life is celebration

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28.3.13

                मिथिला चित्रकला पार्ट- 5
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संजय मिश्र
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आपसे कहें कि जापान में आए सुनामी के कहर से मिथिला चित्रकला का कोई नाता है तो आप चौंके बिना नहीं रहेंगे। उस त्रासदी के समय इनसान कितना असहाय हो गया था। मिथिला चित्रकला में इससे जुड़े मार्मिक थीम को जगह दी गई। जीवन, प्रकृति और परम शक्ति के संबंधों को टटोलते ये नयनाभिराम चित्र मन को शांति देते हैं साथ ही जीवन के लिए लगाव भी पैदा करते। मधुबनी जाने वाले जापानी पर्यटक ऐसे चित्रों के मुरीद हैं।
किसी पेड़ के तने की छाल हटा उस पर बने मिथिला चित्र आपको नजर आए तो हैरान न हों। कभी आपको पीपल के पत्तों पर बने ऐसे ही चित्र की प्रदर्शनी भी देखनी पड़ जाए। बिहार का पर्यटन विभाग तो - रूरल टुअरिज्म – के तहत मिथिला चित्रकला की विरासत वाले गांवों को टुअरिस्ट डेस्टीनेशन में शामिल कर रहा है। जब थीम और गतिविधियां सारे कपाट खोलने पर उतारू हों तो सहज ही सवाल उठता कि मिथिला चित्रकला की मौलिक समझ से कोई समझौता तो नहीं हो रहा ? और क्या इस समझ में रूचि जगाने के लिए शिक्षण की व्यवस्था भी हुई है या नहीं ?    
पहली दफा दरभंगा आए हों तो जगह-जगह टंगे मिथिला चित्रकला सिखाने के निजी संस्थानों के साईन-बोर्ड देख आपमें आस जग जाएगी.... कि मिथिला स्कूल आफ पेंटिंग के मूल वैभव को बचाने की भूख है इस नगरी में। पर गर्व की उष्मा से भरे मिथिलावासियों का ध्यान इस ओर नहीं है कि जिस पैमाने पर थीम में फ्यूजन हो रहा वो इसके लोक स्वरूप को ओझल न कर दे। उन्हें ये अहसास कहां कि अधिकांश संस्थानों में सीखने वाले की कौन कहे.. सिखाने वाले कलाकारों को मिथिला चित्रकला के संकेतों और प्रतीकों की पूरी समझ नहीं।
करीब दो पीढ़ी पहले तक यहां के गावों की ललनाएं जब भीत की दिवारों पर मोर, बांस या केले के पेड़ को लिखती थी तो बरबस मुस्कुराती... और लजाकर सुर्ख लाल हो जाती। कभी कभी तो लोक संगीत के बोल भी फूट पड़ते। असल में उन्हें मालूम होता था कि मोर प्रणयलीला को दर्शाता जबकि बांस उर्वरता का प्रतीक है। सहज भाव से उसका मन उसमें भींग रहा होता... वो महसूस करती कि कचनी के बिना उसका लिखना सार्थक नहीं। आज की पीढ़ी चित्र को उकेरना सीखती है... उसके लिए ये परंपरा नहीं है। वो जब सीख लेगी तो कलाकार कहलाएगी।
कला मर्मज्ञ उपेन्द्र महारथी इन खतरों को समझते थे। लिहाजा उन्होंने बिहार ललित कला अकादमी के तहत संस्थागत तरीके से इसके ट्रेनिंग की व्यवस्था की। पर ये बड़ा स्वरूप नहीं ले पाया। साल १९८५ में दरभंगा के संस्कृत विश्वविद्यालय ने युनेस्को के सहयोग से मिथिला चित्र के विभिन्न शैलियों के प्रशिक्षण पर काम शुरू किया। फिलहाल ये विश्वविद्यालय एक साल का डिप्लोमा कोर्स चला रहा है। दरभंगा स्थित कला महाविद्यालय में भी मिथिला चित्रकला सिखाई जाती है। इतना ही नहीं भारती विकास मंच की ओर से मिथिला चित्रकला के कोर्स के लिए किताबों की श्रृंखला प्रकाशित की जा रही है। पर ये प्रयास नाकाफी हैं।
उधर, बिहार सरकार ने घोषणा कर रखी है कि मधुबनी में विश्व-स्तरीय मिथिला पेंटिंग संस्थान खोला जाएगा। इसका चरित्र डीम्ड यूनिवर्सिटी जैसा होगा। फरवरी  2 0 1 3 में मुख्य-मंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार पवन वर्मा ने सौराठ गांव में इसके लिए अधिगृहित की गई जमीन का मुआयना भी किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये संस्थान जल्द अस्तित्व में आए ताकि सिद्धहस्त कलाकार तैयार हो सकें। इससे उन गांवों में भी इस कला का प्रसार होगा जहां से ये लोक कौशल विलुप्त हो गया है।  

4.3.13

हिन्दू मानस और हिन्दुत्व के अंतर्विरोध

हिन्दू मानस और हिन्दुत्व के अंतर्विरोध
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संजय मिश्र
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... वो एक सांप है, एक बिछुआ है... ऐसे गंदे आदमी.... ये उद्गार हैं कांग्रेस के श्रेष्ठ बदजुबान नेताओं में शुमार मणिशंकर अय्यर के। अपने रौ में वे कई अमर्यादित बातें कह गए। उन बातों में न जाकर महज जिस अंदाज में कांग्रेसी नेता ने बाइट दी वो कांग्रेस के तीन चिर-परिचित पहचान की झांकी दिखलाती है। घमंड, अंग्रेजों की तरह सोचना कि इस देश को सिर्फ वो चला सकती और मुसलमानपरस्ती। कांग्रेस के अधिकांश नेता एलीटिस्ट हैं... राजा-महाराजा की तरह सोचते हैं। जब वे प्रजातंत्र और गरीबों की बात करते तो भान होता कि इन शब्दों पर उपकार किया जा रहा है। अब ऐसी मनोवृति को बीजेपी राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में नरेन्द्र मोदी - पसीने-की याद दिला रहे थे।

कसमसाहट स्वाभाविक है... आपको स्मरण हो आया हो कि ये वही अय्यर हैं जिन्होंने विपक्षी सांसदों को जानवर तक कह दिया था। बीजेपी की बैठक में इसी कांग्रेसी मिजाज से देश को मुक्त करने का संकल्प जताया गया, विचारधारा की बातें हुई साथ ही भारत को महान बनाने का सपना दिखाया गया। इसकी खातिर आडवाणी ने - पार्टी विद अ डिफरेंस- पर बल दिया। बैठक के दौरान ही ठेलकर अभिभावक बनाए गए आडवाणी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जीरो टालरेंस की नीति पर चलने को कहा। वहां मौजूद अन्य नेताओं की तरह उन्होंने भी विवेकानंद को करीने से कोट करते बीजेपी के हिन्दुत्व के तत्व खोजने की कोशिश की।

वेदांत मनीषी विवेकानंद का हवाला देते हुए आडवाणी ने भारत माता का जिक्र किया। विवेकानंद ने जिस अर्थ में इस शब्द का इस्तेमाल किया हो वो अलग मसला है पर वैदिक सोच में भारत माता की कल्पना नहीं है... वहां तो विश्व के सार्वजनीन हित की कामना है। बावजूद इसके बीजेपी भारत माता की जय के बगैर कोई कर्मकांड पूरा नहीं करती। तो क्या बीजेपी का हिन्दुत्व और भारत की हिन्दुइज्म ( हिन्दुवाद) अलग- अलग चीजें हैं। ये सवाल इसलिए भी उठता है कि इस पार्टी ने कभी ये स्पष्ट नहीं किया कि भारत को सबल बनाने की खातिर भारत माता की बात तात्कालिक पड़ाव है ... विशद लक्ष्य तो पृथ्वी माता ( विश्व कल्याण) ही है। आडवाणी ने ५० साल के लिए भारत माता की चिंता करने की विवेकानंद की अकुलाहट की चर्चा जरूर की पर ये नहीं कहा कि बीजेपी ऐसा कब तक करेगी।

बहुत पहले की बात है... पश्चिम के ताकतवर मुस्लिम साम्राज्य के शासक के दरबार में भारत के लोगों की उनके पिछड़े और दब्बू होने के कारण खिल्ली उड़ाई जाती थी... उन्हें हिकारत से देखा जाता और अपमान के मकसद से हिन्दू- हिन्दू कहकर हूट किया जाता... उनके लिए हिन्दू माने गुलाम... भारत के लोगों के लिए ... माना जाता है कि हिन्दू शब्द का इस्तेमाल इसके बाद ही चलन में आया। बावजूद इसके बीजेपी हिन्दू शब्द से लगाव रखती है। राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी पार्टी नेता आदत के अनुरूप हिन्दुस्तान की जगह हिन्दुस्थान शब्द का इस्तेमाल करते रहे... खासकर वो नेता जो आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले हैं। दरअसल आरएसएस की चाहत इतिहास के उन लम्हों को साकार करना लगता है जो हिन्दू जीवन-शैली की खूबी रही। इतिहास के पन्नें उलटाएं तो देखेंगे कि जितने भी विदेशी हमलावर भारत आए बाद में वे यहीं की जीवन-शैली में रच-बस गए।

मोटे तौर पर मुसलमान ऐसा नहीं कर पाए। वे अपने धर्म से प्रतिबद्धता रखते और
 .... भूराप्योवोम भूतात्मा समह शांति करोअरिहा....  जैसे भाव को ग्रहण करने में रूचि नहीं दिखाते। इस श्लोक का अर्थ है---
पृथ्वी, जल, आकाश तथा अन्य भूत जिन विराट रूप धारी प्रभु के अंग हैं, जो सर्वत्र सम भाव से रहते और समता रखते हैं, जो शांति का विस्तार करने वाले हैं....
यानि मुसलमानों का पूरा - एसीमिलेशन- संभव नहीं दिखता बीजेपी को। यही कारण है कि ये पार्टी चाहती है कि मुसलमान और क्रिस्टीयन को कम से कम हिन्दू शब्द की परिधि में अंगीकार कर लिया जाए। इसलिए वे दलील देते कि जो भी हिन्दुस्थान में जन्मा वो हिन्दू कहलाया। हिन्दू धर्म के लोग हिन्दुत्व की इस अवधारणा से कितने सहमत हुए हैं कहना मुश्किल है। लेकिन ऐसे हिन्दू भी हैं जो बीजेपी की इस कोशिश को नाकाफी और नकारात्मक मान कर निराश भी होते हैं।

यहां ये सवाल अर्थपूर्ण है कि क्या बीजेपी ने अपने हिन्दुत्व के विचारों को हिन्दू समाज से साझा किया है या फिर उसे समझाया है? क्योकि आम धारणा बन गई है कि हिन्दुत्व माने हिन्दुवाद। हिन्दुत्व पर प्रहार के उद्वेग में कांग्रेस इसी तरह की धारणा को पुष्ट करती रहती है। कांग्रेस बड़बोलापन दिखा कह सकती है कि मुसलमानों को आरक्षण देकर वो - एसीमिलेशन- का ठोस आधार तैयार कर रही। वो कह सकती है कि इस तरीके से मुसलमान हिन्दू समाज की एक जाति के तौर पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। पर बौखलाई कांग्रेस का ध्यान इस पर नहीं है लिहाजा इसे भुना नहीं रही। वो मुसलमानों के वोट के लिए इतनी व्याकुल है कि बीजेपी को गरियाने के चक्कर में हिन्दुओं का अपमान कर बैठती है। उसे ये भी याद नहीं रहता कि आतंकवाद के साथ वो जिस केसरिया शब्द का उपयोग करती वो रंग राष्ट्रीय झंडे में भी है।

एक आध वाकये को छोड़ दें तो ऐसे आरोपों पर बीजेपी की प्रतिक्रिया रूटीन ही होती। वो इस बात पर राहत महसूस करती कि इससे हिन्दू कांग्रेस से नाराज रहेंगे और बीजेपी का वोट बैंक छिजन का शिकार नहीं होगा। आडवाणी ने राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अकारण नहीं कहा कि कांग्रेस ने बीजेपी के लिए बहुत कुछ कर रखा है। कांग्रेस के सेक्यूलरिज्म को बीजेपी श्यूडो सेक्यूलरिज्म कहती। वो ये भी चाहती कि सेक्यूलरिज्म पर देशव्यापी विमर्श हो। पर इसके लिए वो पहल नहीं करती। बीजेपी धारा ३७० की भी बात करती है पर कश्मीरी पंडितों की एथनिक क्लिनजिंग पर इसने कभी कोई आंदोलन नहीं किया।

उसे इस बात का मलाल है कि मनमोहन सिंह ने कह दिया कि देश की संपदा पर पहला हक मुसलमानों का है। जाहिर है इस देश की हवा, पानी, खनिज, जंगल.... सभी कुछ मुसलमानों का अपना है। लिहाजा इस देश में लिखा गया वेद और गौरवमयी भाषा संस्कृत भी मुसलमानों की अपनी संपदा है। क्या इन पहलुओं पर बीजेपी और मुसलमानों के बीच कनेक्टिविटी विकसित हो पाई है? नरेन्द्र मोदी ने मौके पर कहा कि देश सत्ता परिवर्तन के लिए बेचैन है। लिहाजा बीजेपी को जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। वो हूंकार भरते हैं कि भारत को महाशक्ति बनाने के लिए अथक श्रम के साथ जनता त्याग की अपेक्षा करेगी।

बकौल आडवाणी विवेकानंद ने कहा था कि देश के पुनर्निर्माण के लिए ५० सालों तक देवी-देवताओं को सोने दिया जाए। क्या बीजेपी भरोसा दे सकती कि देश के पुनर्निर्माण के लिए अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद अन्य विवादित धार्मिक स्थलों को छेड़ा नहीं जाएगा। समान नागरिक संहिता जैसे संविधानिक मसलों पर वो लाचार की तरह पेश आती है। इसी तरह घुसपैठ का मामला है। कांग्रेस के विचारों से नजदीकी रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा भी कहते हैं कि बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला गंभीर है और बीजेपी को इस पर देश में आम राय बनाने की पहल करनी चाहिए।

आजादी के समय में जितनी विचारधाराएं उभरी उसने देश के नीति निर्धारण में अपनी मजबूत जगह बनाई। लेकिन दक्षिणपंथ अभी तक वो मुकाम हासिल नहीं कर पाया है। देश बीजेपी को इस नजरिये से भी देखता है कि ये पार्टी उस जगह को मजबूती से भरे। लेकिन बीजेपी दक्षिणपंथ और मध्यमार्ग के बीच फ्लिप-फ्लाप करती रहती है जहां कांग्रेस उसे धकिया देती है। क्या बीजेपी कभी सी आर दास और राजेन्द्र प्रसाद सरीखे नेताओं के विचारों को संबल बनाएगी? मौजूदा समय में कांग्रेस भव्यता के भ्रम में जी रही है। इससे पार पाने लायक आत्मविश्वास क्या बीजेपी जुटा पाएगी? क्या इसी कमी को पूरा करने के लिए - नमो..नमो- का समूह गान हो रहा है? 

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