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4.7.10

पलायन का दर्द - भाग 6

बिहार के मजदूरों को पंजाब के किसान सेल फोन सहित अन्य सुविधाएँ देंगे ...... इस खबर की चहुँ ओर चर्चा हो रही है। इस शोर में केरल की सरकार की ओर से बाहरी मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाने की खबर दब सी गई। केरल ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्य सरकारें समय समय पर इन मजदूरों के हित के लिए चिंता जताती रहती हैं। इनके कल्याण के कई कदम उठाए भी गए हैं।
दरअसल , पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एन जी ओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए " दाग " नहीं हैं बल्कि इनका " असिस्टिंग रोल " उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे....ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में " ल्यूटिन दिल्ली " के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एन सी आर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को " स्लामिश लुक " से लगभग मुक्त कर दिया गया।

मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी " प्राडक्ट " बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब "स्किल्ड " हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं....उलटे मजदूरों के " पेशेवर " बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ..... सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि " पलायन थम गया " की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।
दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम २०० रूपए मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है। विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली " मायावी " भी है और उसकी " क्रूरता " का इतिहास भी पुराना है। यहाँ इनकी आबादी चालीस लाख के करीब है फिर भी " बिहारी" कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो " हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को " हिन्दू" कह कर चिढाया जाता .... गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।

पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है...जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिध्ह दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोद्नगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।
बे ढव जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं...उनकी आस अपनी अगली पीढी की सफलता पर टिकी है।

........ जारी है ....

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