संजय मिश्र
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जंतर-मंतर पर हुए एक-दिनी उपवास ने फिर साबित कर दिया कि लोगों पर अन्ना हजारे की पकड़ बरकरार है। आन्दोलन के इस सांकेतिक चरण ने जहां कई मिथक तोड़े वहीं रणनीतिक कौशल की नुमाइश भी हुई। दिन ढलने के साथ आन्दोलनकारियों में संतोष का भाव था। पहले की तरह इस बार भी तनातनी का माहौल बना। विश्लेषक नए सिरे से आन्दोलन पर विमर्श करते नजर आये। उधर, टीवी सेटों पर नजर गडाए आम-जन मीडिया के रंग बदलने को बड़ी उत्सुकता से देखते रहे।
२५ मार्च ....कई मायनों में नई हकीकत बयां कर गया। ये साफ़ हो गया कि मीडिया का बड़ा तबका टीम अन्ना पर पूरी तरह हमलावर रहने वाला है। इस वर्ग को पता चल गया है कि उनकी बेरुखी के बावजूद लोगों का इस आन्दोलन से अनुराग है। राजनीतिक जमात को भी अहसास हुआ कि टीवी चैनलों में कम कवरेज से बेपरवाह लोग चिलचिलाती धूप में जंतर मंतर पर डटे रह सकते हैं। ये अकारण नहीं कि बयानों की तल्खी के बीच राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया सावधान रही।
बेशक, उपवास के दौरान इस्तेमाल हुए एक कहावत (मुहावरे) पर संसद में हंगामा हुआ। क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि सदन में बैठने वालों को ये मालूम न हो कि ' चोर की दाढी में तिनका ' एक कहावत है ...... और ये कि इसका अर्थ है---दोषी का चौकन्ना रहना --- ? फिर ये हंगामा क्यों ? असल में टीम अन्ना का निशाना इस बार व्यापक था। -एन डी ए - के संयोजक शरद यादव मुहावरा प्रकरण से जुड़ गए। देश के लोक जानते हैं कि साफ़ छवि वाले शरद भाषणों के दौरान अक्सर बहक जाते हैं ..... संसद में भी और संसद के बाहर भी। राहुल गांधी पर उनके अमर्यादित बयान से कांग्रेसी नेता बेहद नाराज हुए थे। बावजूद इसके २६ मार्च को संसद में टीम अन्ना पर तिलमिलाए शरद यादव का वही कांग्रेसी मेज थपथपा कर साथ दे रहे थे।
कांग्रेसी, दरअसल उस मकसद को कामयाब होता देख रहे थे जिसके तहत महीनो पहले बड़े जतन से यू पी ए सरकार के कुछ मंत्रियों ने आन्दोलन को टीम अन्ना वर्सेस संसद में तब्दील करने की कोशिश की थी। कांग्रेस की सधी प्रतिक्रिया से संकेत मिलने लगा है कि पार्टी अब आन्दोलन के प्रति आक्रामक नीति का त्याग करने के मूड में है। सुषमा स्वराज का संसद में अन्ना के साथियों पर बरसना इस बात को दर्शा गया कि २०१४ चुनाव से पहले का डेढ़ साल बीजेपी अपने पाले में रखना चाहती है। यानि अन्ना का फोकस में रहना अब बीजेपी नेताओं को रास नहीं।
सांसदों के लिए तय करना मुश्किल हो रहा था कि आन्दोलनकारियों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव कौन लाए ? आखिरकार स्पीकर की तरफ से टीम अन्ना के विवादित बयानों को अनुचित और अस्वीकार्य बताया गया। दिलचस्प है कि इस कार्यवाही के दौरान तीन सांसदों ने अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर दिया। एक मौके पर तो स्पीकर को याद दिलाना पड़ा कि सदस्य संसद की गरिमा पर बात कर रहे हैं। भले ही सांसदों के अभद्र शब्दों को एक्सपंज कर दिया गया लेकिन कार्यवाही को टीवी पर देखने वाले से सांसदों का आचरण छुप नहीं सका।
टीम अन्ना से जुड़े विशेषाधिकार हनन का मामला अभी लंबित है। जाहिर है इसे अमल में लाने पर टकराव की नौबत बनेगी । यह सन्देश जाएगा कि टकराव संसद और जनता के बीच है । साथ ही अवमानना के लपेटे में आने वाले याद दिलाएंगे कि करीब पाने दो सौ दागी व्यक्ति संसद में हैं। क्या कोई सांसद कह पाएगा कि संसद में सभी पाक-साफ़ हैं ? जिस जल्दबाजी में निंदा प्रस्ताव पास हुआ उससे स्पष्ट है कि समझदार सांसद टकराव से बचना चाहते हैं। उन्हें पता है कि उनके विशेषाधिकार और कोर्ट के अवमानना के अधिकार के कोडिफिकेसन की मांग उठने लगी है। टीम अन्ना के रणनीतिक बदलाव से भी वे सचेत हैं।
टीम अन्ना में समझ बनी है कि राजनीतिक वर्ग के आचरण का जनता से सीधा सामना कराया जाए। इसी के तहत सांसदों के संसद में दिए गए भाषणों की फिल्म जंतर-मंतर पर जनता को दिखाई गई। ये जताया गया कि नेताओं की कथनी और करनी में फर्क कितना गहरा है। जाहिर है इस तरीके से एक्सपोज होना कोई नेता नहीं चाहेगा। वो तो इस सिधांत पर चलता है कि पब्लिक मेमोरी बेहद अल्प होती है । इसके आलावा भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मारे गए व्हिसल ब्लोअर्स के परिजनों को भी उपवास स्थल पर लाने में टीम अन्ना सफल हुई। फिल्म के जरिये उनकी साहसिक कहानिया बताई गई। ये प्रभावित परिवार देश के अनेक राज्यों से आए थे और उन राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें हैं और रही हैं। ये बताया गया कि पीड़ितों के साथ इन सरकारों ने न्याय नहीं किया है।
मीडिया सन्न रह गया। बेगुसराय के शशिधर मिश्र जैसे अनेक आर टी आई कार्यकर्ताओं की सहादत से दिल्ली के पत्रकार बिलकुल अनजान थे। मीडिया अब ये आरोप लगाने की सूरत में नहीं था कि टीम अन्ना की नजर राज्यों के भ्रष्टाचार पर नहीं है। कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के पैरोकार जो पत्रकार रामदेव को सांप्रदायिक साबित करने पर तुले हैं उन्हें अन्ना और रामदेव का हाथ मिलाना पसंद नहीं आ रहा। मीडिया का अकबकाना साफ़ दिख रहा था। लिहाजा एक मुहावरे के बहाने गंभीर मुद्दों को स्काई-जैक कर लिया गया। कांग्रेस की --बी - टीम-- का अक्स दिखाने वाला एक राष्ट्रीय टीवी चैनल तो दो दिनों तक डिस्क्लेमर ही दिखाता रह गया। इस चैनल को समझ नहीं आ रहा था कि लालू यादव द्वारा कहे गए मुहावरे ---धान के रोटी तवा में , अन्ना उड़ गए हवा में ---- के लिए कैसा डिस्क्लेमर दिखाएँ।
अन्ना ने अपने भाषण में कहा कि सरकार २०१४ तक जन लोकपाल पारित करा दे। इतना लम्बा समय देने पर बहस छिड़ी हुई है। लेकिन पोलिटिकल क्लास के लिए ये समय काफी होगा ....अपने स्याह पक्ष पर गौर करने के लिए। टकराव से बेहतर है कि नेता इस दौरान चुनाव सुधार की दिशा में सकारात्मक पहल करें। ये कदम उनके वोटर का उन पर भरोसा कायम करने में मददगार होगा। ये देश के हित में होगा। मीडिया भी इसे समझे तो बेहतर है।
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life is celebration

28.3.12
23.3.12
राजनीति में नई आहट.....
संजय मिश्र
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भारी विरोध के बीच अंशुमन मिश्र नाम के शख्स ने झारखंड से राज्यसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन वापस कर लिया है। इसके साथ ही बीजेपी के वरिष्ट नेताओं ने राहत की सांस ली है। कहा जा रहा है कि अंशुमन को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी का आशीर्वाद है और उन्ही के बूते वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखारे में कूद परे थेसार्वजानिक जीवन में अनजान इस व्यक्ति के बहाने राज्यसभा चुनावो में पैसो की माया पर फिर से फोकस है । वही दूसरी ओर गडकरी के मनमाने फैसले के खिलाफ पार्टीजनो की जीत अलग तरह के संकेत दे रही है।
कई दिन चले इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बीच 'पापुलर परसेप्सन ' में श्रीहीन नहीं दिखने की बीजेपी नेताओ की चाहत बार -बार झाकती रही । जिस दिन नामांकन वापसी की अंशुमन की घोषणा हुई ठीक उसी दिन दिल्ली में पुस्तक विमोचन के एक कार्यक्रम में बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी ने ये कहकर चौका दिया कि भारतीय राजनीति के मौजूदा तेवर को ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता । बाबू सिह कुशवाहा और अंशुमन प्रकरण के दौरान शीर्ष पार्टी नेतृत्व के तुगलकी फैसलों की खिलाफत क्या इस चक्रव्यूह से निकलने की अकुलाहट है। दिलचस्प है कि पुस्तक विमोचन कार्यकरम में अन्ना हजारे भी मौजूद थे।
इस सुगबुगाहट को बीते संसद सत्र में शरद यादव के उस उदगार से जोड़ कर देखें तो उम्मीद जगती है। शरद यादव ने ठसक से कहा था कि राजनेता तो सनातनी दुसरे को टोपी पहनाते आये हैं। उन्हें मलाल था कि नेताओं के इस जन्म सिद्ध अधिकार को अन्ना का आन्दोलन चुनौती दे रहा है। अब हाल के समय में देश की राजनीति को जिन अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पडा है उन पर नजर दौराएं। यहाँ रेडार पर कांग्रेस और तृणमूल आ गई। आम समझ है कि कांग्रेसी संस्कृति में हाई कमांड को चुनौती देना पार्टी नेताओं के लिए लगभग नामुमकिन सा होता है। लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ हरीश रावत के बागी तेवर ने सोनिया और राहुल की सलाहकार मंडली को सकते में डाल दिया। जनप्रिय नेता की अबहेलना और ऊपर से मुख्यमंत्री थोपने की प्रवृति का वे विरोध कर रहे थे।
नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। बावजूद इसके , क्या राजनेता अपने दलों के भीतर जड़ जमा चुकी संवादहीनता पर मुखर हो रहे हैं? क्या वे पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र को जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं? आम तौर पर देश के क्षेत्रीय दलों की आभा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है....और ये नेतृत्व सवालों से ऊपर माना जाता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने रेल मंत्री रहते हुए पार्टी नेतृत्व से भिड़ने की हिमाकत की। उन्होंने जता दिया कि वे हाई कमांड द्वारा पशुओं की तरह हांके जाने को तैयार नहीं। त्रिवेदी ने पालिटिकल सिस्टम से सवालों की झाड़ी लगा दी।
देश बड़ा या पार्टी का हित बड़ा....या फिर क्या पार्टी का हित देश हित से लयबद्ध नहीं हो? इन चुभते सवालों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि राजनेताओं में स्वीकार्यता छिजने को रोकने की कोई कोशिश आकार ले रही है। पर इस इच्छा-पूर्ति के लिए उनका अंतस दवाब में जरूर दिखता है। ये दवाब जन-आंदोलनों का प्रतिफल है। १६ अगस्त २०११ के जन सैलाब का असर राजनीति पर हुआ है। राजनेताओं से पूछा जा रहा है कि उनके सरोकार सत्ता में जाते ही क्यों बदल जा रहे हैं?
ऐसा नहीं कि बेचैनी सिर्फ तंत्र में है....ये लोक में भी है। लोकतंत्र में लोक का यशोगान करने वाले विश्लेषक अक्सर इसे नजर अंदाज करते पाए जाते हैं कि चुनावों में जनता के फैसले क्या जनता की आकांक्षा पूरी करने में समर्थ होते हैं? नई सरकार बनने के बाद यूपी के हालात क्या वोटरों की दूरदर्शिता दिखाते .......अन्ना आन्दोलन में लगे लोगों में इसको लेकर सकून नहीं है? क्या आन्दोलनकारियों का सन्देश उस मुकाम तक पहुंचा है जहाँ तक इसे वे ले जाना चाहते? अन्ना आन्दोलन के तीसरे चरण की तैयारी इन्हीं सवालों से जूझ रही है। राजनीतिक वर्ग तभी तो चौकन्ना है।
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भारी विरोध के बीच अंशुमन मिश्र नाम के शख्स ने झारखंड से राज्यसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन वापस कर लिया है। इसके साथ ही बीजेपी के वरिष्ट नेताओं ने राहत की सांस ली है। कहा जा रहा है कि अंशुमन को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी का आशीर्वाद है और उन्ही के बूते वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखारे में कूद परे थेसार्वजानिक जीवन में अनजान इस व्यक्ति के बहाने राज्यसभा चुनावो में पैसो की माया पर फिर से फोकस है । वही दूसरी ओर गडकरी के मनमाने फैसले के खिलाफ पार्टीजनो की जीत अलग तरह के संकेत दे रही है।
कई दिन चले इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बीच 'पापुलर परसेप्सन ' में श्रीहीन नहीं दिखने की बीजेपी नेताओ की चाहत बार -बार झाकती रही । जिस दिन नामांकन वापसी की अंशुमन की घोषणा हुई ठीक उसी दिन दिल्ली में पुस्तक विमोचन के एक कार्यक्रम में बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी ने ये कहकर चौका दिया कि भारतीय राजनीति के मौजूदा तेवर को ज्यादा दिनों तक नहीं ढोया जा सकता । बाबू सिह कुशवाहा और अंशुमन प्रकरण के दौरान शीर्ष पार्टी नेतृत्व के तुगलकी फैसलों की खिलाफत क्या इस चक्रव्यूह से निकलने की अकुलाहट है। दिलचस्प है कि पुस्तक विमोचन कार्यकरम में अन्ना हजारे भी मौजूद थे।
इस सुगबुगाहट को बीते संसद सत्र में शरद यादव के उस उदगार से जोड़ कर देखें तो उम्मीद जगती है। शरद यादव ने ठसक से कहा था कि राजनेता तो सनातनी दुसरे को टोपी पहनाते आये हैं। उन्हें मलाल था कि नेताओं के इस जन्म सिद्ध अधिकार को अन्ना का आन्दोलन चुनौती दे रहा है। अब हाल के समय में देश की राजनीति को जिन अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पडा है उन पर नजर दौराएं। यहाँ रेडार पर कांग्रेस और तृणमूल आ गई। आम समझ है कि कांग्रेसी संस्कृति में हाई कमांड को चुनौती देना पार्टी नेताओं के लिए लगभग नामुमकिन सा होता है। लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ हरीश रावत के बागी तेवर ने सोनिया और राहुल की सलाहकार मंडली को सकते में डाल दिया। जनप्रिय नेता की अबहेलना और ऊपर से मुख्यमंत्री थोपने की प्रवृति का वे विरोध कर रहे थे।
नेतृत्व से बगावत करनेवाले अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। बावजूद इसके , क्या राजनेता अपने दलों के भीतर जड़ जमा चुकी संवादहीनता पर मुखर हो रहे हैं? क्या वे पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र को जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं? आम तौर पर देश के क्षेत्रीय दलों की आभा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है....और ये नेतृत्व सवालों से ऊपर माना जाता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने रेल मंत्री रहते हुए पार्टी नेतृत्व से भिड़ने की हिमाकत की। उन्होंने जता दिया कि वे हाई कमांड द्वारा पशुओं की तरह हांके जाने को तैयार नहीं। त्रिवेदी ने पालिटिकल सिस्टम से सवालों की झाड़ी लगा दी।
देश बड़ा या पार्टी का हित बड़ा....या फिर क्या पार्टी का हित देश हित से लयबद्ध नहीं हो? इन चुभते सवालों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि राजनेताओं में स्वीकार्यता छिजने को रोकने की कोई कोशिश आकार ले रही है। पर इस इच्छा-पूर्ति के लिए उनका अंतस दवाब में जरूर दिखता है। ये दवाब जन-आंदोलनों का प्रतिफल है। १६ अगस्त २०११ के जन सैलाब का असर राजनीति पर हुआ है। राजनेताओं से पूछा जा रहा है कि उनके सरोकार सत्ता में जाते ही क्यों बदल जा रहे हैं?
ऐसा नहीं कि बेचैनी सिर्फ तंत्र में है....ये लोक में भी है। लोकतंत्र में लोक का यशोगान करने वाले विश्लेषक अक्सर इसे नजर अंदाज करते पाए जाते हैं कि चुनावों में जनता के फैसले क्या जनता की आकांक्षा पूरी करने में समर्थ होते हैं? नई सरकार बनने के बाद यूपी के हालात क्या वोटरों की दूरदर्शिता दिखाते .......अन्ना आन्दोलन में लगे लोगों में इसको लेकर सकून नहीं है? क्या आन्दोलनकारियों का सन्देश उस मुकाम तक पहुंचा है जहाँ तक इसे वे ले जाना चाहते? अन्ना आन्दोलन के तीसरे चरण की तैयारी इन्हीं सवालों से जूझ रही है। राजनीतिक वर्ग तभी तो चौकन्ना है।
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3.3.12
नदी जोड़ो योजना -- तल्ख़ सच्चाई
संजय मिश्र
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नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है । इसके साथ ही बहस का नया पिटारा खुल गया है। विरोध के स्वर को देखते हुए अब तक ये माना जा रहा था कि ये योजना देश-व्यापी नहीं रह जाएगी और ख़ास-ख़ास जगहों पर ही इसे आजमाना ज्यादा मुफीद रहेगा । ये उम्मीद की जा रही थी कि इस दौरान किसी विवाद में योजना विरोधियों की ओर से कोर्ट का दखल लिया जाएगा। ये विकल्प अब भी खुला है लेकिन कोर्ट के रूख ने साफ़ कर दिया है कि सरकारें अब तेजी दिखाएं । सरकारी कार्यप्रणाली समझने वाले मान रहे हैं कि ऐसे मेगा प्रोजेक्ल्ट्स के लिए फंड का रोना देखने को नहीं मिलेगा । खर्च जुटा ही लिया जाएगा। योजना के अमल में कमीशन की माया की पूजा होगी और अगले कई सालों तक राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए पैसा आड़े नहीं आएगा।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना ---बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।
क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है ? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते ? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे ? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी ? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा ? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा । जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का --राईस बवेल--कहलाता रहेगा ? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे ? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी --क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर --डिस्जोर्ज--होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें ---निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है।पहले ये इलाका तीन फसली था ---अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में --डॉल्फिन--बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी --आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा।? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्या काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।
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नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है । इसके साथ ही बहस का नया पिटारा खुल गया है। विरोध के स्वर को देखते हुए अब तक ये माना जा रहा था कि ये योजना देश-व्यापी नहीं रह जाएगी और ख़ास-ख़ास जगहों पर ही इसे आजमाना ज्यादा मुफीद रहेगा । ये उम्मीद की जा रही थी कि इस दौरान किसी विवाद में योजना विरोधियों की ओर से कोर्ट का दखल लिया जाएगा। ये विकल्प अब भी खुला है लेकिन कोर्ट के रूख ने साफ़ कर दिया है कि सरकारें अब तेजी दिखाएं । सरकारी कार्यप्रणाली समझने वाले मान रहे हैं कि ऐसे मेगा प्रोजेक्ल्ट्स के लिए फंड का रोना देखने को नहीं मिलेगा । खर्च जुटा ही लिया जाएगा। योजना के अमल में कमीशन की माया की पूजा होगी और अगले कई सालों तक राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए पैसा आड़े नहीं आएगा।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना ---बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।
क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है ? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते ? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे ? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी ? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा ? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा । जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का --राईस बवेल--कहलाता रहेगा ? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे ? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी --क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर --डिस्जोर्ज--होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें ---निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है।पहले ये इलाका तीन फसली था ---अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में --डॉल्फिन--बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी --आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा।? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्या काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।
14.2.12
कोसी पुल --कहीं खुशी कहीं गम
संजय मिश्र
------------------कोसी नदी पर बने पुल के उदघाटन से मिथिला के लोगों में खुशी की लहर दौर गई है । इसे एतिहासिक पल बताया गया । पुल का उदघाटन करते हुए आह्लादित नीतीश कुमार ने इस क्षण को उत्सव के रूप में लेने की अपील की। कहा जा रहा है कि इससे इलाके की तस्वीर बदलेगी।
साल १९३४ के भूकंप के कारण कोसी रेल पुल ध्वस्त हो गया था। बाद के सालों की बाढ़ इसके अवशेषों को बहा ले गई। नतीजतन इलाके के बड़े हिस्से में सीधी आवाजाही अवरूध हो गई। दूरियां बढ़ी..... और ऐसे बढ़ी कि दैनिक जीवन से लेकर आर्थिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के रूप भयावह शक्ल लेने लगे। मधुबनी-दरभंगा और सुपौल-सहरसा जिलों के गाँव के बीच शादी-ब्याह में रूकावटें आने लगी। औसतन १५ किलोमीटर के फासले पर स्थित ये गाँव आपस में कट चुके थे। नाव से पार करना जोखिम से कम नहीं....ऊपर से कोसी बांधों के बीच भौगोलिक बनावट ऐसी हो गई जो जल-दस्युओं और तस्करों का शरण-स्थली साबित हुई। ऐसे गिरोहों की दहशत नेपाल की सीमा से कुरसेला तट तक फ़ैली हुई है। लिहाजा डकैतों के खौफ के कारण लोग १५ किलोमीटर की दूरी तय करने की जगह अतिरिक्त २५० किलोमीटर सफ़र कर अपने पड़ोसी गाँव जाना ज्यादा मुफीद समझते रहे।
आवागमन ठप होने का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा। निर्मली और घोघरडीहा के बीच कभी चावल मीलों की भरमार हुआ करती थी। लिहाजा ये इलाका चावल की मंडी के तौर पर विकसित हुआ। उन्नत व्यापार की वजह थी रेल यातायात। कोसी नदी पर रेल पुल के कारण इलाके का संपर्क पूर्वी और पश्चिमी भागों से था। आपको ताज्जुब होगा कि घोघरडीहा जैसे गाँव में आई टी आई और टीचर ट्रेनिंग संस्थान अरसे से मौजूद हैं। हाल के वर्षों में जिन्होंने इन कस्बाई जगहों के पतन को को देखा हो उन्हें ये बातें कहानी जैसी ही लगेंगी।
बेशक इस इलाके में खुशी का आलम है....उम्मीद जगी है। उम्मीद कोसी के पूर्वी इलाकों में भी जगी है। वहाँ बड़े पैमाने पर नकदी फसल उपजाई जाती है। कोसी सड़क पुल के के कारण अब उनका माल आसानी से पश्चिमी इलाको में पहुंचेगा साथ ही उत्पाद का अच्छा दाम भी मिलेगा। इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है। केले का उत्पादन वहाँ बड़ी मात्रा में होता है लेकिन दरभंगा और मुजफ्फरपुर जैसे शहरों में पहुँचते-पहुँचते ये उत्पाद खराब होने लगता है। हर सीजन में एक समय ऐसा आता है जब ये दो-तीन रूपये दर्जन खपाना पर जाता है। अब नए कोसी पुल से ये आसानी से पहुंचेगा और उत्पाद की विक्री के लिए अच्छा - खासा समय मिल जाएगा।
इस पुल के कारण इस्ट-वेस्ट कोरिडोर भारतीय अर्थव्यवस्था को साउथ-इस्ट एशिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ेगा। इंडिया-मियान्मार फ्रेंडशिप रोड इसमें लिंक का काम करेगा। भारत की लुक-इस्ट पालिसी को देखते हुए संभावनाएं जगती हैं। ऐसे में मिथिला की अर्थव्यवस्था को जो गति मिलेगी उसका आभास किया जा सकता है। जाहिर तौर पर आतंरिक और वाह्य आर्थिक गतिविधियाँ बढेंगी। अब किशनगंज की चाय ज्यादा आसानी से दिल्ली जैसे बाजारों में पहुंचेगी। समस्तीपुर और कटिहार के बीच जूट का व्यापार तेज होगा। पूर्णिया कमिश्नरी के जूट उत्पादक किसान अब बंगाल और बांग्लादेश के साथ-साथ समस्तीपुर के जूट मीलों को भी अपना उत्पाद बेच सकेंगे।
कोसी और महानंदा नदी के बीच के इलाके में हाल के वर्षों में हर्बल उत्पाद की खेती पर ज्यादा जोर दिया गया है। कोसी का नया पुल इन उत्पादों के लिए पश्चिम का बाजार आसानी से खोल सकता है। ये बताना दिलचस्प है कि गायत्री मंत्र के रचयिता महर्षि विश्वामित्र ने हिमालय और गंगा के बीच इसी कोसी इलाके में बोटानिकल रिसर्च किया था। निश्चय ही मिथिला में हर्बल खेती की तरफ बढ़ रहा रूझान देवर्षि के प्रयासों की याद दिलाता है।
महिषी शक्तिपीठ है । दरभंगा और तिरहुत प्रमंडल के श्रद्धालू बड़ी संख्या में वहां जाना चाहते हैं। अब उन्हें काफी सहूलियत होगी। इसी तरह इन दोनों कमिश्नरी के लोगों का दार्जीलिंग जाना महज कुछ घंटों की बात होगी। कोसी के पूरब के लोगों को भी उच्चैठ और कुशेश्वर आने में आसानी होगी।
कहीं खुशी-कहीं गम....जी हाँ....पुल की तकनीकी खामी ने अच्छी खासी आबादी को निराश किया है। कोसी के पूर्वी और पश्चिमी बाधों के बीच के 11 किलोमीटर में ये पुल एक फ्लाई -ओवर की शक्ल में नहीं है। दरअसल 1.8 किलोमीटर के पुल के आलावा 9 किलोमीटर सड़क बनाई गई हैं। इन सड़कों की वजह से पुल के उत्तर में कई किलोमीटर दूर तक पानी का सतह पहले की तुलना में उंचा बना रहता है। नतीजतन इस दायरे में बांधों के बीच के तमाम गाँव जल-जमाव का शिकार हो जा रहे हैं । पुल का डिजाइन बनाते समय माना गया कि इससे पुल के उत्तर आठ किलोमीटर तक पानी का फुलाव होगा और करीब दस हजार लोग प्रभावित होंगे। लेकिन पिछले साल की बाढ़ का अनुभव बताता है कि पानी का फुलाव कई किलोमीटर आगे तक चला गया । माना जा रहा है कि करीब पचास हजार लोगों पर इसका असर रहेगा। पुल के मौजूदा डिजाइन ने लागत जरूर कम की लेकिन इसने हजारों लोगों को रोने के लिए विवश किया है। क्या इनका दर्द सुनने के लिए हुक्मरानों को फुर्सत है?
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26.1.12
सेवा यात्रा और मधुबनी को समृद्ध करने वाले पत्रकार
संजय मिश्र -- २३-०१-१२
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मधुबनी की झोली कितनी बड़ी है ....... क्या आपको अनुमान है उसकी जरूरतों और आकांक्षा की ? उम्मीद कर सकते हैं कि आपका जवाब ना में ही होगा । १९ जनवरी २०१२--शाम होते-होते मधुबनी के लोग हैरानी से भर उठे । सेवा यात्रा की कवरेज दिखा रहे एक रीजनल न्यूज चैनल की स्क्रीन पर लगातार एक टेक्स्ट फ्लैश हो रहा था । इसमें लिखा था--मधुबनी हुई मालामाल। असल में ४.३ अरब की योजनाओं के शिलान्यास के मद्देनजर ये कहा जा रहा था। अगले दिन बिहार में सर्वाधिक रीडरशिप का दावा करने वाले एक अखवार की हेडलाइन देख वे अचम्भे में पड़ गए। इसमें कहा गया कि --मधुबनी की भर गई झोली। शहरवासी एक दूसरे से तजबीज करते दिखे कि क्या वाकई उनकी झोली भर गई ?
आम दर्शक या पाठक मीडिया घरानों की परदे के पीछे की हलचल से अनजान होते...लिहाजा उनकी उलझन समझी जा सकती है। लेकिन इन घरानों में काम करने वाले पत्रकार भी हैरान थे....ख़ास कर टीवी पत्रकार। उन्हें पता है कि सेवा यात्रा से जुड़े विज्ञापनों की बंदरबांट में टीवी चैनलों को ठेंगा दिखाया गया है...जबकि अखबारों पर विशेष कृपा की गई। यही कारण है कि सेवा यात्रा के कवरेज में अधिकाँश न्यूज चैनल एंटी इस्तैब्लिस्मेंट मोड में हैं। विज्ञापन की माया के बावजूद ये समझना मुश्किल है की मधुबनी की उम्मीदों का अंदाजा इन संपादकों ने कैसे लगाया?
दरअसल नीतीश बंदना की कोशिश में ये बताया गया मानो मधुबनी का अब कल्याण होने वाला है। लेकिन जमीनी हकीकत इनका मूंह चिढाने के लिए काफी है। यात्रा के दौरान बलिराजगढ़ में मुख्यमंत्री को ये अहसास हो गया कि जिले के ऐतिहासिक धरोहरों की घनघोर उपेक्षा हुई है। स्थानीय लोग इस उपेक्षा को पहचान मिटाने की साजिश का हिस्सा मानते हैं। खुली आँखों से गढ़ को निहारते नीतीश कुमार को अंदाजा हो रहा था कि बिहार में गया, नालंदा और वैशाली से आगे भी संभावनाएं मौजूद हैं। मधुबनी जिले में खुदाई की बाट जोह रहे ऐसे कई पुरातात्विक स्थल हैं जो वैदिक काल तक की कहानी कहने में सक्षम हैं।
मुख्यमंत्री को अपने बीच पाकर लोगों का गद-गद होना स्वाभाविक है लेकिन फ़रियाद लेकर जनता दरबार में पहुचने के लिए हंगामा करने वालों की तादाद बहुत कुछ कह रही थी। मुख्यमंत्री तक नहीं पहुँच पाए ऐसे लोगों के विदीर्ण चेहरे आभास कर रहे थे कि ख़राब माली हालत देर-सवेर उन्हें पलायन करने वालों की भीड़ में धकेलेगी....और अपने सामाजिक सन्दर्भों से दूर ले जाएगी। जहाँ इनमें से कई लोग गलत संगत में भी पड़ेंगे। आतंकवादियों के चंगुल में फंसे जिले के पांच लोगों की दास्तान मधुबनीवासियों को साल रही है।
इस जिले में पलायन नासूर बन गया है। इसकी मारक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दरभंगा स्टेशन से खुलने वाली लम्बी दूरी की अधिकाश ट्रेनों का एक्सटेंसन जयनगर तक कर दिया गया है। सघन जन्संख्यां और बाढ़ की विभीषिका पलायन के ताप को बढाती है। उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई के लिहाज से जमीन का बेहतरीन ढाल इस इलाके को खेती के लिए बेहद अनुकूल बनाता है। लेकिन पांच दशक से निर्माणाधीन पश्चिमी कोसी नहर यहाँ के लोगों के लिए सपना बना हुआ है। क्या सेवा यात्रा में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को पूरा करने का संकल्प है ?
कई बार अकाल की मार झेल रहे इस इलाके में सेकेंडरी सेक्टर का हाल बेहाल है। बिजली सप्लाई में मधुबनी प्राथमिकता सूची से कोसों दूर है। नतीजतन उद्योग -धंधों का विकास चौपट है। पंडौल इंडस्ट्रियल एरिया में चिमनियाँ सालों से बुझी पडी हैं। जिले की बंद चीनी मीलों के खुलने की खबर सुन-सुन कर लोग थक चुके हैं। जिन लोगों को बिहार में इन्फ्रास्त्रक्चार के विकास पर गुमान हो उन्हें इस जिले से गुजरने वाली एन एच १०५ पर एक बार जरूर सफ़र कर लेना चाहिए।
अकाल ने ही मिथिला पेंटिंग का परिचय व्यावसायिक दुनिया से कराया था। दो सालों से मिथिला पेंटिंग संस्थान खोलने की बात कही जा रही है। नीतीश ने एक बार फिर इस वायदे को दुहराया है। ये संस्थान सौराठ में स्थापित होगा.....जी हाँ उसी सौराठ में जहां शादी के इच्क्षुक दूल्हों का मेला लगता है। लेकिन केंद्र से विशेष पॅकेज की मांग करने वाले नीतीश इस बात पर चुप्पी साध गए कि इसी जिले में तेल खुदाई के लिए ओ एन जी सी की ड्रीलिंग का काम क्यों ठप पडा है ? आपको बता दें की सौराठ गाँव में ही ओ एन जी सी का लाव-लश्कर महीनो तक रहा लेकिन रहस्यमई तरीके से ड्रीलिंग का काम रोक दिया गया।
सरकार के अनुसार जिले में करीब ४.३ अरब की ४६७ छोटी-बड़ी विकास योजनाओं का शिलान्यास हुआ । मधुबनी को समृद्ध बनाने वाले संपादक ज़रा नालंदा जिले के आंकड़ों पर गौर कर लें । राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं से अलग नालंदा जिले में स्थाई महत्त्व की करीब ७५० अरब की योजनाओं पर काम चल रहा है। इन आंकड़ों से भी मन न भरे तो ये संपादक मधुबनी के काशीनाथ उर्फ़ राधा-कान्त को याद कर लें जिसने तंगहाली में नगर-पालिका परिसर के सामने आत्म-दाह कर लिया था।
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मधुबनी की झोली कितनी बड़ी है ....... क्या आपको अनुमान है उसकी जरूरतों और आकांक्षा की ? उम्मीद कर सकते हैं कि आपका जवाब ना में ही होगा । १९ जनवरी २०१२--शाम होते-होते मधुबनी के लोग हैरानी से भर उठे । सेवा यात्रा की कवरेज दिखा रहे एक रीजनल न्यूज चैनल की स्क्रीन पर लगातार एक टेक्स्ट फ्लैश हो रहा था । इसमें लिखा था--मधुबनी हुई मालामाल। असल में ४.३ अरब की योजनाओं के शिलान्यास के मद्देनजर ये कहा जा रहा था। अगले दिन बिहार में सर्वाधिक रीडरशिप का दावा करने वाले एक अखवार की हेडलाइन देख वे अचम्भे में पड़ गए। इसमें कहा गया कि --मधुबनी की भर गई झोली। शहरवासी एक दूसरे से तजबीज करते दिखे कि क्या वाकई उनकी झोली भर गई ?
आम दर्शक या पाठक मीडिया घरानों की परदे के पीछे की हलचल से अनजान होते...लिहाजा उनकी उलझन समझी जा सकती है। लेकिन इन घरानों में काम करने वाले पत्रकार भी हैरान थे....ख़ास कर टीवी पत्रकार। उन्हें पता है कि सेवा यात्रा से जुड़े विज्ञापनों की बंदरबांट में टीवी चैनलों को ठेंगा दिखाया गया है...जबकि अखबारों पर विशेष कृपा की गई। यही कारण है कि सेवा यात्रा के कवरेज में अधिकाँश न्यूज चैनल एंटी इस्तैब्लिस्मेंट मोड में हैं। विज्ञापन की माया के बावजूद ये समझना मुश्किल है की मधुबनी की उम्मीदों का अंदाजा इन संपादकों ने कैसे लगाया?
दरअसल नीतीश बंदना की कोशिश में ये बताया गया मानो मधुबनी का अब कल्याण होने वाला है। लेकिन जमीनी हकीकत इनका मूंह चिढाने के लिए काफी है। यात्रा के दौरान बलिराजगढ़ में मुख्यमंत्री को ये अहसास हो गया कि जिले के ऐतिहासिक धरोहरों की घनघोर उपेक्षा हुई है। स्थानीय लोग इस उपेक्षा को पहचान मिटाने की साजिश का हिस्सा मानते हैं। खुली आँखों से गढ़ को निहारते नीतीश कुमार को अंदाजा हो रहा था कि बिहार में गया, नालंदा और वैशाली से आगे भी संभावनाएं मौजूद हैं। मधुबनी जिले में खुदाई की बाट जोह रहे ऐसे कई पुरातात्विक स्थल हैं जो वैदिक काल तक की कहानी कहने में सक्षम हैं।
मुख्यमंत्री को अपने बीच पाकर लोगों का गद-गद होना स्वाभाविक है लेकिन फ़रियाद लेकर जनता दरबार में पहुचने के लिए हंगामा करने वालों की तादाद बहुत कुछ कह रही थी। मुख्यमंत्री तक नहीं पहुँच पाए ऐसे लोगों के विदीर्ण चेहरे आभास कर रहे थे कि ख़राब माली हालत देर-सवेर उन्हें पलायन करने वालों की भीड़ में धकेलेगी....और अपने सामाजिक सन्दर्भों से दूर ले जाएगी। जहाँ इनमें से कई लोग गलत संगत में भी पड़ेंगे। आतंकवादियों के चंगुल में फंसे जिले के पांच लोगों की दास्तान मधुबनीवासियों को साल रही है।
इस जिले में पलायन नासूर बन गया है। इसकी मारक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दरभंगा स्टेशन से खुलने वाली लम्बी दूरी की अधिकाश ट्रेनों का एक्सटेंसन जयनगर तक कर दिया गया है। सघन जन्संख्यां और बाढ़ की विभीषिका पलायन के ताप को बढाती है। उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई के लिहाज से जमीन का बेहतरीन ढाल इस इलाके को खेती के लिए बेहद अनुकूल बनाता है। लेकिन पांच दशक से निर्माणाधीन पश्चिमी कोसी नहर यहाँ के लोगों के लिए सपना बना हुआ है। क्या सेवा यात्रा में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को पूरा करने का संकल्प है ?
कई बार अकाल की मार झेल रहे इस इलाके में सेकेंडरी सेक्टर का हाल बेहाल है। बिजली सप्लाई में मधुबनी प्राथमिकता सूची से कोसों दूर है। नतीजतन उद्योग -धंधों का विकास चौपट है। पंडौल इंडस्ट्रियल एरिया में चिमनियाँ सालों से बुझी पडी हैं। जिले की बंद चीनी मीलों के खुलने की खबर सुन-सुन कर लोग थक चुके हैं। जिन लोगों को बिहार में इन्फ्रास्त्रक्चार के विकास पर गुमान हो उन्हें इस जिले से गुजरने वाली एन एच १०५ पर एक बार जरूर सफ़र कर लेना चाहिए।
अकाल ने ही मिथिला पेंटिंग का परिचय व्यावसायिक दुनिया से कराया था। दो सालों से मिथिला पेंटिंग संस्थान खोलने की बात कही जा रही है। नीतीश ने एक बार फिर इस वायदे को दुहराया है। ये संस्थान सौराठ में स्थापित होगा.....जी हाँ उसी सौराठ में जहां शादी के इच्क्षुक दूल्हों का मेला लगता है। लेकिन केंद्र से विशेष पॅकेज की मांग करने वाले नीतीश इस बात पर चुप्पी साध गए कि इसी जिले में तेल खुदाई के लिए ओ एन जी सी की ड्रीलिंग का काम क्यों ठप पडा है ? आपको बता दें की सौराठ गाँव में ही ओ एन जी सी का लाव-लश्कर महीनो तक रहा लेकिन रहस्यमई तरीके से ड्रीलिंग का काम रोक दिया गया।
सरकार के अनुसार जिले में करीब ४.३ अरब की ४६७ छोटी-बड़ी विकास योजनाओं का शिलान्यास हुआ । मधुबनी को समृद्ध बनाने वाले संपादक ज़रा नालंदा जिले के आंकड़ों पर गौर कर लें । राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं से अलग नालंदा जिले में स्थाई महत्त्व की करीब ७५० अरब की योजनाओं पर काम चल रहा है। इन आंकड़ों से भी मन न भरे तो ये संपादक मधुबनी के काशीनाथ उर्फ़ राधा-कान्त को याद कर लें जिसने तंगहाली में नगर-पालिका परिसर के सामने आत्म-दाह कर लिया था।
22.8.11
अन्ना के आन्दोलन में उलझे सवाल- पार्ट ३
संजय मिश्र
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साल १८८६....स्थान कलकत्ता। अधिवेशन के लिए कांग्रेस को जगह नहीं मिल रही थी। ऐन वक्त पर दरभंगा महाराज आगे आते हैं और अपनी जमीन पर अधिवेशन का इंतजाम करवाते हैं। सन २०११.....अगस्त का महीना। अन्ना की टोली अनशन स्थल के लिए दर-दर भटकती रही। कांग्रेस को १८८६ का अपना दर्द याद नहीं आया। अब वो सत्ता में है। गजब का संयोग है कि कभी आन्दोलन कही जाने वाली कांग्रेस आज अन्ना हजारे के आन्दोलन से सहमी हुई है। २१ अगस्त की शाम अन्ना हुंकार भरते हैं कि या तो जन लोकपाल बिल लाना पड़ेगा नहीं तो जाना पडेगा। डेडलाइन ३० अगस्त का है...जिस दिन अभूतपूर्व आन्दोलन का एलान कर दिया गया है। जाहिर है ये दवाब बनाने की रणनीति है। ये २० अगस्त के शाह-मात के उस खेल का जवाब है जब सोनिया गांधी की करीबी अरुणा राय लोकपाल के अपने वर्जन के साथ मैदान में कूद पडी। -------------------------------------------------------------------------------अन्ना ने लोगों से अपने सांसदों के घर के सामने विरोध जताने का आह्वान कर दिया है। इससे सांसद सकते में हैं। दरअसल, आन्दोलन के विराट स्वरूप के लिए कांग्रेस खुद जिम्मेवार है। पिछले छः महीने के घटनाक्रम बेशक ' काट-लिस्ट ' साबित हुए लेकिन कांग्रेस ने जो हथकंडे अपनाए उसने आग में घी का काम किया। लगातार सत्ता में रहते हुए पार्टी ने अपने संबंध में जो धारणाएं विकसित कर ली हैं यू पी ए-२ में इसका विस्तार हुआ। कांग्रेस इस सोच की आदी है कि इस देश को वो ही चला सकती है। ऐसी भावना कांग्रेसियों में अहंकार भरता है।याद करिए छः महीने पहले तक कांग्रेसी इतरा रहे थे। महंगाई और तमाम तरह के घोटालों से देश दंग रह गया लेकिन पार्टी अपनी ही चाल से चलती रही। खुद पक्ष और खुद विपक्ष की चाल चली गई। यानि चित भी मेरी और पट भी मेरी। विपक्ष को पंगु बनाने साजिशें परवान चढी। वो इस बात को भूल गई कि विपक्ष ' पब्लिक एंगर ' के लिए ' सेफ्टी वाल्व ' का काम करता है। इसने जनता से सरकार की संवादहीनता को बढ़ाया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------------इसी बीच अन्ना और रामदेव की मुहिम तेज हुई। अन्ना स्वीकार करते हैं कि जंतर-मंतर पर मिले जन-समर्थन की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। लेकिन इस जमावड़े के मिजाज की कांग्रेस ने अनदेखी की। ४ जून की रात राम-लीला मैदान में जो कुछ हुआ उसने देश को हिला कर रख दिया। लोग सवाल करते रहे कि रामदेव ने जब समझौते की घोषणा कर दी तब उनके निजी पत्र को सार्वजनिक क्यों किया गया ? संभव है ताकतवर भ्रष्टाचारियों और काला धन विदेश भेजनेवालों का सरकार पर अत्यधिक दवाब हो ? -------------------------------------------------------------------आम जन इस बात से भी असमंजस में पड़ जाते हैं की सरकार और कांग्रेस के बीच खींच-तान का क्या मतलब है ? सरकार में दो गुट और पार्टी में सोनिया और राहुल के दो गुट....यानि केंद्र में चार पावर सेंटर। कांग्रेस का य़े संकट उस उधेरबुन की उपज कि राहुल को कब पी एम बनाया जाए ? इसके लिए जरूरी है कि पी एम ऐसा हो जो अच्छे और कठोर फैसले से देश में लोकप्रिय न होने पाए। नतीजतन एक मजबूर पी एम के दर्शन को देश अभिशप्त है। इसके पीछे दलील य़े कि सरकार और पार्टी के वजूद अलग रखना आदर्श संसदीये राजनीति है। नेहरू के समय भी ऐसी चर्चा होती रहती थी। लेकिन बाद में कांग्रेस ने इस नीति से तौबा किया। -------------------------------------------------------------------------------------------------------गांधी के समर्थन से पी एम बने नेहरू अपने सपनो का भारत बनाना चाहते थे। ' साइंटिफिक टेम्पर ' उनका मूल-मंत्र था। वे रूमानी कहे जाते थे और उनकी भारत दृष्टी ' कोस्मेटिक ' थी। उनके विचारों से प्रेरित नेता और विशेषज्ञों ने जो संविधान बनाया उसमें दुनिया के तमाम संविधानो के अच्छे तत्वों को शामिल किया गया। उस समय ऐसे लोग भी थे जो संविधान को ' इंडीजेनस ' बनाने या यों कहें कि भारतीय जीवन के अनुरूप ढालने के पक्षधर थे। मसलन य़े वर्ग चाहता था कि राष्ट्र का ' पोलिटिकल फाउंडे-सन ' ग्राम-सभा में निहित हो। आई सी एस को ' डिस - बैंड ' करने की भी वकालत हुई। आग्रह होता रहा कि जो संविधान बना वो एक कलाकार की खूबसूरत कृति तो है लेकिन इसमें प्राण डालने की जरूरत है। लेकिन ऐसे विचार दरकिनार किये गए। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जवाब आया के संतनम की ओर से जिन्होंने संविधान बनाने में महती भूमिका अदा की थी। उन्होंने संविधान सभा के फाइनल डिबेट्स में गरजते हुए कहा कि संविधान के किसी हिस्से की आलोचना नापाक मानी जाएगी। यानि संविधान ' सेंकतम -सेंक्तोरम ' की तरह देखी गई। फिर भी इस ' होली काव ' में सैकड़ों संसोधन लाए जा चुके हैं। दिलचस्प है कि ऐसे ही एक संसोधन के जरिये राजीव गांधी ने पंचायती व्यवस्था को व्यापक बनाने की पहल की। दिग्विजय सिंह जब मध्य-प्रदेश के सी एम हुए तो उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रयास किये। सत्ता की निष्ठुर माया देखिये आज वही दिग्विजय हाथ-पैर भांजते हैं और ओसामा को ओसामाजी कह कर संबोधित करते हैं। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म और बी जे पी के हिंदुत्व के बीच भारतीय मानस पिस रहा है। अन्ना का ग्राम-संसद इसी मानस को आवाज देता है। ------------------------------------------------------------------------किसी भी आन्दोलन को अंजाम तक पहुँचने के लिए विचारधारा, नीति और संगठान जरूरी हैं..साथ ही सत्ता हासिल होने पर नीति के हिसाब से बनी योजनाएं अमल में लाइ जाए। अन्ना के पास विचार-धारा तो नहीं पर विचार हैं। लेकिन उनके पास न तो संगठन है और न ही वे सत्ता चाहते हैं। यही असलियत इस अप्रत्याशित आन्दोलन को खतरनाक बनाती है। कांग्रेस को समय की पुकार सुननी चाहिए। तिकरम छोड़ उसे जल्द-से-जल्द सकारात्मक कदम उठाने ही होंगे। आखिरकार, इमर-जेंसी के बाद इंदिरा ने देश से माफी मांग कर बड़प्पन ही दिखाया था।
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साल १८८६....स्थान कलकत्ता। अधिवेशन के लिए कांग्रेस को जगह नहीं मिल रही थी। ऐन वक्त पर दरभंगा महाराज आगे आते हैं और अपनी जमीन पर अधिवेशन का इंतजाम करवाते हैं। सन २०११.....अगस्त का महीना। अन्ना की टोली अनशन स्थल के लिए दर-दर भटकती रही। कांग्रेस को १८८६ का अपना दर्द याद नहीं आया। अब वो सत्ता में है। गजब का संयोग है कि कभी आन्दोलन कही जाने वाली कांग्रेस आज अन्ना हजारे के आन्दोलन से सहमी हुई है। २१ अगस्त की शाम अन्ना हुंकार भरते हैं कि या तो जन लोकपाल बिल लाना पड़ेगा नहीं तो जाना पडेगा। डेडलाइन ३० अगस्त का है...जिस दिन अभूतपूर्व आन्दोलन का एलान कर दिया गया है। जाहिर है ये दवाब बनाने की रणनीति है। ये २० अगस्त के शाह-मात के उस खेल का जवाब है जब सोनिया गांधी की करीबी अरुणा राय लोकपाल के अपने वर्जन के साथ मैदान में कूद पडी। -------------------------------------------------------------------------------अन्ना ने लोगों से अपने सांसदों के घर के सामने विरोध जताने का आह्वान कर दिया है। इससे सांसद सकते में हैं। दरअसल, आन्दोलन के विराट स्वरूप के लिए कांग्रेस खुद जिम्मेवार है। पिछले छः महीने के घटनाक्रम बेशक ' काट-लिस्ट ' साबित हुए लेकिन कांग्रेस ने जो हथकंडे अपनाए उसने आग में घी का काम किया। लगातार सत्ता में रहते हुए पार्टी ने अपने संबंध में जो धारणाएं विकसित कर ली हैं यू पी ए-२ में इसका विस्तार हुआ। कांग्रेस इस सोच की आदी है कि इस देश को वो ही चला सकती है। ऐसी भावना कांग्रेसियों में अहंकार भरता है।याद करिए छः महीने पहले तक कांग्रेसी इतरा रहे थे। महंगाई और तमाम तरह के घोटालों से देश दंग रह गया लेकिन पार्टी अपनी ही चाल से चलती रही। खुद पक्ष और खुद विपक्ष की चाल चली गई। यानि चित भी मेरी और पट भी मेरी। विपक्ष को पंगु बनाने साजिशें परवान चढी। वो इस बात को भूल गई कि विपक्ष ' पब्लिक एंगर ' के लिए ' सेफ्टी वाल्व ' का काम करता है। इसने जनता से सरकार की संवादहीनता को बढ़ाया। ----------------------------------------------------------------------------------------------------------इसी बीच अन्ना और रामदेव की मुहिम तेज हुई। अन्ना स्वीकार करते हैं कि जंतर-मंतर पर मिले जन-समर्थन की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। लेकिन इस जमावड़े के मिजाज की कांग्रेस ने अनदेखी की। ४ जून की रात राम-लीला मैदान में जो कुछ हुआ उसने देश को हिला कर रख दिया। लोग सवाल करते रहे कि रामदेव ने जब समझौते की घोषणा कर दी तब उनके निजी पत्र को सार्वजनिक क्यों किया गया ? संभव है ताकतवर भ्रष्टाचारियों और काला धन विदेश भेजनेवालों का सरकार पर अत्यधिक दवाब हो ? -------------------------------------------------------------------आम जन इस बात से भी असमंजस में पड़ जाते हैं की सरकार और कांग्रेस के बीच खींच-तान का क्या मतलब है ? सरकार में दो गुट और पार्टी में सोनिया और राहुल के दो गुट....यानि केंद्र में चार पावर सेंटर। कांग्रेस का य़े संकट उस उधेरबुन की उपज कि राहुल को कब पी एम बनाया जाए ? इसके लिए जरूरी है कि पी एम ऐसा हो जो अच्छे और कठोर फैसले से देश में लोकप्रिय न होने पाए। नतीजतन एक मजबूर पी एम के दर्शन को देश अभिशप्त है। इसके पीछे दलील य़े कि सरकार और पार्टी के वजूद अलग रखना आदर्श संसदीये राजनीति है। नेहरू के समय भी ऐसी चर्चा होती रहती थी। लेकिन बाद में कांग्रेस ने इस नीति से तौबा किया। -------------------------------------------------------------------------------------------------------गांधी के समर्थन से पी एम बने नेहरू अपने सपनो का भारत बनाना चाहते थे। ' साइंटिफिक टेम्पर ' उनका मूल-मंत्र था। वे रूमानी कहे जाते थे और उनकी भारत दृष्टी ' कोस्मेटिक ' थी। उनके विचारों से प्रेरित नेता और विशेषज्ञों ने जो संविधान बनाया उसमें दुनिया के तमाम संविधानो के अच्छे तत्वों को शामिल किया गया। उस समय ऐसे लोग भी थे जो संविधान को ' इंडीजेनस ' बनाने या यों कहें कि भारतीय जीवन के अनुरूप ढालने के पक्षधर थे। मसलन य़े वर्ग चाहता था कि राष्ट्र का ' पोलिटिकल फाउंडे-सन ' ग्राम-सभा में निहित हो। आई सी एस को ' डिस - बैंड ' करने की भी वकालत हुई। आग्रह होता रहा कि जो संविधान बना वो एक कलाकार की खूबसूरत कृति तो है लेकिन इसमें प्राण डालने की जरूरत है। लेकिन ऐसे विचार दरकिनार किये गए। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------जवाब आया के संतनम की ओर से जिन्होंने संविधान बनाने में महती भूमिका अदा की थी। उन्होंने संविधान सभा के फाइनल डिबेट्स में गरजते हुए कहा कि संविधान के किसी हिस्से की आलोचना नापाक मानी जाएगी। यानि संविधान ' सेंकतम -सेंक्तोरम ' की तरह देखी गई। फिर भी इस ' होली काव ' में सैकड़ों संसोधन लाए जा चुके हैं। दिलचस्प है कि ऐसे ही एक संसोधन के जरिये राजीव गांधी ने पंचायती व्यवस्था को व्यापक बनाने की पहल की। दिग्विजय सिंह जब मध्य-प्रदेश के सी एम हुए तो उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रयास किये। सत्ता की निष्ठुर माया देखिये आज वही दिग्विजय हाथ-पैर भांजते हैं और ओसामा को ओसामाजी कह कर संबोधित करते हैं। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म और बी जे पी के हिंदुत्व के बीच भारतीय मानस पिस रहा है। अन्ना का ग्राम-संसद इसी मानस को आवाज देता है। ------------------------------------------------------------------------किसी भी आन्दोलन को अंजाम तक पहुँचने के लिए विचारधारा, नीति और संगठान जरूरी हैं..साथ ही सत्ता हासिल होने पर नीति के हिसाब से बनी योजनाएं अमल में लाइ जाए। अन्ना के पास विचार-धारा तो नहीं पर विचार हैं। लेकिन उनके पास न तो संगठन है और न ही वे सत्ता चाहते हैं। यही असलियत इस अप्रत्याशित आन्दोलन को खतरनाक बनाती है। कांग्रेस को समय की पुकार सुननी चाहिए। तिकरम छोड़ उसे जल्द-से-जल्द सकारात्मक कदम उठाने ही होंगे। आखिरकार, इमर-जेंसी के बाद इंदिरा ने देश से माफी मांग कर बड़प्पन ही दिखाया था।
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20.8.11
अन्ना के आन्दोलन में उलझे सवाल-- पार्ट 2
संजय मिश्र
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देश आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं। कई लोग मानते हैं कि कुछ समय बाद देश पुराने ढर्रे पर लौट आएगा। ऐसा हुआ , तो भी , यकीन मानिये उसकी चाल बदली हुई होगी। सड़कों पर उतरा जन सैलाब कांग्रेस ही नहीं, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों के मौजूदा तौर-तरीकों को खारिज करने पर उतारू है। राजनेता जब कहते हैं कि संसद को चुनौती मिल रही है तब वे खतरे की इसी घंटी को कबूल कर रहे होते हैं। " सब चलता है " --की सोच के आदी ये राजनेता जान रहे हैं कि रवैया बदलना होगा और इसे अलग वेव लेंथ पर ले जाना होगा। --------------------------------------------------------------------------------------------------------------------ऐसा मानने वाले भी कम नहीं कि अन्ना का आन्दोलन खतरनाक दिशा में जा सकता है। तुषार गांधी को आशंका है कि इस जन उबाल को " वेस्टेड इंटरेस्ट " हाईजेक भी कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता मानने लगे हैं कि आन्दोलन का विस्तृत फलक इस दुराग्रह को बेमानी बना चुका है कि ये आर एस एस प्रायोजित है। अब कहा जा रहा है कि राष्ट्रवादी ताकतों के बंधन से ये आन्दोलन १६ अगस्त को ही निकल गया। क्या वाम, क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी .......किसिम किसिम के विचार वाले तत्त्व इस आन्दोलन में घुस गए हैं। यहाँ तक कि माओवादी भी समर्थन कर रहे हैं...जी हाँ वही माओवादी जिनके लिए अन्ना की अहिंसा नीति चुनौती के समान है। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------एक रास्ता कल को उज्जवल बनाने की दिशा का भी है। गाँव से लेकर शहर तक अन्ना को समर्थन कर रहे लोग सुखद भविष्य की कामना पूरा करने वाले राह को खोज रहे हैं। ये कैसी तलाश है ? जो महिलाएं बच्चे को गोद में लेकर पहुँची हैं जरा उनके मिजाज को पढ़िए। गैस सिलेंडर के दाम की याद दिला कर वे कमरतोड़ महंगाई की तरफ इशारा कर रही हैं। सरकार महंगाई की वजह ग्लोबल इकोनोमी में ढूंढ रही है। इस इकोनोमी के बेचैनी बढाने वाले नतीजे दुनिया भर में दिखते हैं। चिंता के बीच वैश्वीकरण की यात्रा के पहले पड़ाव तक के सफ़र की समीक्षा हो रही है। इसके दुष्प्रभावों से " भारत " ही नहीं बल्कि जिसे हम " इंडिया " कहते हैं वो भी अछूता नहीं। अन्ना इस अर्थव्यवस्था की उपज को बढे हुए भ्रष्टाचार में देखना चाह रहे हैं। ------------------------------------------------------------------------------------- पिछले दो दशक में उदारीकरण की नीति से फायदा पाने वाले अमेरिका-मुखी नेट सेवी नौजवानों की भी थोड़ी बात कर लें। किसी भी कीमत पर सफलता और समृधि की चाहत को इन्होने जीवन का मकसद मान रखा है........चाहे इसके लिए नैतिकता की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े ? इस तबके का बड़ा हिस्सा आज आन्दोलन के साथ है.......अन्ना के नैतिक बल की आभा से वशीभूत। क्या इस वर्ग को मालूम है कि अन्ना ने भारत की आत्मा से उसका दर्शन कराया है ? क्या अन्ना को अहसास है कि भारत और इंडिया के मिलन का ये प्रस्थान बिंदु हो सकता है ? क्या वे सचेत हैं कि ये आन्दोलन इस मुतल्लिक एक अवसर लेकर खडा है ? क्या अन्ना के मन में इस सन्दर्भ में कोई योजना आकर ले पाई है ? --------------------------------------------------------------------------------------------------------------फिलहाल, दुनिया का सबसे युवा देश धोती-कुर्ता वाले एक शख्स की धमक सुन रहा है। अन्ना के एजेंडे में भ्रष्टाचार, चुनाव-सुधार और ग्राम-संसद जैसे मुद्दे हैं जिसके जरिये राज-सत्ता को लोक-सत्ता में बदलने, राजनेताओं को जिम्मेदारी का अहसास कराने और संविधान की कमियों को पाट कर उसे ज्यादा जीवंत बनाने की लालसा है। साधारण भाषा में कहें तो शायद हर दिन २० रूपये में जिन्दगी बसर करने वाली ८० फीसदी आबादी और समृधि में जी रहे २० फीसदी आबादी के बीच संवाद बनाने की " जिद " है ये। क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इसे समझ रही है ?
जरी है.........
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देश आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं। कई लोग मानते हैं कि कुछ समय बाद देश पुराने ढर्रे पर लौट आएगा। ऐसा हुआ , तो भी , यकीन मानिये उसकी चाल बदली हुई होगी। सड़कों पर उतरा जन सैलाब कांग्रेस ही नहीं, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों के मौजूदा तौर-तरीकों को खारिज करने पर उतारू है। राजनेता जब कहते हैं कि संसद को चुनौती मिल रही है तब वे खतरे की इसी घंटी को कबूल कर रहे होते हैं। " सब चलता है " --की सोच के आदी ये राजनेता जान रहे हैं कि रवैया बदलना होगा और इसे अलग वेव लेंथ पर ले जाना होगा। --------------------------------------------------------------------------------------------------------------------ऐसा मानने वाले भी कम नहीं कि अन्ना का आन्दोलन खतरनाक दिशा में जा सकता है। तुषार गांधी को आशंका है कि इस जन उबाल को " वेस्टेड इंटरेस्ट " हाईजेक भी कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता मानने लगे हैं कि आन्दोलन का विस्तृत फलक इस दुराग्रह को बेमानी बना चुका है कि ये आर एस एस प्रायोजित है। अब कहा जा रहा है कि राष्ट्रवादी ताकतों के बंधन से ये आन्दोलन १६ अगस्त को ही निकल गया। क्या वाम, क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी .......किसिम किसिम के विचार वाले तत्त्व इस आन्दोलन में घुस गए हैं। यहाँ तक कि माओवादी भी समर्थन कर रहे हैं...जी हाँ वही माओवादी जिनके लिए अन्ना की अहिंसा नीति चुनौती के समान है। ------------------------------------------------------------------------------------------------------------एक रास्ता कल को उज्जवल बनाने की दिशा का भी है। गाँव से लेकर शहर तक अन्ना को समर्थन कर रहे लोग सुखद भविष्य की कामना पूरा करने वाले राह को खोज रहे हैं। ये कैसी तलाश है ? जो महिलाएं बच्चे को गोद में लेकर पहुँची हैं जरा उनके मिजाज को पढ़िए। गैस सिलेंडर के दाम की याद दिला कर वे कमरतोड़ महंगाई की तरफ इशारा कर रही हैं। सरकार महंगाई की वजह ग्लोबल इकोनोमी में ढूंढ रही है। इस इकोनोमी के बेचैनी बढाने वाले नतीजे दुनिया भर में दिखते हैं। चिंता के बीच वैश्वीकरण की यात्रा के पहले पड़ाव तक के सफ़र की समीक्षा हो रही है। इसके दुष्प्रभावों से " भारत " ही नहीं बल्कि जिसे हम " इंडिया " कहते हैं वो भी अछूता नहीं। अन्ना इस अर्थव्यवस्था की उपज को बढे हुए भ्रष्टाचार में देखना चाह रहे हैं। ------------------------------------------------------------------------------------- पिछले दो दशक में उदारीकरण की नीति से फायदा पाने वाले अमेरिका-मुखी नेट सेवी नौजवानों की भी थोड़ी बात कर लें। किसी भी कीमत पर सफलता और समृधि की चाहत को इन्होने जीवन का मकसद मान रखा है........चाहे इसके लिए नैतिकता की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े ? इस तबके का बड़ा हिस्सा आज आन्दोलन के साथ है.......अन्ना के नैतिक बल की आभा से वशीभूत। क्या इस वर्ग को मालूम है कि अन्ना ने भारत की आत्मा से उसका दर्शन कराया है ? क्या अन्ना को अहसास है कि भारत और इंडिया के मिलन का ये प्रस्थान बिंदु हो सकता है ? क्या वे सचेत हैं कि ये आन्दोलन इस मुतल्लिक एक अवसर लेकर खडा है ? क्या अन्ना के मन में इस सन्दर्भ में कोई योजना आकर ले पाई है ? --------------------------------------------------------------------------------------------------------------फिलहाल, दुनिया का सबसे युवा देश धोती-कुर्ता वाले एक शख्स की धमक सुन रहा है। अन्ना के एजेंडे में भ्रष्टाचार, चुनाव-सुधार और ग्राम-संसद जैसे मुद्दे हैं जिसके जरिये राज-सत्ता को लोक-सत्ता में बदलने, राजनेताओं को जिम्मेदारी का अहसास कराने और संविधान की कमियों को पाट कर उसे ज्यादा जीवंत बनाने की लालसा है। साधारण भाषा में कहें तो शायद हर दिन २० रूपये में जिन्दगी बसर करने वाली ८० फीसदी आबादी और समृधि में जी रहे २० फीसदी आबादी के बीच संवाद बनाने की " जिद " है ये। क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इसे समझ रही है ?
जरी है.........
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