२३ - अगस्त .... सावन की अंतिम सोमवारी के दिन जब हजारो आस्थावानों ने कुशेश्वर स्थान मंदिर में जलाभिषेक किया तो उन्हें सहसा यकीन नहीं हो रहा था। जहां कई लोग भक्तिभाव में डूबे थे वहीं अन्य श्रधालु इस बात की तज-बीज कर रहे थे कि बीते सालों में सोमवारी के दिन इस मंदिर परिसर में कितना पानी हुआ करता था। बाढ़ की बिभीषिका झेलने वाले दरभंगा जिले के लोगों को उस समय भी हैरानी हुई जब अलीनगर के गरौल गाँव के पास सूखे खेतों में पानी पहुचाने के लिए ग्रामीणों ने कमला नदी के मूंह को ही बाँध डाला । ये अगस्त के दूसरे सप्ताह का वाकया है। हर तरफ जन-सहयोग के इस मिसाल की चर्चा हुई। अधिकारियों ने भी लोगों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
हालांकि जन भागीदारी से बना ये बाँध बाढ़ आते ही ध्वस्त हो गया। उधर बाढ़ के कारण कुशेश्वर स्थान का सड़क संपर्क २५ अगस्त को भंग हो गया। यहाँ के उन किसानो को मायूसी हुई जिन्होंने हजारो एकड़ में धान, सब्जी, और दलहन की खेती की थी। कम बारिश के कारण सिमरटोका, गईजोरी, इटहर , और भरेन गाँव के जल-जमाव वाले खेत भी सूख गए थे जिसको किसानो ने इन फसलों से आबाद किया था। आम तौर पर १५ अगस्त के बाद इस नक्सल प्रभावित इलाके में बाढ़ नहीं आती है। लेकिन किसानो के भरोसे पर फिलहाल पानी फिर गया है।
हाल के दिनों में बिहार में सूखे का मुद्दा इतना गरमाया कि पुर्णिया जिले में बाढ़ की दस्तक लोगों के जेहन को झकझोड़ नहीं पाया। दर असल बाढ़ के संबंध में बिहार में दो तरह के दृश्य उभरते हैं। एक दृश्य उस वर्ग का है जो बाढ़ का कहर झेलता है। दूसरा वर्ग है नेताओं, पत्रकारों और एन जी ओ का जो इसे उत्सव के रूप में लेता है। इस वर्ग को अपनी छवि चमकाने के लिए पहले वर्ग की असीम पीड़ा चाहिए। ऐसा इस बार नहीं हुआ है। इनकी नजर में बाढ़ से मरने वालों की संख्या इतनी नहीं बढी है कि आंसू बहाए जाएं। हालांकि पुर्णिया ने टीवी चैनलों को अच्छे विजुअल जरूर दे दिए .....नदी के कटाव से एक स्कूल भवन का लटकता हुआ आधा हिस्सा जिसके नीचे बहती तेज धारा.....
कुछ ही दिन बीते कि चंपारण में बाढ़ ने उग्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। गंडक, बूढ़ी गंडक, और अन्य सहायक नदियों के उफान से लोग सहमे हुए हैं। कई जाने जा चुकी हैं। बाल्मिकी नगर का टाइगर प्रोजेक्ट इलाका भी बाढ़ से अछूता नहीं रहा। पर्यटकों को आकर्षित करने वाले सैकड़ो वन्य जीव अचानक आई उफनती धारा में बह गए। नरकटिया गंज रेल-खंड पर ट्रेन परिचालन कई बार ठप करना पड़ा है। बगहा का सड़क संपर्क टूटा.....दोन नहर तो कई स्थानों पर तास के पत्ते की तरह भहर गई। बंगरा और तिलावे नदी का तट बंध ध्वस्त हो गया। सिकरहना तट बंध टूटने से सुगौली इलाके में जल- प्रलय का दृश्य बन गया। त्रि वेणी तट बंध भी धराशाई हो चुका है।
इधर बागमती नदी के उपद्रव से लोग सांसत में हैं। कटरा और औराई प्रखंड में स्थिति सोचनीये बनी हुई है। कटरा इलाके में तट बंधों के बीच के सैकड़ो घरों के ऊपर से पानी बह निकला। औराई के कई गाँव में लोगों ने पेड़ पर चढ़ कर जान बचाई। २५ अगस्त को सरकार ने आखिरकार गंडक, बागमती, और कोसी बेसिन में रेड अलर्ट जारी कर दिया। कोसी के पश्चिमी तट बंध पर जबरदस्त दबाव से अधिकारी सहमे हुए हैं। पानी का ये दबाव निर्मली के दक्षिण से जमालपुर तक बना हुआ है। दबाव को भांफ्ते हुए ही इस तट बंध की उंचाई तीन मीटर बढाने का फरमान जारी किया गया था। लेकिन महज एक मीटर उंचाई बढ़ा कर खाना पूरी कर ली गई। किरतपुर ढलान के निकट इस तट बंध के टूटने की आशंका से ग्रामीण डरे हुए हैं। तट बंध के अन्दर फंसे पचीसो गाँव टापू में तब्दील हो चुके हैं। अधिकाँश बाढ़-पीड़ित तट बंध और सरकार कि ओर से बने " रेज्ड प्लेटफार्म " पर शरण लिए हुए हैं।
बिहार में इस बार औसत से काफी कम बारिश हुई है। बावजूद इसके बाढ़ का कहर चिंता का कारण है। गंगा के उत्तर में बहने वाली अधिकाश नदियों का उदगम हिमालय है। बरसाती नदियाँ इन्हीं हिम-पोषित नदियों में मिलती हैं। ये हिम-पोषित नदियाँ बाद में गंगा में " डिसजोर्ज " होती हैं। गंडक सोनपुर के पास गंगा में मिल जाती है। इस इलाके की सबसे लम्बी नदी है- बूढ़ी गंडक । ये हिम-पोषित नहीं है और खगडिया के पास गंगा में जा मिलती है। जबकि कोसी , कुरसेला के निकट गंगा से संगम करती है। संगम से पहले कोसी बड़ा डेल्टा बनाती है। उधर, महानंदा , कटिहार जिले के गोदागरी के पास गंगा में समाहित होती है।
दर असल, गंडक से महानंदा तक नदियों का जाल बिछा है जो इस पूरे भू-भाग को एक-सूत्र में बांधता है। अधिकाश नदियों का ढाल उत्तर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में है। शरीर की शिराओं की तरह बहती ये नदियाँ सुख और दुःख का " पैटर्न " बनाती है ... ये नदियाँ एक सामान जीवन शैली का निर्माण भी करती। हर साल चंपारण से कटिहार तक बाढ़ तांडव मचाती है। दुःख लोगों को जोड़ता है। इनकी समृधि की राह में इन नदियों पर चल रह़ी आधी-अधूरी सिंचाई परियोजनाएं बाधक बन खडी हो जाती। कई इलाकों को सालो भर इसका खामियाजा भोगना पड़ता है। कुशेश्वर स्थान इसका " क्लासिक " उदाहरण है।
कुशेश्वर स्थान में बारिश हो या ना हो ....यहाँ बाढ़ जरूर आती है। इसी इलाके में बागमती , कमला-बलान, और कोसी के तट बंध जाकर ख़त्म होते। इसके आगे इन नदियों का सारा पानी पूरे क्षेत्र में पसर जाता है। बागमती बाद में बदला-घाट के पास कोसी में समाहित हो जाती है। इस साल भी बागमती कुशेश्वर स्थान में काफी पानी उड़ेल आई है। अधवारा समूह की नदियों का पानी भी हायाघाट में बागमती से जा मिलती है...जहां से आगे ये संयुक्त धारा करेह नाम धारण करती है।
अधवारा समूह और कमला बलान उफान पर हैं। ख़ास कर तट बंधों के बीच के गाँव और टोलों में रहने वाले सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं। यहाँ इनके सामने हर तरह की दिक्कतें हैं। रहने के लिए ठौर , भोजन, जलावन, पेय जल की व्यवस्था तो मुश्किल है ही साथ ही सर्प दंश की समस्या से भी इन्हें जूझना पर रहा है। महिलाओं को तो खासी परेशानी है। ये मुश्किलें हर बाढ़-पीड़ित इलाके में एक सामान है। राहत का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। अधिकारी फिलहाल बाढ़ में फंसे लोगों को निकालने की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। नाव की कमी आड़े आ रह़ी है। कमला-बलान तट बंध पर अधिकारियों की असल चिंता पेट्रालिंग की है। पिछले सालों में इस तट बंध को ग्रामीण कई बार काट चुके हैं।
.............................जारी है ..............................
life is celebration

31.8.10
31.7.10
आल गर्ल गेटअवे....
....संजय मिश्र...
पहाड़ों की वादियाँ.... कल कल करते झड़ने .... और पास ही छोटा सा घर। लोगों से दूर.... उस आबोहवा से दूर जहां बीते सालों की करवट मद्धम पद जाए....और इस घर में हो साजन का साथ....... ऐसे ही सपने देख तरुणाई बड़ी जिम्मेदारी ओढ़ लेती है... साथ साथ होने का ये अहसास आखिर दम तक फीका नहीं पड़ता...
लेकिन अमेरिका औए कनाडा की " लिबरेटेड " नारी इससे आगे देखने की आदी हो रही हैं। शादी से इनकार नहीं है ....प्रकृति - पुरूष मिलन से भी तौबा नहीं... पर महिला संगिनी का साथ इन्हें रास आने लगा है। जिन्दगी की भाग-दौर से फुर्सत मिली नहीं कि निकल पड़ती हैं देश- दुनिया की सैर पर...महिला मित्रों के साथ। --- आल गर्ल गेट अवे ---- का ये चलन पर्यटन उद्योग को नया आयाम दे रहा है।
सफल महिलाओं में बढ़ रही इस प्रवृति पर कई सर्वे हुए हैं। इनके मुताबिक़ घुमक्कड़ी के दौरान परिवार की महिलाऐं और संगिनी का साथ होने से सकून मिलता है और स्ट्रेस से निजात मिलती है। ये चलन हर तरह की आउटिंग में देखने को मिल रहा है। इस अनुभूति से वे इतनी रोमांचित हैं कि पर्यटन गाइड के तौर पर महिलाओं की ही मांग करने लगी हैं। ख़ास बात ये है कि हर उम्र की महिलाओं का रुझान इस तरफ बढ़ा है।
विशेषज्ञों की माने तो इससे -- सोसिअलाइजेसन -- की भावना मजबूत हो रही है। बड़ी बात ये है कि इन मौकों पर वो अपने बारे में सोच पाती हैं ....पति और बच्चों से दूर रह कर।। ये अहसास कि वो एक व्यक्ति हैं .... उन्हें बन्धनों से मुक्त होकर सोचने का अवसर मिलता है।
पर्यटन व्यवसाए के सर्वे के अनुसार करीब तीस फीसदी महिलाओं ने पिछले पांच सालों में इसका लुत्फ़ उठाया है। ये आंकडा चालीस फीसदी तक जाने का अनुमान है। आनंददायक पहलू ये है कि पुरूष इस ट्रेंड को उत्सुकता से देख रहे हैं।
भारत में " लिबरेटेड " और सफल महिलाओं की संख्या अच्छी- खासी है। जानकारों के अनुसार इनमे भी इस चलन का साझीदार होने का उताबलापन है। पर्यटन उद्योग को इस तरफ देखना चाहिए।
पहाड़ों की वादियाँ.... कल कल करते झड़ने .... और पास ही छोटा सा घर। लोगों से दूर.... उस आबोहवा से दूर जहां बीते सालों की करवट मद्धम पद जाए....और इस घर में हो साजन का साथ....... ऐसे ही सपने देख तरुणाई बड़ी जिम्मेदारी ओढ़ लेती है... साथ साथ होने का ये अहसास आखिर दम तक फीका नहीं पड़ता...
लेकिन अमेरिका औए कनाडा की " लिबरेटेड " नारी इससे आगे देखने की आदी हो रही हैं। शादी से इनकार नहीं है ....प्रकृति - पुरूष मिलन से भी तौबा नहीं... पर महिला संगिनी का साथ इन्हें रास आने लगा है। जिन्दगी की भाग-दौर से फुर्सत मिली नहीं कि निकल पड़ती हैं देश- दुनिया की सैर पर...महिला मित्रों के साथ। --- आल गर्ल गेट अवे ---- का ये चलन पर्यटन उद्योग को नया आयाम दे रहा है।
सफल महिलाओं में बढ़ रही इस प्रवृति पर कई सर्वे हुए हैं। इनके मुताबिक़ घुमक्कड़ी के दौरान परिवार की महिलाऐं और संगिनी का साथ होने से सकून मिलता है और स्ट्रेस से निजात मिलती है। ये चलन हर तरह की आउटिंग में देखने को मिल रहा है। इस अनुभूति से वे इतनी रोमांचित हैं कि पर्यटन गाइड के तौर पर महिलाओं की ही मांग करने लगी हैं। ख़ास बात ये है कि हर उम्र की महिलाओं का रुझान इस तरफ बढ़ा है।
विशेषज्ञों की माने तो इससे -- सोसिअलाइजेसन -- की भावना मजबूत हो रही है। बड़ी बात ये है कि इन मौकों पर वो अपने बारे में सोच पाती हैं ....पति और बच्चों से दूर रह कर।। ये अहसास कि वो एक व्यक्ति हैं .... उन्हें बन्धनों से मुक्त होकर सोचने का अवसर मिलता है।
पर्यटन व्यवसाए के सर्वे के अनुसार करीब तीस फीसदी महिलाओं ने पिछले पांच सालों में इसका लुत्फ़ उठाया है। ये आंकडा चालीस फीसदी तक जाने का अनुमान है। आनंददायक पहलू ये है कि पुरूष इस ट्रेंड को उत्सुकता से देख रहे हैं।
भारत में " लिबरेटेड " और सफल महिलाओं की संख्या अच्छी- खासी है। जानकारों के अनुसार इनमे भी इस चलन का साझीदार होने का उताबलापन है। पर्यटन उद्योग को इस तरफ देखना चाहिए।
5.7.10
पलायन -----------भाग ७
करिके गवनमा भवनमा में छोरि के
अपने पड़इले पूरबवा बलमुआ
अंखिया से दिन भर गीरे लोर ठर ठर
बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआ......
पलायन के आगोश में दुखों का अंबार रहता है। ये किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है........ फिर कवि ह्रदय क्यों न चीत्कार करे। बिहार के साहित्य में पलायन का दर्द रह रह कर झांकता रहा है। इसमें मुरझाए चेहरों के पोर पोर से उभरते दर्द हैं....विरह की वेदना है....साथ ही जिम्मेदारिओं के बोझ से जूझते अफ़साने हैं। जब कोई व्यक्ति घर-बार छोर कमाने निकलता है तो भावनात्मक उफान और गृहस्थी चलाने की विवशता का असर सबसे ज्यादा उसकी पत्नी पर पड़ता है। आज की कवितायेँ हों या पुराने कवियों के पद....परदेस जाने की कसक फूट पड़े हैं। भिखारी ठाकुर और विद्यापति के पदों में पलायन की पीड़ा के सूक्ष्म आयाम आज भी विचलित करने की क्षमता रखते हैं।
सुखल सर सरसिज भेल झाल
तरुण तरनि तरु न रहल हाल
देखि दरनि दरसाव पताल.........
विद्यापति के इस पद में अकाल का वर्णन है। रौदी की वजह से तालाब सूख रहे हैं.... पल्लव सूख गए हैं.....खेतों में दरार आ गया है। ऐसे में गृहस्थी कैसे चले....परदेस तो जाना ही पडेगा। पत्नी घबराती है कि सुख तो जाएगा ही साथ ही परदेस जाकर पति कहीं उसे भूल न जाए। विद्यापति के एक पद में ये दुविधा है....
माधव तोंहे जनु जाह विदेसे
हमरो रंग- रभस लय जैबह लैबह कोण सनेसे .........
एक और पद देखें----
हीरा मनि मानिक एको नहि मांगब
फेरि मांगब पहु तोरा .......
बावजूद इसके जब पति पत्नी से विदेस जाने की अनुमति माँगता है तो पत्नी मूर्छित हो जाती है। ये पद देखें...
कानु मुख हेरइते भावनि रमनि
फूकरइ रोअत झर झर नयनी
अनुमति मंगिते वर विधु वदनी
हर हर शबदे मुरछि पडु धरनी ........
भाव-विह्वल पति जब रात में सोई हुई पत्नी को जगा कर विदेस जाने की सूचना देता है तो पत्नी घबरा कर उठती है..... लेकिन अपना गम पीकर पति की यात्रा मंगलमय बनाने के लिए विधान में लग जाती है । देखें ये पद --
उठु उठु सुन्दरि हम जाईछी विदेस
सपनहु रूप नहि मिळत उदेश
से सुनि सुन्दरि उठल चेहाई
पहुक बचन सुनि बैसलि झमाई
उठैत उठलि बैसलि मन मारि......
लेकिन पत्नी इतनी विकल है कि पति के लिए मंगल तिलक लाने की जगह एक हाथ में उबटन और दूसरे हाथ में तेल ( जो कि यात्रा के समय अशुभ माना जाता है ) ले आती है। देखें ये पद -----
एक हाथ उबटन एक हाथ तेल
पिय के नमनाओ सुन्दरि चलि भेलि ........
पति जा चुका है....पत्नी व्यथित है... भिखारी ठाकुर के पद में इस मनोभाव को महसूसें----
पिया मोर गईले परदेस ए बटोही भैया
रात नहि नींद दिन तुनीना चैन बा
चाहतानी बहुत कलेश ए बटोही भैया .......
पत्नी चाहती है कि वो सारे सुख त्याग दे लेकिन उसका पति लौट आये । कवि रवींद्र का ए गीतल देखें---
हम गुदरी पहीरि रहि जेबै
हमरा चाही ने रेशम के नुआ
हमर सासु जी के बेटा दुलरूआ
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे
आम मजरल मजरि गेलै महुआ
हे यौ सपने मे बीति गेलै फगुआ
हमर बाबूजी के कीनल जमैया
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे ......
रोना धोना छोड़ पत्नी घर की जिम्मेदारिओं मे रत हो जाती है। समस्याएँ फुफकारती हैं। भिखारी ठाकुर का ए पद बड़ा ही मार्मिक है -----
गंगा जी के भरली अररिया
नगरिया दहात बाटे हो
गंगा मैया , पनिया में जुनिया रोअत बानी
कंट विदेस मोर हो .....
घरेलू समस्याएँ सुलझाते सुलझाते वो न जाने कब पति की जिम्मेदारी ओढ़ लेती है .... इस काम मे वो इतनी मग्न है कि अपने आप को पति समझने लगती । अचानक से उसे भान होता कि वो तो नारी स्वभाव ही भूल गई। विद्यापति का इस अहसास का वर्णन दुनिया भर में अन्यतम माना जाता है-----
अनुखन माधव माधव सुमिरैत सुन्दरि भेल मधाई
ओ निज भाव स्वभावहि बिसरल अप्पन गुण लुब्धाई
अनुखन राधा राधा रटतहि आधा आधा वानि
राधा सौं जब पुन तहि माधव माधव सों जब राधा
दारुण प्रेम तबहु नहि टूटत बाढ़त विरहक बाधा .......
विपत्ति कम होने का नाम नहीं लेती ...उसके ह्रदय का हाहाकार विद्यापति के इस पद मे देखें---
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
ए भर बादर माह भादर
शून्य मंदिर ओर .....
अब वो मरना चाहती है ...... सखि से कहती है कि उसमे व्याप्त पति के गुण निधि किसे सौप कर जाए ----
मरिब मरिब सखि निश्चय मरिब
कानु हेन गुण निधि कारे दिए जाब .....
...........समाप्त......
नोट-- संबंधित मगही पद नहीं जुटा पाया .... इस ब्लॉग को सर्फ़ करने वाले ऐसे पद भेज कर मुझे अनुगृहित करें....
संजय मिश्र ।
अपने पड़इले पूरबवा बलमुआ
अंखिया से दिन भर गीरे लोर ठर ठर
बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआ......
पलायन के आगोश में दुखों का अंबार रहता है। ये किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है........ फिर कवि ह्रदय क्यों न चीत्कार करे। बिहार के साहित्य में पलायन का दर्द रह रह कर झांकता रहा है। इसमें मुरझाए चेहरों के पोर पोर से उभरते दर्द हैं....विरह की वेदना है....साथ ही जिम्मेदारिओं के बोझ से जूझते अफ़साने हैं। जब कोई व्यक्ति घर-बार छोर कमाने निकलता है तो भावनात्मक उफान और गृहस्थी चलाने की विवशता का असर सबसे ज्यादा उसकी पत्नी पर पड़ता है। आज की कवितायेँ हों या पुराने कवियों के पद....परदेस जाने की कसक फूट पड़े हैं। भिखारी ठाकुर और विद्यापति के पदों में पलायन की पीड़ा के सूक्ष्म आयाम आज भी विचलित करने की क्षमता रखते हैं।
सुखल सर सरसिज भेल झाल
तरुण तरनि तरु न रहल हाल
देखि दरनि दरसाव पताल.........
विद्यापति के इस पद में अकाल का वर्णन है। रौदी की वजह से तालाब सूख रहे हैं.... पल्लव सूख गए हैं.....खेतों में दरार आ गया है। ऐसे में गृहस्थी कैसे चले....परदेस तो जाना ही पडेगा। पत्नी घबराती है कि सुख तो जाएगा ही साथ ही परदेस जाकर पति कहीं उसे भूल न जाए। विद्यापति के एक पद में ये दुविधा है....
माधव तोंहे जनु जाह विदेसे
हमरो रंग- रभस लय जैबह लैबह कोण सनेसे .........
एक और पद देखें----
हीरा मनि मानिक एको नहि मांगब
फेरि मांगब पहु तोरा .......
बावजूद इसके जब पति पत्नी से विदेस जाने की अनुमति माँगता है तो पत्नी मूर्छित हो जाती है। ये पद देखें...
कानु मुख हेरइते भावनि रमनि
फूकरइ रोअत झर झर नयनी
अनुमति मंगिते वर विधु वदनी
हर हर शबदे मुरछि पडु धरनी ........
भाव-विह्वल पति जब रात में सोई हुई पत्नी को जगा कर विदेस जाने की सूचना देता है तो पत्नी घबरा कर उठती है..... लेकिन अपना गम पीकर पति की यात्रा मंगलमय बनाने के लिए विधान में लग जाती है । देखें ये पद --
उठु उठु सुन्दरि हम जाईछी विदेस
सपनहु रूप नहि मिळत उदेश
से सुनि सुन्दरि उठल चेहाई
पहुक बचन सुनि बैसलि झमाई
उठैत उठलि बैसलि मन मारि......
लेकिन पत्नी इतनी विकल है कि पति के लिए मंगल तिलक लाने की जगह एक हाथ में उबटन और दूसरे हाथ में तेल ( जो कि यात्रा के समय अशुभ माना जाता है ) ले आती है। देखें ये पद -----
एक हाथ उबटन एक हाथ तेल
पिय के नमनाओ सुन्दरि चलि भेलि ........
पति जा चुका है....पत्नी व्यथित है... भिखारी ठाकुर के पद में इस मनोभाव को महसूसें----
पिया मोर गईले परदेस ए बटोही भैया
रात नहि नींद दिन तुनीना चैन बा
चाहतानी बहुत कलेश ए बटोही भैया .......
पत्नी चाहती है कि वो सारे सुख त्याग दे लेकिन उसका पति लौट आये । कवि रवींद्र का ए गीतल देखें---
हम गुदरी पहीरि रहि जेबै
हमरा चाही ने रेशम के नुआ
हमर सासु जी के बेटा दुलरूआ
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे
आम मजरल मजरि गेलै महुआ
हे यौ सपने मे बीति गेलै फगुआ
हमर बाबूजी के कीनल जमैया
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग मे ......
रोना धोना छोड़ पत्नी घर की जिम्मेदारिओं मे रत हो जाती है। समस्याएँ फुफकारती हैं। भिखारी ठाकुर का ए पद बड़ा ही मार्मिक है -----
गंगा जी के भरली अररिया
नगरिया दहात बाटे हो
गंगा मैया , पनिया में जुनिया रोअत बानी
कंट विदेस मोर हो .....
घरेलू समस्याएँ सुलझाते सुलझाते वो न जाने कब पति की जिम्मेदारी ओढ़ लेती है .... इस काम मे वो इतनी मग्न है कि अपने आप को पति समझने लगती । अचानक से उसे भान होता कि वो तो नारी स्वभाव ही भूल गई। विद्यापति का इस अहसास का वर्णन दुनिया भर में अन्यतम माना जाता है-----
अनुखन माधव माधव सुमिरैत सुन्दरि भेल मधाई
ओ निज भाव स्वभावहि बिसरल अप्पन गुण लुब्धाई
अनुखन राधा राधा रटतहि आधा आधा वानि
राधा सौं जब पुन तहि माधव माधव सों जब राधा
दारुण प्रेम तबहु नहि टूटत बाढ़त विरहक बाधा .......
विपत्ति कम होने का नाम नहीं लेती ...उसके ह्रदय का हाहाकार विद्यापति के इस पद मे देखें---
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
ए भर बादर माह भादर
शून्य मंदिर ओर .....
अब वो मरना चाहती है ...... सखि से कहती है कि उसमे व्याप्त पति के गुण निधि किसे सौप कर जाए ----
मरिब मरिब सखि निश्चय मरिब
कानु हेन गुण निधि कारे दिए जाब .....
...........समाप्त......
नोट-- संबंधित मगही पद नहीं जुटा पाया .... इस ब्लॉग को सर्फ़ करने वाले ऐसे पद भेज कर मुझे अनुगृहित करें....
संजय मिश्र ।
4.7.10
पलायन का दर्द - भाग 6
बिहार के मजदूरों को पंजाब के किसान सेल फोन सहित अन्य सुविधाएँ देंगे ...... इस खबर की चहुँ ओर चर्चा हो रही है। इस शोर में केरल की सरकार की ओर से बाहरी मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाने की खबर दब सी गई। केरल ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्य सरकारें समय समय पर इन मजदूरों के हित के लिए चिंता जताती रहती हैं। इनके कल्याण के कई कदम उठाए भी गए हैं।
दरअसल , पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एन जी ओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए " दाग " नहीं हैं बल्कि इनका " असिस्टिंग रोल " उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे....ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में " ल्यूटिन दिल्ली " के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एन सी आर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को " स्लामिश लुक " से लगभग मुक्त कर दिया गया।
मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी " प्राडक्ट " बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब "स्किल्ड " हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं....उलटे मजदूरों के " पेशेवर " बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ..... सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि " पलायन थम गया " की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।
दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम २०० रूपए मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है। विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली " मायावी " भी है और उसकी " क्रूरता " का इतिहास भी पुराना है। यहाँ इनकी आबादी चालीस लाख के करीब है फिर भी " बिहारी" कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो " हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को " हिन्दू" कह कर चिढाया जाता .... गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।
पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है...जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिध्ह दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोद्नगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।
बे ढव जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं...उनकी आस अपनी अगली पीढी की सफलता पर टिकी है।
।
........ जारी है ....
दरअसल , पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एन जी ओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए " दाग " नहीं हैं बल्कि इनका " असिस्टिंग रोल " उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे....ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में " ल्यूटिन दिल्ली " के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एन सी आर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को " स्लामिश लुक " से लगभग मुक्त कर दिया गया।
मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी " प्राडक्ट " बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब "स्किल्ड " हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं....उलटे मजदूरों के " पेशेवर " बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ..... सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि " पलायन थम गया " की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।
दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम २०० रूपए मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है। विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली " मायावी " भी है और उसकी " क्रूरता " का इतिहास भी पुराना है। यहाँ इनकी आबादी चालीस लाख के करीब है फिर भी " बिहारी" कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो " हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को " हिन्दू" कह कर चिढाया जाता .... गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।
पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है...जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिध्ह दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोद्नगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।
बे ढव जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं...उनकी आस अपनी अगली पीढी की सफलता पर टिकी है।
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........ जारी है ....
2.7.10
पलायन --भाग 5
पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उनके राज्य में कृषि कार्य के लिए मजदूरों की कमी हो गयी है। इतना कहना था कि बिहार के सत्ताधारी नेताओं की बाछें खिल उठी। बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री ने दावा किया कि राज्य से खेतिहर मजदूरों का पलायन कम हो रहा है। बादल के बयान के एक दिन बाद यानि ५ मई को बिहार के प्रमुख हिन्दी अखबार में लीड खबर आई --- " बिहार से थमा पलायन "। बिहार के मुखिया ने तो इतना तक कह दिया कि राज्य के पुनर्निर्माण में इन मजदूरों का सहयोग मिल रहा है। बादल के बयान पर जिस अंदाज में नेताओं ने प्रतिक्रिया दी उसमे आपाधापी तो थी लेकिन उसका स्वर सहमा हुआ था।
बीते अगहन की ही बात है जब दरभंगा के हायाघाट इलाके से मजदूरों का एक जत्था पंजाब गया। लगभग दो महीने तक ये मजदूर फसल काटने की आस में वहाँ जमे रहे....लेकिन उन्हें काम नहीं मिला। साथ में जो जमा-पूंजी थी ..... खोरिस में चली गई। हताश....बेहाल ये मजदूर अपने गाँव लौट आये। आपको ये जान कर ताज्जुब होगा कि इन मजदूरों की आप-बीती उसी अखबार में प्रमुखता से छपी थी .......जिसने पलायन थम जाने की खबर दी। इन दोनों ख़बरों के बीच तीन महीने का फासला। तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि पलायन की समस्या हल होने के दावे होने लगे ? दरअसल , पलायन की चर्चा होते ही दावे किये जाते हैं लेकिन उसके पीछे की दृढ़ता का साहस कोई नहीं दिखा रहा। इस तरह का दावा तभी किया जाता है जब कहीं से कोई " फेवरेबल " बयान आ जाए। क्या बिहार सरकार के पास पलायन करने वाले मजदूरों का सही-सही आंकड़ा है ?
बादल को बिहार से होने वाले पलायन की कितनी समझ है ये कहना मुश्किल । हर सीजन में ... ये संभव है कि पंजाब के किसी इलाके में बिहारी मजदूर अधिक संख्या में पहुच जाते हैं तो दूसरे इलाके में इनकी संख्या कम पड़ जाती है। इनके पंजाब जाने का सिलसिला सालों से जारी है। इस दौरान नियमित पंजाब जाने वालों को दिल्ली में अवसर दिखा और इनकी अच्छी-खासी तादाद पंजाब की बजे दिल्ली में अटकने लगी। खेतिहर मजदूर...मजदूर बनते गए। पंजाब के किसानो की चिंता बढी। नतीजतन कृषि मजदूरों को लाने के लिए पगडीधारी सिख सीधे बिहार के गाँव पहुँचने लगे। ये सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब दिल्ली में बिहारियों की इतनी भीड़ नहीं हुई थी। बाद के समय में बिहार के अधिकाश गाँव में मजदूरों को पंजाब और अन्य जगह ले जाने वाले एक नए वर्ग का उदय हुआ जिन्हें " ठेकेदार" या " दलाल " कहा जाता है।
जब दिल्ली में भी अवसर " सेचुरेट " होने लगे तो इन मजदूरों ने गुजरात में ठौर ली। पंजाब और बम्बई की हिंसक वारदातों ने इस प्रक्रिया को गति दी है। अब पंजाब और दिल्ली का अधिकाँश " लोड " गुजरात उठाने लगी। इस राज्य में शहर-दर-शहर बिहारी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती है। नए अवसर की तलाश ने इन मजदूरों की प्राथमिकता यहीं तक सीमित नहीं रहने दी।
शुरू-शुरू में दक्षिन भारत में इनका जाना नहीं हो पाया। भाषा की समझ नहीं होना आड़े आया। लेकिन देश के इस हिस्से में भी इन मजदूरों ने पैठ बना ली है। हैदराबाद - विजयवाड़ा हाइवे पर पहाड़ की गोद में बसे रामोजी फिल्म सिटी में बिहारी मजदूर मिल जाएं तो आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए। आंध्र-प्रदेश के निर्माण उद्योग में इनकी अच्छी-खासी संख्या लगी है। कर्णाटक और केरल के प्लान्टेशन उद्योग में भी इनकी पहुँच बनी है। मजदूरों के ठेकेदार भाषा की समस्या से इन्हें निजात दिलाते। धीरे-धीरे बिहारी मजदूर तमिलनाडू में भी दस्तक दे रहे हैं।
.............जारी है..............
बीते अगहन की ही बात है जब दरभंगा के हायाघाट इलाके से मजदूरों का एक जत्था पंजाब गया। लगभग दो महीने तक ये मजदूर फसल काटने की आस में वहाँ जमे रहे....लेकिन उन्हें काम नहीं मिला। साथ में जो जमा-पूंजी थी ..... खोरिस में चली गई। हताश....बेहाल ये मजदूर अपने गाँव लौट आये। आपको ये जान कर ताज्जुब होगा कि इन मजदूरों की आप-बीती उसी अखबार में प्रमुखता से छपी थी .......जिसने पलायन थम जाने की खबर दी। इन दोनों ख़बरों के बीच तीन महीने का फासला। तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि पलायन की समस्या हल होने के दावे होने लगे ? दरअसल , पलायन की चर्चा होते ही दावे किये जाते हैं लेकिन उसके पीछे की दृढ़ता का साहस कोई नहीं दिखा रहा। इस तरह का दावा तभी किया जाता है जब कहीं से कोई " फेवरेबल " बयान आ जाए। क्या बिहार सरकार के पास पलायन करने वाले मजदूरों का सही-सही आंकड़ा है ?
बादल को बिहार से होने वाले पलायन की कितनी समझ है ये कहना मुश्किल । हर सीजन में ... ये संभव है कि पंजाब के किसी इलाके में बिहारी मजदूर अधिक संख्या में पहुच जाते हैं तो दूसरे इलाके में इनकी संख्या कम पड़ जाती है। इनके पंजाब जाने का सिलसिला सालों से जारी है। इस दौरान नियमित पंजाब जाने वालों को दिल्ली में अवसर दिखा और इनकी अच्छी-खासी तादाद पंजाब की बजे दिल्ली में अटकने लगी। खेतिहर मजदूर...मजदूर बनते गए। पंजाब के किसानो की चिंता बढी। नतीजतन कृषि मजदूरों को लाने के लिए पगडीधारी सिख सीधे बिहार के गाँव पहुँचने लगे। ये सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब दिल्ली में बिहारियों की इतनी भीड़ नहीं हुई थी। बाद के समय में बिहार के अधिकाश गाँव में मजदूरों को पंजाब और अन्य जगह ले जाने वाले एक नए वर्ग का उदय हुआ जिन्हें " ठेकेदार" या " दलाल " कहा जाता है।
जब दिल्ली में भी अवसर " सेचुरेट " होने लगे तो इन मजदूरों ने गुजरात में ठौर ली। पंजाब और बम्बई की हिंसक वारदातों ने इस प्रक्रिया को गति दी है। अब पंजाब और दिल्ली का अधिकाँश " लोड " गुजरात उठाने लगी। इस राज्य में शहर-दर-शहर बिहारी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती है। नए अवसर की तलाश ने इन मजदूरों की प्राथमिकता यहीं तक सीमित नहीं रहने दी।
शुरू-शुरू में दक्षिन भारत में इनका जाना नहीं हो पाया। भाषा की समझ नहीं होना आड़े आया। लेकिन देश के इस हिस्से में भी इन मजदूरों ने पैठ बना ली है। हैदराबाद - विजयवाड़ा हाइवे पर पहाड़ की गोद में बसे रामोजी फिल्म सिटी में बिहारी मजदूर मिल जाएं तो आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए। आंध्र-प्रदेश के निर्माण उद्योग में इनकी अच्छी-खासी संख्या लगी है। कर्णाटक और केरल के प्लान्टेशन उद्योग में भी इनकी पहुँच बनी है। मजदूरों के ठेकेदार भाषा की समस्या से इन्हें निजात दिलाते। धीरे-धीरे बिहारी मजदूर तमिलनाडू में भी दस्तक दे रहे हैं।
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3.6.10
सिलमासी.....
संजय मिश्र
धारिणी , जननी ... ये शब्द न जाने कब से हमारे कल्पनालोक में समाए होंगे ...... जीवन यात्रा के लिए उत्पादन की जरूरत शायद जब से महसूस हुई होगी। ये जान आप कौतुहल से भर उठेंगे की लातविया में भी --उत्पादन -- से जुडा त्योहार -- मिडसमर-- वहाँ के चिंतन प्रवाह को झक झोरता रहा है।
रात भर जगना....मदिरा में डूब जाना .... फूल तोडती तरूणी .... और पेड़ों की झुरमुट के पीछे विचरते पुरूष .... सूरज उगने का इंतज़ार करते .... पर सुबह की आहट भर से जलन महसूस करते। यही पहचान है ...२३ जून ... को मनाए जाने वाले सालाना जलसे की। लेकिन ये त्योहार -- टेलर डेज इन सिलमासी -- के बिना अधूरा माना जाता है।
- टेलर डेज इन सिलमासी - नाटक साल १९०२ में लिखा गया। सौ सालों में इसने लोकप्रिएता के सोपान गढ़े हैं। लातविया के रीगा शहर का नॅशनल थियेटर - सिलमासी - का पर्याय बन चुका है। कहते हैं बच्चे ही नहीं बड़ों के जेहन में भी -- परी कथा -- जैसी ललक रहती है। सिलमासी इसी ललक को पूरा करता है।
२३ जून की शाम -- लाईगो -- कहलाती है। बेकरारी के इस समय में ये नाटक लोगों को मसखरी, उदारता, पीड़ा और चाहत की दुनिया में ले जाता है। इसमें तीन जोड़ों के जटिल प्रेम संबंध की कहानी है। ख़ास बात ये कि नाटक की मुख्य पात्र खेतिहर महिला है।
लातविया जब सोवियत संघ का हिस्सा बना तो इस नाटक पर पाबंदी लग गई। लेकिन स्टालिन की मृत्यु के बाद इसका मंचन फिर शुरू हुआ.... इसकी कहानी लोगों की जुबान पर है... जिसमे है लातविया के जीवन दर्शन की झांकी ....मंचन का सिलसिला जारी है...
कृषि प्रधान भारत में वैसे तो खेती से जुड़े त्योहारों की भरमार है लेकिन कृषि चेतना का संचार करने वाले नाटक इनका हिस्सा नहीं बन पाए ..... किसानी त्रस्त है। सरकार की सोच ने इसे पस्त कर दिया। नक्सली आन्दोलन ने भी किसान की जगह आदिवासियों को दे दी है। - सहमत - वालों आपको नहीं लगता की भारत को भी कोई -- सिलमासी -- चाहिए।
धारिणी , जननी ... ये शब्द न जाने कब से हमारे कल्पनालोक में समाए होंगे ...... जीवन यात्रा के लिए उत्पादन की जरूरत शायद जब से महसूस हुई होगी। ये जान आप कौतुहल से भर उठेंगे की लातविया में भी --उत्पादन -- से जुडा त्योहार -- मिडसमर-- वहाँ के चिंतन प्रवाह को झक झोरता रहा है।
रात भर जगना....मदिरा में डूब जाना .... फूल तोडती तरूणी .... और पेड़ों की झुरमुट के पीछे विचरते पुरूष .... सूरज उगने का इंतज़ार करते .... पर सुबह की आहट भर से जलन महसूस करते। यही पहचान है ...२३ जून ... को मनाए जाने वाले सालाना जलसे की। लेकिन ये त्योहार -- टेलर डेज इन सिलमासी -- के बिना अधूरा माना जाता है।
- टेलर डेज इन सिलमासी - नाटक साल १९०२ में लिखा गया। सौ सालों में इसने लोकप्रिएता के सोपान गढ़े हैं। लातविया के रीगा शहर का नॅशनल थियेटर - सिलमासी - का पर्याय बन चुका है। कहते हैं बच्चे ही नहीं बड़ों के जेहन में भी -- परी कथा -- जैसी ललक रहती है। सिलमासी इसी ललक को पूरा करता है।
२३ जून की शाम -- लाईगो -- कहलाती है। बेकरारी के इस समय में ये नाटक लोगों को मसखरी, उदारता, पीड़ा और चाहत की दुनिया में ले जाता है। इसमें तीन जोड़ों के जटिल प्रेम संबंध की कहानी है। ख़ास बात ये कि नाटक की मुख्य पात्र खेतिहर महिला है।
लातविया जब सोवियत संघ का हिस्सा बना तो इस नाटक पर पाबंदी लग गई। लेकिन स्टालिन की मृत्यु के बाद इसका मंचन फिर शुरू हुआ.... इसकी कहानी लोगों की जुबान पर है... जिसमे है लातविया के जीवन दर्शन की झांकी ....मंचन का सिलसिला जारी है...
कृषि प्रधान भारत में वैसे तो खेती से जुड़े त्योहारों की भरमार है लेकिन कृषि चेतना का संचार करने वाले नाटक इनका हिस्सा नहीं बन पाए ..... किसानी त्रस्त है। सरकार की सोच ने इसे पस्त कर दिया। नक्सली आन्दोलन ने भी किसान की जगह आदिवासियों को दे दी है। - सहमत - वालों आपको नहीं लगता की भारत को भी कोई -- सिलमासी -- चाहिए।
15.4.10
पलायन का सच --- भाग ४
-------------संजय मिश्र -------------
ये उस समय की बात है जब " कालाहांडी " की मानवीय विपदा ने दुनिया भर में चिंतनशील मानस को झकझोर दिया। इस त्रासदी को "कवर " करने गए पत्रकार याद कर सकते हैं उन लम्हों को जब संवेदनशील लोगों का वहाँ जाना मक्का जाने के समान था। कुर्सी पर बैठे लोग भी तब हरकत में आये थे। वहाँ एक स्त्री इसलिए बेच दी गई थी ताकि उन पैसों से अपनों का पेट भरा जाता। उड़ीसा में भूख मिटा नहीं पाने की बेबसी आज भी है। हार कर लोगों ने पलायन का रूख किया है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई आदिवासी महिलाएं ब्याह के नाम पर हरियाणा में बेच दी जाती हैं। उड़ीसा की ही सीमा से लगे छतीसगढ़ की एक आदिवासी महिला को पिछले साल इसी तरीके से बेचा गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि छतीसगढ़ सरकार को हस्तक्षेप करना पडा।
बिहार के कई पत्रकार भी उस दौर में कालाहांडी हो आए थे। वे हैरान हैं कि बिहार से होने वाले पलायन पर राज्य के हुक्म रानो का दिल क्यों नहीं पसीजता ? कुछ महीने पहले लुधियाना में हुई पुलिस फायरिंग में कई बिहारी मजदूर मारे गए। कहीं कोई हलचल नहीं ....... सब कुछ रूटीन सा। मरनेवालों के परिजन यहाँ बिलखते रहे...नेताओं के बयान आते रहे। इन मजदूरों को पता है कि उनकी पीड़ा से राज-काज वाले बिदकते हैं। यही कारण है कि इनकी प्राथमिकता अपनी काया को ज़िंदा रखने की है ... चाहे कहीं भी जाकर कमाना पड़े। पेट की आग के सामने सामाजिक दुराग्रह- पूर्वाग्रह टूटते गए हैं।
पलायन पहिले भी होता था। मोरंग, धरान, और ढाका जैसी जगहों पर इनके जाने का वर्णन आपको मिल जाएगा। शुरूआती खेप में उन लोगों ने बाहर का रास्ता पकड़ा जो स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे और मझोले किसानों के मजदूर थे। इन्हें हम इतिहास में बंधुआ मजदूर कहते हैं। ये खेती-बाडी में किसान के सहयोग में दत्त-चित रहते। इनकी स्त्रियाँ किसान के घरों की महिलाओं की सहायता करती। बदले में किसान अपनी जमीन पर ही इन्हें घर बना देते और इनके गुजर-बसर की चिंता करते। इन मजदूरों को दूसरे किसान के खेत में काम करने की इजाजत नहीं होती। मुक्ति की कामना , सांस लेने लायक आर्थिक साधन जुटाने, अकाल, रौदी, और बाढ़ जैसी मुसीबतों के चलते वे गाँव त्यागने को मजबूर होते। बिहार के साहित्यिक स्रोतों में " कल्लर खाना " और " खैरात " जैसे शब्द इन कारणों पर बहुत कुछ बता जाते हैं।
बाद के समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी इनके साथ हो लिए। इनके साथ समस्या हुई कि किसानी से होने वाली आमदनी साल भर का सरंजाम जुटाने में नाकाफी होती। कष्ट के समय में बंधुआ मजदूरों को अपने किसान से जो आस रहती वो भूमिहीन मजदूरों को नसीब नहीं । आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास की हवा बही। इसमें गाँव को आर्थिक इकाई के रूप में देखने पर कोई विचार नहीं हुआ। नतीजतन स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। जातिगत पेशों से जुड़े लोगों पर इसका मारक असर हुआ। हर परिवार के कुछ सदस्य परदेस जाने लगे। प्राकृतिक मार से भी जिन्दगी तबाह हुई.... गृहस्थी चलानी मुश्किल। इस दौर में ब्राह्मण भी बाहर जाने लगे। पुरनियां ( पुर्णियां ) , कलकत्ता, और असम के चाय बागानों में इनकी उपस्थिति दर्ज हुई। फूल बेचने , पंडिताई करने, भनसिया ( खाना बनाने का काम ) बनने से ले कर हर तरह के अनस्किल्ड काम वे करने लगे ।
कलकत्ता, ढाका और असम जैसी जगहों पर इन्होने आधुनिक आर्थिक गतिविधियों के गुर सीखे। इसके अलावा एक वर्ग बाल मजदूरों का उभरा जो भदोही के कालीन उद्योग में भेजे जाने लगे। समय के साथ इस फेहरिस्त में कई जाति के बच्चे शामिल हो गए। वे अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने में संबल बने।
बिहार की सत्ता में लालू का आधिपत्य यहाँ के जन-जीवन में अनेक तरह के बदलाव लेकर आया। इसी दौर ने पलायन की पराकाष्ठा देखी। आम-जन से संवाद की देसज शैली के कारण लालू राजनीति में नए तेवर कायम करने में सफल हुए। लीक से हट कर सोसल इंजीनियरिंग को आजमाया। पिछड़ों के उभार में जबरदस्त कामयाबी मिली....और उनका डंका बजने लगा। लेकिन स्पष्ट ध्रुवीकरण ने गाँवों में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बटाईदारों को बटाई वाली जमीन दे देने की सरकारी प्रतिबद्धता से किसान भयभीत हुए। नतीजतन अधिकतर किसानो ने बटाई वापस ले ली। खेत " परती " जमीन में तब्दील होते गए। किसानी चौपट हो गई। आखिरकार बटाई से विमुख हुए खेतिहर मजदूर पलायन को बाध्य हुए। खेती के अभाव में किसानो की माली हालत खराब होती गई। कुछ साल संकोच में बीता । बाद में वे भी पलायन करने लगे।
लालू युग " किसान के मजदूर " बन जाने की गाथा ही नहीं कहता ....इसी समय ने " विकास नहीं करेंगे " की ठसक भी देखी। सरकारी उदासीनता के कारण एक-एक कर चीनी, जूट, और कागज़ की मिलें बंद होती गई। कामगार विकल हुए। ये उद्योग नकदी फसलों पर टिके थे । लिहाजा किसानो ने इन फसलों से मुंह फेर लिया। समय के साथ उद्योगों से जुड़े कामगारों और किसानों की अच्छी खासी तादात दिल्ली .... बम्बई जाने वालों की टोली में शामिल हो गई। निम्न मध्य वर्ग के अप्रत्याशित पलायन ने गाँव की उमंग छीन ली है। वहां बच्चे, बूढ़े, और महिलाएं तो हैं लेकिन खेत काबिल हाथों के लिए तरस रहा है।
पहले तीन फसल आसानी से हो जाता था । अब दुनिया दारी एक फसल पर आश्रित है। पलायन करने वालों ने भी सुना है कि बिहार का विकास हुआ है...और ये कि अगले पांच सालों में ये विकसित राज्य बन जाएगा। वे बस ...बिहुंस उठते हैं। वे जानते हैं कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव के समय उनसे गाँव लौट आने की आरजू की जाएगी। अभी तक ये आरजू अनसूनी की गई हैं । पलायन करने वालों को नेताओं का अनुदार चेहरा याद है। उजड़ने का दुःख ....संभलने की चुनौती ...और ठौर जमाने की जद्दोजहद को वे कहाँ भूलना चाहते ।
------------------जारी है................
ये उस समय की बात है जब " कालाहांडी " की मानवीय विपदा ने दुनिया भर में चिंतनशील मानस को झकझोर दिया। इस त्रासदी को "कवर " करने गए पत्रकार याद कर सकते हैं उन लम्हों को जब संवेदनशील लोगों का वहाँ जाना मक्का जाने के समान था। कुर्सी पर बैठे लोग भी तब हरकत में आये थे। वहाँ एक स्त्री इसलिए बेच दी गई थी ताकि उन पैसों से अपनों का पेट भरा जाता। उड़ीसा में भूख मिटा नहीं पाने की बेबसी आज भी है। हार कर लोगों ने पलायन का रूख किया है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई आदिवासी महिलाएं ब्याह के नाम पर हरियाणा में बेच दी जाती हैं। उड़ीसा की ही सीमा से लगे छतीसगढ़ की एक आदिवासी महिला को पिछले साल इसी तरीके से बेचा गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि छतीसगढ़ सरकार को हस्तक्षेप करना पडा।
बिहार के कई पत्रकार भी उस दौर में कालाहांडी हो आए थे। वे हैरान हैं कि बिहार से होने वाले पलायन पर राज्य के हुक्म रानो का दिल क्यों नहीं पसीजता ? कुछ महीने पहले लुधियाना में हुई पुलिस फायरिंग में कई बिहारी मजदूर मारे गए। कहीं कोई हलचल नहीं ....... सब कुछ रूटीन सा। मरनेवालों के परिजन यहाँ बिलखते रहे...नेताओं के बयान आते रहे। इन मजदूरों को पता है कि उनकी पीड़ा से राज-काज वाले बिदकते हैं। यही कारण है कि इनकी प्राथमिकता अपनी काया को ज़िंदा रखने की है ... चाहे कहीं भी जाकर कमाना पड़े। पेट की आग के सामने सामाजिक दुराग्रह- पूर्वाग्रह टूटते गए हैं।
पलायन पहिले भी होता था। मोरंग, धरान, और ढाका जैसी जगहों पर इनके जाने का वर्णन आपको मिल जाएगा। शुरूआती खेप में उन लोगों ने बाहर का रास्ता पकड़ा जो स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे और मझोले किसानों के मजदूर थे। इन्हें हम इतिहास में बंधुआ मजदूर कहते हैं। ये खेती-बाडी में किसान के सहयोग में दत्त-चित रहते। इनकी स्त्रियाँ किसान के घरों की महिलाओं की सहायता करती। बदले में किसान अपनी जमीन पर ही इन्हें घर बना देते और इनके गुजर-बसर की चिंता करते। इन मजदूरों को दूसरे किसान के खेत में काम करने की इजाजत नहीं होती। मुक्ति की कामना , सांस लेने लायक आर्थिक साधन जुटाने, अकाल, रौदी, और बाढ़ जैसी मुसीबतों के चलते वे गाँव त्यागने को मजबूर होते। बिहार के साहित्यिक स्रोतों में " कल्लर खाना " और " खैरात " जैसे शब्द इन कारणों पर बहुत कुछ बता जाते हैं।
बाद के समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी इनके साथ हो लिए। इनके साथ समस्या हुई कि किसानी से होने वाली आमदनी साल भर का सरंजाम जुटाने में नाकाफी होती। कष्ट के समय में बंधुआ मजदूरों को अपने किसान से जो आस रहती वो भूमिहीन मजदूरों को नसीब नहीं । आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास की हवा बही। इसमें गाँव को आर्थिक इकाई के रूप में देखने पर कोई विचार नहीं हुआ। नतीजतन स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। जातिगत पेशों से जुड़े लोगों पर इसका मारक असर हुआ। हर परिवार के कुछ सदस्य परदेस जाने लगे। प्राकृतिक मार से भी जिन्दगी तबाह हुई.... गृहस्थी चलानी मुश्किल। इस दौर में ब्राह्मण भी बाहर जाने लगे। पुरनियां ( पुर्णियां ) , कलकत्ता, और असम के चाय बागानों में इनकी उपस्थिति दर्ज हुई। फूल बेचने , पंडिताई करने, भनसिया ( खाना बनाने का काम ) बनने से ले कर हर तरह के अनस्किल्ड काम वे करने लगे ।
कलकत्ता, ढाका और असम जैसी जगहों पर इन्होने आधुनिक आर्थिक गतिविधियों के गुर सीखे। इसके अलावा एक वर्ग बाल मजदूरों का उभरा जो भदोही के कालीन उद्योग में भेजे जाने लगे। समय के साथ इस फेहरिस्त में कई जाति के बच्चे शामिल हो गए। वे अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने में संबल बने।
बिहार की सत्ता में लालू का आधिपत्य यहाँ के जन-जीवन में अनेक तरह के बदलाव लेकर आया। इसी दौर ने पलायन की पराकाष्ठा देखी। आम-जन से संवाद की देसज शैली के कारण लालू राजनीति में नए तेवर कायम करने में सफल हुए। लीक से हट कर सोसल इंजीनियरिंग को आजमाया। पिछड़ों के उभार में जबरदस्त कामयाबी मिली....और उनका डंका बजने लगा। लेकिन स्पष्ट ध्रुवीकरण ने गाँवों में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बटाईदारों को बटाई वाली जमीन दे देने की सरकारी प्रतिबद्धता से किसान भयभीत हुए। नतीजतन अधिकतर किसानो ने बटाई वापस ले ली। खेत " परती " जमीन में तब्दील होते गए। किसानी चौपट हो गई। आखिरकार बटाई से विमुख हुए खेतिहर मजदूर पलायन को बाध्य हुए। खेती के अभाव में किसानो की माली हालत खराब होती गई। कुछ साल संकोच में बीता । बाद में वे भी पलायन करने लगे।
लालू युग " किसान के मजदूर " बन जाने की गाथा ही नहीं कहता ....इसी समय ने " विकास नहीं करेंगे " की ठसक भी देखी। सरकारी उदासीनता के कारण एक-एक कर चीनी, जूट, और कागज़ की मिलें बंद होती गई। कामगार विकल हुए। ये उद्योग नकदी फसलों पर टिके थे । लिहाजा किसानो ने इन फसलों से मुंह फेर लिया। समय के साथ उद्योगों से जुड़े कामगारों और किसानों की अच्छी खासी तादात दिल्ली .... बम्बई जाने वालों की टोली में शामिल हो गई। निम्न मध्य वर्ग के अप्रत्याशित पलायन ने गाँव की उमंग छीन ली है। वहां बच्चे, बूढ़े, और महिलाएं तो हैं लेकिन खेत काबिल हाथों के लिए तरस रहा है।
पहले तीन फसल आसानी से हो जाता था । अब दुनिया दारी एक फसल पर आश्रित है। पलायन करने वालों ने भी सुना है कि बिहार का विकास हुआ है...और ये कि अगले पांच सालों में ये विकसित राज्य बन जाएगा। वे बस ...बिहुंस उठते हैं। वे जानते हैं कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव के समय उनसे गाँव लौट आने की आरजू की जाएगी। अभी तक ये आरजू अनसूनी की गई हैं । पलायन करने वालों को नेताओं का अनुदार चेहरा याद है। उजड़ने का दुःख ....संभलने की चुनौती ...और ठौर जमाने की जद्दोजहद को वे कहाँ भूलना चाहते ।
------------------जारी है................
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