life is celebration

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11.11.09

भारत क्या करे

संजय मिश्रा


भारत संकट में है, झारखण्ड से भ्रष्टाचार की अनूठी दास्तान लोगों ने सुनी और देखी। देश के कई तबकों में rajniti की ऐसी दशा और दिशा पर चिंता जताई जा रही है। कहा जा रहा है की ye घोटाला saare rekard toregi . छापेमारी की जद में कई पत्रकार भी आए हैं। मीडिया ke एक वर्ग में पत्रकारिता के दलदल में phaste जाने पर घोर निराशा छा गई है।


इधर मंदी ke कमरतोड़ असर के साथ साथ महंगाई लोगों के चैन uraa रहे हैं। लेकिन हैरानी की बात ये है की कांग्रेस पार्टी चुनाव डर चुनाव फतह हाशिल करती जा रही है। ऐसा कैसे सम्भव हो रहा है। लोगों को नही सूझ रहा की वे क्या करें। दिली के हुक्मरानों ने साफ़ कह दिया है की महंगाई रोकने में वे असमर्थ हैं।


आतंकी हिंसा से तो देश लहुलुहान है हे नाक्साली हिंशा की बर्बरता रोज नै मिशल कायम कर रही है। सरकारें इनके सामने असहाय महसूस कर रही हैं। अब ये नक्सालियों पर बमों की वर्षा करेंगे। यानि माँ लिया गया है की और कोई रास्ता नहीं। क्या सरकारी तंत्र ने अन्य विकल्पों का सहारा ले लिया। मनमोहन ने लोगों से उपाय सुझाने को कहा है। क्या जनता इस दुरभिसंधि को समझ पा रही है।


किसी भी देस में संत्रास के ऐसे क्षण आते हैं तो उसे विद्वानों का अब्लाम्ब मिलता है। भारत क्या करे। क्या उसके पास ऐसे विद्वान हैं जो उसे राह दिखाए। सर पटक लें तो एक भी ऐसा नाम नहीं सूझेगा।


जो देस पहले दुनिया को जीने का पथ पड़ता था वहां की ये हालत। हालत ऐसे हैं की नेपाल जैसा देश भी उसे धमकी देता है। पाकिस्तान तो पहले से ही संकट बना हुआ है। और चाइना तो लगातार अरुणाचल प्रदेश पर अधिकार जता रहा है। भारतीये नेताओं का रंग फीका पड़ गया है। वे मिमिया रहे हैं। ॥ कहाँ है वो दर्प। एक दब्बू कॉम की छवि वाले इस देश को कौन रह दिखायेगा। क्या कोई अरस्तू भारतीये क्षितिज पर दिखा रहा ।


जरा इतिहास में झांकें । यूनानी हमले के बाद के समय को याद करें। कैसे चाणक्य ने देश को एक सूत्र में बंधा था। इतना पीछे जाने की भी क्या जरूरत। जिस अमेरिकन जीवन शैली की नक़ल करते हम नही अघाते वहाँ भी कोई चोमस्की है। विद्वान समाज के संबल होते हैं। विकत परिस्थितियों में वे राह दिखाते हैं । पर भारत में ....


राजाओं के युग में भी यहाँ विद्वानों को प्रश्रय मिला करता था। लोकतांत्रिक आधुनिक भारत में तो ये प्रक्रिया और भी मजबूत होनी छाहिये थी।


अब जरा आज़ादी के बाद के परिदृश्य को समझाने की कोशिश करें। नेहरू छद्म नाम से अख़बारों में लिखते और अपनी सरकार के निरंकूस होते जाने के खतरे से आगाह करते थे। ये जानकारी कुछेक संपादकों तक सीमित थी। ऐसा कर नेहरू अपनी बद्दापन की धौंस तो जमा ही रहे थे साथ ही मीडिया के रोल पर सवालिया निशान भी लगा रहे थे।


आख़िर नेहरू को ऐसा करने की क्या जरूरत थी। क्या वो ख़ुद को ही विद्वान के रोल में फिट करनाकी भूल कर रहे थे। कम से कम राधाकृष्णन जैसे फिलोसोफेर तो आस पास थे ही...राजेंद्र जैसे पढ़े लोखे लोग भी थे। पर ये हाशिये पर बिठा दिए गए थे। नेहरू के परम मित्र कृष्ण मेनन अपने को विद्वान समझ बैठे थे। उन्हें इसका गुमान भी हो गया था। लेकिन लन्दन विश्वविद्यालय के भारतीये छात्रों ने ही उनका घमंड तोडा था। तिलमिला गए थे वो।

देशवासियों ने विद्वता के दायरे को इतना संकुचित समझ लिया है की मामूली साहित्यकारों को भी वे विद्वान मान बैठते हैं। किसी वामपंथी कार्यकर्ता से बात कर देख लीजिये । वो फक्र से कहेगा वामपंथी नेता विद्वान होते हैं। यही हाल बीजेपी वालों का है। इनके कार्यकर्ता बीजेपी को विद्वानों से भरी पार्टी बताते नही थकते। देश के कथित बोध्हिजीवी तो पहले से ही अपने को विद्वान समझने में गर्व करते हैं। बड़ी ही निर्लज्जता से रोमिला थापर , राम चंद्र गुहा जैसों को विद्वान बताने के लिए गिरोह सक्रिय रहते हैं। उधर बीजेपी वालों के लिए अरुण शौरी , के आर मलकानी और मुरली मनोहर जोशी से बड़ा विद्वान इस जहाँ में नही है।

अब थोडी बात बिहार की भी कर लें । यहाँ सामान्य समझ वाले सज्जन हैं जिनका नाम है शैबाल गुप्ता। लालू राज के दौरान इन्हे विद्वान् बनने पर जो कुछ लोग तुले तो बना कर ही छोड़ा । वे भी गौरब्मय महसूस करते हैं। जी हाँ ये दयनिए हालत उस राज्य का है जहाँ जनक जैसे राजर्षि हुए ,याज्ञवल्क्य , आर्यभट , कुमारिल, मंडन, पक्षधर , गार्गी, भारती जैसे लोग हुए । चोमस्की जब भी भारत आते हैं, मनेका, अरुंधती जैसे लोग उन्हें सुनने जाते हैं। क्या इन्हे ये सवाल नही सताता की भारत में कोई क्यों नही जिसे सुनने जायें। पुजिवादियों के खिलाफ माओवादियों के समर्थन में खड़े तथाकथित बुधीजीवी उसी पूजीवादी देस अमेरिका के विद्वान चोमस्की से सहयोग की गुहार लगते।

ये नौबत क्यों आई । क्योंकि देश में राजनितिक साजिश के तहत विद्वत परम्परा को सुख जाने के लिए कदम उठाये गए। सिक्षा के मंदिरों को विचारधारा का अखारा बनाया गया। विद्वान होंगे तो निरंकुशता पर भी आगाह किया जाएगा। कुर्सी का सुख मिलता रहे इसके लिए पब्लिक ओपिनियन को प्रभावित करना जरूरी । और इसके लिए मीडिया के साथ सिक्ष्सा केन्द्रों पर अपने पसंद की विचारधारा के लोगों को भरने की परम्परा बुलंदी पर पहुंचाई गई।

लोहिया प्रखर थे और उन्हें विद्वान सहयोगिओं का साहचर्य मिला। बिहार में उनके कई ऐसे ही सहयोगियों को जेपी और कांग्रेस ने हाशिये पर डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। इंदिरा के शासन के दौरान वामपंथी लोग शिक्षण संस्थानों पर काबिज हुए और वे आज तक जामे हुए हैं। एनडीए की सत्ता आई तो जे एस राजपूत ने खूब मजे किए।

समस्याएं विकराल होती जा रही हैं । भारत ६० सालों से विकासशील ही बना हुआ है। पर किसी को फिकर नही। माओवाद, सेकुलरवाद, और राष्ट्रवाद के नाम पड़ सत्ता छीनने और बनाये रखने में सभी लगे हुए हैं। स्वार्थ की ऐसे घिनोनी सूरत में आशा की किरण कहाँ से आएगी।

विद्वान अपने आप पैदा नही होते। इसके लिए सही माहौल की जरूरत होती है। अब प्राचीन भारत की तरह गुरुकुल नहीं बनाये जायेंगे। मौजूद विस्वविद्यालयों को ही सत्ता के दखल से मुक्त करने की जरूरत है। पढ़ाई का अस्तर ऊँचा करना होगा। शिक्षा मद में बजट को खूब बढ़ाना होगा। क्या भारतीये राजनीती इसके महत्वा को समझेगी। फिलहाल तो उसे जनता की नासमझी पड़ ही भरोसा है।

2 टिप्‍पणियां:

sanjay mishra ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अखिलेश अखिल ने कहा…

sanjay bhai bahut badhai ki aapne is daur me aisi bato ka jikra kiya hai jise salo pahle log bhul gaye hai. purane jamane me raja log vidwano ko panah dete the aur vidwan log desh aur samaj ke liye kam karte the. badalte parivesh me sab kuchh badal gaya hai. andher nagri chaupat raja wali kahani to aapne suni hai. aaj wahi hal hai. lekin itna taye hai ki vidwan kabhi marte nahi , samay ka khel hai ki aaj bhrast vyavastha me har koi turant mall banane ke fer me hai aur aisi sthiti me vidwano ki puchh kam ho rahi hai.
akhilesh akhil

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