life is celebration

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17.3.11

मिथिला पेंटिंग - पार्ट १

संजय मिश्र
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कोई पांच हज़ार साल पहले की ही बात होगी..... जब आर्य मिथिला में बसने आये। यहाँ की अनुकूल परिस्थितियों और व्यवस्थित जीवन ने उन्हें ज्ञान की मीमांसा के लिए पर्याप्त समय दिया। चिंतन प्रवाह कुलाचें मार रहा था ... यही कारण है कि मिथिला में विद्वान महिलाओं के उदाहरण हमें मिलते हैं। ऐसे ही समय में घर संभाल रही महिलाओं की सोच भीत की सतहों पर फूट पडी। साधारण सी दिखने वाली ये चित्रकारी उनकी कल्पनाशीलता का दायरा दिखने के लिए काफी है। इसमें जहाँ आस्था और सौन्दर्यबोध से मिलने वाली खुशियों का संगम है वहीं जीवन की संगीतात्मकता के परम सत्य से संयोग के दर्शन भी हैं।
मिथिला आज भी कृषि प्रधान समाज है। यही कारण है कि यहाँ के मिजाज में जननी रूप का भाव रचा-बसा है। ये भाव इस चित्रकारी में भी प्रखरता से झलकता है। जहाँ बंगाल की ---अल्पना -- में तंत्र की प्रधानता है वहीं मिथिला चित्रकला --प्रतीकात्मक -- है। ये प्रतीक यहाँ के ग्रामीण जीवन की व्यवहारिक तस्वीर दिखाते हैं साथ ही आपको कल्पना लोक में भी ले जाते हैं।
-सुग्गा- को प्रेम दिखाने के लिए उपयोग किया जाता है जबकि - मोर - प्रणयलीला का परिचायक होता है। वहीं - बांस, केला का पेड़ और कमल का फूल - ये तीनो ही उर्वरता के प्रतीक हैं।
इस चित्रकारी में प्रयोग किये जाने वाले रंग मिथिला की वानस्पतिक सम्पदा से ही निकाले जाते हैं। सिंदूरी रंग का स्रोत -कुसुम का फूल- है जबकी लकड़ी को जला कर काला रंग बनाया जाता है। पलास के फूल से पीला रंग निचोड़ा जाता है तो हल्दी से गहरा पीला रंग बनाया जाता है। हरी लतिकाओं से हरा रंग निकाला जाता है। सुनहरे रंग के लिए केले के पत्ते का रस , दूध और नीबू के रस को मिलाया जाता है। रंगों को घोलने के लिए बकरी का दूध और पेड़ों से निकलने वाले गोंद का इस्तेमाल किया जाता है।
ये रंग कई बातों को इंगित करते हैं। पीला रंग- पृथ्वी, तो उजला रंग - पानी को दर्शाता है। हवा को काले रंग से दिखाते हैं वहीं लाल रंग - आग- का परिचायक होता है। नीला तो आसमान ही होता है। दिलचस्प है कि ब्राह्मण स्त्रियाँ चित्रकारी करने में लाल, गुलाबी, हरे, पीले और नीले रंग को पसंद करती हैं जबकि कायस्थ महिलाओं को लाल और काला रंग विशेष भाता है।
उपरी तौर पर इस चित्रकारी के विषय धार्मिक लगते हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएँ इसमें दर्शायी जाती हैं। राधा और कृष्ण की लीला को एक वृत में दिखाया जाता है जो जीवन चक्र का संकेत है। इलाके में प्रचलित त्योहार और विधि-विधान भी इसमें जगह पाते हैं। लेकिन दैनिक जीवन की सच्चाई इसके पोर-पोर से झांकती रहती है।
एक मैथिलानी का जीवन दर्शन और उसकी आकांक्षा का प्रस्फुटन मिथिला चित्रकला का मूल स्वर है। स्त्री घर की उन्नति का वाहक मानी जाती है इसलिए लक्ष्मी को बार बार दर्शाया जाता है। विवाह को बांस के पेड़ से दिखाया जाता है तो गर्भ का प्रतीक -सुग्गा- होता है। वहीं नवजात को बांस के पल्लव से दिखाते हैं। इस चित्रकला में आँखों को वृतात्मक और नुकीला रखा जाता है। ये चित्रकारी कौशल हाल के समय तक पीढी - दर- पीढी माँ से बेटी को मिलती रही।
साल १९६७- के बाद ये चित्रकारी परम्परा भीत की दीवारों से उतार दी गई। अकाल से पस्त जन-समूह को रोजगार के अवसर देने के लिए इस चित्रकारी को व्यवसाय बनाया गया। तब से लेकर अब तक कितने ही प्रयोग किये गए। अब तो इसके पवित्र स्वरूप के दर्शन भी मुश्किल से हो सकते। सबसे बड़ा असर तो ये है कि अब कलाकार इस परंपरा को महसूस नहीं करता बल्कि सीखता है।

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