इंडिया का संकट
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नोट- किसी की भावना को ठेस पहुंचे तो क्षमा चाहते हैं - संजय मिश्र
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संजय मिश्र
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आशीष नंदी प्रकरण की आंच लगभग थाम ली गई है। अनचाहे इसने इंडिया के संकट की झांकी दिखला ही दी। कोई भी पक्ष नहीं चाहता था कि ये देश के सार्वजिनक जीवन के अंतर्विरोध को और नंगा करे। राजनीतिक वर्ग और दिल्ली में अड्डा जमाए अपने को बुद्धिजीवी कहने वाली जमात इस आंच में झुलसना नहीं चाहती थी। लिहाजा मामला शांत होने के मनुहार की ही मुद्रा में दिखी। दिल्ली की हिन्दी मीडिया ने अपने चरित्र के मुताबिक उछल-कूद दिखलाने की कोशिश की पर उसे जल्द आभास हो गया कि अभिव्यक्ति से ज्यादा इसमें फिसलने के खतरे उठाने पड़ेंगे।
अधीरता में सभी पक्ष आशीष नंदी को निशाने पर लेते रहे। यहां तक कि कोर्ट ने भी उन्हें ही नसीहत दे डाली। असल में बेचैनी और फुफकार की वजह नंदी के उस जवाब से अधिक उस सवाल में छिपी थी जो जयपुर लिटररी फेस्टिवल में पत्रकार तरूण तेजपाल ने उछाल दी। ये सवाल की शक्ल में दरअसल एक थ्योरी है जिसमें आर्थिक भ्रष्टाचार के, दलितों और पिछड़ों के लिए सामाजिक जीवन में बराबरी लाने का कारगर जरिया होने का दुराग्रह है। इसे इक्वलाइजर थ्योरी कहा जा रहा है। इसी संदर्भ में नंदी जवाब दे रहे थे।
नंदी की मानें तो इन वर्गों में भ्रष्टाचार की प्रवृति बढ़ी है और जहां सत्ता में इनकी पहुंच नहीं हुई( वामपंथी शासन वाले बंगाल में ) ऐसे मामले बेहद कम रहे। इसे झलकाएं तो आशए ये कि हाल के समय में भ्रष्टाचार के ट्रिगर होने में वो चाहत काम कर रही जो ये मानती कि हर क्षेत्र में हैसियत बढ़ा लेना है चाहे जरिया गैर-कानूनी और अनैतिक ही क्यों न हो। दलितों का अपमान करने का आरोप लगा नंदी की खूब खिंचाई हुई। घबराए नंदी ने जीवन भर दलितों के उत्थान के लिए काम करने की याद दिलाई। जयपुर के उस कायर्क्रम में नंदी से बात करने वाले पैनल में टीवी पत्रकार आशुतोष भी शामिल थे। उन्होंने मुद्दे को खूब उछाला और उत्तरोतर अपनी समझ को व्यापकता देते हुए यहां तक कह दिया कि नंदी की अनुकंपावादी सोच को दलित समझने को तैयार नहीं .... नंदी चाहें तो दलितों के मानस को समझें।
दलितों को समझने की चेतावनी का मतलब ये कि आजादी से पहले दलित हित के लिए जो धारा ( समाज सुधार, छूआ-छूत मिटाने और अन्य उपायों के जरिए ) दत्त-चित रही वो अनुकंपावादी हुए सो वे हाशिए पर रहें। अब दलित विमर्श के वैसे बौद्धिक प्रासंगिक रहेंगे जो इक्वलाइजर थ्योरी में यकीन रखने वाले होंगे। आलोचना झेल रहे नंदी कई बार मुस्कान बिखेरते अपने उस कथन को दुहराते रहे कि --जब तक भ्रष्टाचार की वजह से दोनों तबके ( दलित और सवर्ण ) बराबर (स्पर्धी ) हैं इस देश के गणतंत्र में उम्मीद बची है। तो क्या इस देश का गणतंत्र इतना कमजोर है कि उसे सबल होने के लिए भ्रष्टाचार की वैशाखी चाहिए? क्या संविधानिक इंडिया में बौद्धिक विमर्श के नाम पर आर्थिक भ्रष्टाचार करने की वकालत की जा रही ?
पिछड़ावाद से लेकर दलितवाद तक एक कामन ट्रेंड झलकता है। इसके मुताबिक ५००० साल तक ब्राह्मणों ने इन तबकों के साथ अन्याय किया और अब संविधानिक इंडिया में उसका हिसाब-किताब कर लेना है। भाषा का स्तर घटाएं तो कह सकते हैं कि इस सोच में इतिहास का बदला लेने की ललक प्रबल है। और इस राह में जो बाधक तत्व रह गए हैं यानि मीडिया और न्यायपालिका .... उसमें भीतर तक पैठ बना उसकी प्रकृति बदल देने की आतुरता है। यानि टोका-टाकी की गुंजाइश न रह जाए। याद करें चारा घोटाले के शुरूआती दिनों को ... कुछ बुद्धिजीवी कोर्ट को नसीहत देने से बाज न आए कि लालू प्रसाद के जनप्रिय होने का ख्याल रखा जाए। ऐसा ही उदाहरण मायावती के पैरोकार पेश कर रहे हैं।
दलितों को समझने की सीख देने वाले नवदलितवादियों की आकांक्षा सीमाएं तोड़ने वाला है। ये जमात इस बात का पैरोकार हैं कि जनसंख्या के अनुपात में हक छीन लिया जाए। याद करें ऐसे बोद्धिकों को जो अन्ना आंदोलन में शरीक होने की बजाय टीवी स्टूडियो में बैठ कर प्रस्तावित लोकपाल की नोकरियों में हिस्से का बंटवारा करने में मशगूल रहे। जिन्ना की प्रोपोर्शनल रिप्रजेंटेशन की जिद की तरह नवदलितवादी कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका, सरकारी नोकरियां, मीडिया ... और इन सबसे आगे बढ़कर निजी क्षेत्र में हिस्सेदारी की वकालत कर रहे हैं। निजी क्षेत्र में हक छीनने के सबसे बड़े चैंपियन हैं राम विलास पासवान।
कांसीराम कहा करते थे कि दलित - लेने वाली जाति - के बदले - देने वाली जाति - की आकांक्षा पाले। वो आरक्षण को भीख सरीखा देखते थे। उनके इस तरह के नजरिए के कारण नवदलितवादी कांसीराम की विरासत को मूर्त्तियों में सिमटाकर बिसरा देने पर आमादा है। इन बौद्धिकों की अभिलाषा की कोई सीमा नहीं। निजी क्षेत्र के बाद किसका नंबर आएगा ? क्या इस देश की जमीन, नदियां, पहाड़, जंगल ... भी जातीए अनुपात में बांट ली जाएगी ? कल्पना करें वो दृष्य जब आपसे अपने जातीए हिस्सेदारी के अनुपात में आक्सीजन सांस में लेने को कहा जाए।
क्षमा करें... इस अतिरंजित परिदृष्य का मकसद उस प्रवृति की ओर इशारा करना है जो इस देश के तमाम अवयवों को महज हिस्से के रूप में देखने का आग्रही है। क्या संविधानिक इंडिया लूट के माल जैसा है ? तब क्या ये भूखंड देश कहलाने की हकदार है ? कांग्रेज जो कि सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है ... इस प्रवृति के खतरे को समझती है। सवाल है कि जब ये समझ है तो इन मंसूबों का साथ क्यों देती ?
नंदी के विचार पर कांग्रेस और बीजेपी की प्रतिक्रिया नपी-तुली और सतर्क रही। बीजेपी सामाजिक न्याय के साथ सबके हित की कामना की बात करती है। लेकिन इससे आत्मीयता रखने वाले संगठन मुसलमान राजाओं के शासन में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार की याद दिलाते। वे भी इतिहास का बदला चाहते... पर ये किस रूप में हो इस पर कोई निश्चित राय उनमें आकार नहीं ले पाई है। ये दुविधा संशय पैदा करती रहती है कि कब क्या हो जाए?
उधर कांग्रेस सभी विचारधाराओं को आत्मसात करने के पुराने रिकार्ड के दम पर दंभ भरती रहती है। लेकिन अपने सिकुड़ते जनाधार से बेचैन है। मुसलमानों को रिझाना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। फिलहाल उसे आभास हो रहा कि मुसलमान उसके हाथ आकर भी फिसल जा रहे और जातीये पार्टियों की शोभा बढ़ा जाते। इसलिए पूरा जोर अपनी शैली की सेक्यूलरिज्म पर दे रही है। देश में सबसे अधिक सुना जाने वाला शब्द भी यही है। इसके सहारे मुसलमानों को संदेश दिया जा रहा है कि ५००० साल वाले बदले को वो बर्दाश्त कर रही है जबिक मुसलमानों से बदले वाली चाहत को वो सफल नहीं होने देगी। इसी खतरनाक इरादे को वो राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर थोप रही है। ये अकारण नहीं कि इतिहास के सरकारी किताबों में भी इसी सोच के अनुरूप पाठ्यक्रम तय होते रहे।
बीजेपी की तरह कांग्रेस भी एक पार्टी के शासन की पक्षधर है। गठबंधन उसकी रूचि में फिट नहीं बैठता। पर उसकी समझ है कि बीजेपी तभी पूरी तरह कमजोर होगी जब जातीए पार्टियां बनी रहे। इसलिए एक किस्म के बदले पर चुप्पी तो दूसरे किस्म के बदले के खिलाफ मुखरता ओढ़ लेती है कांग्रेस। जातीए पार्टियां मजबूत हो गई तो ? कांग्रेस को भरोसा है कि मुसलमानों को आरक्षण देकर पिछड़ावाद पर और सीबीआई के सहारे दलितवाद पर नकेल कस ली जाएगी। बावजूद इस गिरोहबंदी के बीजेपी का सफाया नहीं होना और कांग्रेस का बहुमत नहीं ला पाना दरअसल दोनों ही किस्म के बदले की राजनीति के निषेध की जन गुहार है। चुनावी राजनीति में ठहराव का कारण भी यही है।
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