आस्था के आसरे बाज़ार को चुनौती देने की कोशिश
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संजय मिश्र
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जै ज़माना मे दुनिया बनले ... कहै छै जे परकृति माए अपन देह के बांटि लेलखिन ... छठम अंश जे भेलै से छठी माए भेलखिन .....बूढ़ पुरनिया इहो कहै छै जे ओ ब्रह्मा के मानस पुत्री छलखिन ... जे से ... हिनकर पूजा केला स बच्चा सबहक रक्षा होई छै .... कतेक खिस्सा कहब। इस किस्सागोई के बीच कोनिया का एक हिस्सा आकार ले चुका था। लम्बी सांस छोड़ने के बाद वृद्ध कारीगर के हाथ फिर से बांस करची पर फिसलने लगे। बीच-बीच में सड़क की ओर नजर जाती। टक -टकी इस तरफ कि पिछले साल की तुलना में इस साल कितना ऑर्डर आ रहा है। दरभंगा के भटियारी सराय के बांस के कामगार बताते हैं कि खरीदारी सामान्य चल रही है। ये जानते हुए कि सेमी-फाइबर सूप (डगरा ) और पीतल के कोनिया से इन्हें चुनौती मिल रही है ... ये बांस को कलात्मक अभिव्यक्ति देने में मग्न हैं।
शहर के बीच में स्थित इस गाँव में करीब पच्चीस लोग इस पुश्तैनी काम को अंजाम देने में लगे हैं। लक्ष्मण मल्लिक बताते हैं कि कोनिया, सूप, चंगेरा, बड़ा चंगेरा( जिसे दौड़ा भी कहते हैं ) की सामान्य बिक्री हो रही है। कोनिया 25 से 35 रूपये में जबकि दौड़ा 100 रूपये में। बांस की करची से बना पथिया 100 रूपये में बिक जाता है लेकिन इसकी डिमांड में तेजी नहीं है। कच्चा माल के रूप में बांस, रंग, और अन्य सजावटी सामान की इन्हें खरीद करनी पड़ती है। एक हरौथ बांस 250 रूपये में आता है।
बारह साल के नाती प्रहलाद को कारीगरी की बारीकी समझाते हुए लक्ष्मण कह उठते हैं कि 300 रूपये में लोग पीतल का कोनिया खरीदते हैं। ज्यादा खर्च करने वाले इसे खरीदने लगे हैं और साल-दर-साल इसका इस्तेमाल करते हैं। उधर चमक-दमक में यकीन रखने वाले प्लास्टिक ( सेमी-फाइबर ) सामान लेने लगे हैं। प्लास्टिक का सूप 125 रूपये में मिलता है। लेकिन आस्थावान लोग पारंपरिक विचारों को अहमियत देते हैं। मुस्कुराते हुए लक्ष्मण कहते हैं कि -- हमर सबहक हाथ सं बनल बांसक समान शुद्ध मानल ज़ाई छै ... बांसक समान बंश बढबैत छै। शायद इस सोच में ही इन कारीगरों की उम्मीद बची है। प्रहलाद के मुताबिक़ पढ़-लिख कर नौकरी करेंगे लेकिन पुश्तैनी धंधा सीखने में क्या हर्जा है?
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संजय मिश्र
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जै ज़माना मे दुनिया बनले ... कहै छै जे परकृति माए अपन देह के बांटि लेलखिन ... छठम अंश जे भेलै से छठी माए भेलखिन .....बूढ़ पुरनिया इहो कहै छै जे ओ ब्रह्मा के मानस पुत्री छलखिन ... जे से ... हिनकर पूजा केला स बच्चा सबहक रक्षा होई छै .... कतेक खिस्सा कहब। इस किस्सागोई के बीच कोनिया का एक हिस्सा आकार ले चुका था। लम्बी सांस छोड़ने के बाद वृद्ध कारीगर के हाथ फिर से बांस करची पर फिसलने लगे। बीच-बीच में सड़क की ओर नजर जाती। टक -टकी इस तरफ कि पिछले साल की तुलना में इस साल कितना ऑर्डर आ रहा है। दरभंगा के भटियारी सराय के बांस के कामगार बताते हैं कि खरीदारी सामान्य चल रही है। ये जानते हुए कि सेमी-फाइबर सूप (डगरा ) और पीतल के कोनिया से इन्हें चुनौती मिल रही है ... ये बांस को कलात्मक अभिव्यक्ति देने में मग्न हैं।
शहर के बीच में स्थित इस गाँव में करीब पच्चीस लोग इस पुश्तैनी काम को अंजाम देने में लगे हैं। लक्ष्मण मल्लिक बताते हैं कि कोनिया, सूप, चंगेरा, बड़ा चंगेरा( जिसे दौड़ा भी कहते हैं ) की सामान्य बिक्री हो रही है। कोनिया 25 से 35 रूपये में जबकि दौड़ा 100 रूपये में। बांस की करची से बना पथिया 100 रूपये में बिक जाता है लेकिन इसकी डिमांड में तेजी नहीं है। कच्चा माल के रूप में बांस, रंग, और अन्य सजावटी सामान की इन्हें खरीद करनी पड़ती है। एक हरौथ बांस 250 रूपये में आता है।
बारह साल के नाती प्रहलाद को कारीगरी की बारीकी समझाते हुए लक्ष्मण कह उठते हैं कि 300 रूपये में लोग पीतल का कोनिया खरीदते हैं। ज्यादा खर्च करने वाले इसे खरीदने लगे हैं और साल-दर-साल इसका इस्तेमाल करते हैं। उधर चमक-दमक में यकीन रखने वाले प्लास्टिक ( सेमी-फाइबर ) सामान लेने लगे हैं। प्लास्टिक का सूप 125 रूपये में मिलता है। लेकिन आस्थावान लोग पारंपरिक विचारों को अहमियत देते हैं। मुस्कुराते हुए लक्ष्मण कहते हैं कि -- हमर सबहक हाथ सं बनल बांसक समान शुद्ध मानल ज़ाई छै ... बांसक समान बंश बढबैत छै। शायद इस सोच में ही इन कारीगरों की उम्मीद बची है। प्रहलाद के मुताबिक़ पढ़-लिख कर नौकरी करेंगे लेकिन पुश्तैनी धंधा सीखने में क्या हर्जा है?