life is celebration

life is celebration

22.8.11

अन्ना के आन्दोलन में उलझे सवाल- पार्ट ३

संजय मिश्र
-------------
साल १८८६....स्थान कलकत्ता। अधिवेशन के लिए कांग्रेस को जगह नहीं मिल रही थी। ऐन वक्त पर दरभंगा महाराज आगे आते हैं और अपनी जमीन पर अधिवेशन का इंतजाम करवाते हैं। सन २०११.....अगस्त का महीना। अन्ना की टोली अनशन स्थल के लिए दर-दर भटकती रही। कांग्रेस को १८८६ का अपना दर्द याद नहीं आया। अब वो सत्ता में है। गजब का संयोग है कि कभी आन्दोलन कही जाने वाली कांग्रेस आज अन्ना हजारे के आन्दोलन से सहमी हुई है। २१ अगस्त की शाम अन्ना हुंकार भरते हैं कि या तो जन लोकपाल बिल लाना पड़ेगा नहीं तो जाना पडेगा। डेडलाइन ३० अगस्त का है...जिस दिन अभूतपूर्व आन्दोलन का एलान कर दिया गया है। जाहिर है ये दवाब बनाने की रणनीति है। ये २० अगस्त के शाह-मात के उस खेल का जवाब है जब सोनिया गांधी की करीबी अरुणा राय लोकपाल के अपने वर्जन के साथ मैदान में कूद पडी। -------------------------------------------------------------------------------अन्ना ने लोगों से अपने सांसदों के घर के सामने विरोध जताने का आह्वान कर दिया है। इससे सांसद सकते में हैं। दरअसल, आन्दोलन के विराट स्वरूप के लिए कांग्रेस खुद जिम्मेवार है। पिछले छः महीने के घटनाक्रम बेशक ' काट-लिस्ट ' साबित हुए लेकिन कांग्रेस ने जो हथकंडे अपनाए उसने आग में घी का काम किया। लगातार सत्ता में रहते हुए पार्टी ने अपने संबंध में जो धारणाएं विकसित कर ली हैं यू पी ए-२ में इसका विस्तार हुआ। कांग्रेस इस सोच की आदी है कि इस देश को वो ही चला सकती है। ऐसी भावना कांग्रेसियों में अहंकार भरता है।याद करिए छः महीने पहले तक कांग्रेसी इतरा रहे थे। महंगाई और तमाम तरह के घोटालों से देश दंग रह गया लेकिन पार्टी अपनी ही चाल से चलती रही। खुद पक्ष और खुद विपक्ष की चाल चली गई। यानि चित भी मेरी और पट भी मेरी। विपक्ष को पंगु बनाने साजिशें परवान चढी। वो इस बात को भूल गई कि विपक्ष ' पब्लिक एंगर ' के लिए ' सेफ्टी वाल्व ' का काम करता है। इसने जनता से सरकार की संवादहीनता को बढ़ाया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------------इसी बीच अन्ना और रामदेव की मुहिम तेज हुई। अन्ना स्वीकार करते हैं कि जंतर-मंतर पर मिले जन-समर्थन की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। लेकिन इस जमावड़े के मिजाज की कांग्रेस ने अनदेखी की। ४ जून की रात राम-लीला मैदान में जो कुछ हुआ उसने देश को हिला कर रख दिया। लोग सवाल करते रहे कि रामदेव ने जब समझौते की घोषणा कर दी तब उनके निजी पत्र को सार्वजनिक क्यों किया गया ? संभव है ताकतवर भ्रष्टाचारियों और काला धन विदेश भेजनेवालों का सरकार पर अत्यधिक दवाब हो ? -------------------------------------------------------------------आम जन इस बात से भी असमंजस में पड़ जाते हैं की सरकार और कांग्रेस के बीच खींच-तान का क्या मतलब है ? सरकार में दो गुट और पार्टी में सोनिया और राहुल के दो गुट....यानि केंद्र में चार पावर सेंटर। कांग्रेस का य़े संकट उस उधेरबुन की उपज कि राहुल को कब पी एम बनाया जाए ? इसके लिए जरूरी है कि पी एम ऐसा हो जो अच्छे और कठोर फैसले से देश में लोकप्रिय न होने पाए। नतीजतन एक मजबूर पी एम के दर्शन को देश अभिशप्त है। इसके पीछे दलील य़े कि सरकार और पार्टी के वजूद अलग रखना आदर्श संसदीये राजनीति है। नेहरू के समय भी ऐसी चर्चा होती रहती थी। लेकिन बाद में कांग्रेस ने इस नीति से तौबा किया। -------------------------------------------------------------------------------------------------------गांधी के समर्थन से पी एम बने नेहरू अपने सपनो का भारत बनाना चाहते थे। ' साइंटिफिक टेम्पर ' उनका मूल-मंत्र था। वे रूमानी कहे जाते थे और उनकी भारत दृष्टी ' कोस्मेटिक ' थी। उनके विचारों से प्रेरित नेता और विशेषज्ञों ने जो संविधान बनाया उसमें दुनिया के तमाम संविधानो के अच्छे तत्वों को शामिल किया गया। उस समय ऐसे लोग भी थे जो संविधान को ' इंडीजेनस ' बनाने या यों कहें कि भारतीय जीवन के अनुरूप ढालने के पक्षधर थे। मसलन य़े वर्ग चाहता था कि राष्ट्र का ' पोलिटिकल फाउंडे-सन ' ग्राम-सभा में निहित हो। आई सी एस को ' डिस - बैंड ' करने की भी वकालत हुई। आग्रह होता रहा कि जो संविधान बना वो एक कलाकार की खूबसूरत कृति तो है लेकिन इसमें प्राण डालने की जरूरत है। लेकिन ऐसे विचार दरकिनार किये गए। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जवाब आया के संतनम की ओर से जिन्होंने संविधान बनाने में महती भूमिका अदा की थी। उन्होंने संविधान सभा के फाइनल डिबेट्स में गरजते हुए कहा कि संविधान के किसी हिस्से की आलोचना नापाक मानी जाएगी। यानि संविधान ' सेंकतम -सेंक्तोरम ' की तरह देखी गई। फिर भी इस ' होली काव ' में सैकड़ों संसोधन लाए जा चुके हैं। दिलचस्प है कि ऐसे ही एक संसोधन के जरिये राजीव गांधी ने पंचायती व्यवस्था को व्यापक बनाने की पहल की। दिग्विजय सिंह जब मध्य-प्रदेश के सी एम हुए तो उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रयास किये। सत्ता की निष्ठुर माया देखिये आज वही दिग्विजय हाथ-पैर भांजते हैं और ओसामा को ओसामाजी कह कर संबोधित करते हैं। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म और बी जे पी के हिंदुत्व के बीच भारतीय मानस पिस रहा है। अन्ना का ग्राम-संसद इसी मानस को आवाज देता है। ------------------------------------------------------------------------किसी भी आन्दोलन को अंजाम तक पहुँचने के लिए विचारधारा, नीति और संगठान जरूरी हैं..साथ ही सत्ता हासिल होने पर नीति के हिसाब से बनी योजनाएं अमल में लाइ जाए। अन्ना के पास विचार-धारा तो नहीं पर विचार हैं। लेकिन उनके पास न तो संगठन है और न ही वे सत्ता चाहते हैं। यही असलियत इस अप्रत्याशित आन्दोलन को खतरनाक बनाती है। कांग्रेस को समय की पुकार सुननी चाहिए। तिकरम छोड़ उसे जल्द-से-जल्द सकारात्मक कदम उठाने ही होंगे। आखिरकार, इमर-जेंसी के बाद इंदिरा ने देश से माफी मांग कर बड़प्पन ही दिखाया था।
-------

कोई टिप्पणी नहीं:

Website Protected By Copy Space Do Not copy

Protected by Copyscape Online Copyright Infringement Tool