैं (२० दिसंबर)...इन बयानों से मन नहीं भरा तो कह दिया कि मुझे भी कमीशन का हिस्सा आता है... इस बात से सजग कि इन बयानों से नीतीश की इमानदार वाली यूएसपी ध्वस्त हो रही।

महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ चली कि जीतन राम मांझी दलित पीएम बनने के सपने देखने लगे...अगला सीएम दलित होगा...लोग कह हथी अगलो सीएम जीतन होतई....ठोकर खाते-खाते सीएम बन गए.. एही ठोकर में कहीं हम पीएम न बन जाएं (१९ नवंबर) ....और फिर ०३ दिसंबर को दुहरा दिया कि ठुकराते ठुकराते सीएम बन गया तो एक दिन पीएम भी बन जाउंगा।

महत्वाकांक्षा का दवाब इतना पड़ा कि मांझी सीधे-सीधे नीतीश को चुनौती देने लगे... नसीहत देते रहिए, हम नहीं झुकेंगे (२३ नवंबर) ....बूढ़ा तोता पोस नहीं मानता (१३ दिसंबर) जैसे बयान सियासी तौर पर नीतीश के लिए झेलना मुश्किल हो रहा था... चुनौती देने की मनोदशा में मांझी कैसे पहुंच गए? असल में उन्होंने बिहार में अपना कद बड़ा कर लिया और कथित २२ फीसदी वोट-बैंक का मसीहा होने के नाम पर विधानसभा चुनाव में जेडीयू का सीएम उम्मीदवार बनना चाहते थे।

लेकिन जनता परिवार के विलय की स्थिति में उनकी दावेदारी संभव नहीं होती...यहां नीतीश की दावेदारी बड़ी थी... यही कारण है कि मांझी विलय के विरोध में थे और विलय के विरोधी विधायकों की धूरी बन गए... राजनीतिक तौर पर नीतीश को हासिए पर नहीं धकेल पाए मांझी... लेकिन हैसियत ऐसी बना ली है कि चुनावों तक प्रासंगिक बने रहेंगे।    


27.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-६ 
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संजय मिश्र
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लालू छुटपन में जब गांव के अपने आंगन में मिट्टी में लोटते होंगे...मुलायम तरूणाई में जब गांव के गाछी में पहलवानों के दांव देख अखाड़े में एन्ट्री मिलने के सपने देख रहे होंगे... कम से कम उस समय तक... मिथिला के गांवों की हिन्दू ललनाओं का अपनी देहरी के सामने से गुजरते मुसलमानों के मुहर्रम पर्व के दाहे (तजिया) का आरती उतारना आम दृष्य रहे..... खुदा-न-खास्ता देहरी के सामने किसी पेड़ की डाल दाहा की राह में अवरोध बनता तो उसी घर के पुरूष कुल्हाड़ी से उसे छांटने को तत्पर रहते... जुलूस से निकल कर किसी मुसलमान को डाल नहीं काटना पड़ता ... इन नजारों के दर्शन आज भी उतने कम नहीं हुए हैं।  

पर आरती उतारने वाली वही महिला मुसलमान के हाथ का बना खाना कुबूल करने को तैयार नहीं होती थी... ये हकीकत रही ... अंतर्संबंधों का ये जाल सैकड़ो सालों में बुना गया होगा... उस समय से जब मुसलमान राजा रहे होंगे और हिन्दू प्रजा... समय के साथ वर्केबल रिलेशन आकार ले चुका होगा... गंगा-जमुनी तहजीब के इस तरह के अंकुर सालों की व्यवहारिकता से फूटते आ रहे होंगे...और तब न तो जहां के किसी हिस्से में समाजवादी होते थे और न ही वाममार्गी... जमीनी सच्चाई ने इस भाव को सिंचित होने दिया होगा।

बेशक संबंधों के इस सिलसिले को आर्थिक गतिविधियों से संबल मिलता रहा... और जब एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता हो तो धार्मिक प्राथमिकताओं की सीमा टूटना असामान्य नहीं है। इंडिया के दो बड़े समुदाय जब इस तरह जीवन यात्रा को बढ़ा रहे हों तब हाल के कुछ प्रसंग आपको चकित करेंगे... खासकर बहुसंख्यकों का दुराग्रह कि मुसलमान युवक डांडिया उत्सवों में न आएं... जाहिर है ये बहुसंख्यक दरियादिली से इतर जाने वाले लक्षण हैं... इसमें अपनी दुनिया में सिमटने की पीड़ा के तत्व झांक रहे हैं जो कि नकारात्मक ओवरटोन दिखाते हैं।

ऐसा क्या हुआ कि हिन्दू इस तरह की सोच की ओर मुड़ा... समझदार तबके को इसके कारणों पर चिंता जतानी चाहिए थी... पर इस देश ने ऐसा नैतिक साहस नहीं दिखाया... इसी बीच लव जिहाद के मामले आए और सुर्खियां बने... चर्चा चरम पर रही जब कई राज्यों में उपचुनाव होने वाले थे... पर ये व्यग्रता उस दिशा में नहीं गई जिधर उसे जाना चाहिए था... दक्षिणपंथी संगठनों की निगाहें चुनाव में फायदा उठाने पर टिकी रही जबकि गैर-दक्षिणपंथी तबके का रूख न तो लव जिहाद के पीछे की मानसिकता की ओर गया और न ही चुनावी लाभ लेने की प्रवृति को उघार करने में रत रहा।

जाहिर है लव जिहाद में नकारात्मक मनोवृति के एलीमेंट हैं... यहां प्रेम की पवित्रता पर धर्मांतरण का स्वार्थ हावी होता है... जिसे प्रेम कर लाए... इस खातिर ... उसकी प्रताड़ना की ओर प्रवृत होने में संकोच तक नहीं है...लड़की के धर्म के लिए नफरत भाव और बदले की विशफुल इच्छा...मीडिया में आई खबरें लव जिहाद के लिए सचेत प्रयास के पैटर्न को उजागर कर रही थीं...मेरठ की घटना ने पहले चौंकाया... कांग्रेस के प्रवक्ता मीम अफजल ने निज जानकारी के आधार पर धर्म परिवर्तन के लिए प्रताड़ना की बात को स्वीकार किया। घटना की निंदा की और दोषियों को सजा देने की बात कही... रांची की निशानेबाज तारा का मामला तो आंखें खोलने वाला था।

लेकिन गैर-दक्षिणपंथी तबके का नजरिया तंग तो रहा ही साथ ही चिढ़ाने वाला भी... तीन पहलू सामने आए... लव जिहाद के अस्तित्व को नकारना, लव जिहाद की तुलना गोपी-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम के उच्च शिखर तक से कर देना... और लव जिहाद जैसे नकारात्मक मनोवृति को डिफेंड करने के लिए सकारात्मक भावों वाली गंगा जमुनी तहजीब को झौंक देना...गंगा जमुनी तहजीब को ढाल बनाने वाले इस संस्कृति को पुष्ट कैसे कर पाएंगे?

इस बीच सोशल मीडिया में एक शब्द – आमीन ( जिसका अर्थ है ..ईश्वर करे ऐसा ही हो) - चलन में है... अधिकतर वाममार्गी हिन्दू अपने आलेख के आखिर में जानबूझ कर इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं... इस उम्मीद में कि इससे गंगा-जमुनी तहजीब की काया मजबूत होगी... संभव है उन्हें पता हो कि देश के कई हिस्सों में मुसलमान स्त्रियां सिंदूर लगाती हैं...और अब ऐसी महिलाओं की तादाद में हौले-हौले कमी आ रही है...क्या इंडिया में सिंदूर लगाने की स्त्रियोचित लालसा से मुसलमान स्त्रियों के भाव-विभोर हो जाने में गंगा-जमुनी संस्कृति के तत्व नहीं खोजे जा सकते?

क्या ताजिया के जुलूस की आरती उतारने वाले दृष्य नहीं सहेजे जाने चाहिए? क्या आपको दिलचस्पी है ये जानने में कि कोसी इलाके के कई ब्राम्हण – खान – सरनेम रखते हैं? ... कभी आपने रामकथा पाठ.. भगवत कथा पाठ वाले प्रवचन सुने हैं... अभी तक नहीं तो थोड़ा समय निकालिए... सबके न सही मोरारी बापू और चिन्मयानंद बापू को ही सुन लीजिए... मुसलिम जीवन के कई प्रेरक प्रसंग वो सुनाते हुए मिल जाएंगे ... कबीर तो घुमड़-घुमड़ कर आ जाते हैं उनकी वाणी में।

गंगा-जमुनी संस्कृति के अक्श को जब देखना चाहेंगे समाज में तब तो दिखेगा उन्हें... कला, संगीत और आर्किटेक्चर की विरासत से आगे भी है दुनिया... चौक-चौराहों के लोक में भी ये जीवंतता के साथ दिखेगा... छठ, दुर्गा पूजा और गणेश पूजा की व्यवस्था संभालने वाले मुसलमानों का हौसला भी बढ़ाएं कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट।

हिन्दू-मुसलिम डिवाइड से दुबले हुए जा रहे लोगों को बहादुरशाह जफर के पोते के आखिरी दिनों की तह में जाना चाहिए... साल १८५७ की क्रांति से अंग्रेज आजिज आ चुके थे... वे बहादुरशाह जफर के परिजनों के खून के प्यासे हो गए थे... दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास बहादुरशाह के पांच बेटों को उन्होंने बेरहमी से मार दिया... १८५८ में बहादुरशाह जफर के पोते और सल्तनत के वारिस जुबैरूद्दीन गुडगाणी दिल्ली से भाग निकलने में कामयाब हो गए... छुपते रहे... आखिर में १८८१ में बिहार के दरभंगा महाराज ने जुबैरूद्दीन को शरण दी साथ ही सुरक्षा के बंदोवस्त किए...इस तरह के रिश्तों की याद किसे है? डिवाइड की चिंता जताने वालों को नहीं पता कि जुबैरूद्दीन का मजार किस हाल में है?

उन्हें साई बाबा की याद तो आ जाती है पर दारा शिकोह का नाम लेने में संकोच होता है...टोबा-टेक सिंह जैसे पात्र बिसरा दिए जाते... राम-रहीम जैसे नामकरण में उनकी रूचि नहीं है... वे बेपरवाह हैं उस ममत्व से जिसके वशीभूत हो मांएं मन्नत के कारण बच्चों के दूसरे धर्म वाले नाम रखती हैं...वे लाउडस्पीकर विवादों में तो पक्षकार बनने को तरजीह देते पर कोई अभियान नहीं चलाते ताकि सभी धर्मों के धार्मिक स्थल लाउडस्पीकर मुक्त हों...ये कहने में कैसा संकोच कि भक्तों की पुकार राम या अल्लाह बिना कानफारू लाउडस्पीकर के भी सुनेंगे?

वे दंगों से उद्वेलित नहीं होते... उनका मन दंगा बेनिफिसियरी थ्योरी पर टंग जाता है...उनका चित वोट को भी सेक्यूलर और कम्यूनल खांचे में विभाजित करने को बेकरार हो जाता है... सुलगते माहौल में सुलह नहीं कर सकते तो कम से कम हिन्दुस्तानी (भाषा) और शायरी में दिल लगाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें... पर मुसलमानों की तरक्कीपसंद मेनस्ट्रीम सोच की राह में बाधा खड़ी न करें... उन्हें याद रखना चाहिए कि नेहरू को राज-काज चलाने के लिए संविधान में सेक्यूलर शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी।

समाप्त -------------------



23.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-५
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संजय मिश्र
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साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तब से इसकी तरह- तरह से व्याख्या की जा रही है... एक तबका (वाममार्गी) इसे हिन्दू रिवाइवलिज्म की आहट करार दे रहा है ...तो कोई इसे बहुसंख्यकवाद का करवट बदलना बता रहा है... वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी इस राय के हुए कि पार्टी की छवि एक समुदाय (मुसलमान) की हितैषी बन कर रह गई जिसका खामियाजा इसे भुगतना पड़ा... तो क्या ये हिन्दुओं का कोई दबा हुआ गुस्सा है जिसके उबाल मारने में कांग्रेस के अहंकार, महंगाई और घोटालों ने केटलिस्ट की भूमिका अदा की?

अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे फिर से बीजेपी के पक्ष में आए हैं तो क्या ये इसी हिन्दू अभिव्यक्ति की दुबारा तस्दीक कर रही है? माना तो यही जाता कि किसी भी देश का बहुसंख्यक आम तौर पर नाराजगी नहीं दिखाता ... फिर ऐसा क्या हुआ कि वे खास तरह की राजनीति को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं?... क्या कांग्रेस को अहसास था कि – देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, ओसामा जी, आतंकवाद के आरोपियों के लिए पीएम मनमोहन को रात भर नींद नहीं आई, आजमगढ़ के इनकाउंटरपीड़ियों के लिए सोनिया जी फूट-फूट कर रोई......- जैसे उद्गार हिन्दुओं पर इतना गहरा असर छोड़ेंगे?    

लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के बीच के काल में बिहार में महागठबंधन बना है... लालू प्रसाद ने हुंकार भरते हुए कहा कि मोदी के रथ को मंडल से रोका जाएगा... लालू जब ये कह रहे थे तो पिछड़ों और दलितों के लिए किसी अनुकंपा भाव से द्रवित हो कर नहीं बोल रहे थे...मंडल से उनका इशारा यही था कि मोदी के कारण जिस बहुसंख्यक उभार की बात कही जा रही उससे उन्मादी जातीए राजनीति के जरिए हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के बीच दरार चौड़ी करके मुकाबला किया जाएगा...लालू राज को याद करें तो उनके इरादों की सरल व्याख्या जातियों के बीच नफरत फैलाने में ही खोजा जा सकता है। 

मुसलमानों के बरक्स हिन्दू मानस को समझने के लिए बीते समय में गोता लगाना लाजिमी है...नेहरू ने जब हिन्दू कोड बिल पर जिद की तो सनातनियों में खासा आक्रोश पनपा... बिल के विरोधी आजादी मिलने से खुश थे... नव जीवन की उम्मीदों से उत्साहित ... वे मान कर चल रहे थे कि सभी भारतवासी की खातिर नया सवेरा अवसर बन कर आया है... लिहाजा नए सार्वजनिक व्यवहार के लिए मन को दिलासा दे रहे थे... उनको अहसास था कि सभी नागरिकों के लिए समान सिविल कोड आएगा और उन्हें भी कुर्बानी देनी होंगी... लेकिन नेहरू ने अपनी लोकप्रियता का उपयोग कर बिल को रास्ता दिखा ही दिया।

विभाजन के बाद हिन्दुओं के लिए ये पहला झटका था.... बेमन से बिल विरोधी इस पर राजी हुए... नेहरू ने भी इस टीस को महसूस किया लेकिन पहले पीएम का भरोसा था कि हिन्दू के जीवन में इससे जो बदलाव आएगा वो मुसलमानों को भी उकसाएगा और समय के साथ वे सिविल कोड की ओर रूख कर लेंगे... छह दशक बीत चुके हैं इस देश के जीवन के... लेकिन नेहरू के उस भरोसे का कहीं अता-पता नहीं है।

शाह बानो प्रकरण के समय आरिफ मुहम्मद खां का ऐतिहासिक विरोध नजीर तो बना लेकिन राजीव के कांग्रेस से हिन्दू खूब निराश हुए... आज भी मुसलमान इस मामले में किसी दखल पर सोच-विचार करना भी चाहें तो मुसलमानपरस्ती वाला राजनीतिक और बौद्धिक जमात उसकी ढाल बनने को आतुर हो जाता है। कहा जाता है कि सिविल कोड की बात जुबां पर लाना भी कम्यूनल सोच है... ये जमात कहने लगता है कि यूनिफार्म सिविल कोड का मसला संवैधानिक है ही नहीं... इंडिया के लोग इन दलीलों को सुनते आए हैं... पर कोई भी विदेशी संविधान विशेषज्ञ ऐसी सोच पर हैरान हुए बिना नहीं रहेगा।

ऐसा ही एक मसला वंदे मातरम गान से जुड़े सन्यासी विद्रोह का है..पलासी युद्ध के बाद का समय है जब बिहार की पूर्वी सीमावर्ती जिलों से लेकर आज के बांग्लादेश के पश्चिमी जिलों तक सन्यासियों ने इस्ट इंडिया कंपनी और उनके समर्थक जमींदारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूके रखा... स्थानीय जमींदारों की लूट-खसोट और आतंक से लोगों में दहशत थी... वारेन हेस्टिंग्स की हाउस आफ लार्ड्स में हो रही इम्पीचमेंट के दौरान लोगों की प्रताड़ना के संबंध में बताते हुए एडमंड बुर्के बेहोश हो गए थे... लोगों की इस तकलीफ की पृष्ठभूमि में ही सन्यासियों ने विद्रोह किया था...विद्रोह के निशाने पर मुसलमान जमींदार भी रहे नतीजतन इंडिया के हुक्मरान इसे आजादी की पहली लड़ाई का सम्मान देने को तैयार नहीं हैं।  

चीन, यूरोप और अमेरिका में गौ-मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है... वहां इस मांस के स्वाद की व्याख्या वेजिटारियन मूवमेंट वालों को चिढ़ाने के लिए उतना नहीं किया जाता जितना कि गौ-मांस मीमांसा इंडिया के वाम, सोशलिस्ट और मध्यमार्गी कांग्रेस के मिजाज वाले लोग करते हैं... बहुसंख्यक मानते हैं कि इसका सीधा मकसद मुसलमानों को खुश करना और हिन्दुओं को चिढ़ाना, सिहाना और अपमानित करना होता है।  

गौ-मांस के लिए लार टपकाने वाले वाममार्गी जानते हैं कि सनातन धर्म के लोग गौ को पूजते हैं... हकीकत है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी... लेकिन वाममार्गी इतिहास की सरकारी किताबों में लिखते हैं--- लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सूअर का मांस अधिक नहीं खाते थे---... इस अंश से ही कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के वोट बैंक मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है... यही कारण है कि कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेसी सिद्धारमैया गौ-हत्या पर राज्य में लगा प्रतिबंध हटा लेते हैं... बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय होता है... हिन्दू क्लेश में रहता है कि वो गौ-भक्षण नहीं करेगा तो ये तबका उसे प्रगतिशील नहीं मानेगा।

संविधान बड़ा आसरा है इस देश के लिए... सार्वजनिन हित के लिए... संबल की खोज बहुसंख्यकों को हो तो हैरानी कैसी... पर ये तबका उस वक्त हैरान होता है जब प्रगतिशील और वाममार्गी इतिहासकार सरकारी इतिहास की किताबों में इन्द्र को ऐतिहासिक मानते हुए सिंधु सभ्यता को नष्ट करने वाला मान बैठते हैं... उनके लिए राम और कृष्ण काल्पनिक हैं पर कृष्ण के भाई इन्द्र ऐतिहासिक हो जाते... आपको भूलभुलैया में घुमाने के बदले सीधे बता दें कि इसका मकसद आर्यों को विदेशी आक्रांता साबित करना है... मुसलमानों की तरह... चलिए आर्य बाहरी हुए और मुसलमान भी ... इसका मतलब ये तो नहीं कि कश्मीर के पंडितों की एथनिक क्लिनजिंग पर राजनेता, बुद्धिजीवी और मीडिया स्तब्धकारी चुप्पी साध ले।

इस देश के अधिकांश कर्ता-धर्ता यहूदियों के दुख पर विलाप करते हुए हिटलर को कोसते रहते हैं पर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर उन्हें सांप सूंघ जाता है। आरएसएस के सदस्यों पर आतंक के आरोप के नाम पर हिन्दुओं को लपेटने से इन्हें गुरेज नहीं रह जाता... यहां तक कि इंडिया के झंडे के केसरिया रंग का खयाल न रखते हुए सैफ्रन टेररिज्म जैसे जुमले इस्तेमाल करता है ये वर्ग... हिन्दुओं को इस बात की तकलीफ रहती है कि उनकी धार्मिकता से जुड़ा रंग है सैफ्रन... दिलचस्प है कि इसकी खेती का केन्द्र है कश्मीर।  

आप सोच रहे होंगे कि यहां पर मसलों की फेहरिस्त लम्बी क्यों होती जा रही? चलिए बस करते हैं ... मूल पाठ यही है कि हिन्दुओं के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं जिस रास्ते वे मुसलमानों के साथ वर्केबल संबंध रखते हैं... पर ६५ साल के जवान देश बताने की सनक रखने वाले पैरोकारों का पुरातन सभ्यता से अपमानजनक वर्ताव अखरता है हिन्दुओं को... कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की छतरी के नीचे इन कोशिशों का वीभत्स रूप सामने आ चुका है... मुसलमान अब दंगों के दाग वाले परसेप्शन से मुक्त कर दिए गए हैं और हिन्दुओं का मानना है कि इस दाग को बहुसंख्यकों पर थोपा जा रहा है...ये बताने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की अगुवाई वाले जमात का क्या मकसद होगा? पर क्या कोई देश बहुसंख्यकों पर दंगों के दाग के बावजूद प्रगति की राह पकड़ने का ख्वाब देख सकता है?


जारी है-----  

18.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-४  
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संजय मिश्र
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१३-१०-२०१२...बिहार के दरभंगा नगर के पोलो ग्राउंड में करीब २० हजार लोग जमा हुए... वे काफी रोष में थे... ... यूएसए गो टू हेल, ओबामा अब बस करो.. जैसे नारे फिजा में गूंज रहे थे... ये लोग अमेरिका में बनी फिल्म इनोसेंस आफ मुस्लिम्स का विरोध कर रहे थे... वे इस बात से आहत थे कि फिल्म में इस्लाम के प्रतीकों से खिलवाड़ किया गया है... अंजुमन कारवां ए मिल्लत की अगुवाई में हुई इस सभा के बाद लौटती भीड़ ने डीएम कार्यालय के दरवाजे के पास तोड़-फोड़ कर दी।

खबर ये है कि ०४-१०-२०१२ को जब इस विरोध मार्च का निर्णय हो रहा था तो मुसलमान समाज के बड़े बुजुर्ग सौ लोगों के साथ प्रतिवाद मार्च निकालने के पक्ष में थे... जबकि युवा मुसलमानों के पक्षधर इसके लिए तैयार नहीं हुए... पत्रकारों के सामने ही समाज के दो खेमों के बीच तल्खी साफ नजर आ रही थी... आखिरकार डेढ़ सौ लोगों के साथ पैदल मार्च की योजना बनी... बुजुर्ग मुसलमान लगातार याद दिलाते रहे कि फिल्म का इंडिया से लेना-देना नहीं है लिहाजा देश के हुक्मरानों के खिलाफ नारेबाजी नहीं हो...लेकिन जब सभा हुई तो २०००० प्रदर्शनकारियों को संभालने में पुलिस के पसीने छूटते रहे।

अब जरा रूख मुंबई का करें ...११-०८-२०१२ को बर्मा की घटनाओं के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान में पुलिस बंदोवस्त अचानक उमड़ आई बेकाबू भीड़ के लिए नाकाफी साबित हुआ... भीड़ ने कई महिला पुलिसकर्मियों को घेर लिया और उससे छेड़खानी हुई... कपड़े नोचे गए ... पास खड़े मीडिया के ओवी वैन जला दिए गए... शहीद स्तंभ को तोड़ दिया गया...ये दृष्य देश के लोगों ने देखे... २५-०७-२०१४ को सहारनपुर दंगों के दौरान भी अचानक आ गई भीड़ की संख्या सबों को चौंकाती रही... ऐसी घटनाएं देश के कई हिस्सों में जब-तब घट रही हैं।

इसमें एक पैटर्न है... उधम मचाने वाली भीड़ में अनुमान से बहुत अधिक तादाद में लोगों का जुटान... मुस्लिम समाज के समझदार तबके का सीमा तोड़ने वाले इन युवा मुसलमानों पर नियंत्रण नहीं... देश और विदेश की घटनाओं पर इन युवकों का अतिवादी, तंग और जुनून से भरा रवैया.... ये पैटर्न इंडिया के मुसलमानों की मेनस्ट्रीम सोच से जुदा हकीकत पेश करता है...इसमें बहुत ही कम तत्व माइनोरिटिज्म के खोजे जा सकते...

इस्लामिक दुनिया की उथल-पुथल... उन जगहों से अलग अलग मकसदों से आर्थिक मदद के नाम पर आ रहे पैसे, सोशल मीडिया का बेलगाम स्वभाव जैसा मंच और हेट मोदी अभियान का असर भी है उनपर... मोदी विरोध का मकसद भले वोट से जुड़ा हो... पर ये भटका हुआ तबका २४ इंटू ७ मोदी विरोध से इतना उद्वेलित हो जाता है कि वो गुजरात की घटनाओं को हिन्दू बैकलैस ही मान कर चलता है... उपर से गैर-बीजेपी दलों की मुसलमानपरस्ती उन्हें हौसला देती रहती है...बाबरी डेमोलिशन उन्हें लगातार याद दिलाया जा रहा है।  

उन्हें पता है कि मौजूद राजनीतिक जमात में नैतिक साहस का घोर अभाव है। उसे पता है कि उसके गुनाहों के मामले वापस लिए जाएंगे... उसे इल्म है कि कई राज्य सरकारें सुरक्षित शरणस्थली देने के लिए बेकरार है... यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और बंगाल के माहौल उन्हें आश्वस्त करते हैं...ममता बनर्जी की पार्टी के लोगों का जो स्नेह इन तत्वों को मिला है उस पर कौन इतराना नहीं चाहेगा... वहां तो अरसा से उन्हें सहूलियत रही है...  वाम सरकारों के समय से फर्जी काम के लिए असली दस्तावेज बनाने में सरकारी सहयोग मिलते रहे हैं।  

जिन्हें फिक्रमंद होना चाहिए वे हकीकत को बेपर्दा करने की जगह दबाते हैं ...ताजा उदाहरण कश्मीर का है जहां आइएसआइएस के झंडे लहराए गए हैं... मीडिया मौन है...खबर को दबा रहा है... राजनेता इसकी मुखालफत करने से डर रहे हैं...यकीनन भटके हुए तत्व की सोच में तब्दीली में उनकी रूचि नहीं है... यही हाल दक्षिणपंथी राजनीतिक तबके का है जो मुसलमान युवकों के मानस की व्यग्रता को रेखांकित तो करते हैं पर मुसलिम समाज के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व से इस व्याकुलता को शांत करने की अपील नहीं करते... हस्तक्षेप करने के लिए उत्साहित नहीं करते.... हाथ मजबूत नहीं करते...उनसे संवाद नहीं करते।

मुसलिम समाज में आंतरिक संवाद को गति देने पर किसी का ध्यान नहीं है... यहां तक कि युवा मुसलमानों के भटकाव को इमानदारी से कुबूल करने का साहस नहीं दिखा रहा ये देश... क्या वाकई इंडिया के लोग हिन्दू-मुसलिम डिवाईड से चिंतित हैं? या फिर जो कोलाहल दिखता रहता है वो महज सियासी चाल है?


जारी है.......... 

16.10.14

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३

मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी---- भाग-३
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संजय मिश्र
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इंडिया के करीब सौ मुसलमान युवकों के फरार होने की खबर सार्वजनिक हुई तो देश के समझदार तबकों में सनसनी फैल गई... दबे स्वर में उन्होंने चिंता जताई... खबर खुफिया स्रोतों की तरफ से आई थी... आशंका है कि ये युवक इराक और सीरिया में आईएसआईएस के चंगुल में हैं... जिहाद करने निकले हैं... और इसलाम के नाम पर आहूति देने गए हैं। इधर इन युवकों के परिजनों का हाल बेहाल है... वे मदद की गुहार लगा रहे हैं।

ये मुसलमानों के पश्चिम की तरफ ताकने का पीड़ा देने वाला पहलू है... मक्का-मदीना पश्चिम में है सो स्वाभाविक चार्म है उस दिशा का... ये चार्म पश्चिम के विकसित देशों के लिए रूझान से अलग है... ये धार्मिक है... इसका प्रकटीकरण बीसवीं सदी के शुरूआत से ही इंडिया के राजनीतिक-सामाजिक विमर्श में असहजता घोलने का पोटेंशियल रखता आया है।

ओटोमन अम्पायर (तुर्क) में ब्रिटिश मनमानी के मुद्दे पर इंडिया में १९१९-२२ में जो खिलाफत आंदोलन चला उसमें तुर्की के सुल्तान के धार्मिक अधिकारों के सवाल भी शामिल थे.... इंडिया के मुसलमानों के इस हलचल को लेकर गांधी विशेष आग्रही हुए ... उन्होंने इसे अवसर के रूप में देखा और खुल कर समर्थन दिया... इस देश के आज के लोग जो दिन-रात सेक्यूलरिज्म की बात सुनते हैं... उन्हें ये अटपटा जरूर लग सकता है।

पाकिस्तान भी पश्चिम में है... और इसकी बुनियाद भी इसलाम के आसरे पड़ी ... जिन्ना और इकबाल ने जिस पाकिस्तान का तान छेड़ा वो इस सबकंटिनेंट को पार्टिशन की तरफ धकेलने में सफल हुआ... जिस मुसलमान आबादी ने इंडिया में ही बसर करने का मन बनाया.. उसके लिए न तो पश्चिम के धार्मिक प्रतीकों का मोह कम हुआ और न ही नए बने पाकिस्तान के लिए आसक्ति... साल १९७१ के युद्ध और पाकिस्तान के टूटने का गहरा असर पड़ा उनपर।

वे इस बात पर एकमत हुए कि पाकिस्तान में बसने के किसी सपने से ज्यादा मुफीद इंडिया में रहना ही है... इससे भी बड़ा सबक था बांग्लादेश का आकार लेना... इसने जता दिया था कि भाषा(यहां बांग्ला पढ़े) की ललक धर्म के आकर्षण से पार पा सकता है... टू-नेशन थ्योरी ध्वस्त हो चुकी थी... बांग्लादेश में फंसे बिहारी मुसलमानों को लेने से पाकिस्तान के इनकार ने रही सही कसर पूरी कर दी... पाकिस्तान रूपी पश्चिम का मोह मोटा-मोटी अब वहां रहने वाले उनके संबंधियों और सांस्कृतिक आह्लादों तक सिमट कर रह गई।

इधर एक नया तबका उभरा है इस देश में जो मुसलमानों के पश्चिम प्रेम को भड़काने के नाम पर सशक्त हुआ है... इसका आधार मुसलमान के मानस का दोहन करना है... वे कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के फोकल प्वाइंट यानि मुसलमानपरस्ती की खातिर ऐसा करते हैं... इसके दर्शन हाल में इस देश को खूब हुए हैं... मसलन इराक में आईएसआईएस की बर्बरता, बोको हरम से जुड़ी अमानुषिक हरकतों पर तो चुप्पी साध जाता है ये तबका पर गजा पट्टी के हमास के लिए इंडिया की सड़कों को उद्वेलित करने से नहीं चूकता... पश्चिम भाव के दोहन और जायज नजरियों के बीच से गुजरते हुए इंडिया के मुसलमानों का बड़ा तबका अपने नए पीएम की उत्साह बढ़ाने वाली उस स्वीकारोक्ति को परखने में लगा है जिसमें कहा गया है कि इंडिया के मुसलमान देशभक्त हैं और अलकायदा जैसे संगठनों के मंसूबों को सफल नहीं होने देंगे।  


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